________________
( 72 ) 3 स्यात् वाच्य एव ५८. - कथ चित् घट वाच्य ही है।
स्यात् अवाच्य एव घट कचित् घट अवाच्य ही है।
स्यात् अवक्तव्य एव ५८ – कथ चित् ५८ अवक्तव्य ही है । वस्तु मे जितने धर्म होते है उतनी ही सप्तभगिया होती हैं । नित्य अनित्य का और अनित्य नित्य का विरोधी है, फिर एक ही घट नित्य और अनित्य दोनो कसे हो सकता है ? इस विरोव मे सापेक्षता के द्वार। समन्वय स्थापित किया जाता है।
ईसा पूर्व छठी-पाचवी शताब्दी मे होने वाले हेरेफ्लाइटस (Heraclhtus ) ने विरोध को समन्वय का जनक माना है। उनके अनुसार 'जव धनुप से वारा पलाया जाता है तो चलाने वाले के दोनो हाय विरोधी दिशाओ मे खिचते हैं, किन्तु लक्ष्य उनका एक ही है । वीणा के तार भिन्न-भिन्न राति से सोपे जाते हैं और तक भी विभिन्न स्वर एक ही राग को उत्पन्न करते हैं । अत विरोव समन्वय का जनक है ।10 वे क्ष-भगवादी थे इसलिए उन्होंने यह प्रतिपादित किया कि प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील होने के कारण सापेक्ष है। क्योकि क्षणिकवस्तु का सापेक्ष होना अनिवार्य है। हम हैं भी और नही भी हैं । हम सत् भी हैं और असत् भी हैं और सत्-असत्-अनिवनीय भी। जितने भी द्वन्द्व हैं सव मापेक्ष हैं ।
हेरेफ्लाइटस का सापेक्षवाद क्षणिकवाद पर आवृत है। जन दर्शन के सापेक्षवाद का स्वरूप इससे भिन्न है। उनके अनुसार क्षणिकता अक्षणिकता की अपेक्षा रखती है और अक्षणिकता क्षणिकता की अपेक्षा रखती है। उन दोनो का योग ही वस्तु का स्वरूप बनता है। केवल परिवर्तन या क्षणिकता का दृष्टिकोण एकागी है । उसके श्रापार पर सापेक्षता का सिद्धान्त स्थापित नही किया जा सकता। दो विरोवी धर्मों की युगपत् सत्ता मे ही सापेक्षता के सिद्धान्त की स्थापना की जा सकती है । प्राचार्य अमृत चन्द्र ने गोपी के टान्त द्वारा सापेक्षता को समझाया है । जैसे गोपी विलौना करते समय दाए हाय को पीछे ले लाती है और पाए हाथ को आगे लाती है, फिर वाए हाय को पीछे ले जाती है और दाए हाय को आगे लाती है, इस क्रम में उसे नवनीत मिलता है। स्थावाद भी इसी प्रकार प्रधान धर्म को आगे लाता है और गौर। वर्म को पीछे ले जाता है। फिर गौर धर्म को प्रधान बनाकर आग लाता है और प्रधान धर्म को गोरा बनाकर पीछे ले जाता है। विरोधी दिशा मे जाने वाले उन प्रवान और गौण वर्मा मे सापेक्षता होती है ।1 10 पाश्चात्य दर्शन, पृष्ठ 5, 6 । 11 पुरुषार्थसिद्धयुपाय, लोक 225
एकनाकर्षन्ती लिथयन्ती वस्तुतत्पमितरे । अन्तेन जयति जैनी नीतिमन्याननेत्रमिव गोपी ॥