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( 60 ) विशेषणो से विशेपित होता है । जैसे-नाम मनुप्य, स्थापना मनुप्य, द्रव्य मनुष्य, भाव मनुप्य।
निक्षेप की पति आगमयुग मे ही विकसित हो चुकी थी । दर्शनयुग और प्रमाण-यवस्था युग में भी उनका उपयोग सतत होता रहा। अनेकार्थक शब्द के विवक्षित अर्थ का निर्णय-विधि अलका शास्त्र मे वति है, किन्तु एकार्यकाल के विवक्षित अर्य की निर्णय-विधि केवल जैन श्रामो के व्याच्या प्रन्यो मे ही उपलब्ध होती है । यह केवल तर्कशास्त्र के लिए ही उपयोगी नहीं है, किन्तु प्रत्येक शास्त्र के विवक्षित अर्थ को जानने के लिए इसकी विश्लेषण पति बहुत मूल्यपान है।
हमार जान और व्यवहार का क्रमिक विकास इस प्रकार होता है मर्वप्रथम हम प्रमाण के द्वारा अखड वस्तु का बोध करने है । तत् पश्चात् नय के द्वारा उसके खड-खड का वोध करते है । पहले जान सलेपणात्मक होता है फिर विश्लेषणात्मक | जव प्रमाण और न4 के द्वारा पदार्थ नात हो जाता है तब उसका नामकरण किया जाता है। जैसे- जल धारण करने तथा विशिष्ट आकार वाले पदार्थ का घर नामकरण किया । घट पदार्य और घ८ शब्द की मम्ववयोजना होने पर पदार्थ घट गद का वाच्य और ५८ भब्द उसका वाचक हो जाता है । यह प्राथमिक प्रक्रिया है, किन्तु कालक्रम से शब्द का अर्थ-विस्तार होता जाता है । जलवारण की क्रिया से शून्य घट की प्रतिकृति या चित्र भी घट नाम से अभिहित होता है। घर की प्रथम अवस्था मृत्-पिंड श्रीर उनको भग्नावस्या कपाल भी घट द से अभिहित होता है । जव एक गन्द का अर्थ विस्तार हो जाता है तब इनका निर्णय आवश्यक हो जाता है कि प्रस्तुत प्रकरण में प्रयुक्त शब्द का विवक्षित अर्य क्या है ? उस विवक्षित अर्य को जानने के लिए ही नाम के साथ विशेषण जोडकर उनमे भेद किया जाता है । यही निक्षेप की पद्धति है।
निक्षेप की इयत्ता नही है । जो शब्द जितने अर्थों को प्रकाशित करता है, उतने ही उसके निक्षेप किए जा सकते हैं। कम से कम चार निक्षेप तो प्रत्येक गाद के होते हैं । पदार्य का कोई न कोई नाम होता है और कोई आकार भी होता है। उसके भूत-भावी पर्याय होते हैं और वर्तमान पर्याय भी होता है । अत निक्षेपचतुष्टया स्वत फलित होती है
1 नाम निक्षे५ पदार्थ का नामाश्रित व्यवहार ।
2 स्थापना निक्षेप पदार्थ का आकाराश्रित व्यवहार । 14 लघीयस्त्रय, 74, स्वोपज्ञविवृति
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