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( 93 ) जन परम्परा मे स्व-सवेदन-प्रत्यक्ष की स्वतंत्र गणना नही है । मामासको का मत है कि जान केवल ज्ञेय-अयं को प्रकाशित करता है। उसकी अपनी सत्ता का अर्थवाव से अनुमान किया जाता है। नैयायिक मानते हैं कि ज्ञान का ज्ञान जानान्तर (अनुव्यवसाय) से होता है। यह घट है' ऐसा प्रत्यक्ष ज्ञान व्यवसाय है । इस प्रत्यक्ष ज्ञान का मानस-प्रत्यक्ष अनुव्यवसाय कहलाता है। जैसे गै देख रहा हू कि यह घट है। वौद्ध दर्शन की एक शाखा माध्यमिक भी ज्ञान को स्वप्रकाशी नही मानती। इन मतो को ध्यान मे रखकर धर्मकात्ति ने स्व-सवेदन-प्रत्यक्ष को स्वतंत्र स्थान दिया। जन परम्परा मे मान का स्वरूप स्व-पर-प्रकाशक है, इसलिए स्वसवेदन जानमात्र मे होता है। वह प्रत्यक्ष का विशिष्ट प्रकार नहीं बन सकता। स्व-सवेदन चेतना का अनाकार उपयोग या दर्शन है। यद्यपि दार्शनिक युग मे दर्शन का अर्थ सामान्यग्राही उपयोग और ज्ञान का अर्थ विशेपनाही उपयोग किया गया है, किन्तु यह मीमासनीय नही है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। द्रव्य सामान्य-विशेषात्मक है, तब केवल विशेष को जानने वाला जान (साका. या सविकल्प उपयोग) प्रमाण कसे हो सकता है और केवल सामान्य को जानने वाला दर्शन (अनाकार या निविकल्प उपयो1) अप्रमाण कसे हो सकता है ? उक्त व्याख्या मे केवलनान और केवलदर्शन का अर्थ भी घटित नहीं होता। उन्हे युगपत् माना जाए तो प्रस्तुत व्याख्या के अनुमार वे दोनो युक्त होकर प्रमाण बनते हैं, अकेला कोई प्रमाण नहीं होता । यदि उन्हे कम माना जाए तो केवलजान विशेषग्राही होने के कारण सपूर्ण अर्यग्राही नही होता, इसलिए वह प्रमाण नही हो सकता।
दर्शन (अनाकार उपयोग) और ज्ञान (साकार उपयोग) को यह व्याख्या मानी जाए कि स्व-सवेदन या आन्तरिक वोध दर्शन है और वाह्य अर्य का बोध ज्ञान है और वे सदा युगपत् होते हैं तो समूची समस्या का समाधान हो जाता है । दर्शन प्रमाण नहीं है। इसे इस प्रकार व्याख्यायित किया जा सकता है कि स्व-मवेदन मे वाह्य पदार्थ को जानने का कोई प्रयल या श्राकार नहीं होता। वह केवल स्व-प्रत्यय ही होता है, इसलिए अनाकार है । और अनाकार है इसलिए उसे वाह्य पदार्थ-बोध की अपेक्षा से प्रमाण नहीं माना जा सकता। शान मे वाह्य पदार्थ को जानने का प्रयत्न या श्राकार नहीं होता। वह पर-प्रत्यय होता है, इसलिए साकार है और साकार है इसलिए वह वाह्य पदार्थ-बोध की अपेक्षा से प्रमाण है । इस आधार पर केवलज्ञान के प्रामाण्य में भी कोई श्राप नही आती। स्वरूप की अपेक्षा ज्ञान प्रत्यक्ष ही है। प्रत्यक्ष और परोक्ष का प्रमाणशास्त्रीय विभाग केवल बाह्य पदार्य-बोध की अपेक्षा से है। प्रमाण और अप्रमाण का विभाग भी केवल बाह्य पदार्य-बोध की अपेक्षा मे है । इन अभ्युपगमो की सगति भी दर्शन को स्व-प्रत्यय और ज्ञान को परप्रत्यय मानने पर ही होती है। दर्शन का अर्थ भी प्रत्यक्ष या साक्षात् है । स्व-प्रत्यय साक्षात् ही होता है, इसलिए दर्शन शब्द उस अर्थ को यथार्थ अभिव्यक्ति देता है।