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के द्वारा जाना सकता है । अत इन्द्रिय और मन से होने वाला जान परोक्ष तथा केवल श्रात्मा के द्वारा होने वाला जान प्रत्यक्ष कहलाता है।
इन्द्रिय-जान को परोक्ष मानने का दूसरा कारण यह है कि उसमे माय और विपर्यय का अवकाश रहता है । जिनभद्रगरणी ने इसके समर्थन मे लिखा है राजय
और विपर्यय की सभावना के कारण इन्द्रिय-ज्ञान और मनोजान परोक्ष होता है। प्रत्यक्ष ज्ञान मे सशय, विपर्यय और अनध्यवसाय ये नहीं होते ।25
ज्ञान का स्वरूप
श्रात्मा की चेतना एक और अखण्ड है। वह सूर्य को भाति सहज प्रदीप्त है। उसके दो रूप होते है अनावृत और श्रावृत । पूर्णतया अनावृत चेतना का नाम केवल जान है । यह स्वभाव-जान है । इसे निरुपाधिक-जान भी कहा जाता है । अनावृत चेतना की अवस्था में जानने का प्रयत्न नही करना होता, इसलिए वह जान सहज होता है । श्रावृत अवस्था मे भी चेतना सर्वथा श्रावृत नही होती। वह कुछ न कुछ अनावृत रहती ही है । सूर्य को आवृत करने वाले बादल सधन होते हैं तो प्रकाश मदतर होता है। पर दिन-रात का विभाग हो सके इतना प्रकाश अवश्य रहता है । चेतना पर आपरख सघन होता है तो मान मद होता है । वह सघनतर होता है तो जान मन्दतर होता है। फिर भी जीव-अजीव का विभाग हो सके इतना चैतन्य निश्चित ही अनावृत रहता है। यह जान विभावज्ञान या सोपाधिकमान है ।26 ज्ञान केवल इन्द्रियानुभव से होने वाला प्रत्यय या विमान ही नही है, वह श्रात्मा का स्वर५ है । वह श्रात्मा के साथ निरन्तर रहता है । हम जान को जन्म के साथ लाते हैं और मत्यु के साथ उसे ले जाते हैं । आत्मा के साथ उसका सम्बन्ध इस पोद्गलिक शरीर जसा नही है जो जन्म के साथ वने और मृत्यु के साथ छूट जाए । आत्मा उस कोरे कागज जैसा नही है जिस पर अनुभव अपने सवेदन और स्व-सवेदनरूपी अगुलियो से जानरूपी अक्षर लिखता रहे। शान का मूल स्रोत और उत्पत्ति
मान आत्मा का स्वाभाविक गुण है और वह न्यूनाधिक मात्रा मे अनावृत रहता है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि ज्ञान का मूल स्रोत पैतन्य की
25 विशेषावश्यकभाष्य, 93
૬ વિમોનિમિત્ત પરોક્લનિહ સાયાડમાવાઝો !
तककारण परीक्ख जोह मामासमणुमार ।। 26 नियमसार, 11
केवलमिदियरहिय असहाय त सहावरणारा ति । मण्णागिरवियप्पे बिहावरणाग हवे दुविह ।।