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( 52 ) अभेद-प्रधान दृष्टिकोण मे धर्म गौण और धर्मा मुख्य होता है। भेद-प्रधान दृष्टिकोण मे धर्म मुख्य और धर्मी गौण होता है ।
द्रव्य मे पर्यायो का चक्र चलता रहता है। वर्तमान क्षण मे होने वाले पर्याय सत् होते हैं । भूत और भावी पर्याय असत् होते हैं। सत् पर्याय वस्तुस्पर्शी होता है और असत् पर्याय ज्ञाननि होता है। जो पर्याय बीत चुका वह वस्तु मे नहीं रहता, पर हमारे ज्ञान मे रहता है । हमारे मस्तिष्क मे किसी वस्तु के निमणि की कल्पना उत्पन्न होती है और हम उसका काल्पनिक चित्र बना लेते है । वस्तु-जगत् मे उसका अस्तित्व नही होता किन्तु हमारे ज्ञान मे वह अवस्थित हो जाता है। सभी भूत और भावी पर्याय हमारे ज्ञान मे ही होते हैं । सकल्प एक सचाई है, इसलिए उसके आधार पर उत्पन्न होने वाले अव्यवसाय हमारे व्यवहार का संचालन करते हैं । नैगमनय सकल्प की सचाई को भी स्वीकार करता है ।
कार्य-कारण, आचार-आधेय आदि की दृष्टि से होने वाले उपचारो की प्रामाणिकता भी इसी न4 के आधार पर सिद्ध की जाती है । __ 1 कार्य मे कारण का उपचार
'एक वर्ष का पौधा' इसमे पौधे का परिमन कार्य है । एक वर्ष का काल उसका कारण हे । कार्य मे कारण का उपचार कर पौधे को एक वर्ष का कही जाता है।
__2 कारण मे कार्य का उपचार
हिसा दुख है । हिंसा दु ख का कारण है । कारण मे कार्य का उपचार कर हिंसा को ही दुख कहा जाता है।
3 आधार मे आय का उपचार
वास्तव मे जीव ही मोक्ष होता है। वे मुक्त जीव जिस लोकान मे रहते है, उपचार से उसे भी मोक्ष कहा जाता है।
4 श्राधेय में आधार का उपचार
मचान पर बैठे लोग चिल्लाते हैं। उपचार से कहा जाता है मचान चिल्लाता है।
धर्म और धर्मी तथा अवयव और अवयवी मे सर्वया भेद करने वाला टिकोण प्रस्तुत नय को मान्य नहीं है, इसलिए उसे नगमामास कहा जाता है । वैशेषिक धर्म और धर्मी मे सर्वथा भेद मानते हैं, इसलिए उनका यह विचार नगमाभास के उदाहरण के रूप मे प्रस्तुत किया गया है।