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( 9 ) चार ज्ञान केवल स्वार्थ रववोध के लिए है। श्रुतशान स्वार्थ और परार्थ दोनो है।18 सान स्व-प्रत्यायक ही होता है । पर-प्रत्यायक होता है शब्द । श्रुतज्ञान भी पर-प्रत्यायक नही है । शब्द का उससे सम्बन्ध है। इस सम्बन्धोपचार के कारण श्रुतज्ञान को ५२-प्रत्यायक माना गया है । ज्ञान के इस वकिरण मे प्रत्यक्ष और परोक्ष का विभाग मुख्य नही है ।20 दूसरे वर्गीकरण मे प्रत्यक्ष श्रीर परीक्ष का विभाग मुख्य है1 इन्द्रियजान परोक्ष और अतीन्द्रियज्ञान प्रत्यक्ष ।
प्राचार्य कुन्दकुन्द का तर्क है कि इन्द्रिया आत्मिक नही है । वे पर-द्रव्य है । जो पर है वह श्रात्मा का स्वभाव से हो सकता है ? जो आत्मा का स्वभाव नही है, उसके द्वारा उपलब्ध ज्ञान आत्मा के प्रत्यक्ष कसे हो सकता है ? इसलिए ५२ के द्वारा होने वाला जो शान है, वह परोक्ष है 122 प्रत्यक्ष ज्ञान वही है जो केवल आत्मा से होता है, जिसमें इन्द्रिय, मन और प्रज्ञा की सहायता अपेक्षित नही होती 123 जिस शान के द्वारा अमूर्त द्रव्य और अतीन्द्रिय भूत द्रव्य तथा प्रच्छन्न द्रव्य जाने जा सकते हैं वह ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है ।24 अविद्यमान पर्याय को इन्द्रिय-ज्ञान के द्वारा नही जाना जा सकता किन्तु प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा जाना जा सकता है । स्थूल पर्याय मे अन्तलीन सूक्ष्म पर्याय इन्द्रिय ज्ञान के द्वारा नही जाना जा सकता किन्तु प्रत्यक्ष शान
18 अणुप्रोगदा॥३, 2
तत्य पत्तारि नागाइ पाई वणिज्जाइ, "सुयनास उद्दसो,
समुह सो अणुण्णा अणुअोगो य पवत्त । 19 विशेषावश्यकमाय, 172,173
ण परप्वोधयाइ ज दो वि सरूवतो मतिसुताइ । त+कारणाई दोण्ह वि वोधन्ति ततो रण भेतो सिं॥
५०वसुत्तमसाधारणकारतो परविवोधक होज्जा। 20 भगवती, 8, 2317 21 डारण, 2, 1 103 . 22 प्रवचनसार, 57,58 .
परद० ते अक्सा व सहावो ति अप्पणो भगिदा । उपलक्ष हि कध पचख अप्पयो होदि ।।
ज परदो विणाय त तु परोक्ख ति मणिदमसु । 23 प्रवचनसार, 58 1
जहि केवलेण पाद हदि हि जीवेण ५च्चस ।। 24 प्रवचनसार, 54
ज पेच्छदो प्रमुत्त मुत्त सु अदिदिय च पच्छण्णा । सयल सग च ३८२ त गार हवदि पच्चक्ख ॥