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करते हु भी प्रस्तुत विशेषरण का प्रयोग सार्थक प्रतीत नही होता । किन्तु पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से विचार करने पर इसकी सार्थकता समझ मे आ जाती है द्रव्यायिक नय की दृष्टि से ज्ञात अर्थ को जानने वाला या धारावाही ज्ञान प्रमारण है । पर्यायायिक नय की दृष्टि से प्रतिक्षरण परिवर्तनशील श्रर्य अज्ञात ही होता है । इसलिए हम ज्ञात को नही जानते किन्तु अज्ञात को ही जानते हैं । 'अनधिगत' विशेषरण उसी अर्थ को व्यक्त करता है । बोद्ध न्याय मे प्रमाण के लक्षण मे ज्ञान का 'अनधिगतार्थाधिगम' विशेषरण मिलता है | आचार्य अकलक ने उक्त विशेषरण के प्रयोग मे बौद्धों का अनुसरण किया है । इस अनुसरण का अभिप्राय है - वोद्ध सम्मत एकान्तिक अभिप्राय को अनेकान्त के द्वारा परिमार्जित कर प्रस्तुत करना । नय दृष्टि के अनुसार 'अनधिगत' का अर्थ सर्वथा अज्ञात नही है | इसलिए बोद्धो द्वारा किया जाने वाला स्मृति के प्रामाण्य नही है |
किन्तु सापेक्ष अज्ञात
का निरसन उचित
माणिक्यनन्दि ( ई० 993-1053) ने 'अनधिगत' के आधार पर 'अपूर्व' शब्द का प्रयोग किया ।" उत्तरवर्ती परम्परा में यह विशेषरण बहुत समाहत नही हुआ ।
मीमासक ज्ञान को परोक्ष मानते हैं । उनके अनुसार ज्ञान अर्थ को जानता है, स्वयं को नही जानता । वह अनुमेय है । अर्थबोध हो रहा है । यह जिससे हो रहा है, वह ज्ञान है । अर्थबोध के द्वारा ज्ञान अनुमेय है । नैयायिक ज्ञान को ज्ञानान्तवेद्य मानते हैं । उनके अनुसार मनुष्य का ज्ञान ईश्वरीय ज्ञान से प्रकाशित है | स्व-सविदित ज्ञान ईश्वर का ही हो सकता है | साख्य ज्ञान को अचेतन मानते हैं । जैन परम्परा का अभिप्राय इन सबसे भिन्न है । उसके अनुसार ज्ञान स्वयं प्रकाशित होकर ही दूसरे को प्रकाशित कर सकता है । जो स्व-प्रकाशी नही होता, वह पर-प्रकाशी नही हो सकता । 'स्व' का अर्थ ज्ञान और '५२' का अर्थ ज्ञान से भिन पदार्थ है ।" ज्ञान-काल मे ज्ञान अपनी ओर उन्मुख होता है, इसलिए वह स्वप्रकाशी है और बाह्य पदार्थ की ओर उन्मुख होता है, इसलिए वह पर-प्रकाशी भी है । जैसे, 'मैं घट को जानता हू' । जब कोई मनुष्य घट को जानता है, तब उसे केवल घट का ही ज्ञान नही होता, 'मैं' इस कर्तृपद का भी ज्ञान होता है और 'जानता हू' 1- इस क्रियापद का भी ज्ञान होता है ।" ज्ञान नेत्र की भाति स्व-प्रकाशी
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परीक्षामुख, सूत्र 111
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स्वापूर्वार्यव्यवसायात्मक ज्ञान प्रमाणम् ।
प्रमाणनयतत्त्वालोक, 1/15 ज्ञानादन्योऽपर ।
8 प्रमाणमीमासा, सूत्र 2, वृत्ति
‘ધડમાઁ નાનામિ' ત્યાવી ઋતુ મંવત્ જ્ઞપ્તે પ્લવમાસમાનાત્ ।