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( 55 ) ऋजुसूत्रनय प्रत्युत्पन्न एकक्षणवर्ती पर्याय से उत्पन्न अध्यवसाय है । यह अतीत और अनागत को स्वीकृति नही देता। दो पर्यायो और सम्बन्धो को भी यह मान्य नही करता। प्रस्तुत अध्यवसाय लोक व्यवहार-सम्मत नही है इस प्रश्न को उपस्थित कर यह बताया गया कि यह एक दृष्टिकोण है । लोक व्यवहार का प्रतिनिधित्व करने वाला प्टिकोण नैगमनय है । व्यवहार सब नयो के समूह से सिद्ध होता है । एक न4 के अध्यवसाय से उसकी सिद्धि की अपेक्षा नही होनी चाहिए।'
ऋजुसूत्रनय से बौद्धो के क्षणिकवाद की तुलना की जाती है, किन्तु बौद्धष्टि सर्वनयसापेक्ष नही है इसलिए उसे ऋजुसूत्रनय के प्राभास के रूप मे भी उदाहत किया गया है ।
शवनय
शब्द हमारे व्यवहार और शान का एक शक्तिशाली माध्यम है । मनुष्य समाज ने उस (शब्द) मे सकेत आरोपित किए हैं और उनके आधार पर उसमे अर्थबोध कराने की क्षमता निहित है । उसमे स्वाभाविक सामर्थ भी है । वह वक्ता के मुह से निकल कर श्रोता तक पहुचता है । यह अभिव्यक्ति का सामर्थ्य अगुली आदि के सकेतो मे भी है, पर शव्द मे जितना स्पष्ट है उतना अन्य किसी मे नही है, इसी लिए हम अर्यवोध के लिए शब्द का सहारा लेते हैं । शब्दो के आधार पर हमारे अध्यवसाय उत्पन्न होते हैं इसलिए नयशास्त्र मे २००६-रचना या वाक्य-रचना की बहुत सूक्ष्म मीमासा की गई है। लौकिक शब्दशास्त्र मे काल, कारक आदि के भिन्न होने पर भी वाच्य को भिन्न नही माना जाता किन्तु शन्दनय को यह मत स्वीकार्य नही है । उसका अध्यवसाय यह है कि काल श्रादि के द्वारा वाचक का भेद होने पर वाच्यअर्थ भिन्न हो जाता है। कालभेद से अर्थमेव
जयपुर था। जयपुर है।
जयपुर होगा। 6 तत्वार्थवात्तिक, 133
सर्वसन्यवहारलो५ इति चेत्, न, विषयमात्रप्रदर्शनात्, पूर्वनयवक्तव्यात् सव्यवहार सिद्धिर्भवति । 7 सर्वार्थसिद्धि, 133
सर्वनयसमूहसाध्यो हि लोकसव्यवहार । 8 प्रमाणनयतत्वालोक, 7130, 31
सर्वथा द्रव्यापलापी सदाभास । यथा-तयागतमतम् ।