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नयवाद के आधार पर द्रव्य के किसी भी गुण पर आधारित विचार का समर्थन किया जा सकता है । समन्वय इस नयवाद की देन है, इसलिए यह भ्रम नही होना चाहिए कि नयवाद विभिन्न दर्शनों के विचार-सकलन का प्रतिफलन है ।
સામનય
द्रव्य अनन्त धर्मात्मक है किन्तु सर्वात्मक नही है । जीव द्रव्य मे भी अनन्त धर्म है और जीव द्रव्य मे भी अनन्त धर्म हैं । जीव और प्रजीव मे अत्यन्ताभाव है -- जीव कभी अजीव नही होता और अजीव कभी जीव नही होता । इस अत्यन्ताभाव का हेतु उनके स्वरूप का वैशिष्ट्य हैं । जीव मे चैतन्य नाम का विशिष्ट गुरण है | वह जीव मे नही है । अजीव द्रव्य के पाच प्रकार हैं
( 1 ) धर्मास्तिकाय गति गुरण ।
(2) अधर्मास्तिकाय स्थिति गुरण ।
(3) श्राकाशास्तिकाय -- अवकाश गुरण |
(4) पुद्गल वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श गुण । (5) काल वर्तना गुरण |
गुरणो के आधार पर उनकी भिन्नता
अजीव के ये विशिष्ट गुरण जीव से नहीं । इन विशिष्ट गुरणो के श्राधार पर जीव और अजीव का विभाग होता है । सामान्य गुणो के आधार पर जीव और अजीव की एकता स्थापित होती है और विशेष स्थापित होती है । द्रव्य निस्वभाव नही है उसका द्रव्यत्व बाहरी सबवो और देश-काल की अपेक्षाओं से प्रस्थापित नही है । प्रत्येक द्रव्य का अपना मौलिक स्वरूप है, अपना वैशिष्ट्य है । सवध और अपेक्षा से फलित होने वाले गुरण उसे उपलब्ध होते हैं, पर वे उसके स्वरूप के निर्णायक नहीं होते ।
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द्रव्य मे धर्म होते हैं इसलिए उसे धर्मी कहा जाता है ।
शोक
होते हैं गुण और पर्याय । गुण सहभावी धर्म होते हैं और चैतन्य जीव का सहभावी धर्म है । सुख, दुख, हर्ष और धर्म हैं । धर्म और धर्मी सर्वथा भिन्न नही है और सर्वथा मे ही होते हैं -- इस आधार और प्राधेयभाव के कारण वे एक और धर्म अनेक इस दृष्टिकोण से वे सर्वथा भिन्न नही हैं । उनमे प्रभेद और भेद दोनो समन्वित हैं । इस समन्वय के आधार पर दो श्रध्यवसाय निर्मित होते हैं
श्र
धर्म दो प्रकार के पर्याय क्रमभावी ।
ये उसके क्रमभावी
भिन्न
नही है । धर्म धर्मी
सर्वथा भिन्न नही हैं । धर्मी
1 जीव है यह अभेद-प्रधान श्रध्यवसाय है। इसमे 'ज्ञान' धर्म 'जीव' धर्मी से भिन्न विवक्षित नही है ।
2 ज्ञानवान् जीव है यह भेद-प्रधान अध्यवसाय है । इसमे 'ज्ञान' धर्म 'जीव' धर्मी से भिन्न विवक्षित है ।