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हो तो जीव मे जो रूप आदि हैं उसे भी जीव का स्वरूप मानना होगा । इसका उत्तर स्पष्ट है | अस्तित्व और नास्तित्व दोनो वस्तु के स्वरूप हैं, यह प्रमारण-सिद्ध रहते हैं । अस्तित्व नातित्व का अविनाभावी
1 वूम और अग्नि एक अधिकरण मे है यह सिद्ध करना ही स्यादवाद का पेक्षावद है ।
स्याद्वाद द्रव्य के स्वरूप का निर्माण नहीं करता । उसका स्वरूप स्वभाव मे है | वह क्यो है, इसकी कोई व्याक्या नही की जा सकती । जो स्वरूप है उसकी व्याख्या करना स्याद्वाद का काम है | जैन दर्शन ने पाच विशिष्ट गुरण मान्य किए हैं । उनके आवार पर पाच द्रव्यों की
स्वीकृति है
गुण
1 નાતિ
2
3
4
5
સ્થિતિ
अवकाश
वर्ण, गर्व, रस, स्पर्श
चैतन्य
इन पाच गुणो के अतिरिक्त शेष मव गुरण सामान्य है | सामान्य और विशेष गुणों की व्याख्या स्यादवाद की पद्धति से की जाती है |
द्रव्य
धर्मास्तिकाय
अवर्मास्तिकाय
आकाशास्तिकाय
पुद्गलास्तिकाय
નીવાસ્તિાય
4 आपने कहा कि द्रव्य के प्रत्येक धर्म मे सप्तभगी की योजना की जा सकती मकती है | क्या अनेकान्त मे भी सप्तभगी की योजना की जा सकती है ? यदि को जा सकती है तो उसका निपेवात्मक भग एकान्त भी होगा । इस प्रकार अनेकान्त की व्यवस्था सार्वत्रिक नहीं हो सकती ।
है
आचार्य समन्तभद्र ने अनेकान्त की व्याख्या अनेकान्तदृष्टि से की है । प्रखंड વસ્તુ છે વોર્વે શ્રૌર પ્રતિપાવન વે લિપ ના ત્યાાવ પ્રમાણ ધ યોા યિા ગાતા वहा अनेकान्त अपेक्षित है । श्रीर उसके एक वर्म के वोध और प्रतिपादन के लिए नय का उपयोग किया जाता है वहा एकान्त भी अपेक्षित है । अनेकान्तवादी को मान्य हैं | इसलिए अनेकान्त की सप्तभगी हो
दोनो
अनेकान्त और एकान्त मकती है
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1 स्वात् एकान्त 2 स्यात् अनेकान्त
3
स्यात् उभय
4
स्यात् अवक्तव्य
5 स्यात् एकान्तश्च
कचित् एकान्त है |
कचित् अनेकान्त है ।
कर्याचित दोनो है ।
कचित् श्रवतव्य है ।
वक्तव्यश्च
स्यात् अनेकान्तश्च अवक्तव्यश्य
कचित् एकान्त है और अवक्तव्य है । कयचित् अनेकान्त है और वक्तव्य है ।