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( 64 ) होने वाले नयो को भी सापेक्ष मानता है । इसलिए वह सत्कार्यवाद और अमत्कार्यवाद दोनो को सापेक्षसत्य मानता है । इन दोनो मे प्रतीत होने वाले विरोध का वह सापेक्षता के प्राचार ५२ परिहार करता है। अन्वयी धर्म की अपेक्षा से सत्कार्यवाद वास्तविकता है और व्यतिरेकी धर्म की अपेक्षा से असत्कार्यवाद वास्तविकता है। दोनो वास्तविकताओ के दो आधार है और वे दोनो सापेक्ष हैं एक ही द्रव्य के अंग है, अपनी-अपनी मर्यादात्रो मे रहते हैं, इसलिए वे विरोधी नही हैं । નવ વોનો તથ્ય વિરોધી નહી હૈ તવ ન ચાધાર પર હોને વાના વિકલ્પ વિરોધી कसे हो सकता है ? जहा विरोध की श्राराका हो वहा इस अपेक्षा को ध्यान मे लेना आवश्यक है कि यह विचार अन्वयी धर्माश्रित है और यह विचार व्यतिरेकी धर्माश्रित है। इस ष्टिकोण से देखने ५० विरोव की प्रतीति सहज ही निरस्त हो जाती है।
2 सास्य कूटस्यनित्यवादी है और बौद्ध क्षणिकवादी है। इस आधार पर द्र०यायिक और पर्यायायिक नयो की योजना नहीं की गई। किन्तु द्रव्य ध्रीन्य और उत्पाद-व्यय की समन्विति है-प्रोन्य से उत्पाद-व्यय और उत्पाद-०यय से ध्रौव्य स्वतत्ररू५ मे कही भी प्राप्त नही होता, इस आधार पर द्रव्यायिक और पर्यायायिक नयो की योजना हुई है। वे इस तथ्य के वोधक हैं कि द्रव्य का ध्रौव्य अश नित्य है अपरिवर्तनशील है और उसका उत्पाद-व्यय अा अनित्य है परिवर्तनशील है। नयो के आधार पर द्रव्य की नित्यता और अनित्यता की स्थापना नही है किन्तु द्रव्य मे उपलब्ध नित्यत्व और अनित्यत्व धर्मों के आधार पर नयो की योजना की
3 अभेद और भेद द्रव्य के स्वगत धर्म है। द्रव्याथिक नय अभेद का वोचक है और पर्यायाथिक नय भेद का । द्र०य का जो सश-परिणाम-प्रवाहरू५-भेद एक शब्द का वाच्य बनकर व्यवहार्य होता है, वह द्रव्य का व्यजन-पर्याय है। जो भेद अतिम होने के कारण अविभाज्य या अविभाज्य जैसा प्रतीत होता है, वह द्रव्य का अर्थ-पर्याय है । द्रव्य व्यक्ति५ मे एक और अखड होता है। अपने अर्थ-पर्यायो और व्यजन-पर्यायो से खडित होकर वह अनेक या अनन्त हो जाता है। एक पुरुष जन्म मे मृत्यु पर्यन्त 'पुरुष' शब्द के द्वारा ही पाच्य होता है। व्यजन-पर्याय की अपेक्षा से उम पुरुप मे द्रष्टा को सदा पुरुष की ही प्रतीति होती है। यह द्रव्य का अभेद है । उस पुरु५ मे बाल, योवन आदि अनेक भेद होते हैं । वाल्य अवस्था भी विभाज्य होती है, जैसे दूधमु हा बच्चा, तीन वर्ष का वच्चा श्रादि-श्रादि ।
इस प्रकार व्यजन-पर्याय अभेद और भेद अर्थात् एकता और अनेकता - दोनो को प्रस्थापित करता है ।