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( 11 । अनावृत अवस्था है । इसके अतिरिक्त तीन स्रोत और है- इन्द्रिय, मन और श्रात्मा। हमारा इन्द्रिय-विकास चैतन्य-विकास के आधार पर होता है। मान-विकास की तरतमता के आधार पर शारीरिक इन्द्रियो की रचना मे भी तरतमता होती है । मानसिक विकास भी तन्य-विकास पर निर्भर है। इन्द्रिय और मन की सहायता के विना होने वाला मान केवल प्रात्मा पर निर्भर होता है । इस प्रकार पतन्यविकास की दृष्टि से ज्ञान के मूल स्रोत तीन हैं इद्रिय, मन और आत्मा ।
___ज्ञान की उत्पत्ति अन्तरग और बहिरंग दोनो कारणों से होती है । बाहरी पदार्थों का उचित सामीप्य होने पर जान उत्पन्न होता है तो आन्तरिक मनन के द्वारा भी जान उत्पन्न होता है।
ज्ञान की सीमा
इन्द्रिया पाच है स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु और श्रोत्र । प्रत्येक इन्द्रिय मे एक-एक विषय को जानने की क्षमता होती है 127
1 स्पर्शन - स्पर्श । 2 रसन - रस । 3 प्राण - गन्ध 4 चक्षु - २५ । 5 श्रोत्र - शब्द ।
ये विषय इन्द्रिय-ज्ञान को उत्पन्न नहीं करते किन्तु इनका उचित सामीप्य होने पर शाता अपने प्रयत्न से इन्द्रियो के द्वारा उन्हे जान लेता है। इन्द्रिया द्रव्य को साक्षात् नही जानती। एक गुण या पर्याय के माध्यम से उसे जान सकती है, इसलिए इन्द्रियो का पर्याय-ज्ञान प्रत्यक्ष होता है और द्र०य-ज्ञान परोक्ष । वे केवल वर्तमान को जानती हैं। अतीत और भविष्य को जानने की क्षमता उनमे नही है। अनुभववादी दार्शनिक केवल इन्द्रियानुभव को ही वास्तविक ज्ञान मानते हैं, किन्तु इन्द्रियो के विखरे हुए जान का सकलन करने वाला कोई ज्ञान न हो तो हम किसी भी सामान्य नियमनिर्धारण नहीं कर सकते । मन स्पर्श अादि विषयों को साक्षात् नहीं जानता, इन्द्रियो के माध्यम से ही जानता है। अत वह वस्तु-स्पर्शी नही है पर उसमे इन्द्रियो द्वारा गृहीत सब विषयो का मकलन और त्रैकालिक पर्यालोचन करने
27 जैनसिद्धान्त दीपिका, 2/27
प्रतिनियतार्यग्रहणमिन्द्रियम ।