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( 92 ) इन्द्रिय-प्रत्यक्ष है । इस क्रम मे मन उसका सहयोगी है, किन्तु उस जान धारा का प्रवर्तक नही है । मानस-प्रत्यक्ष मे जान की धारा का प्रारभ मन में ही होता है । मन इन्द्रियगृहीत विषयो को ग्रहण कर उनका सकलन, मीमामा, वितर्क करता है तथा नये-नये नियमो और प्रत्ययो का निर्माण करता है । ये प्रवृत्तिया इन्द्रियार नही होती । यह मनका अपना कार्यक्षेत्र है । नदी के शिकार ने बताया है कि स्वप्न अवस्था मे मन शब्द आदि विषयो को ग्रहण करता है । वह ग्रहण अवह
आदि के क्रम से होता है । जागृत अवस्था मे इन्द्रिय-व्यापार के अभाव में केवल मन का मनन होता है । वह भी अवग्रह आदि के क्रम मे होता है ।25
हम जब कभी इन्द्रिय-मानस-प्रत्यक्ष की स्थिति में होते हैं तब इसी अवग्रह आदि के क्रम से गुजरते हैं । यह क्रम इतना प्राशुमचारी है कि यह पता ही नही चलता कि ऐसा होता है । अपरिचित विषय के वोध मे इस क्रम का अनुभव किया जा सकता है। किन्तु परिचित विषय के बोध मे इसका महज अनुभव नहीं होता, यद्यपि यह कम अवश्य होता है।
दर्शन व्यवसायी नहीं होता, इसलिए तर्क-परम्परा मे उसे प्रमाण की कोटि मे नही माना गया। फिर अवग्रह और ईहा को प्रमाण कसे माना जा सकता है ? यह प्रश्न सहज ही उपस्थित होता है। इस प्रश्न को दो कोणो से उत्तरित किया जा सकता है। पहला कारण यह है अपग्रह, ईही और अवाय-ये एक ही मानधारा के तीन विराम हैं, इसलिए अवाय के प्रमाण होने का अर्थ है कि अवह और ईही भी प्रमाण हैं। दूसरा कोण यह है-अवग्रह मे विषय का बोध होता है। हमे અન્વય માર વ્યતિરેક ઘમ l વિમર્શ હોતા હૈ ઔર પ્રવાય એ ની પુષ્ટિ હોતી है। इस प्रकार प्रत्येक विराम मे नये-नये पर्याय का उद्घाटन होता है। और यदि इसमें कोई विसवादिता न हो तो इस समय ज्ञानधारा को प्रमाण मानने मे कोई विप्रतिपत्ति नहीं है।
वौद्धो ने प्रत्यक्ष के चार भेद माने हैं 1 इन्द्रिय-ज्ञान 2 मानस-प्रत्यक्ष 3 स्व-सवेदन 4 योगि-प्रत्यक्ष । (क) नदी, सूत्र 56, पूणि एवं मणमो वि सुविणे सहादिविमएसु अवगहादयो रोया, अण्णात्य वा इदियवावाअभाव मणमासति । (ख) विशेषावश्यक भाष्य, गाया 293 ।
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