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दर्शन युग का जैन न्याय दर्शन की मीमामा ईसा पूर्व आठवी शताब्दी मे प्रारम्भ हो चुकी थी। ईसा की पहली शताब्दी तक उसमें योगीजान या प्रत्यक्ष ज्ञान प्रमुख था और तर्क गौण । उसके बाद दर्शन के क्षेत्र मे प्रमाण भीमासा या न्याय-शास्त्र का विकास हुआ । दर्शन मे प्रमाण का महत्वपूर्ण स्थान है, इसलिए प्रमाण के द्वारा समर्थित दर्शन युग का प्रारम्भ ईसा की दूसरी शताब्दी से होता है। इस युग मे प्रमाणशास्त्र या न्याय-शास्त्र का दर्शनशास्त्र के साथ गठबंधन हो गया।
प्रो० जेकोबी के अनुसार ई० 200-450, प्रो० ध्रुव के अनुसार ईसा पूर्व की शताब्दी मे गौतम ऋपि ने न्यायसूत्र की रचना की। ईस) की पहली राती मे कणाद ऋषि ने वैशेषिकसूत्र की रचना की। ईसा की चौथी शती मे बादरायण ने ब्रह्मसूत्र की रचना की। ई० पू० 6-7 वी शती मे कपिलमुनि ने साख्यसूत्र का प्रणयन किया। ईसा की दूसरी से चौथी शती के बीच ईश्वरकृष्ण ने साख्यकारिका की रचना की।
न्यायशास्त्र के विकास मे वौद्धो और नैयायिको ने पहल की। बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन (ई० 300) ने गौतम के 'न्यायसूत्र' की आलोचना की। वात्स्यायन (ई० 400) ने 'न्यायमूत्र भाष्य' से उस पालोचना का उत्तर दिया । बौद्ध श्राचार्य दिड नाग (ई० 500) ने वात्स्यायन के विचारों की समीक्षा की। उद्योतकर (ई० 600) ने 'न्यायवातिक' मे उनका उत्तर दिया । वौद्ध आचार्य धर्मकीति (ई० 700) ने 'न्यायविन्दु' मे उद्योतकर की समीक्षा की प्रत्यालोचना की । वाद आचार्य धर्मोत्तर (ई० 8-9 शती) ने 'न्यायविन्दु' की टीका मे दिना। और धर्मकीति के अभ्युपगमी की पुष्टि की। वाचस्पति मिश्र (ई० 800) ने 'न्यायपातिक की तात्पर्य टीका' मे बौद्धो के आक्षेपो का निरसन कर उद्योतकर के अभ्युपगमो का समर्थन किया।
ईसा की तीसरी शताब्दी से आठवी शताब्दी तक बौद्धो और नैयायिको मे खडन-मडन का तीव्र संघर्ष चला। इस सघर्ष मे न्यायशास्त्र के नये युग का सूत्रपात हुआ।
जहा दर्शनी का परस्पर संघर्ष होता है, सब दार्शनिक अपने-अपने अभ्युपगमा की स्थापना और दूसरो के अभ्युपगमो का निरसन करते हैं वही आगम का गौ।