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________________ ( 96 ) 4 सूक्ष्म, अन्तरित (व्यवहित) और देश-काल से विप्रकृष्ट पदार्थ किसी व्यक्ति के अवश्य प्रत्यक्ष हैं, क्योकि वे अनुमेय हैं, जैसे अनुमेय अग्नि किसी के प्रत्यक्ष होती है । 32 5 शान मे तरतमता उपलब्ध होती है । उसका कोई चरम विन्दु होता है। जसे परिमाण की तरतमता का चरमरू५ आकाश है, वैसे ही ज्ञान की तरतमता का चरमरूप केवलज्ञान है ।33 મૃતિ, अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा यह प्रत्यक्ष का क्रम-विभाग है। इसका उत्तरवर्ती क्रम-विभाग परोक्ष का है। यह विभाजन वैशध और अवधि के आधार पर है, किन्तु कार्यकारणभाव के प्राचार पर ये सब एक ही सूत्र में आवद्ध हैं। जो धारणा होती है-हमारे मस्तिकीय प्रकोठो मे सस्कार निर्मित हो जाते हैं वह निमित्त पाकर जागृत हो जाती है । अन्य ताकिक परपराश्रो मे स्मृति का प्रामाण्य सम्मत नहीं है । जैन परंपरा मे इसका प्रामाण्य समर्थित है। स्मृति अविसवादी ज्ञान है । अतीत की स्मृति मे जातिस्मृति का भी एक स्थान है, जिससे सुदूर अतीत अर्थात् पूर्वजन्म का मान होता है । वह यथार्थवोध है और उसके द्वारा मवादी व्यवहार सिद्ध होता है, इसलिए उसका प्रामाण्य असदिग्ध है। बौद्धो का तर्क था कि स्मृति पूर्वानुभव-परतत्र है, इसलिए वह प्रमाण नही हो सकती। प्रमाण वह मान होता है जो अपूर्व-अर्थ को जानता है । स्मृति का विषय है-पूर्वानुभव का जान । वह प्रमाण कसे हो सकती है ? मीमासप्रवर कुमारिल ने भी गृहीतार्य-प्राहिता के आधार पर स्मृति का अप्रामाण्य प्रतिपादित किया है। नैयायिकमनीपी जयन्त ने स्मृति के प्रामाण्य का इसलिए निरसन किया कि वह अर्थजन्य नहीं है । जान को अर्थज-अर्योत्पन्न होना चाहिए। यदि वह अर्थज नही है तो प्रमाण कसे हो सकता है ? 32 प्राप्तमीमासा, श्लोक 5 सूक्ष्मान्तरितदूरार्था प्रत्यक्षा. कस्यचिद्यया । અનુયત્વતોડકન્યાવિરતિ સર્વ સ્થિતિ . 33 प्रमाणमामासा, 1/1/16 જ્ઞાતિમવિશ્વાત્યાદ્રિસિદ્ધ સ્તત્સદ્ધિ ! વૃત્તિ પ્રજ્ઞાયા અંતરાય तारतम्य क्वचित् विश्रान्तम्, अतिशयत्वात् परिमाणातियवदित्यनुमानेन निरतिशयप्रजादिसिद्ध या तस्य केवलज्ञानस्य मिद्धि ।
SR No.010272
Book TitleJain Nyaya ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherNathmal Muni
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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