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( 63 ) 1 एक नेय का अभिप्राय दूसरे नय से भिन्न ही नही किन्तु विरोधी भी है। इस स्थिति मे हम किसे सत्य माने ? एक को सत्य मानने पर दूसरे को असत्य मानना ही होगा। दोनो विरोधी मतो को सत्य माना नही जा सकता। क्या सत्य भी नयो के आधार ५२ वटा हुआ है ?
1 द्रव्य सामान्य-विशेषात्मक होता है। उसका अन्वयी धर्म सामान्य और व्यतिरेकी धर्म विशेष कहलाता है । अन्वयी धर्म व्यतिरेकी धर्म से और व्यतिरेकी ધર્મ પ્રયી ધર્મ કે સર્વથા મિન્ન નહી હોતા ! ફતા દ્રવ્ય અન્વથી બૌર વ્યતિરે धर्मों की स्वाभाविक समन्विति है। अन्वयी धर्म ध्रुव होता है और व्यतिरेकी धर्म उत्पन एव नष्ट होता रहता है । प्रतिक्षण व्यतिकी धर्म उत्पन्न होता है। वह अपने से पूर्ववर्ती व्यतिरेकी धर्म का ध्वम होने पर ही उत्पन्न होता है। इसलिए पूर्ववर्ती व्यतिरेकी धर्म कारण और उत्पन्न होने वाला व्यतिरेकी धर्म कार्य कहलाता है । अन्वयी धर्म भी उसका कारण होता है । सहकारी सामग्री भी कार्य की उत्पत्ति मे निमित्त बनती है । यह वस्तु-स्थिति का निरूपण है। मनुष्य का समूचा चिन्तन या सत्य-बीच उक्त दो धर्मो (सामान्य और विशेष या अभेद और भेद या ध्रौव्य और पर्याय) के श्राधार पर होता है । नगमानय सामान्याश्रित अभिप्राय है, इसलिए वह कारण मे कार्य का सद्भाव स्वीकार करता है अर्थात् वह सत्कार्यवाद को स्वीकृति देता है । अन्षयी धर्म के आधार पर इससे भिन्न चिन्तन नही हो सकता। अन्वयी धर्म जैसे द्रव्य की वास्तविकता है, वैसे ही व्यतिरेकी धर्म भी उसकी वास्तविकता है । ऋजुसूत्रनय विशेषाश्रित अभिप्राय है, इसलिए वह कार्य-कारणभाव को स्वीकार नहीं करता अर्थात् वह असत्कार्यवाद को स्वीकृति देता है । एक नय सत्कार्यवाद को स्वीकृति देता है और दूसरा असत्कार्यवाद को। यह उनकी स्वच्छन्द कल्पना नही है । वस्तु-जगत् मे ऐसा घटित होता है, इसीलिए ये दोनो वस्तु-आश्रित विकल्प है । अन्वयी धर्म भी वस्तु-आश्रित है और व्यतिरेकी धर्म भी वस्तु-आश्रित है । अन्वयी धर्म शावत और व्यजन-पर्याय दीर्घकालीन होता है, इसलिए उनमे कार्य-कारणभाव घटित होता है । अर्थ-पर्याय क्षणवर्ती है, इसलिए उसमे कार्यकारभाव परित नहीं होता। ये दोनो विकल्प दो भिन्न तथ्यो ५९ श्राधृत हैं और दोनो वास्तविकताए हैं । इसीलिए उन दोनो (वास्तविकताओ। को दो नय भिन्नभिन्न रूप मे (जिसमे जैसा घटित है उसी रूप मे) जानते और प्रतिपादित करते हैं । न4 ज्ञानात्मक हैं । उनका काम जय का निर्माण करना नहीं किन्तु ज्ञेय को ययार्थरू५ मे जानना और निरूपित करना है । सत्य नयो के आधार पर विभth नहीं है किन्तु नय वास्तविकता के आधार पर विभक्त है। निरपेक्ष नयवादी दर्शन या तो सामान्याश्रित विकल्प को सत्य मानते हैं या विशेषाश्रित विकल्प को सत्य मानते हैं । इसलिए कुछ दर्शन केवल सत्कार्यवादी हैं और कुछ केवल असत्कार्यवादी । जैन-दर्शन अवयी और व्यतिरेकी धर्मों को सापेक्षता के आधार पर उनसे फलित