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( 26 ) और पारमायिक प्रत्यक्ष की परम्परा मान्य हो । प्रमाण-व्यवस्था के मुख्य सूत्रधा। प्राचार्य अकलक ने इस ५२-५२। को मान्यता देकर इसे स्थायित्व दे दिया 122
अनेकांत-व्यवस्था और दर्शन-समन्वय
चौथी उपलब्वि है-न-मन्वय और उसके लिए अनेकान्त की व्यवस्था का विकास और उसका व्यापक प्रयोग।
उपनिषद काल से दो प्रश्न चचित होते रहे हैं ? 1 क्या पूर्ण सत्य जाना जा सकता है ? 2 क्या पूर्ण सत्य की व्याख्या की जा सकती है ?
इन पर विभिन्न दानो ने विभिन्न ममावान प्रस्तुत किए हैं। जैन दर्शन ने भी इनका ममावान किया है। प्रथम प्रान का समाधान जान-मीमामा के श्रीधार पर दिया और दूसरे का समाधान अनेकान्त के आधार पर दिया ।
1 केवलनानी पूर्ण मत्य को जान सकता है। उनका मान मया अनावृत होता है । इसलिए उनके जान मे कोई अवरोव नहीं होता, अन्तय नहीं होता । जो केवलगानी नही है वह पूर्ण मत्य को नहीं जान सकता। क्योकि वह जानी ही नहीं होता, अजानी भी होता है । हम अकेवली के ज्ञान को स्वीकार करते हैं तो माय-माय उनके अजान को भी स्वीकार करते हैं। पेतना की आवृत अवस्था मे नान और अज्ञान दोनो जुडे हुए रहते हैं । केवलजानी को ही हम पूर्णनानी कह सकते हैं । फेवलज्ञानी का एक अर्थ यह भी किया जा सकता है 'कोरा ज्ञानी' । वह केवलज्ञानी है, अज्ञानी नहीं है । नान के स्तर पर केवलज्ञानी से नीचे जितने भी लोग हैं वे भव जानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं । ज्ञान और अज्ञान की महस्वीकृति का फलित है कि पूर्ण सत्य को केवलज्ञानी ही जान सकता है, दूसरा नहीं जान सकता।
सत्य के मुख्य पहनु दो हैं द्रव्य और पर्याय । श्रुतमानी मूत और अमूर्तसभी द्रव्यो को जान लेता है, ५२ मव पर्यायो को नहीं जानता। केवली व द्रव्यो और मव पर्यायी को जानता है, इसलिए वह पूर्ण मत्य को जानता है । श्रुतशानी श्रुत के आधार पर सब द्रव्यों को जानता है। केवलगानी उन्हें मासात् जानता है, इमलिए वह पूर्ण सत्य को जानता है । आचार्य समन्तभद्र के शब्दो मे स्वादाद और 22 (क) लघीयस्त्रय, 3 .
प्रत्यक्ष विशद ज्ञान, मुख्यसव्यवहारत ।
परोल पविनान, प्रमाण इति मग्रह ॥ (ख) लघीय-त्रय विवृत्तिकारि५। 4
તત્ર માવ્યવહામિદ્રિવાનિદ્રિયપ્રત્યક્ષમ |