Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स बाल ब्रह्मचारी श्री नेमिनाथाय नमः पूज्य आनन्द-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरूभ्यो नमः आगम-६ ज्ञाताधर्मकथा आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद CERecenes अनुवादक एवं सम्पादक आगम दीवाकर मुनि दीपरत्नसागरजी [ M.Com. M.Ed. Ph.D. श्रुत महर्षि ] | आगम हिन्दी-अनुवाद-श्रेणी पुष्प-६ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक आगमसूत्र-६- "ज्ञाताधर्मकथा' अंगसूत्र- ६ -हिन्दी अनुवाद कहां क्या देखे? पृष्ठ | क्रम क्रम विषय विषय पृष्ठ ११६ ०२ १४० १८ संसमा १४४ ०४ १४९ १५३ १५३ ०७ १५८ श्रुतस्कन्ध-१ ०१ उक्षिप्त संघाट ०३ अंडक कुर्म/कच्छप ०५ शैलक ०६ तुंबक | रोहिणी ०८ | मल्ली ०९ माकंदी १० चन्द्र ११ दावदव १२ । उदक मंडुक/दर्दर १४ । तेतलिपुत्र १५ । नन्दिफ़ल ००५ श्रुतस्कन्ध-१...चालु ००५ | १६ | अमरकंका ०३८ अश्वज्ञात ०४६ सुंसुमा ०५० १९ । पुंडरिक ०५२ श्रुतस्कन्ध-२ ०६२ ०१ वर्ग-१, अध्ययन (१-५) ०६३ | ०२ वर्ग- २, अध्ययन (१-५) ०६७ ०३ वर्ग-३, अध्ययन (१-५४) ०८८ | वर्ग-४, अध्ययन (१-५४) ०९६ वर्ग-५, अध्ययन (१-३२) ०९७ / ०६ | वर्ग-६, अध्ययन (१-३२) ०९८ | वर्ग-७, अध्ययन (१-४) ०९९ ०८ वर्ग-८, अध्ययन (१-४) १०७ वर्ग- ९, अध्ययन (१-३७) ११४ | १० वर्ग-१०, अध्ययन (१-८) १५८ १५९ १५९ १६० १६० १६० १६१ १६१ मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 2 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक ४५ आगम वर्गीकरण सूत्र क्रम क्रम आगम का नाम आगम का नाम सूत्र ०१ | आचार २५ आतुरप्रत्याख्यान पयन्नासूत्र-२ सूत्रकृत् २६ पयन्नासूत्र-३ स्थान महाप्रत्याख्यान २७ भक्तपरिज्ञा | तंदुलवैचारिक पयन्नासूत्र-४ समवाय पयन्नासूत्र-५ २९ संस्तारक भगवती ०६ ज्ञाताधर्मकथा अंगसूत्र-१ अंगसूत्र-२ अंगसूत्र-३ अंगसूत्र-४ अंगसूत्र-५ अंगसूत्र-६ अंगसूत्र-७ अंगसूत्र-८ अंगसूत्र-९ अंगसूत्र-१० अंगसूत्र-११ उपांगसूत्र-१ ३०.१ | गच्छाचार ३०.२ | चन्द्रवेध्यक उपासकदशा अंतकृत् दशा गणिविद्या पयन्नासूत्र-६ पयन्नासूत्र-७ पयन्नासूत्र-७ पयन्नासूत्र-८ पयन्नासूत्र-९ पयन्नासूत्र-१० छेदसूत्र-१ देवेन्द्रस्तव वीरस्तव अनुत्तरोपपातिकदशा प्रश्नव्याकरणदशा ११ | विपाकश्रुत | औपपातिक ३४ । निशीथ १२ ३५ बृहत्कल्प छेदसूत्र-२ १३ उपांगसूत्र-२ व्यवहार राजप्रश्चिय | जीवाजीवाभिगम १४ उपांगसत्र-३ ३७ १५ प्रज्ञापना उपागसूत्र-४ दशाश्रुतस्कन्ध जीतकल्प ३९ महानिशीथ उपांगसूत्र-५ १७ उपांगसूत्र-६ १६ | सूर्यप्रज्ञप्ति चन्द्रप्रज्ञप्ति | जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति १९ | निरयावलिका छेदसूत्र-३ छेदसूत्र-४ छेदसूत्र-५ छेदसूत्र-६ मूलसूत्र-१ मूलसूत्र-२ मूलसूत्र-२ मूलसूत्र-३ मूलसूत्र-४ चूलिकासूत्र-१ १८ उपांगसूत्र-७ उपागसूत्र-८ ४० । आवश्यक ४१.१ | ओघनियुक्ति | पिंडनियुक्ति दशवैकालिक ४३ उत्तराध्ययन ४४ । नन्दी २० | कल्पवतंसिका ४२ पुष्पिका उपांगसूत्र-९ उपांगसूत्र-१० उपांगसूत्र-११ उपांगसूत्र-१२ पुष्पचूलिका अनुयोगद्वार चूलिकासूत्र-२ वृष्णिदशा २४ | चतु:शरण पयन्नासूत्र-१ मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 3 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक [49] 06 02 01 06 05 .5 09 मुनि दीपरत्नसागरजी प्रकाशित साहित्य आगम साहित्य आगम साहित्य साहित्य नाम बक्स क्रम साहित्य नाम मूल आगम साहित्य: | 147 6 आगम अन्य साहित्य:|-1- आगमसुत्ताणि-मूलं print -1- माराम थानुयोग -2- आगमसुत्ताणि-मूलं Net [45]] -2- आगम संबंधी साहित्य -3- आगममञ्जूषा (मूल प्रत) | [53] -3- ऋषिभाषित सूत्राणि | आगम अनुवाद साहित्य:165 -4- आगमिय सूक्तावली 01 -1-मागमसूत्रगुती मनुवाह | [47] आगम साहित्य- कुल पुस्तक 516 -2- आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद Net: | [47] -3- Aagam Sootra English Trans. [11] -4- सामसूत्र सटी5 J४२राती अनुवाद | [48] -5- आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद print [12] अन्य साहित्य:आगम विवेचन साहित्य: | 171 1तत्त्वात्यास साहित्य-1- आगमसूत्र सटीक [46] 2 सूत्रात्यास साहित्य-2- आगमसूत्राणि सटीकं प्रताकार-11 [51]] 3 | व्या२ए। साहित्य-3- आगमसूत्राणि सटीकं प्रताकार-2009]/ 4 વ્યાખ્યાન સાહિત્ય. 04 -4- आगम चूर्णि साहित्य | [09]] જિનભક્તિ સાહિત્ય|-5- सवृत्तिक आगमसूत्राणि-1 [40] 6 aoसाहित्य-6- सवृत्तिक आगमसूत्राणि-2 | [08] 7 माराधना साहित्य -7- सचूर्णिक आगमसुत्ताणि [08] 8 परियय साहित्य 04 आगम कोष साहित्य: | 149 ५४न साहित्य-1- आगम सद्दकोसो [04] 10 तीर्थं२ संक्षिप्त र्शन -2- आगम कहाकोसो | [01] 11 ही साहित्य 05 -3-आगम-सागर-कोष: | [05] | 12ीपरत्नसागरना वधुशोधनिबंध 05 -4- आगम-शब्दादि-संग्रह (प्रा-सं-गु) [04] આગમ સિવાયનું સાહિત્ય કૂલ પુસ્તક 85 आगम अनुक्रम साहित्य:-ROAD 09 -1- याराम विषयानुभ- (भूप) 02 | 1-आगम साहित्य (कुल पुस्तक) 51 -2- आगम विषयानुक्रम (सटीकं) 04 2-आगमेतर साहित्य (कुल 08 -3- आगम सूत्र-गाथा अनुक्रम दीपरत्नसागरजी के कुल प्रकाशन | 60 જેલ મુનિ દીપરત્નસાગરનું સાહિત્ય 1 भुनिटीपरत्नसागरनुं सागम साहित्य [ पुस्त516] तेना इस पाना [98,300] 2 मुनिहीपरत्नसागरनुं अन्य साहित्य [हुल पुस्त। 85] तनाहुल पाना [09,270] | 3 भुनिटीपरत्नसार संलित 'तत्त्वार्थसूत्र'नी विशिष्ट DVD तना इस पाना [27,930] अभार प्राशनोद ०१ + विशिष्ट DVD हुल पाना 1,35,500 04 02 25 51 03 मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 4 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक [६] ज्ञाताधर्मकथा अंगसूत्र-६- हिन्दी अनुवाद [श्रुतस्कन्ध-१] अध्ययन-१- उत्क्षिप्त सूत्र-१-३ सर्वज्ञ भगवंतों को नमस्कार । उस काल में उस समय में चम्पा नामक नगरी थी । वर्णन उववाईसूत्र अनुसार जानना । उस चम्पा नगरी के बाहर, ईशानभाग में, पूर्णभद्र नामक चैत्य था । (वर्णन०) | चम्पा नगरी में कूणिका नामक राजा था । (वर्णन०) । सूत्र-४ उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के शिष्य आर्य सुधर्मानामक स्थविर थे । वे जातिसम्पन्न, बल से युक्त, विनयवान, ज्ञानवान, सम्यक्त्ववान, लाघववान, ओजस्वी, तेजस्वी, वचस्वी, यशस्वी, क्रोध को जीतने वाले, मान को जीतने वाले, माया को जीतने वाले, लोभ को जीतने वाले, इन्द्रियों को जीतने वाले, निद्रा को जीतने वाले, परीषहों को जीतने वाले, जीवित रहने की कामना और मृत्यु के भय से रहित, तपःप्रधान, गुणप्रधान, करण, चरण, निग्रह, निश्चय, आर्जव, मार्दव, लाघव, क्षमा, गुप्ति, मुक्ति, विद्या, मंत्र, ब्रह्मचर्य, नय, नियम, सत्य, शौच, ज्ञान, दर्शन और चारित्र में प्रधान, उदार, घोर, घोरव्रती, घोरतपस्वी, उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले, शरीर-संस्कार के त्यागी, विपुल तेजोलेश्या को अपने शरीर में ही समाविष्ट करके रखने वाले, चौदह पूर्वो के ज्ञाता, चार ज्ञानों के धनी, पाँच सौ साधुओं से परिवृत्त, अनुक्रम से चलते हुए, एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विचरण करते हए, जहाँ चम्पा नगरी थी और जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, उसी जगह आए । यथोचित अवग्रह को ग्रहण किया, ग्रहण करके संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। सूत्र-५ तत्पश्चात् चम्पा नगरी में परिषद् नीकली । कूणिक राजा भी नीकला । धर्म का उपदेश दिया । उपदेश सूनकर परिषद् जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा में लौट गई । उस काल और उस समय में आर्य सुधर्मा अनगार के ज्येष्ठ शिष्य आर्य जम्बू नामक अनगार थे, जो काश्यप गोत्रीय और सात हाथ ऊंचे शरीर वाले, यावत् आर्य सुधर्मा से न बहुत दूर, न बहुत समीप अर्थात् उचित स्थान पर, ऊपर घूटने और नीचा मस्तक रखकर ध्यानरूपी कोष्ठ में स्थित होकर संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे। तत्पश्चात् आर्य जम्बू नामक अनगार को तत्त्व के विषय में श्रद्धा हर्ड, संयत कतहल, विशेषरूप से श्रद्धा संशय और कुतूहल हुआ । तब वह उत्थान करके उठ खड़े हुए और जहाँ आर्य सुधर्मा स्थविर थे, वहीं आए । आर्य सुधर्मा स्थविर की तीन बार दक्षिण दिशा से आरम्भ करके प्रदक्षिणा की । वाणी से स्तुति की और काया से नमस्कार किया। आर्य सुधर्मा स्थविर से न बहुत दूर न बहुत समीप - सूनने की ईच्छा करते हुए सन्मुख दोनों हाथ जोड़कर विनयपूर्वक पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले भगवन् ! यदि श्रुतधर्म की आदि करने वाले स्वयं बोध को प्राप्त, पुरुषों में उत्तम, पुरुषों में सिंह समान, पुरुषों में श्रेष्ठ कमल समान, पुरुषों में गन्धहस्ती समान, लोक में उत्तम, लोक के नाथ, लोक का हित करने वाले, लोक में प्रदीप समान, लोक में उद्योत करने वाले, अभय देने वाले, शरणदाता श्रद्धारूप नेत्रदाता, धर्ममार्गदाता, बोधिदाता, धर्म दाता, धर्मउपदेशक, धर्मनायक, धर्मसारथी, चारों गतियों का अन्त करने वाले धर्म चक्रवर्ती कहीं भी प्रतिहत न होने वाले केवलज्ञान-दर्शन के धारक, रागादि को जीतने वाले और अन्य प्राणियों को जिताने वाले, मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 5 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक संसार-सागर से स्वयं तिरे हुए और दूसरों को तारने वाले, स्वयं कर्मबन्धन से मुक्त और दूसरों को मुक्त करने वाले, स्वयं बोध-प्राप्त और दूसरों को बोध देने वाले, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, शिव अचल-अरुज-अनन्त, अक्षय, अव्याबाध और अपुनरावृत्ति-सिद्धिगति नामक शाश्वत स्थान को प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने छठे अंग ज्ञाताधर्मकथा का क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू !' इस प्रकार सम्बोधन करके आर्य सुधर्मा स्थविर ने आर्य जम्बू नामक अनगार से इस प्रकार कहा-जम्बू ! यावत् सिद्धिस्थान को प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने छठे अङ्ग के दो श्रुतस्कन्ध प्ररूपण किये हैं । वे इस प्रकार हैं-ज्ञात और धर्मकथा । जम्बूस्वामी पुनः प्रश्न करते हैं-भगवन् ! यदि यावत् सिद्धिस्थान को प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने छठे अंग के दो श्रुतस्कन्ध प्ररूपित किये हैं-ज्ञान और धर्मकथा, तो भगवन् ! ज्ञात नामक प्रथम श्रतस्कन्ध के यावत् सिद्धिस्थान को प्राप्त श्रमण भगवान ने कितने अध्ययन कहे हैं ? हे जम्बू ! यावत् ज्ञात नामक श्रुतस्कन्ध के उन्नीस अध्ययन कहे हैं । वे इस प्रकार हैंसूत्र-६-८ उत्क्षिप्तज्ञात, संघाट, अंडक, कूर्म, शैलक, रोहिणी, मल्ली, माकंदी, चन्द्र, दावद्रववृक्ष, तुम्ब, उदक, मंडूक, तेतलीपुत्र, नन्दीफल, अमरकंका, आकीर्ण, सुषमा, पुण्डरीक-यह उन्नीस ज्ञात अध्ययनों के नाम हैं। सूत्र-९ भगवन् ! यदि श्रमण यावत् सिद्धिस्थान को प्राप्त महावीर ने ज्ञात-श्रुतस्कन्ध के उन्नीस अध्ययन कहे हैं, तो भगवन् ! प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में, इसी जम्बूद्वीप में, भारतवर्ष में, दक्षिणार्ध भरत में राजगृह नामक नगर था । राजगृह के ईशान कोण में गुणशील नामक चैत्य था । उस राजगृह नगर में श्रेणिक नामक राजा था । वह महाहिमवंत पर्वत के समान था, उस श्रेणिक राजा की नन्दा नामक देवी थी। वह सुकुमार हाथों-पैरों वाली थी, सूत्र-१० श्रेणिक राजा का पुत्र और नन्दा देवी का आत्मज अभय नामक कुमार था । वह शुभलक्षणों से युक्त तथा स्वरूप से परिपूर्ण पाँचों इन्द्रियों से युक्त शरीर वाला था । यावत् साम, दंड, भेद एवं उपप्रदान नीति में निष्णात तथा व्यापार नीति की विधि का ज्ञाता था । ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा तथा अर्थशास्त्र में कुशल था । ओत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी तथा पारिणामिकी, इन चार प्रकार की बुद्धियों से युक्त था । वह श्रेणिक राजा के लिए बहुत-से कार्यों में, कौटुम्बिक कार्यों में, मंत्रणा में, गृहकार्यों में, रहस्यमय मामलों में, निश्चय करने में, एक बार और बार-बार पूछने योग्य था, वह सब के लिए मेढ़ी के समान था, पृथ्वी के समान आधार था, रस्सी के समान आलम्बन रूप था, प्रमाणभूत था, आधारभूत था, चक्षुभूत था, सब और सब स्थानों में प्रतिष्ठा प्राप्त करने वाला था। सब को विचार देने वाला था तथा राज्य की धुरा को धारण करने वाला था । वह स्वयं ही राज्य राष्ट्र कोश, कोठार बल और वाहन-पुर और अन्तःपुर की देखभाल करता था। सूत्र - ११ उस श्रेणिक राजा की धारिणी नाम देवी (रानी) थी। उसके हाथ और पैर बहुत सुकुमार थे। उसके शरीर में पाँचों इन्द्रियों अहीन, शुभ लक्षणों से सम्पन्न और प्रमाणयुक्त थी । कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, अतीव मनोहर, धैर्य का स्थान, विश्वासपात्र, सम्मत, बहुमत, अनुमत आभूषणों तथा वस्त्रों के पिटारे के समान, सावधानी से सार-सँभाल की जाती हुई वह महारानी धारिणी श्रेणिक राजा से सात विपुल भोगों का सुख भोगती हुई रहती थी। सूत्र - १२ वह धारिणी देवी किसी समय अपने उत्तम भवन में शय्या पर सो रही थी । वह भवन कैसा था ? उसके बाह्य आलन्दक या द्वार पर तथा मनोज्ञ, चिकने, सुंदर आकार वाले और ऊंचे खंभों पर अतीव उत्तम पुतलियाँ बनी हई थीं। उज्ज्वल मणियों, कनक और कर्केतन आदि रत्नों के शिखर, कपोच-पारी, गवाक्ष, अर्ध-चंद्राकार सोपान, मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 6 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र - ६, 'ज्ञाताधर्मकथा ' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक निर्यूहक करकाली तथा चन्द्रमालिका आदि धर के विभागों की सुन्दर रचना से युक्त था। स्वच्छ गेरु से उसमें उत्तम रंग किया हुआ था । बाहर से उसमें सफेदी की गई थी, कोमल पाणाण से घिसाई की गई थी, अत एव वह चिकना था। उसके भीतरी भाग में उत्तम और शुचि चित्रों का आलेखन किया गया था। उसका फर्श तरह-तरह की पंचरंगी मणियों और रत्नों से जड़ा हुआ था। उसका ऊपरी भाग पद्म के से आकार की लताओं से, पुष्पप्रधान बेलों से तथा उत्तम पुष्पजाति- मालती आदि से चित्रित था । उसके द्वार-भागों में चन्दन चर्चित, मांगलिक, घट सुन्दर ढंग से स्थापित किए हुए थे। वे सरस कमलों से सुशोभित थे, प्रतरक-स्वर्णमय आभूषणों से एवं मणियों तथा मोचियों की लम्बी लटकने वाली मालाओं से उसके द्वार सुशोभित हो रहे थे। उसमें सुगंधित और श्रेष्ठ पुष्पों से कोमल और रूएंदार शय्या का उपचार किया गया था। वह मन एवं हृदय को आनन्दित करने वाला था । कपूर, लौंग, मलयज, चन्दन, कृष्ण अगर, उत्तम कुन्दुरुक्क, तुरुष्क और अनेक सुगंधित द्रव्यों से बने हुए धूप के जलने से उत्पन्न हुए मघमघाती गंध से रमणीय था । उसे उत्तम चूर्णों की गंध भी विद्यमान थी । सुगंध की अधिकता के कारण वह गंध द्रव्य की वट्टी जैसा प्रतीत होता था। मणियों की किरणों के प्रकाश से वहाँ अंधकार गायब हो गया था। अधिक क्या कहा जाए ? वह अपनी चमक-दमक तथा गुणों से उत्तम देवविमान को भी पराजित करता था । इस प्रकार के उत्तम भवन में एक शय्या बिछी थी। उस पर शरीर प्रमाण उपधान बिछा था । एक में दोनों ओर सिरहाने और पाँयते की जगह तकिए लगे थे। वह दोनों तरफ ऊंची और मध्य में भुकी हुई थी गंभीर थी। जैसे गंगा के किनारे की बालू में पाँव रखने से पाँव धँस जाता है, उसी प्रकार उसमें धँस जाता था । कसीदा काढ़े हुए श्रीमदुकूल का चद्दर बिछा हुआ था। वह आस्तरक, मलक, नवत, कुशक्त, लिम्ब और सिंहकेसर नामक आस्तरणों से आच्छादित था जब उसका सेवन नहीं किया जाता था तब उस पर सुन्दर बना हुआ राजस्राण पड़ा रहता था उस पर मसहरी लगी हुई थी, वह अति रमणीय था। उसका स्पर्श आजिनक रूई, बूर नामक वनस्पति और मक्खन के समान नरम था । ऐसी सुन्दर शय्या पर मध्यरात्रि के समय धारिणी रानी, जब न गहरी नींद में थी और न जाग ही रही थी, बल्कि बार-बार हल्की-सी नींद ले रही थी, ऊंध रही थी, जब उसने एक महान, सात हाथ ऊंचा, रजतकूट चाँदी के शिखर के सदृश श्वेत, सौम्य, सौम्याकृति, लीला करते हुए, जंभाई लेते हुए हाथी को आकाशतल से अपने मुख में प्रवेश करते देखा । देखकर वह जाग गई । I तत्पश्चात् वह धारिणी देवी इस प्रकार के इस स्वरूप वाले, उदार प्रधान, कल्याणकारी, शिव, धन्य, मांगलिक-एवं सुशोभित महास्वप्न को देखकर जागी । उसे हर्ष और संतोष हुआ । चित्त में आनन्द हुआ । मन में प्रीति उत्पन्न हुई । परम प्रसन्नता हुई । हर्ष के वशीभूत होकर उसका हृदय विकसित हो गया । मेघ की धाराओं आघात पाए कदम्ब के फूल के समान उसे रोमांच हो आया उसमे स्वप्न का विचार किया। शय्या से उठी और पादपीठ से नीचे ऊतरी मानसिक त्वरा से शारीरिक चपलता से रहित, स्खलना से तथा विलम्ब - रहित राजहंस जैसी गति से जहाँ श्रेणिक राजा था, वहीं आई। श्रेणिक राजा को इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज, मणाम, उदार, कल्याण, शिव, धन्य, मंगलकारी, सश्रीक हृदय को प्रिय लगने वाली, आह्लाद उत्पन्न करने वाली, परिमित अक्षरों वाली, मधुर स्वरों से मीठी, रिभित-स्वरों की धोलना वाली, शब्द और अर्थ की गंभीरता वाली और गुण रूपी लक्ष्मी से युक्त वाणी बार-बार बोलकर श्रेणिक राजा को जगाती है। जगाकर श्रेणिक राजा की अनुमति पाकर विविध प्रकार के मणि, सुवर्ण और रत्नों की रचना से चित्र-विचित्र भद्रासन पर बैठती है। आश्वस्त होकर, विश्वस्त होकर, सुखद और श्रेष्ठ आसन पर बैठी हुई वह दोनों करतलों से ग्रहण की हुई और मस्तक के चारों ओर घूमती हुई अंजीर को मस्तक पर धारण करके श्रेणिक राजा से इस प्रकार कहती है- देवानुप्रिय ! आज मैं उस पूर्ववर्णित शरीर प्रमाण तकिया वाली शय्या पर सो रही थी, तब यावत् अपने मुख में प्रवेश करते हुए हाथी को स्वप्न में देखकर जागी हूँ। हे देवानुप्रिय ! इस उदार यावत् स्वप्न का क्या फल- विशेष होगा ? सूत्र - १३ तत्पश्चात् श्रेणिक राजा धारिणी देवी से इस अर्थ को सूनकर तथा हृदय में धारण करके हर्षित हुआ, मेघ मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा )" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद" Page 7 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक की धाराओं से आहत कदम्बवृक्ष के सुगंधित पुष्प के समान उसका शरीर पुलकित हो उठा-उसने स्वप्न का अवग्रहण किया । विशेष अर्थ के विचार रूप ईहा में प्रवेश किया । अपने स्वाभाविक मतिपूर्वक बुद्धिविज्ञान से उस स्वप्न के फल का निश्चय किया । निश्चय करके धारिणी देवी से हृदय में आह्लाद उत्पन्न करने वाली मृदु, मधुर, रिभित, गंभीर और सश्रीक वाणी से बार-बार प्रशंसा करते हुए कहा। 'देवानुप्रिय ! तुमने उदार-प्रधान स्वप्न देखा है, देवानुप्रिये ! तुमने कल्याणकारी स्वप्न देखा है ! तुमने शिवउपद्रव-विनाशक, धन्य-मंगलमय-सुखकाकीर और सश्रीक-स्वप्न देखा है । देवा ! आरोग्य, तुष्टि, दीर्घायु, कल्याण और मंगल करने वाला स्वप्न तुमने देखा है । देवानुप्रिये ! इस स्वप्न को देखने से तुम्हें अर्थ का लाभ होगा, तुम्हें पुत्र का लाभ होगा, तुम्हें राज्य का लाभ होगा, भोग का तथा सुख का लाभ होगा । निश्चय ही ! तुम पूर नव मास और साढ़े सात रात्रि-दिन व्यतीत होने पर हमारे कुल की ध्वजा के समान, कुल के लिए दीपक के समान, कुल में पर्वत के समान, किसी से पराबत न होने वाला, कल का भुषण, कल का तिलक, कल की कीर्ति बढाने के आजीविका बढ़ानेवाला, कुल को आनन्द प्रदान करानार, कुल का यश बढ़ानेवाला, कुल का आधार, कुलमें वृक्ष के समान आश्रयणीय और कुल की वृद्धि करने वाला तथा सुकोमल हाथ-पैर वाला पुत्र (यावत्) प्रसव करोगी।' वह बालक बाल्यावस्था को पार करके कला आदि के ज्ञान में परिपक्व होकर, यौवन को प्राप्त होकर शूर-वीर और पराक्रमी होगा । वह विस्तीर्ण और विपुल सेना तथा वाहनों का स्वामी होगा । राज्य का अधिपति राजा होगा । तुमने आरोग्यकारी, तुष्टिकारी, दीर्घायुकारी और कल्याणकारी स्वप्न देखा है। इस प्रकार कहकर राजा उसकी प्रशंसा करता है। सूत्र - १४ तत्पश्चात् वह धारिणी देवी श्रेणिक राजा के इस प्रकार कहने पर हर्षित एवं सन्तुष्ट हुई । उसका हृदय आनन्दित हो गया । वह दोनों हाथ जोडकर आवर्त करके और मस्तक पर अंजलि करके इस प्रका प्रिय ! आपने जो कहा है सो ऐसा ही है । आपका कथन सत्य है । संशय रहित है । देवानुप्रिय ! मुझे इष्ट है, अत्यन्त इष्ट है, और इष्ट तथा अत्यन्त इष्ट है। आपने मुझसे जो कहा है सौ यह अर्थ सत्य है। इस प्रकार कहकर धारिणी देवी स्वप्न को भलीभाँति अंगीकार करती है । राजा श्रेणिक की आज्ञा पाकर नाना प्रकार के मणि, सुवर्ण और रत्नों की रचना से विचित्र भद्रासन से उठती है। जिस जगह अपनी शय्या थी, वहीं आती है । शय्या पर बैठती है, बैठकर इस प्रकार सोचती है- 'मेरा यह स्वरूप से उत्तम और फल से प्रधान तथा मंगलमय स्वप्न, अन्य अशुभ स्वप्नों से नष्ट न हो जाए' ऐसा सोचकर धारिणी देवी, देव और गुरुजन संबंधी प्रशस्त धार्मिक कथाओं द्वारा अपने शुभ स्वप्न की रक्षा के लिए जागरण करती हई विचरने लगी। सूत्र - १५ तत्पश्चात श्रेणिक राजा ने प्रभात काल के समय कौटम्बिक पुरुषों को बुलाया और इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! आज बाहर की उपस्थानशाला को शीघ्र ही विशेष रूप से परम रमणीय, गंधोदक से सिंचित, साफसूथरी, लीपी हुई, पाँच वर्गों के सरस सुगंधित एवं बिखरे हुए फूलों के समूह रूप उपचार से युक्त, कालागुरु, कुंदुरुक्क, तुरुष्क था धूप के जलाने से महकती हुई, गंध से व्याप्त होने के कारण मनोहर, श्रेष्ठ सुगंध के चूर्ण से सुगंधित तथा सुगंध की गुटिका के समान करो और कराओ । मेरी आज्ञा वापिस सौंपो । तत्पश्चात् वे कौटुम्बिक पुरुष श्रेणिक राजा द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर हर्षित हुए। उन्होंने आज्ञानुसार कार्य करके आज्ञा वापिस सौंपी। तत्पश्चात् स्वप्न वाली रात्रि के बाद दूसरे दिन रात्रि प्रकाशमान प्रभात रूप हई । प्रफुल्लित कमलों के पत्ते विकसित हुए, काले मृग के नेत्र निद्रारहित होने से विसस्वर हुए । फिर वह प्रभात पाण्डुर-श्वेत वर्ण वाला हुआ । लाल अशोक की कान्ति, पलाश के पुष्प, तोते की चोंच, चिरमी के अर्धभाग, दुपहरी के पुष्प, कबूतर के पैर और नेत्र, कोकिला के नेत्र, जासोद के फूल, जाज्वल्यमान अग्नि, स्वर्णकलश तथा हिंगूल के समूह की लालीमा से भी अधिक लालीमा से जिसकी श्री सुशोभित हो रही है, ऐसा सूर्य क्रमशः उदित हुआ । सूर्य की किरणों का समूह तत्ववाद मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 8 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक नीचे उतरकर अंधकार का विनाश करने लगा । बाल-सूर्य रूपी कुंकुम से मानो जीवलोक व्याप्त हो गया । नेत्रों के विषय का प्रसार होने से विकसित होने वाला लोक स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा । कमलों के वन को विकसित करने वाला तथा सहस्र किरणों वाला दिवाकर तेज से जाज्वल्यमान हो गया। शय्या से उठकर राजा श्रेणिक जहाँ व्यायामशाला थी, वहीं आता है | आकर-व्यायामशाला में प्रवेश करता है । प्रवेश करके अनेक प्रकार के व्यायाम, योग्य, व्यामर्दन, कुश्ती तथा करण रूप कसरत से श्रेणिक राजा ने श्रम किया, और खूब श्रम किया । तत्पश्चात् शतपाक तथा रसस्त्रपाक आदि श्रेष्ठ सुगंधित तेल आदि अभ्यंगनों से, जो प्रीति उत्पन्न करने वाला अर्थात् रुधिर आदि धातुओं को सम करने वाले, जठराग्नि को दीप्त करने वाले, दर्पणीय अर्थात् शरीर का बल बढ़ाने वाले, मदनीय, मांसवर्धक तथा समस्त इन्द्रियों को एवं शरीर को आह्लादित करने वाले थे, राजा श्रेणिक ने अभ्यंगन कराया । फिर मालिश किये शरीर के चर्म को, परिपूर्ण हाथ-पैर वाले तथा कोमल तल वाले, छेक दक्ष, बलशाली कुशल, मेधावी, निपुण, निपुण शिल्पी परिश्रम को जीतने वाले, अभ्यंगन मर्दन उद्वर्त्तन करने के गुणों से पूर्ण पुरुषों द्वारा अस्थियों को सुखकारी, मांस को सुखकारी, त्वचा को सुखकारी तथा रोमों को सुखकारी-इस प्रकार चार तरह की बाधना से श्रेणिक के शरीर का मर्दन किया गया । इस मालिश और मर्दन से राजा का परिश्रम दूर हो गया-थकावट मिट गई । वह व्यायामशाला से बाहर नीकला । श्रेणिक राजा जहाँ मज्जन-गृह था वहाँ आता है । मज्जनगृह में प्रवेश करता है । चारों ओर जालियों से मनोहर, चित्र-विचित्र मणियों और रत्नों के फर्श वाले तथा रमणीय स्नानमंडप के भीतर विविध प्रकार के मणियों और रत्नों की रचना से चित्र-विचित्र स्नान करने के पीठ-बाजौठ पर सुखपूर्वक बैठा। उसने पवित्र स्थान से लाए हुए शुभ जल से, पुष्पमिश्रित जल से, सुगंध मिश्रित जल से और शुद्ध जल से बार-बार कल्याणकारी-आनन्दप्रद और उत्तम विधि से स्नान किया । उस कल्याणकारी और उत्तम स्थान के अंत में रक्षा पोटली आदि सैकड़ों कौतुक किये गए । तत्पश्चात् पक्षी के पंख के समान अत्यन्त कोमल, सुगंधित और काषाय रंग से रंगे हुए वस्त्र से शरीर को पोंछा । कोरा, बहुमूल्य और श्रेष्ठ वस्त्र धारण किया । सरस और सुगंधित गोशीर्ष चन्दन से शरीर पर विलेपन किया । शुचि पुष्पों की माला पहनी । केसर आदि का लेपन किया । मणियों के और स्वर्ण के अलंकार धारण किए । अठारह लड़ों के हार, नौ लड़ों के अर्धहार, तीन लड़ों के छोटे हार तथा लम्बे लटकते हुए कटिसूत्र से शरीर की शोभा बढ़ाई । कंठ में कंठा पहना । उंगलियों में अंगुठियाँ धारण की । सुन्दर अंग पर अन्यान्य सुन्दर आक्षरण धारण किए । अनेक मणियों के बने कटक और त्रुटिक नामक आभूषणों से तंभित से प्रतीत होने लगे। अतिशय रूप के कारण राजा अत्यन्त सशोभित हो उठा । कंडलों के कारण उसका मुखमंडल उद्दीप्त हो गया । मुकुट से मस्तक प्रकाशित होने लगा । वक्षःस्थल हार से आच्छादित होने के कारण अतिशय प्रीति उत्पन्न करने लगा । लम्बे लटकते हुए दुपट्टे से उसने सुन्दर उत्तरासंग किया । मुद्रिकाओं से उसकी उंगलियाँ पीली दीखने लगीं । नाना भाँति की मणियों, सुवर्ण और रत्नों से निर्मल, महामूल्यवान्, निपुण कलाकालों द्वारा निर्मित, चमचमते हुए, सुरचित, भली-भाँति मिली हुई सन्धियों वाले, विशिष्ट प्रकार के मनोहर, सुन्दर आकार वाले और प्रशस्त वीर-वलय धारण किये । अधिक क्या कहा जाए ? मुकूट आदि आभूषणों से अलंकृत और वस्त्रों से विभूषित राजा श्रेणिक कल्पवृक्ष के समान दिखाई देने लगा। कोरंट वृक्ष के पुष्पों की माला वाला छत्र उसके मस्तक पर धारण किया गया । आजू-बाजू चार चामरों से उसका शरीर बींजा जाने लगा । राजा पर दृष्टि पड़ते ही लोग 'जय-जय' का घोष करने लगे । अनेक गणनायक, दंडनायक, राजा, ईश्वर, तलवर, मंत्री, महामंत्री, ज्योतिषी, द्वारपाल, अमात्य, चेट, पीठमर्द, नागरिक लोग, व्यापारी, सेठ, सेनापति, सार्थवाह, दूत और सन्धिपाल-इन सब से घिरा हुआ ग्रहों के समूह में देदीप्यमान तथा नक्षत्रों और ताराओं के बीच चन्द्रमा के समान प्रियदर्शन राजा श्रेणिक मज्जनगृह से इस प्रकार नीकला जैसे उज्ज्वल महामेघों में से चन्द्रमा नीकला हो । बाह्या उपस्थानशाला थी, वहीं आया और पूर्व दिशा की ओर मुख करके श्रेष्ठ सिंहासन पर आसीन हुआ। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 9 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र - ६, 'ज्ञाताधर्मकथा ' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक श्रेणिक राजा अपने समीप ईशानकोण में श्वेत वस्त्र से आच्छादित तथा सरसों के मांगलिक उपचार से जिनमें शान्तिकर्म किया गया है, ऐसे आठ भद्रासन रखवाता है । नाना मणियों और रत्नों से मंडित, अतिशय दर्शनीय, बहुमूल्य और श्रेष्ठनगर में बनी हुई कोमल एवं सैकड़ों प्रकार की रचना वाले चित्रों का स्थानभूत, ईहामृग, वृषभ, अश्व, नर, मगर, पक्षी, सर्प, किन्नर, रुरु जाति के मृग, अष्टापद, चमरी गाय, हाथी, वनलता और पद्म आदि के चित्रों से युक्त, श्रेष्ठ स्वर्ण के तारों से भरे हुए सुशोभित किनारों वाली जवनिका सभा के भीतरी भाग में बँधवाई। धारिणी देवी के लिए एक भद्रासन रखवाया। वह भद्रासन आस्तरक और कोमल तकियों से ढ़का था । श्वेत वस्त्र उस पर बिछा हुआ था । सुन्दर था । स्पर्श से अंगों को सुख उत्पन्न करने वाला था और अतिशय मृदु । राजा न कौटुम्बिक पुरुषों को बुलवाया और कहा- देवानुप्रियों ! अष्टांग महानिमित्त तथा विविध शास्त्रों में कुशल स्वप्नपाठकों को शीघ्र ही बुलाओ और शीघ्र ही इस आज्ञा को वापिस लौटाओ । तत्पश्चात् वे कौटुम्बिक पुरुष श्रेणिक राजा द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर हर्षित यावत् आनन्दित हृदय हुए। । दोनों हाथ जोड़कर दसों नखों को इकट्ठा करके मस्तक पर घूमा कर अंजलि जोड़कर 'हे देव ! ऐसा ही हो' इस प्रकार कहकर विनय के साथ आज्ञा के वचनों को स्वीकार करते हैं और स्वीकार करके श्रेणिक राजा के पास से नीकलते हैं। नीकलकर राजगृह के बीचोंबीच होकर जहाँ स्वप्नपाठकों के घर थे, वहाँ पहुँचते हैं और पहुँच कर स्वप्नपाठकों को बुलाते हैं। तत्पश्चात् वे स्वप्नपाठक श्रेणिक राजा के कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा बुलाये जाने पर हृष्टतुष्ट यावत् आनन्दितहृदय हुए उन्होंने स्नान किया, कुलदेवता का पूजन किया, यावत् कौतुक और मंगल प्रायश्चित्त किया । अल्प किन्तु बहुमूल्य आभरणों से शरीर को अलंकृत किया, मस्तक पर दूर्वा तथा सरसों मंगल निमित्त धारण किये । फिर अपने-अपने घरों से नीकले । राजगृह के बीचोंबीच होकर श्रेणिक राजा के मुख्य महल के द्वार पर आए । एक साथ मिलकर श्रेणिक राजा के मुख्य महल के द्वार के भीतर प्रवेश किया । प्रवेश करके जहाँ बाहरी उपस्थानशाला थी और जहाँ श्रेणिक राजा था, वहाँ आए । आकर श्रेणिक राजा को जय और विजय शब्दों से बधाया । श्रेणिक राजा ने चन्दनादि से उनकी अर्चना की, गुणों की प्रशंसा करके वन्दन किया, पुष्पों द्वारा पूजा की, आदरपूर्ण दृष्टि से देखकर एवं नमस्कार करके मान किया, फल-वस्त्र आदि देकर सत्कार किया और अनेक प्रकार की भक्ति कर सम्मान किया । वे स्वप्नपाठक पहले से बिछाए हुए भद्रासनों पर अलग-अलग बैठे । तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने जवनिका के पीछे धारिणी देवी को बिठलाया। फिर हाथों में पुष्प और फल लेकर अत्यन्त विनय के साथ स्वप्नपाठकों से इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय ! आज उस प्रकार की उस शय्या पर सोई धारिणी देवी यावत् महास्वप्न देखकर जागी है । तो देवानुप्रियो ! इस उदार यावत् महास्वप्न का क्या कल्याणकारी फल- विशेष होगा ? तत्पश्चात् वे स्वप्नपाठक श्रेणिक राजा का यह कथन सूनकर और हृदय में धारण करके हृष्ट, तुष्ट, आनन्दितहृदय हुए। उन्होंने उस स्वप्न का सम्यक् प्रकार से अवग्रहण किया। ईहा में प्रवेश किया, प्रवेश करके परस्पर एक-दूसरे के साथ विचार-विमर्श किया। स्वप्न का आपसे अर्थ समझा, दूसरों का अभिप्राय जानकर विशेष अर्थ समझा, आपस में उस अर्थ की पूछताछ की, अर्थ का निश्चय किया और फिर तथ्य का निश्चय किया वे स्वप्नपाठक श्रेणिक राजा के सामने स्वप्नशास्त्रों का बार-बार उच्चारण करते हुए इस प्रकार बोले हे स्वामिन् ! हमारे स्वप्नशास्त्र में बयालीस स्वप्न और तीस महास्वप्न कुल मिलाकर ७२ स्वप्न हैं। अरिहंत और चक्रवर्ती की माता, जब अरिहंत और चक्रवर्ती गर्भ में आते हैं तो तीस महास्वप्नों में चौदह महास्वप्न देखकर जागती हैं । वे इस प्रकार हैं I सूत्र - १६ हाथी, वृषभ, सिंह, अभिषेक, पुष्पों की माला, चन्द्र, सूर्य, ध्वजा, पूर्ण कुंभ, पद्मयुक्त सरोवर, क्षीरसागर, विमान, रत्नों की राशि और अग्नि । सूत्र - १७ जब वासुदेव गर्भ में आते हैं तो वासुदेव की माता इन चौदह महास्वप्नों में किन्हीं भी सात महास्वप्नों को मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा )" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद” Page 10 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक देखकर जागृत होती हैं । जब बलदेव गर्भ में आते हैं तो बलदेव की माता इन चौदह महास्वप्नों में से किन्हीं चार महास्वप्नों को देखकर जागृत होती हैं । जब मांडलिक राजा गर्भ में आता है तो मांडलिक राजा की माता इन चौदह महास्वप्नों में से कोई एक महास्वप्न देखकर जागृत होती है। स्वामिन् ! धारिणी देवी ने इन महास्वप्नों में से एक महास्वप्न देखा है; अत एव स्वामिन् ! धारिणी देवी ने उदार स्वप्न देखा है, यावत् आरोग्य, तुष्टि, दीर्घायु, कल्याण और मंगलकारी, स्वामिन् ! धारिणी देवी ने स्वप्न देखा है। स्वामिन् ! इससे आपको अर्थलाभ होगा। सुख का लाभ होगा। भोग का लाभ होगा, पुत्र का तथा राज्य का लाभ होगा । इस प्रकार स्वामिन् ! धारिणी देवी पूरे नौ मास व्यतीत होने पर यावत् पुत्र को जन्म देगी । वह पुत्र बाल-वय को पार करके, गुरु की साक्षी मात्र से, अपने ही बुद्धिवैभव से समस्त कलाओं का ज्ञाता होकर, युवावस्था को पार करके संग्राम में शर, आक्रमण करने में वीर और पराक्रमी होगा । विस्तीर्ण और विपल बल वाहनों का स्वामी होगा । राज्य का अधिपति राजा होगा अथवा अपनी आत्मा को भावित करने वाला अनगार होगा । अत एव हे स्वामिन् ! धारिणी देवी ने उदार-स्वप्न देखा है यावत् आरोग्यकारके तुष्टिकारक आदि पूर्वोक्त विशेषणों वाला स्वप्न देखा है । उस प्रकार कहकर स्वप्नपाठक बार-बार उस स्वप्न की सराहना करने लगे। तत्पश्चात् श्रेणिक राजा उस स्वप्नपाठकों से इस कथन को सूनकर और हृदय में धारण करके हृष्ट, तुष्ट एवं आनन्दितहृदय हो गया और हाथ जोड़कर इस प्रकार बोला-देवानुप्रियों ! जो आप कहते हो सो वैसा ही है-इस प्रकार कहकर उस स्वप्न के फल को सम्यक् से स्वीकार करके उन स्वप्नपाठकों का विपुल अशन, पान, खाद्य और वस्त्र, गंध, माला, अलंकारों से सत्कार करता है, सन्मान करता है । जीविका योग्य प्रीतिदान देकर बिदा करता है। तत्पश्चात् श्रेणिक राजा सिंहासन से उठा और जहाँ धारिणी देवी थी, वहाँ आया । आकर धारिणी देवी से उस प्रकार बोला-'हे देवानुप्रिये ! स्वप्नशास्त्र में बयालीस स्वप्न और तीस महास्वप्न कहे हैं, उनमें से तुमने एक महास्वप्न देखा है ।' इत्यादि स्वप्नपाठकों के कथन के अनुसार सब कहता है और बार-बार स्वप्न की अनुमोदना करता है । तत्पश्चात् धारिणी देवी, श्रेणिक राजा का यह कथन सूनकर और हृदय में धारण करके हृष्ट-तुष्ट हुई, यावत् आनन्दितहृदय हुई । उसने उस स्वप्न को सम्यक् प्रकार से अंगीकार किया । अपने निवासगृह में आई । स्नान करके तथा बलिकर्म यावत् विपुल भोग भोगती हुई विचरने लगी। सूत्र - १८ तत्पश्चात् दो मास व्यतीत हो जाने पर जब तीसरा मास चल रहा था तब उस गर्भ के दोहदकाल के अवसर पर धारिणी देवी को इस प्रकार का अकाल-मेघ का दोहद उत्पन्न हआ-जो माताएं अपने अकाल-मेघ के दोहद को पूर्ण करती हैं, वे माताएं धन्य हैं, वे पुण्यवती हैं, वे कृतार्थ हैं । उन्होंने पूर्वजन्म में पुण्य का उपार्जन किया है, वे कृतलक्षण हैं, उनका वैभव सफल है, उन्हें मनुष्य संबंधी जन्म और जीवन का फल प्राप्त हुआ है । आकाश में मेघ उत्पन्न होने पर, क्रमशः वृद्धि प्राप्त होने पर, उन्नति प्राप्त होने पर, बरसने की तैयारी होने पर, गर्जना युक्त होने पर, विद्युत से युक्त होने पर, छोटी-छोटी बरसती हुई बूंदों से युक्त होने पर, मंद-मंद ध्वनि से युक्त होने पर, अग्नि जला कर शुद्ध की हई चाँदी के पतरे के समान, अङ्क रत्न, शंख, चन्द्रमा, कुन्द पुष्प और चावल के आटे के समान शुक्ल वर्ण वाले, चिकुर नामक रंग, हरचाल के टुकड़े, चम्पा के फूल, सन के फूल, कोरंट-पुष्प, सरसों के फूल और कमल के रज के समान पीत वर्ण वाले, लाख के रस, सरस रक्तवर्ण किशुंक के पुष्प, जासु के पुष्प, लाल रंग के बंधजीवक के पुष्प, उत्तम जाति के हिंगल, सरस कंक, बकरा और खरगोश के रक्त और इन्द्रगोप के समान लाल वर्ण वाले, मयूर, नीलम मणि, नीली गुलिका, तोते के पंख, चाष पक्षी के पंख, भ्रमर के पंख, सासक नामक वृक्ष या प्रियंगुलता, नीलकमलों के समूह, ताजा शिरीष-कुसुम और घास के समान नील वर्ण वाले, उत्तम अंजन, काले भ्रमर या कोयला, रिष्टरत्न, भ्रमरसमूह, भैंस के सींग, काली गोली और कज्जल के समान काले वर्ण वाले, इस प्रकार पाँचों वर्णों वाले मेघ हों, बिजली चमक रही हो, गर्जना की ध्वनि हो रही हो, विस्तीर्ण आकाश में वायु के कारण चपल बने हुए बादल इधर-उधर चल रहे हों, निर्मल श्रेष्ठ जलधाराओं से गलित, प्रचंड वायु से मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 11 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा ' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक आहत, पृथ्वीतल को भिगोने वाली वर्षा निरन्तर बरस रही हो, जल-धारा के समूह से भूतल शीतल हो गया हो, ने घास रूपी कंचुक को धारण किया हो, वृक्षों का समूह पल्लवों से सुशोभित हो गया हो, बेलों के समूह विस्तार को प्राप्त हुए हों, उन्नत भू-प्रदेश सौभाग्य को प्राप्त हुए हों, अथवा पर्वत और कुण्ड सौभाग्य को प्राप्त हुए हों, वैभारगिरि के प्रपात तट और कटक से निर्झर नीकल कर बह रहे हों, पर्वतीय नदियों में तेज बहाव के कारण उत्पन्न हुए फेनों से युक्त जल बह रहा हो, उद्यान सर्ज, अर्जुन, नीप और कुटज नामक वृक्षों के अंकुरों से और छत्राकार से युक्त हो गया हो, मेघ की गर्जना के कारण हृष्ट-तुष्ट होकर नाचने की चेष्टा करने वाले मयूर हर्ष के कारण मुक्त कंठ से केकारव कर रहे हों, और वर्षा ऋतु के कारण उत्पन्न हुए मद से तरुण मयूरियाँ नृत्य कर रही हों, उपवन शिलिंघ्र, कुटज, कंदल और कदम्ब वृक्षों के पुष्पों की नवीन और सौरभयुक्त गंध की तृप्ति धारण कर रहे हो, नगर के बाहर के उद्यान कोकिलाओं के स्वरघोलना वाले शब्दों से व्याप्त हों और रक्तवर्ण इन्द्रगोप नामक कीडों से शोभायमान हो रहे हों, उनमें चातक करुण स्वर से बोल रहे हों, वे नमे हए तणों से सुशोभित हों, उनमें मेंढ़क उच्च स्वर से आवाज कर रहे हों, मदोन्मत भ्रमरों और भ्रमरियों के समूह एकत्र हो रहे हों, तथा उन उद्यानप्रदेशों में पुष्प-रस के लोलुप एवं मधुर गुंजार करने वाले मदोन्मत भ्रमर लीन हो रहे हों, आकाशतल में चन्द्रमा, सूर्य और ग्रहों का समूह मेघों से आच्छादित होने के कारण श्यामवर्ण का दृष्टिगोचर हो रहा हो, इन्द्रधनुष रूपी ध्वजपट फरफरा रहा हो, और उसमें रहा हुआ मेघसमूह बगुलों की कतारों से शोभित हो रहा हो, इस भाँति कारंडक, चक्रवाक और राजहंस पक्षियों को मानस-सरोवर की ओर जाने के लिए उत्सुक बनाने वाला वर्षाऋतु का समय हो । ऐसे वर्षाकाल में जो माताएं स्नान करके, बलिकर्म करके, कौतुक मंगल और प्रायश्चित्त करके (वैभार-गिरि के प्रदेशों में अपने पति के साथ विहार करती हैं, वे धन्य हैं ।) वे माताएं धन्य हैं जो पैरों में उत्तम नूपुर धारण करती हैं, कमर में करधनी पहनती हैं, वक्षःस्थल पर हार पहनती हैं, हाथों में कड़े तथा उंगलियों में अंगूठियाँ पहनती हैं, अपने बाहुओं को विचित्र और श्रेष्ठ बाजूबन्दों से स्तंभित करती हैं, जिनका अंग रत्नों से भूषित हो, जिन्होंने ऐसा वस्त्र पहना हो जो नासिका के निःश्वास की वायु से भी उड़ जाए अर्थात् अत्यन्त बारीक हो, नेत्रों को हरण करने वाला हो, उत्तम वर्ण और स्पर्श वाला हो, घोड़े के मख से नीकलने वाले फेन से भी कोमल और हल्का हो. उज्ज्वल हो, जिसकी निकारियाँ सवर्ण के तारों के बनी गई हों, श्वेत होने के कारण जो आकाश एवं स्फटिक के समान शुभ्र कान्ति वाला हो और श्रेष्ठ हों। जिन माताओं पुष्पों और फुसमालाओं से सुशोभित हो, जो कालागुरु आदि की उत्तम धूप से धूपित हों और जो लक्ष्मी के समान वेष वाली हों । इस प्रकार सजधज करके जो सेचनक नामक गंधहस्ती पर आरूढ़ होकर, कोरंट-पुष्पों की माला से सुशोभित छत्र को धारण करती हैं । चन्द्रप्रभा, वज्र और वैडूर्य रत्न के निर्मल दंड़ वाले एवं शंख, कुन्दपुष्प, जलकण और अमृत का मंथन करने से उत्पन्न हुए फेन के समूह के समान उज्ज्वल, श्वेत चार चमर जिनके ऊपर ढोरे जा रहे हैं, जो हस्ती-रत्न के स्कंध पर राजा श्रेणिक के साथ बैठी हों। उनके पीछे-पीछे चतुरंगिणी सेना चल रही हो, छत्र आदि राजचिह्नों रूप समस्त ऋद्धि के साथ, आभूषणों की कान्ति के साथ, यावत् वाद्यों के निर्घोष-शब्द के साथ, राजगृह नगर के शृंगाटक, चतुष्क, चत्वर, चतुर्मुख, महापथ तथा सामान्य मार्द में गंधोदरक एक बार छिड़का हो, अनेक बार छिड़का हो, शृंगाटक आदि को शुचि किया हो, झाडा हो, गोबर आदि से लीपा हो, काले अगर, श्रेष्ठ कुंदरु, लोबान तथा धूप को जलाने से फैली हई सुगंध से मघमघा रहा हो, उत्तम चूर्ण के गंध से सुगंधित किया हो और मानों गंधद्रव्यों की गुटिका ही हो, ऐसे राजगृह नगर को देखती जा रही हों । नागरिक जन अभिवन्दन कर रहे हों । गुच्छों, लताओं, वृक्षों, गुल्मों एवं वेलों के समूहों से व्याप्त, मनोहर वैभारपर्वत के नीचले भागों के समीप, चारों और सर्वत्र भ्रमण करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती हैं (वे माताएं धन्य हैं।) तो मैं भी इस प्रकार मेघों का उदय आदि होने पर अपने दोहद को पूर्ण करना चाहती हूँ। सूत्र - १९ तत्पश्चात् वह धारिणी देवी उस दोहद के पूर्ण न होने के कारण, दोहद के सम्पन्न न होने के कारण, दोहद मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 12 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा ' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक के सम्पूर्ण न होने के कारण, मेघ आदि का अनुभव न होने से दोहद सम्मानित न होने के कारण, मानसिक संताप द्वारा रक्त का शोषण हो जाने से शुष्क हो गई । भूख से व्याप्त हो गई । मांस रहित हो गई । जीर्ण एवं शीर्ण शरीर वाली, स्नान का त्याग करने से मलीन शरीर वाली, भोजन त्याग देने से दुबरी तथा श्रान्त हो गई । उसने मुख और नयन रूपी कमल नीच कर लिए, उसका मुख फीका पड़ गया । हथेलियों से असली हुई चम्पक-पुष्पों की माला के समान निस्तेज हो गई । उसका मुख दीन और विवर्ण हो गया, यथोचित पुष्प, गंध, माला, अलंकार और हार के विषय में रुचिरहित हो गई, अर्थात् उसने इन सबका त्याग कर दिया । जल आदि की क्रीड़ा और चौपड़े आदि का परित्याग कर दिया । वह दीन, दुःखी मन वाली, आनन्दहीन एवं भूमि की तरफ दृष्टि किये हुए बैठी रही। उसके मन का संकल्प-हौसला नष्ट हो गया । वह यावत् आर्त्तध्यान में डूब गई। उस धारिणी देवी की अंगपरिचारिका-धारिणी देवी को जीर्ण-सी एवं जीर्ण शरीर वाली, यावत् आर्तध्यान करती हुई देखती है । इस प्रकार कहती है-'हे देवानुप्रिय ! तुम जीर्ण जैसी तथा जीर्ण शरीर वाली क्यों हो रही हो? यावत् आर्त्तध्यान क्यों कर रही हो? धारिणी देवी अंगपरिचारिका दासियों द्वारा इस प्रकार कहने पर उनका आदर नहीं करती, उन्हें जानती भी नहीं उनकी बात पर ध्यान नहीं देती। वह मौन ही रहती है। तब वे अंगपरिचारिका आभ्यन्तर दासियाँ दूसरी बार, तीसरी बार कहने लगीं-क्यों तुम जीर्ण-सी, जीर्ण शरीर वाली हो रही हो, यहाँ तक कि आर्तध्यान कर रही हो? तत्पश्चात् धारिणी देवी अंगपरिचारिका आभ्यन्तर दासियों द्वारा दूसरी बार और तीसरी बार भी उस प्रकार कहने पर न आदर करती है और न जानती है, अर्थात् उनकी बात पर ध्यान नहीं देती, न आदर करती हुई और न जानती हुई वह मौन रहती है । तत्पश्चात् वे अंगपरिचारिका आभ्यन्तर दासियाँ धारिणी देवी द्वारा अनादृत एवं अपरिज्ञानत की हुई, उसी प्रकार संभ्रान्त होती हुई धारिणी देवी के पास से नीकलती हैं और नीकलकर श्रेणिक राजा के पास आती हैं । दोनों हाथों को इकट्ठा करके यावत् मस्तक पर अंजलि करके जयविजय से बधाती हैं और बधा कर इस प्रकार कहती हैं- स्वामिन् ! आज धारिणी देवी जीर्ण जैसी, जीर्ण शरीर वाली होकर यावत् आर्त्तध्यान से युक्त होकर चिन्ता में डूब रही हैं।' सूत्र - २० तब श्रेणिक राजा उन अंगपरिचारिकाओं से यह सूनकर, मन में धारण करके, उसी प्रकार व्याकुल होता हुआ, त्वरा के साथ एवं अत्यन्त शीघ्रता से जहाँ धारिणी देवी थी, वहाँ आता है । आकर धारिणी देवी को जीर्णजैसी, जीर्ण शरीर वाली यावत् आर्तध्यान से युक्त-देखता है । इस प्रकार कहता है- देवानुप्रिय ! तुम जीर्ण जैसी, जीर्ण शरीर वाली यावत् आर्त्तध्यान से युक्त होकर क्यों चिन्ता कर रही हो ?' धारिणी देवी श्रेणिक राजा के इस प्रकार कहने पर भी आदर नहीं करती-उत्तर नहीं देती, यावत् मौन रहती है । तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने धारिणी देवी से दूसरी बार और फिर तीसरी बार भी इसी प्रकार कहा । धारिणी देवी श्रेणिक राजा के दूसरी बार और तीसरी बार भी इस प्रकार कहने पर आदर नहीं करती और नहीं जानती-मौन रहती है । तब श्रेणिक राजा धारिणी देवी को शपथ दीलाता है और शपथ दीलाकर कहता है-'देवानुप्रिय ! क्या मैं तुम्हारे मन की बात सुनने के लिए अयोग्य हूँ, जिससे अपने मन में रहे हुए मानसिक दुःख को छिपाती हो ?' त् श्रेणिक राजा द्वारा शपथ सूनकर धारिणी देवी ने श्रेणिक राजा से इस प्रकार कहा-स्वामिन् ! मुझे वह उदार आदि पूर्वोक्त विशेषणों वाला महास्वप्न आया था। उसे आए तीन मास पूरे हो चूके हैं, अत एव इस प्रकार का अकाल-मेघ संबंधी दोहद उत्पन्न हुआ है कि वे माताएं धन्य हैं और वे माताएं कृतार्थ हैं, यावत् जो वैभार पर्वत की तलहटी में भ्रमण करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती हैं । अगर मैं भी अपने दोहद को पूर्ण करूँ तो धन्य होऊं । इस कारण हे स्वामिन् ! मैं इस प्रकार के इस दोहद के पूर्ण न होने से जीर्ण जैसी, जीर्ण शरीर वाली हो गई हूँ; यावत् आर्त्तध्यान करती हुई चिन्तित हो रही हूँ | स्वामिन् ! जीर्ण-सी-यावत् आर्तध्यान से युक्त होकर चिन्ताग्रस्त होने का यही कारण है। ___ तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने धारिणी देवी से यह बात सुनकर और समझ कर, धारिणी देवी से इस प्रकार मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 13 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक कहा-'देवानुप्रिय ! तुम जीर्ण शरीर वाली मत होओ, यावत् चिन्ता मत करो, मैं वैसा करूँगा जिससे तुम्हारे इस अकाल-दोहद की पूर्ति हो जाएगी। इस प्रकार कहकर श्रेणिक ने धारिणी देवी को इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मणाम वाणी से आश्वासन दिया । आश्वासन देकर जहाँ बाहर की उपस्थानशाला थी, वहाँ आया । आकर श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्व दिशा की और मुख करके बैठा । धारिणी देवी के इस अकाल-दोहद की पूर्ति करने के लिए बहुतेरे आयों से, उपायों से, औत्पत्तिकी बुद्धि से, वैनयिक बुद्धि से, कार्मिक बुद्धि से, पारिणामिक बुद्धि से इस प्रकार चारों तरह की बुद्धि से बार-बार विचार करने लगा । परन्तु विचार करने पर भी उस दोहद के लाभ को, उपाय को, स्थिति को और निष्पत्ति को समझ नहीं पाता, अर्थात् दोहदपूर्ति का कोई उपाय नहीं सुझता । अत एव श्रेणिक राजा के मन का संकल्प नष्ट हो गया और वह भी यावत् चिन्ताग्रस्त हो गया। तदनन्तर अभयकुमार स्नान करके, बलिकर्म करके, यावत् समस्त अलंकारों से विभूषित होकर श्रेणिक राजा के चरणों में वन्दना करने के लिए जाने का विचार करता है-रवाना होता है। तत्पश्चात अभयकुमार श्रेणिक राजा के समीप आता है। आकर श्रेणिक राजा को देखता है कि इनके मन के संकल्प को आघात या हे । यह देखकर अभयकुमार के मन में इस प्रकार का यह आध्यात्मिक अर्थात् आत्मा संबंधी, चिन्तित, प्रार्थित और मनोगत संकल्प उत्पन्न होता है-' अन्य समय श्रेणिक राजा मुझे आता देखते थे तो देखकर आदर करते, जानते, वस्त्रादि से सत्कार करते, आसनादि देकर सन्मान करते तथा आलाप-संलाप करते थे, आधे आसन पर बैठने के लिए निमंत्रण करते और मेरे मस्तक को सूंघते थे । किन्तु आज श्रेणिक राजा मुझे न आदर दे रहे हैं, न आया जान रहे हैं, न सत्कार करते हैं, न इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और उदार वचनों से आलाप-संलाप करते हैं, न अर्ध आसन पर बैठने के लिए निमंत्रित करते हैं और न मस्तक को सूंघते हैं, उनके मन के संकल्प को कुछ आ अत एव चिन्तित हो रहे हैं । इसका कोई कारण होना चाहिए । मुझे श्रेणिक राजा से यह बात पूछना श्रेय है ।' अभयकुमार इस प्रकार विचार करता है और विचार कर जहाँ श्रेणिक राजा थे, वहीं आता है । आकर दोनों हाथ जोड़कर, मस्तक पर आवर्त्त, अंजलि करके जय-विजय से बधाता है । बधाकर इस प्रकार कहता है हे तात ! आप अन्य समय मुझे आता देखकर आदर करते, जानते, यावत् मेरे मस्तक को सूंघते थे और आसन पर बैठने के लिए निमंत्रित करते थे, किन्तु तात ! आप आज मुझे आदर नहीं दे रहे हैं, यावत् आसन पर बैठने के लिए निमंत्रित नहीं कर रहे हैं और मन का संकल्प नष्ट होने के कारण कुछ चिन्ता कर रहे हैं तो इसका कोई कारण होना चाहिए । तो हे तात ! आप इस कारण को छिपाए बिना, इष्टप्राप्ति में शंका रखे बिना, अपलाप किये बिना, दबाये बिना, जैसा का तैसा, सत्य संदेहरहित कहिए । तत्पश्चात् मैं उस कारण का पार पाने का प्रयत्न | | अभयकुमार के इस प्रकार कहने पर श्रेणिक राजा ने अभयकुमार से-पुत्र ! तुम्हारी छोटी माता धारिणी देवी की गर्भस्थिति हुए दो मास बीत गए और तीसरा मास चल रहा है। उसमें दोहद-काल के समय उसे इस प्रकार का दोहद उत्पन्न हुआ है-वे माताएं धन्य हैं, इत्यादि सब पहले की भाँति ही कह लेना, यावत् जो अपने दोहद को पूर्ण करती हैं । तब हे पुत्र ! मैं धारिणी देवी के उस अकाल-दोहद के आयों, उपायों एवं उपपत्ति को नहीं समझ पाया हूँ। उससे मेरे मन का संकल्प नष्ट हो गया है और मैं चिन्तायुक्त हो रहा हूँ। इसी से मुझे तुम्हारा आना भी नहीं जान पड़ा । अत एव पुत्र ! मैं इसी कारण नष्ट हुए मनःसंकल्प वाला होकर चिन्ता कर रहा हूँ। तत्पश्चात् वह अभयकुमार, श्रेणिक राजा से यह अर्थ सूनकर और समझ कर हृष्ट-तुष्ट और आनन्दितहृदय हुआ । उसने श्रेणिक राजा से इस भाँति कहा-हे तात ! आप भग्न-मनोरथ होकर चिन्ता न करे । मैं वैसा करूँगा, जिससे मेरी छोटी माता धारिणी देवी के इस अकाल-दोहद के मनोरथ की पूर्ति होगी । इस प्रकार कह इष्ट, कांच यावत् श्रेणिक राजा को सान्त्वना दी । श्रेणिक राजा, अभयकुमार के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुआ | वह अभयकुमार का सत्कार करता है, सन्मान करता है। सत्कार-सन्मान करके बिदा करता है। सूत्र - २१ तब (श्रेणिक राजा द्वारा) सत्कारित एवं सन्मानित होकर बिदा किया हुआ अभयकुमार श्रेणिक राजा के मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 14 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक पास से नीकलता है । नीकल कर जहाँ अपना भवन है, वहाँ आता है | आकर वह सिंहासन पर बैठ गया । तत्पश्चात् अभयकुमार को इस प्रकार यह आध्यात्मिक विचार, चिन्तन, प्रार्थित या मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआदिव्य अर्थात् दैवी संबंधी उपाय के बिना केवल मानवीय उपाय से छोटी माता धारिणी देवी के अकाल-दोहद के मनोरथ की पूर्ति होना शक्य नहीं है । सौधर्म कल्प में रहने वाला देव मेरा पूर्व का मित्र है, जो महान् ऋद्धिधारक यावत् महान् सुख भोगने वाला है । तो मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि मैं पौषधशाला में पौषध ग्रहण करके, ब्रह्मचर्य धारण करके, मणि-सुवर्ण आदि के अलंकारों का त्याग करके, माला वर्णक और विलेपन का त्याग करके, शस्त्रमूसल आदि अर्थात् समस्त आरम्भ-समारम्भ को छोड़कर, एकाकी और अद्वितीय होलक, डाभ के संथारे पर स्थित होकर, अष्टभक्ततेला की तपस्या ग्रहण करके, पहले के मित्र देव का मन में चिन्तन करता हुआ स्थित रहूँ। ऐसा करने से वह पूर्व का मित्र मेरी छोटी माता धारिणी देवी के अकाल-मेघों सम्बन्धी दोहद को पूर्ण कर देगा। अभयकुमार इस प्रकार विचार करता है । विचार करके जहाँ पौषधशाला है, वहाँ जाता है । जाकर पौषध-शाला का प्रमार्जन करता है । उच्चार-प्रस्रवण की भूमि का प्रतिलेखन करता है। प्रतिलेखन करके डाभ के संथारे का प्रतिलेखन करता है । डाभ के संथारे का प्रतिलेखन करके उस पर आसीन होता है। आसीन होकर अष्टाभक्त तप ग्रहण करता है । ग्रहण करके पौषधशाला में पौषधयुक्त होकर, ब्रह्मचर्य अंगीकार करके पहले के मित्र देव का मन में पुनः पुनः चिन्तन करता है। जब अभयकुमार का अष्टमभक्त तप प्रायः पूर्ण होने आया, तब पूर्वभव के मित्र देव का आसन चलायमान हुआ । तब पूर्वभव का मित्र सौधर्मकल्पवासी देव अपने आसन को चलित हुआ देखता है और देखकर अवधिज्ञान का उपयोग लगाता है । तब पूर्वभव के मित्र देव को इस प्रकार का यह आन्तरिक विचार उत्पन्न होता है-'इस प्रकार मेरा पूर्वभव का मित्र अभयकुमार जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, दक्षिणार्ध भरत में, राजगृह में, पौषधशाला में अष्टमभक्त ग्रहण करके मन में बार-बार मेरा स्मरण कर रहा है । अत एव मुझे अभयकुमार के समीप प्रकट होना योग्य है ।' देव इस प्रकार विचार करके ईशानकोण में जाता है और वैक्रियसमुद्घात करता है, अर्थात उत्तर वैक्रिय शरीर बनाने के लिए जीव-प्रदेशों को बाहर नीकालता है। संख्यात योजनों का दंड बनाता है। वह इस प्रकार कर्केतन रत्न वज्र रत्न वैडूर्य रत्न लोहिताक्ष रत्न मसारगल्ल रत्न हंसगर्भ रत्न पुलक रत्न सौगंधित रत्न ज्योतिरस रत्न अंक रत्न अंजन रत्न जातरूप रत्न अंजनपुलक रत्न स्फटिक रत्न और रिष्ट रत्न-इन रत्नों के यथाबादर अर्थात् असार पुद्गलों का परित्याग करता है; परित्याग करके यथासूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण करता है । उत्तर बनाता है। फिर अभयकुमार पर अनुकंपा करता हआ, पूर्वभव में उत्पन्न हई स्नेहजनित प्रीति और गुणानुराग के कारण वह खेद करने लगा । फिर उस देव ने उत्तम रचना वाले अथवा उत्तम रत्नमय विमान से नीकलकर पृथ्वीतल पर जाने के लिए शीघ्र ही गति का प्रचार किया, उस समय चलायमान होते हुए, निर्मल स्वर्ण के प्रतर जैसे कर्णपूर और मुकूट के उत्कट आडम्बर से वह दर्शनीय लग रहा था । अनेक मणियों, सुवर्ण और रत्नों के समूह से शोभित और विचित्र रचना वाले पहने हुए कटिसूत्र से उसे हर्ष उत्पन्न हो रहा था । हिलते हुए श्रेष्ठ और मनोहर कुण्डलों के उज्ज्वल हुई मुख की दीप्ति से उसका रूप बड़ा ही सौम्य हो गया । कार्तिकी पूर्णिमा की रात्रि में, शानि और मंगल के मध्य में स्थित और उदयप्राप्त शारदनिशाकर के समान वह देव दर्शकों के नयनों को आनन्द दे रहा था । तात्पर्य यह कि शनि और मंगल ग्रह के समान चमकते हुए दोनों कुण्डलों के बीच उसका मुख शरद ऋतु के चन्द्रमा के समान शोभायमान हो रहा था । दिव्य औषधियों के प्रकाश के समान मुकुट आदि के तेज से देदीप्यमान, रूप से मनोहर, समस्त ऋतुओं की लक्ष्मी से वृद्धिंगत शोभा वाले तथा प्रकृष्ट गंध के प्रसार से मनोहर मेरुपर्वत के समान वह देव अभिराम प्रतीत होता था । उस देव ने ऐसे विचित्र वेष की विक्रिया की । असंख्य-संख्यक और असंख्य नामों वाले द्वीपों और समुद्रों के मध्य में होकर जाने लगा । अपनी विमल प्रभा से जीवलोक को तथा नगरवर राजगृह को प्रकाशित करता हुआ दिव्य रूपधारी देव अभयकुमार के पास आ पहुँचा । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 15 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक सूत्र - २२ तत्पश्चात् दस के आधे अर्थात् पाँच वर्ण वाले तथा घुघरू वाले उत्तम वस्त्रों को धारण किये हुए वह देव आकाश में स्थित होकर बोला-'हे देवानुप्रिय ! मैं तुम्हारा पूर्वभव का मित्र सौधर्मकल्पवासी महान् ऋद्धि का धारक देव हूँ।' क्योंकि तुम पौषधशाला में अष्टमभक्त तप ग्रहण करके मुझे मन में रखकर स्थित हो अर्थात् मेरा स्मरण कर रहे हो, इसी कारण हे देवानुप्रिय ! मैं शीघ्र यहाँ आया हूँ । हे देवानुप्रिय ! बताओ तुम्हारा क्या इष्ट कार्य करूँ ? तुम्हे क्या दूँ? तुम्हारे किसी संबंधी को क्या दूँ? तुम्हारा मनोवांछित क्या है ? तत्पश्चात् अभयकुमार ने आकाश में स्थित पूर्वभव के मित्र उस देव को देखा । वह हृष्ट-तुष्ट हुआ । पौषध को पारा । फिर दोनों हाथ मस्तक पर जोड़कर इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिय ! मेरी छोटी माता धारिणी देवी को इस प्रकार का अकाल-दोहद उत्पन्न हआ है कि वे माताएं धन्य हैं जो अपने अकाल मेघ-दोहद को पूर्ण करती हैं यावत मैं भी अपने दोहद को पूर्ण करूँ।' इत्यादि पूर्व के समान सब कथन यहाँ समझ लेना चाहिए । 'सो हे देवानुप्रिय ! तुम मेरी छोटी माता धारिणी के इस प्रकार के दोहद को पूर्ण कर दो ।' तत्पश्चात् वह देव अभयकुमार के ऐसा कहने पर हर्षित और संतुष्ट होकर अभयकुमार से बोला-देवानुप्रिय ! तुम निश्चिंत रहो और विश्वास रखो । मैं तुम्हारी लघु माता धारिणी देवी के दोहद की पूर्ति किए देता हूँ। ऐसा कहकर अभयकुमार के पास से नीकलता है । उत्तरपूर्व दिशा में, वैभारगिरि पर जाकर वैक्रियसमुद्घात करता है। समुद्घात करके संख्यात योजन प्रमाण वाला दंड नीकालता है, यावत् दूसरी बार भी वैक्रियसमुद्घात करता है और गर्जना से युक्त, बिजली से युक्त और जल-बिन्दुओं से युक्त पाँच वर्ण वाले मेघों की ध्वनि से शोभित दिव्य वर्षा ऋतु की शोभा की विक्रिया करता है । जहाँ अभयकुमार था, वहाँ आकर अभयकुमार से कहता है-देवानुप्रिय मैंने तुम्हारे प्रिय के लिए-प्रसन्नता के खातिर गर्जनायुक्त, बिन्दुयुक्त और विद्युतयुक्त दिव्य वर्षा-लक्ष्मी की विक्रिया की है । अतः हे देवानप्रिय ! तुम्हारी छोटी माता धारिणी देवी अपने दोहद की पूर्ति करे। तत्पश्चात् अभयकुमार उस सौधर्मकल्पवासी पूर्व के मित्र देव से यह बात सुन-समझ कर हर्षित एवं संतुष्ट होकर अपने भवन से बाहर नीकलता है । नीकलकर जहाँ श्रेणिक राजा बैठा था, वहाँ आता है । आकर मस्तक पर दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार कहता है-हे तात ! मेरे पूर्वभव के मित्र सौधर्मकल्पवासी देव ने शीघ्र ही गर्जनायुक्त, बिजली से युक्त और पाँच रंगों के मेघों की ध्वनि से सुशोभित दिव्य वर्षाऋतु की शोभा की विक्रिया की है । अतः मेरी लघु माता धारिणी देवी अपने अकाल-दोहद को पूर्ण करें । तत्पश्चात् श्रेणिक राजा, अभयकुमार से यह बात सुनकर और हृदय में धारण करके हर्षित व संतुष्ट हुआ । यावत् उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलवाया। बुलवाकर इस भाँति कहा-देवानुप्रिय ! शीघ्र ही राजगृह नगर में शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क और चबूतरे आदि को सींच कर, यावत् उत्तम सुगंध से सुगंधित करके गंध की बट्टी के समान करो । ऐसा करके मेरी आज्ञा वापिस सौंपो । तत्पश्चात् वे कौटुम्बिक पुरुष आज्ञा का पालन करके यावत् उस आज्ञा को वापिस सौंपते हैं, अर्थात् आज्ञानुसार कार्य हो जाने की सूचना देते हैं। तत्पश्चात् श्रेणिक राजा दूसरी बार कौटुम्बिक पुरुषों को बुलवाता है और बुलवाकर इस प्रकार कहता है'देवानुप्रियो ! शीघ्र ही उत्तम अश्व, गज, रथ तथा योद्धाओं सहित चतुरंगी सेना को तैयार करो और सेचनक नामक गंधहस्ती को भी तैयार करो । वे कौटुम्बिक पुरुष की आज्ञा पालन करके यावत् आज्ञा वापिस सौंपते हैं । तत्पश्चात् श्रेणिक राजा जहाँ धारिणी देवी थी, वहीं आया । आकर धारिणी देवी से इस प्रकार बोला-'हे देवानुप्रिय! तुम्हारी अभिलाषा अनुसार गर्जना की ध्वनि, बिजली तथा बूंदाबांदी से युक्त दिव्य वर्षा ऋतु की सुषमा प्रादुर्भूत हुई है । अत एव तुम अपने अकाल-दोहद को सम्पन्न करो ।' तत्पश्चात् वह धारिणी देवी श्रेणिक राजा के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुई और जहाँ स्नानगृह था, उसी और आई । आकर स्नानगृह में प्रवेश किया अन्तःपुर के अन्दर स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक, मंगल और प्रायश्चित्त किया । फिर क्या किया ? सो कहते हैं-पैरों में उत्तम नूपुर पहने, यावत् आकाश तथा स्फटिक मणि के मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 16 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक समान प्रभा वाले वस्त्रों को धारण किया । वस्त्र धारण करके सेचनक नामक गंधहस्ती पर आरूढ़ होकर, अमृतमंथन से उत्पन्न हुए फेन के समूह के समान श्वेत चामर के बालों रूपी बीजने से बिंजाती हुई रवाना हुई । तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक, मंगल, प्रायश्चित्त किया, अल्प किन्तु बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को सुशोभित किया । सुसज्जित होकर, श्रेष्ठ गंधहस्ती के स्कंध पर आरूढ़ होकर, कोरंट वृक्ष के फूलों की माला वाले छत्र को मस्तक पर धारण करके, चार चामरों से बिंजाते हुए धारिणी देवी का अनुगमन किया। __श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर बैठे हुए श्रेणिक राजा धारिणी देवी के पीछे-पीछे चले । धारिणी-देवी अश्व, हाथी, रथ और योद्धाओं की चतुरंगी सेना से परिवृत्त थी । उसके चारों और महान् सुभटों का समूह घिरा हुआ था । इस प्रकार सम्पूर्ण समृद्धि के साथ, सम्पूर्ण द्युति के साथ, यावत् दुंदुभि के निर्घोष के साथ राजगृह नगर के शृंगाटक, त्रिक, चतष्क, चत्वर आदिमें होकर यावत चतर्मख राजमार्गमें होकर नीकली । नागरिक लोगों ने पनः पनः उसका अभिनन्दन किया । तत्पश्चात वह जहाँ वैभारगिरि पर्वत था, उसी ओर आई । आकर वैभारगिरि के कटक-तटमें और तलहटीमें, दम्पतियों के क्रीड़ास्थान आरामोंमें, पुष्प-फल से सम्पन्न उद्यानोंमें, सामान्य वृक्षों से युक्त काननोंमें, नगर से दूरवर्ती वनों में, एक जाति के वृक्षों के समूह वाले वनखण्डों में, वृक्षों में, वृन्ताकि आदि के गुच्छाओं में, बाँस की झाड़ी आदि गुल्मोंमें, आम्र आदि की लताओं, नागरवेल आदि की वल्लियों में, गुफाओंमें, दरी, चुण्डीमें, ह्रदों-तालाबोंमें, अल्प जलवाले कच्छोंमें, नदियोंमें, नदियों के संगमोंमें, अन्य जलाशयोंमें, अर्थात् इन सबके आसपास खड़ी होती हुई, वहाँ के दृश्यों को देखती हुई, स्नान करती हुई, पुष्पादिक को सूंघती हुई, फळ आदि का भक्षण करती हुई और दूसरों को बाँटती हुई, वैभारगिरि के समीप की भूमिमें अपना दोहद पूर्ण करती चारों ओर परिभ्रमण करने लगी । इस प्रकार धारिणी देवीने दोहद को दूर किया, दोहद को पूर्ण किया और दोहद को सम्पन्न किया । तत्पश्चात् धारिणी देवी सेचनक गंधहस्ती पर आरूढ़ हुई । श्रेणिक राजा श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर बैठकर उसके पीछे-पीछे चलने लगे । अश्व हस्ती आदि से घिरी हुई वह जहाँ राजगृह नगर है, वहाँ आती है । राजगृह नगर के बीचोंबीच होकर जहाँ अपना भवन है, वहाँ आयी। आकर मनुष्य सम्बन्धी विपुलभोग भोगती हुई विचरती है। सूत्र - २३ तत्पश्चात् अभयकुमार जहाँ पौषधशाला है, वहीं आता है । आकर पूर्व मित्र देव का सत्कार-सम्मान करके उसे बिदा करता है । तत्पश्चात् अभयकुमार द्वारा बिदा दिया हुआ देवगर्जना से युक्त पंचरंगी मेघोंसे सुशोभित दिव्य वर्षा-लक्ष्मी का प्रतिसंहरण करता है, प्रतिसंहरण करके जिस दिशा से प्रकट हआ था उसी दिशा में चला गया। सूत्र - २४ तत्पश्चात् धारिणी देवी ने अपने उस अकाल दोहद के पूर्ण होने पर दोहद को सम्मानित किया । वह उस गर्भ की अनकम्पा के लिए, गर्भ को बाधा न पहुँचे इस प्रकार यतना-सावधानी से खडी होती. यतन यतना से शयन करती। आहार करती तो ऐसा आहार करती जो अधिक तीखा न हो, अधिक कट हो, अधिक खट्रा न हो और अधिक मीठा भी न हो । देश और काल के अनुसार जो उस गर्भ के लिए हीतकारक हो, मित हो, पथ्य हो । वह अति चिन्ता न करती, अति शोक न करती, अति दैन्य न करती, अति मोह न करती, अति भय न करती और अति त्रास न करती । अर्थात् चिन्ता, शोक, दैन्य, मोह, भय और त्रास से रहित होकर सब ऋतुओंमें सुखप्रद भोजन, वस्त्र, गंध, माला, अलंकार आदि से सुखपूर्वक उस गर्भ को वहन करने लगी सूत्र - २५ ___ तत्पश्चात् धारिणी देवी ने नौ मास परिपूर्ण होने पर और साढ़े सात रात्रि-दिवस बीत जाने पर, अर्धरात्रि के समय, अत्यन्त कोमल हाथ-पैर वाले यावत् परिपूर्ण इन्द्रियों से युक्त शरीर वाले, लक्षणों और व्यंजनों से सम्पन्न, मान-उन्मान-प्रमाण से युक्त एवं सर्वांगसुन्दर शिशु का प्रसव किया । तत्पश्चात् दासियों ने देखा कि धारिणी देवी ने नौ मास पूर्ण हो जाने पर यावत् पुत्र को जन्म दिया है । देखकर हर्ष के कारण शीघ्र, मन से त्वरा वाली, काय से चपल एवं वेग वाली वे दासियाँ श्रेणिक राजा के पास आती हैं । आकर श्रेणिक राजा को जय-विजय शब्द कहकर मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 17 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक बधाई देती हैं । बधाई देकर, दोनों हाथ जोड़कर, मस्तक पर आवर्तन करके, अंजलि करके इस प्रकार कहती हैं हे देवानुप्रिय ! धारिणी देवी ने नौ मास पूर्ण होने पर यावत् पुत्र का प्रसव किया है । सो हम देवानुप्रिय को प्रिय निवेदन करती हैं । आपको प्रिय हो ! तत्पश्चात् श्रेणिक राजा उन दासियों के पास से यह अर्थ सूनकर और हृदय में धारण करके हृष्ट-तुष्ट हुआ । उसने उन दासियों का मधुर वचनों से तथा विपुल पुष्पों, गंधों, मालाओं और आभूषणों से सत्कार-सम्मान किया । सत्कार-सम्मान करके उन्हें मस्तकधौत किया अर्थात् दासीपन से मुक्त कर दिया । उन्हें ऐसी आजीविका कर दी कि उनके पौत्र आदि तक चलती रहे । इस प्रकार आजीविका करके विपुल द्रव्य देकर बिदा किया । तत्पश्चात् श्रेणिक राजा कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाता है । बुलाकर आदेश देता है-देवानुप्रिय ! शीघ्र ही राजगृह नगर में सुगन्धित जल छिड़को, यावत् उसका सम्मार्जन एवं लेपन करो, शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, चतुर्मुख और राजमार्गों में सिंचन करो, उन्हें शचि करो, रास्ते, बाजार, वीथियों को साफ करो, उन पर मंच और मंचों पर मंच बनाओ, तरह-तरह की ऊंची ध्वजाओं, पताकाओं और पताकाओं पर पताकाओं से शोभित करो, लिपा-पुता कर, गोशीर्ष चन्दन तथा सरस रक्तचन्दन के पाँचों उंगलियों वाले हाथे लगाओ, चन्दन-चर्चित कलशों से उपचित करो, स्थान-स्थान पर, द्वारों पर चन्दन-घटों के तोरणों का निर्माण कराओ, विपुल गोलाकार मालाएं लटकाओ, पाँचों रंगों के ताजा और सुगंधित फूलों को बिखेरो, काले अगर, श्रेष्ठ कुन्दरुक, लोभान तथा धूप इस प्रकार जलाओ कि उनकी सुगंध से सारा वातावरण मघमघा जाए, श्रेष्ठ सुगंध के कारण नगर सुगंध की गुटिका जैसा बन जाए, नट, नर्तक, जल्ल, मल्ल, मौष्टिक, विडंबक, कथाकार, प्लवक, नृत्यकर्ता, आइक्खग-शुभाशुभ फल बताने वाले, बाँस पर चढ़ कर खेल दिखाने वाले, चित्रपट दिखाने वाले, तृणा-वीणा बजाने वाले, तालियाँ पीटने वाले आदि लोगों से युक्त करो एवं सर्वत्र गान कराओ । कारागार से कैदियों को मुक्त करो । तोल और नाप की वृद्धि करो। यह सब करके मेरी आज्ञा वापिस सौंपो । यावत् कौटुम्बिक पुरुष कार्य करके आज्ञा वापिस देते हैं तत्पश्चात् श्रेणिक राजा कुंभकार आदि जाति रूप अठारह श्रेणियों को और उनके उपविभाग रूप अठारह को बुलाता है । बुलाकर इस प्रकार कहता है-देवानुप्रिय ! तुम जाओ और राजगृह नगर के भीतर और बाहर दस दिन की स्थितिपतिका कराओ । वह इस प्रकार है-दस दिनों तक शुल्क लेना बंद किया जाए, गायों वगैरह का प्रतिवर्ष लगने वाला कर माफ किया जाए, कुटुम्बियों-किसानों आदि के घर में बेगार लेने आदि के राजपुरुषो का प्रवेश निषिद्ध किया जाय, दण्ड न लिया जाए, किसी को ऋणी न रहने दिया जाए, अर्थात् राजा की तरफ से सबका ऋण चूका दिया जाए, किसी देनदार को पकड़ा न जाय, ऐसी घोषणा कर दो तथा सर्वत्र मृदंग आदि बाजे बजवाओ । चारों ओर विकसित ताजा फूलों की मालाएं लटकाओ । गणिकाएं जिनमें प्रधान हों ऐसे पात्रों से नाटक करवाओ। अनेक तालाचरों से नाटक करवाओ । ऐसा करो कि लोग हर्षित होकर क्रीड़ा करें । उस प्रकार यथा-योग्य दस दिन की स्थितिपतिका करो-कराओ मेरी यह आज्ञा मुझे वापिस सौंपो । राजा श्रेणिक का यह आदेश सूनकर वे इसी प्रकार करते हैं और राजाज्ञा वापिस करते हैं। तत्पश्चात् श्रेणिक राजा बाहर की उपस्थानशाला में पूर्व की ओर मुख करके, श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठा और सैकड़ों, हजारों और लाखों के द्रव्य से याग किया एवं दान किया । उसने अपनी आय में से अमुक भाग दिया और प्राप्त होने वाले द्रव्य को ग्रहण करता हुआ विचरने लगा । तत्पश्चात् उस बालक के माता-पिता ने पहले दिन जातकर्म किया । दूसरे दिन जागरिका किया । तीसरे दिन चन्द्र-सूर्य का दर्शन कराया । उस प्रकार अशुचि जातकर्म की क्रिया सम्पन्न हुई । फिर बारहवाँ दिन आया तो विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम वस्तुएं तैयार करवाई। तैयार करवाकर मित्र, बन्धु आदि ज्ञाति, पुत्र आदि निजक जन, काका आदि स्वजन, श्वसुर आदि सम्बन्धी जन, दास आदि परिजन, सेना और बहुत से गणनायक, दंडनायक यावत् को आमंत्रण दिया। उसके पश्चात् स्नान किया, बलिकर्म किया, मसितिलक आदि कौतुक किया, यावत् समस्त अलंकारों से विभूषित हुए । फिर बहुत विशाल भोजन-मंडप में उस अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन का मित्र, ज्ञाति मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 18 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक आदि तथा गणनायक आदि के साथ आस्वादन, विस्वादन, परस्पर विभाजन और परिभोग करते हुए विचरने लगे। कार भोजन करने के पश्चात् शुद्ध जल से आचमन किया । हाथ-मुख धोकर स्वच्छ हए, परम शुचि हए । फिर उन मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धीजन, परिजन आदि तथा गणनायक आदि का विपुल वस्त्र, गंध, माला और अलंकार से सत्कार किया । सत्कार-सन्मान करके इस प्रकार कहा-क्योंकि हमारा यह पुत्र जब गर्भ में स्थित था, तब इसकी माता को अकाल-मेघ सम्बन्धी दोहद हुआ था । अत एव हमारे इस पुत्र का नाम मेघकुमार होना चाहिए । इस प्रकार माता-पिता ने गौण अर्थात् गुणनिष्पन्न नाम रखा । तत्पश्चात् मेघकुमार पाँच धात्री द्वारा ग्रहण किया गया-पाँच धात्री उसका लालन-पोषण करने लगीं । वे इस प्रकार- क्षीरधात्री मंडनधात्री मज्जनधात्री क्रीड़ापनधात्री अंकधात्री-इनके अतिरिक्त वह मेघकुमार अन्यान्य कब्जा, चिलातिका, वामन, वडभी, बर्बरी, बकश देश की, योनक देश की, पल्हविक देश की, ईसिनिक, धोरुकिन, ल्हासक देश की, लकुस देश की, द्रविड़ देश की, सिंहल देश की, अरब देश की, पुलिंद देश की, पक्कण देश की, पारस देश की, बहल देश की, मुरुंड देश की, शबर देश की, इस प्रकार नाना देशों की, परदेश-अपने देश से भिन्न राजगृह को सुशोभित करनेवाली, इंगित, चिन्तित और प्रार्थित को जाननेवाली, अपने-अपने देश के वेष को धारण करनेवाली, निपुणोंमें भी अतिनिपुण, विनययुक्त दासियों द्वारा, स्वदेशीय दासियों द्वारा, वर्षधरों, कंचुकियों और महत्तरक के समुदाय से घिरा रहने लगा । वह एक के हाथ से दूसरे के हाथमें जाता, एक की गोद से दूसरे की गोद में जाता, गा-गाकर बहलाया जाता, उंगली पकड़कर चलाया जाता, क्रीड़ा आदि से लालन-पालन किया जाता एवं रमणीय मणिजटित फर्श पर चलाया जाता हुआ वायुरहित और व्याघातरहित गिरि-गुफामें स्थित चम्पक वृक्ष के समान सुखपूर्वक बढ़ने लगा ।तत्पश्चात् उस मेघकुमार के माता-पिता ने अनुक्रम से नामकरण, पालने में सूलाना, पैरों से चलाना, चोटी रखना, आदि संस्कार बड़ी-बड़ी ऋद्धि और सत्कारपूर्वक मानवसमूह के साथ सम्पन्न किए। मेघकुमार जब कुछ अधिक आठ वर्ष का हुआ अर्थात् गर्भ से आठ वर्ष का हुआ तब माता-पिता ने शुभ तिथि, करण और मुहूर्त में कलाचार्य के पास भेजा । कलाचार्य ने मेघकुमार को, गणित जिनमें प्रधान है ऐसी, लेखा आदि शकुनिरुत तक की बहत्तर कलाएं सूत्र से, अर्थ और प्रयोग से सिद्ध करवाईं तथा सिखलाईं। __ वे कलाएं इस प्रकार हैं-लेखन, गणित, रूप बदलना, नाटक, गायन, वाद्य बजाना, स्वर जानना, वाद्य सुधारना, समान ताल जानना, जुआ खेलना, लोगों के साथ वाद-विवाद करना, पासों से खेलना, चौपड़ खेलना, नगर की रक्षा करना, जल और मिट्टी के संयोग से वस्तु का निर्माण करना, धान्य नीपजाना, नया पानो उत्पन्न करना, पानी को संस्कार करके शुद्ध करना एवं उष्ण करना, नवीन वस्त्र बनाना, रंगना, सीना और पहनना, विलेपन की वस्तु को पहचानना, तैयार करना, लेप करना आदि, शय्या बनाना, शयन करने की विधि जानना आदि, आर्या छन्द को पहचानना और बनाना, पहेलियाँ बनाना और बूझाना, मागधिका अर्थात् मगध देश की भाषा में गाथा आदि बनाना, प्राकृत भाषा में गाथा आदि बनाना, गीति छंद बनाना, श्लोक बनाना, सुवर्ण बनाना, नई चाँदी बनाना, चूर्ण गहने घड़ना, आदि तरुणी की सेवा करना-स्त्री के लक्षण जानना पुरुष के लक्षण जानना, अश्व के लक्षण जानना, हाथी के लक्षण जानना, गाय-बैल के लक्षण जानना, मुर्गों के लक्षण जानना, छत्र-लक्षण जानना, दंड-लक्षण जानना, वास्तुविद्या-सेना के पड़ाव के प्रमाण आदि जानना, नया नगर बसाने आदि की व्यूहमोर्चा रचना, सैन्य-संचालन प्रतिचार-चक्रव्यूह गरुड व्यह शकटव्यूह रचना सामान्य युद्ध करना, विशेष युद्ध करना, अत्यन्त विशेष युद्ध करना अट्ठि युद्ध, मुष्टियुद्ध, बाहुयुद्ध, लतायुद्ध बहुत को थोड़ा और थोड़े को बहुत दिखलाना, खड्ग की मूठ आदि बनाना, धनुष-बाण कौशल चाँदी का पाक बनाना, सोने का पाक बनाना, सूत्र का छेदन करना, खेत जोतना, कमल की नाल का छेदन करना, पत्रछेदन करना, कुंडल आदि का छेदन करना, मृत (मूर्छित) को जीवित करना, जीवित को मृत (मृततुल्य) करना और काक धूक आदि पक्षियों की बोली पहचानना । सूत्र- २६ तत्पश्चात् वह कलाचार्य, मेघकुमार को गणित-प्रधान, लेखन से लेकर शकुनिरुत पर्यन्त बहत्तर कलाएं सूत्र मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 19 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक से, अर्थ से और प्रयोग से सिद्ध कराता है तथा सिखलाता है। माता-पिता के पास वापिस ले जाता है । तब मेघकुमार के माता-पिता ने कलाचार्य का मधुर वचनों से तथा विपुल वस्त्र, गंध, माला और अलंकारों से सत्कार दिया, सन्मान किया । जीविका के योग्य विपुल प्रीतिदान दिया। प्रीतिदान देकर उसे बिदा किया । सूत्र - २७ तब मेघकुमार बहत्तर कलाओं में पंडित हो गया । उसके नौ अंग-जागृत से हो गए । अठारह प्रकार की देशी भाषाओं में कुशल हो गया । वह गीति में प्रीति वाला, गीत और नृत्य में कुशल हो गया । वह अश्वयुद्ध रथयुद्ध और बाहुयुद्ध करने वाला बन गया । अपनी बाहुओं से विपक्षी का मर्दन करने में समर्थ हो गया । भोग भोगने का सामर्थ्य उसमें आ गया । साहसी होने के कारण विकालचारी बन गया। तत्पश्चात् मेघकुमारके माता-पिता ने मेघकुमार को बहत्तर कलाओं में पंडित यावत् विकालचारी हुआ देखा। देखकर आठ उत्तम प्रासाद बनवाए । वे प्रासाद बहुत ऊंचे थे । अपनी उज्ज्वल कान्ति के समूह से हँसते हुए से प्रतीत होते थे । मणि, सुवर्ण और रत्नों की रचना से विचित्र थे । वायु से फहराती हुई और विजय को सूचित करने वाली वैजयन्ती पताकाओं से तथा छत्रातिछत्र युक्त थे । वे इतने ऊंचे थे कि उनके शिखर आकाशतल का उल्लंघन करते थे। उनकी जालियों के मध्य में रत्नों के पंजर ऐसे प्रतीत होते थे, मानों उनके नेत्र हों । उनमें मणियों और कनक की भूमिकाएं थीं। उनमें साक्षात् अथवा चित्रित किये हुए शनपत्र और पुण्डरीक कमल विकसित हो रहे थे । वे तिलक रत्नों एवं अर्द्ध चन्द्रों - एक प्रकार के सोपानों से युक्त थे, अथवा भित्तियों में चन्दन आदि के आलेख चर्चित थे । नाना प्रकार की मणिमय मालाओं से अलंकृत थे। भीतर और बाहर से चीकने थे। उनके आँगन में सुवर्णमय रुचिर बालुका बिछी थी । उनका स्पर्श सुखप्रद था । रूप बड़ा ही शोभन था । उन्हें देखते ही चित्त में प्रसन्नता होती थी। तावत प्रतिरूप थे-अत्यन्त मनोहर थे। ___और एक महान भवन बनवाया गया । वह अनेक सैकड़ों स्तम्भो पर बना हुआ था । उसमें लीलायुक्त अनेक पूतलियाँ स्थापित की हुई थीं। उसमें ऊंची और सुनिर्मित वज्ररत्न की वेदिका थी और तोरण थे । मनोहर निर्मित पुतलियों सहित उत्तम, मोटे एवं प्रशस्त वैडूर्य रत्न के स्तम्भ थे, वे विविध प्रकार के मणियों, सुवर्ण तथा रत्नों से खचित होने के कारण उज्ज्वल दिखाई देते थे । उनका भूमिभाग बिलकुल सम, विशाल, पक्व और रमणीय था । उस भवन में ईहामृग, वृषभ, तुरग, मनुष्य, मकर आदि के चित्र चित्रित किए हुए थे । स्तम्भों पर बनी वज्ररत्न की वेदिका से युक्त होने के कारण रमणीय दिखाई पड़ता था । समान श्रेणी में स्थित विद्याधरों के युगल यंत्र द्वारा चलते दीख पड़ते थे । वह भवन हजारों किरणों से व्याप्त और हजारों चित्रों से युक्त होने से देदीप्यमान और अतीव देदीप्यमान था । उसे देखते ही दर्शक के नयन उसमें चिपक-से जाते थे । उसके स्पर्श सुखप्रद था और रूप शोभासम्पन्न था । उसमें सुवर्ण, मणि एवं रत्नों की स्तूपिकाएं बनी हुई थी । उसका प्रधान शिखर नाना प्रकार की, पाँच वर्णों की एवं घंटाओं सहित पताकाओं से सुशोभित था । वह चहुँ और देदीप्यमान किरणों के समूह को फैला रहा था । वह लिपा था, धुला था और चंदेवा से युक्त था । यावत् वह भवन गंध की वर्ती जैसा जान पड़ता था। वह चित्त को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप था-अतीव मनोहर था। सूत्र - २८ तत्पश्चात् मेघकुमार के माता-पिता ने मेघकुमार का शुभ तिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त में शरीरपरिमाण से सदृश, समान उम्र वाली, समान त्वचा वाली, समान लावण्य वाली, समान रूप वाली, समान यौवन और गुणों वाली तथा अपने कुल के समान राजकुलों से लाई हुई आठ श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ, एक ही दिन-एक ही साथ, आठों अंगों में अलंकार धारण करने वाली सुहागिन स्त्रियों द्वारा किये मंगलगान एवं दधि अक्षत आदि मांगलिक पदार्थों के प्रयोग द्वारा पाणिग्रहण करवाया । मेघकुमार के माता-पिता ने इस प्रकार प्रीतिदान दिया-आठ करोड़ हिरण्य, आठ करोड़ सुवर्ण, आदि गाथाओं के अनुसार समझ लेना, यावत् आठ-आठ प्रेक्षणकारिणी तथा और भी विपुल धन, कनक, रत्न, मणि, मोची, शंख, मूंगा, रक्त रत्न आदि उत्तम सारभूत द्रव्य दिया, जो सात पीढ़ी तक मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 20 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक दान देने के लिए, भोगने के लिए, उपयोग करने के लिए और बँटवारा करके देने के लिए पर्याप्त था। तत्पश्चात् उस मेघकुमार ने प्रत्येक पत्नी को एक-एक करोड़ हिरण्य दिया, एक-एक करोड़ सुवर्ण दिया, यावत् एक-एक प्रेक्षणकारिणी या प्रेषणकारिणी दी। इसके अतिरिक्त अन्य विपुल धन कनक आदि दिया, जो यावत् दान देने, भोगोपभोग करने और बँटवारा करने के लिए सात पीढ़ियों तक पर्याप्त था । तत्पश्चात् मेघकुमार श्रेष्ठ प्रासाद के ऊपर रहा हुआ, मानों मृदंगों के मुख फूट रहे हो, इस प्रकार उत्तम स्त्रियों द्वारा किये हुए, बत्तीसबद्ध नाटकों द्वारा गायन किया जाता हुआ तथा क्रीड़ा करता हुआ, मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रूप और गंध की विपुलता वाले मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों को भोगता हआ रहने लगा। सूत्र-२९ उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर अनुक्रम से चलते हुए, एक गाँव से दूसरे गाँव जाते हुए, सुखे-सुखे विहार करते हुए, जहाँ राजगृह नगर था और जहाँ गुणशील नामक चैत्य था, यावत् ठहरे । सूत्र - ३० तत्पश्चात् राजगृह नगर में शृंगाटक-सिंघाड़े के आकार के मार्ग, तिराहे, चौराहे, चत्वर, चतुर्मुख पथ, महापथ आदि में बहुत से लोगों का शोर होने लगा । यावत् बहुतेरे उग्रकुल के, भोगकुल के तथा अन्य सभी लोग यावत् राजगृहनगर के मध्यभागमें होकर एक ही दिशामें, एक ही ओर मुख कर नीकलने लगे उस समय मेघकुमार अपने प्रासाद पर था । मानो मृदंगों का मुख फूट रहा हो, उस प्रकार गायन किये जा रहा था । यावत् मनुष्य सम्बन्धी कामभोग भोग रहा था और राजमार्ग का अवलोकन करता-करता विचर रहा था । तब व उग्रकुलीन भोगकुलीन यावत् सब लोगों को एक ही दिशा में मुख किये जाते देखता है । देखकर कंचुकी पुरुष को बुलाता है और बुलाकर कहता है-हे देवानुप्रिय ! क्या आज राजगृह नगर में इन्द्र-महोत्सव है ? स्कंद का महोत्सव है ? या रुद्र, शिव, वैश्रमण, नाग, यक्ष, भत, नदी, तडाग, वक्ष, चैत्य, पर्वत, उद्यान या गिरि की यात्रा है ? जिससे बहत से उग्र-कुल तथा भोग-कुल आदि के सब लोग एक ही दिशा में और एक ही ओर मुख करके नीकल रहे हैं? तब उस कंचुकी पुरुषने श्रमण भगवान महावीर स्वामी के आगमन का वृत्तान्त जानकर मेघकुमार को इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय ! आज राजगृह नगर में इन्द्रमहोत्सव या यावत् गिरियात्रा आदि नहीं है कि जिसके निमित्त यह सब जा रहे हैं । परन्तु देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान महावीर धर्म-तीर्थ का आदि करने वाले, तीर्थ की स्थापना करने वाले यहाँ आए हैं, पधार चूके हैं, समवसृत हुए हैं और इसी राजगृह नगर में, गुणशील चैत्य में यथायोग्य अवग्रह की याचना करके विचर रहे हैं । मेघकुमार कंचुकी पुरुष से यह बात सुनकर एवं हृदय में धारण करके, हृष्ट -तुष्ट होता हुआ कौटुम्बिक पुरुषों को बुलवाता है और बुलवाकर इस प्रकार कहता है-हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही चार घंटाओं वाले अश्वरथ को जोत कर उपस्थित करो । वे कौटुम्बिक पुरुष बहुत अच्छा' कहकर रथ जोत लाते हैं। तत्पश्चात् मेघकुमार ने स्नान किया । सर्व अलंकारों से विभूषित हुआ । फिर चार घंटावाले अश्वरथ पर आरूढ़ हुआ । कोरंटवृक्ष के फूलों की मालावाला छत्र धारण किया । सुभटों के विपुल समूहवाले परिवार से घिरा हुआ, राजगृह नगर के बीचों-बीच होकर नीकला । जहाँ गुणशील नामक चैत्य था, वहाँ आया । श्रमण भगवान महावीर स्वामी के छत्र पर छत्र और पताकाओं पर पताका आदि अतिशयों को देखा तथा विद्याधरों, चारण मुनियों और मुंभक देवों को नीचे उतरते एवं ऊपर चढ़ते देखा । यह सब देखकर चार घंटा वाले अश्वरथ से नीचे ऊतरा । पाँच प्रकार के अभिगम करके श्रमण भगवान महावीर के सन्मुख चला । वह पाँच अभिगम उस प्रकार हैं-सचित्त द्रव्यों का त्याग । अचित्त द्रव्यों का अत्याग । एक शाटिका उत्तरासंग । भगवान पर दृष्टि पड़ते ही दोनों हाथ जोड़ना | मन को एकाग्र करना । जहाँ भगवान् महावीर थे, वहाँ आया । श्रमण भगवान महावीर की दक्षिण दिशा से आरम्भ करके प्रदक्षिणा की। भगवान को स्तुति रूप वन्दन किया और काय से नमस्कार किया । श्रमण भगवान महावीर के अत्यन्त समीप नहीं और अति दूर भी नहीं, ऐसे समुचित स्थान पर बैठकर धर्मोपदेश सूनने की ईच्छा करता हुआ, नमस्कार करता हुआ, दोनों हाथ जोड़े, सन्मुख रहकर विनयपूर्वक प्रभु की उपासना करने लगा। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 21 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र - ६, 'ज्ञाताधर्मकथा ' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर ने मेघकुमार को और उस महती परिषद् को परिषद् के मध्य में स्थित होकर विचित्र प्रकार के श्रुतधर्म और चारित्रधर्म का कथन किया । जिस प्रकार जीव कर्मों से बद्ध होते हैं, जिस प्रकार मुक्त होते हैं और जिस प्रकार संक्लेश को प्राप्त होते हैं, यावत् धर्मदेशना सूनकर परिषद् वापिस लौट गई। सूत्र - ३१ तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर के पास मेघकुमारने धर्म श्रवण करके, उसे हृदयमें धारण करके, हृष्टतुष्ट होकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार दाहिनी ओर से आरम्भ करके प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके वन्दन-नमस्कार किया । इस प्रकार कहा- भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ, उसे सर्वोत्तम स्वीकार करता हूँ, मैं उस पर प्रतीति करता हूँ । मुझे निर्ग्रन्थ प्रवचन रुचता है, मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन को अंगीकार करना चाहता हूँ, पुनः पुनः ईच्छा की है, भगवन् ! यह ईच्छित और पुनः पुनः ईच्छित है । यह वैसा ही है जैसा आप कहते हैं । विशेष बात यह है कि हे देवानुप्रिय ! मैं अपने माता-पिता की आज्ञा ले लूँ, तत्पश्चात् मुण्डित होकर दीक्षा ग्रहण करूँगा । भगवान ने कहा- देवानुप्रिय ! जिससे तुझे सुख उपजे वह कर, उसमें विलम्ब न करना । तत्पश्चात् मेघकुमार ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन किया, नमस्कार किया, वन्दन नमस्कार करके जहाँ चार घंटाओं वाला अश्वरथ था, वहाँ आया। आकर चार घंटाओं वाले अश्व रथ पर आरूढ़ हुआ। आरूढ़ होकर महान सुभटों और बड़े समूह वाले परिवारके साथ राजगृह के बीचों-बीच होकर अपने घर आया । चार घंटाओं वाले अश्व-रथ से उतरा । उतरकर जहाँ उसके माता-पिता थे, वहीं पहुँचा। पहुँचकर माता-पिता के पैरों में प्रणाम किया । प्रणाम करके उसने इस प्रकार कहा- 'हे माता-पिता ! मैंने श्रमण भगवान महावीर के समीप धर्म श्रवण किया है और मैंने उस धर्म की ईच्छा की है, बार-बार ईच्छा की है । वह मुझे रुचा है ।' तब मेघकुमार के माता-पिता इस प्रकार बोले- पुत्र ! तुम धन्य हो, पुत्र! तुम पूरे पुण्यवान हो, हे पुत्र ! तुम कृतार्थ हो कि तुमने श्रमण भगवान महावीर के निकट धर्म श्रवण किया है और वह धर्म तुम्हें इष्ट, पुनः पुनः इष्ट और रुचिकर भी हुआ है ।' तत्पश्चात् मेघकुमार माता-पिता से दूसरी बार और तीसरी बार इस प्रकार कहने लगा 'हे माता-पिता! मैंने श्रमण भगवान महावीर से धर्म श्रवण किया है। उस धर्म की मैंने ईच्छा की है, बार-बार ईच्छा की है, वह मुझे रुचिकर हुआ है । अत एव है माता-पिता ! मैं आपकी अनुमति प्राप्त करके श्रमण भगवान महावीर के समीप मुण्डित होकर, गृहवास त्याग कर अनगारिता की प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहता हूँ-मुनिदीक्षा लेना चाहता हूँ । तब धारिणी देवी इस अनिष्ट, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमणाम, पहले कभी न सूनी हुई, कठोर वाणी को सूनकर और हृदय में धारण करके महान् पुत्र-वियोग के मानसिक दुःख से पीड़ित हुई। उसके रोमकूपों में पसीना आकर अंगों से पसीना झरने लगा । शोक की अधिकता से उसके अंग काँपने लगे । वह निस्तेज हो गई । दीन और विमनस्क हो गई । हथेली से मली हुई कमल की माला के समान हो गई। में प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहता हूँ यह शब्द सूनने के क्षण में ही वह दुःखी और दुर्बल हो गई । वह लावण्यरहित हो गई, कान्तिहीन हो गई, श्रीविहीन हो गई, शरीर दुर्बल होने से उसके पहने हुए अलंकार अत्यन्त ढीले हो गए, हाथों में पहने हुए उत्तम वलय खिसक कर भूमि पर जा पड़े और चूर-चूर हो गए । उसका उत्तरीय वस्त्र खिसक गया । सुकुमार केशपाश बिखर गया । मूर्च्छा के वश होने से चित्त नष्ट हो गया वह बेहोश हो गई । परशु से काटी हुई चंपकलता के समान तथा महोत्सव सम्पन्न हो जाने के पश्चात् इन्द्रध्वज के समान प्रतीत होने लगी । उसके शरीर के जोड़ ढीले पड़ गए। ऐसी अवस्था होने से वह धारिणी देवी सर्व अंगों से धस्-धड़ाम से पृथ्वीतल पर गिर पड़ी । तत्पश्चात् वह धारिणी देवी, संभ्रम के साथ शीघ्रता से सुवर्णकलश के मुख से नीकली हुई शीतल की निर्मल धारा से सिंचन की गई अर्थात् उस पर ठंडा जल छिड़का गया। अत एव उसका शरीर शीतल हो गया । उत्क्षेपक से, तालवृन्त से तथा वीजनक से उत्पन्न हुई तथा जलकणों से युक्त वायु से अन्तःपुर के परिजनों द्वारा उसे आश्वासन दिया गया । तब वह होश में आई । अब धारिणी देवी मोतियों की लड़ी के समान अश्रुधार से अपने स्तनों को सींचने भिगोने लगी। वह दयनीय, विमनस्क और दीन हो गई। वह रुदन करती हुई, क्रन्दन करती हुई, मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा )" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद" Page 22 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक पसीना एवं लार टपकाती हुई, हृदयमें शोक करती हुई, विलाप करती हुई मेघकुमार से इस प्रकार कहने लगीसूत्र-३२ हे पुत्र ! तू हमारा इकलौता बेटा है । तू हमें इष्ट है, कान्त है, प्रिय है, मनोज्ञ है, मणाम है तथा धैर्य और विश्राम का स्थान है । कार्य करने में सम्मत है, बहुत कार्य करने में बहुत माना हुआ है और कार्य करने के पश्चात् भी अनुमत है । आभूषणों की पेटी के समान है । मनुष्यजाति में उत्तम होने के कारण रत्न है । रत्न रूप है । जीवने की उच्छ्वास के समान है । हमारे हृदय में आनन्द उत्पन्न करने वाला है । गूलर के फूल के समान तेरा नाम श्रवण करना भी दुर्लभ है तो फिर दर्शन की तो बात ही क्या है ? हे पुत्र ! हम क्षणभर के लिए भी तेरा वियोग सहन नहीं करना चाहते । अत एव हे पुत्र ! प्रथम तो जब तक हम जीवित हैं, तब तक मनुष्य सम्बन्धी विपुल काम-भोगों को भोग । फिर जब हम कालगत हो जाएं और तू परिपक्व उम्र का हो जाए-तेरी युवावस्था पूर्ण हो जाए, कुल-वंश रूप तंतु का कार्य वृद्धि को प्राप्त हो जाए, जब सांसारिक कार्य की अपेक्षा न रहे, उस समय तू श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्डित होकर, गृहस्थी का त्याग करके प्रव्रज्या अंगीकार कर लेना। तत्पश्चात् माता-पिता के इस प्रकार कहने पर मेघकुमार ने माता-पिता से कहा-'हे माता-पिता ! आप मुझसे यह जो कहते हैं कि-हे पुत्र ! तुम हमारे इकलौते पुत्र हो, इत्यादि पूर्ववत्, यावत् सांसारिक कार्य से निरपेक्ष होकर श्रमण भगवान महावीर के समीप प्रव्रजित होना-सो ठीक है, परन्तु हे माता-पिता ! यह मनुष्यभव ध्रुव नहीं है, नियत नहीं है, यह अशाश्वत है तथा सैकड़ों व्यसनों एवं उपद्रवों से व्याप्त है, बिजली की चमक के समान चंचल है, अनित्य है, जल के बुलबुले के समान है, दूब की नोंक पर लटकने वाले जलबिन्दु के समान है, सन्ध्या समय के बादलों की लालीमा के सदृश है, स्वप्नदर्शन के समान है-अभी है और अभी नहीं है, कुष्ठ आदि से सड़ने, तलवार आदि से कने और क्षीण होने के स्वभाव वाला है तथा आगे या पीछे अवश्य ही त्याग करने योग्य है । इसके अतिरिक्त कौन जानता है कि कौन पहले जाएगा और कौन पीछे जाएगा? हे माता-पिता ! मैं आपकी आज्ञा प्राप्त करके श्रमण भगवान महावीर के निकट यावत प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहता हूँ।' तत्पश्चात् माता-पिता ने मेघकुमार से इस प्रकार कहा-' हे पुत्र ! यह तुम्हारी भार्याएं समान शरीर वाली, समान त्वचा वाली, समान वय वाली, समान लावण्य, रूप, यौवन और गुणों से सम्पन्न तथा समान राजकुलों से लाई हई हैं । अत एव हे पुत्र ! इनके साथ विपुल मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों को भोगो । तदनन्तर भुक्तभोग होकर श्रमण भगवान महावीर के निकट यावत् दीक्षा ले लेना । तत्पश्चात् मेघकुमार ने माता-पिता से इस प्रकार कहा-'हे माता-पिता ! आप मुझे यह जो कहते हैं कि-'हे पुत्र ! तेरी ये भार्याएं समान शरीर वाली हैं इत्यादि, यावत् इनके साथ भोग भोगकर श्रमण भगवान महावीर के समीप दीक्षा ले लेना; सो ठीक है, किन्तु हे माता-पिता ! मनुष्यों के ये कामभोग अशाश्वत हैं, इनमें से वमन झरता है, पित्त, कफ, शुक्र तथा शोणित झरता है । ये गंदे उच्छ्वासनिःश्वास वाले हैं, खराब मूत्र, मल और पीव से परिपूर्ण है, मल, मूत्र, कफ, नासिका-मल, वमन, पित्त, शुक्र और शोणित से उत्पन्न होने वाले हैं । यह ध्रुव नहीं, नियत नहीं, शाश्वत नहीं है, सड़ने, पड़ने और विध्वंस होने के स्वभाव वाले हैं और पहले या पीछे अवश्य ही त्याग करने योग्य है । हे माता-पिता ! कौन जानता है कि पहले कौन जाएगा और पीछे कौन जाएगा? अत एव हे माता-पिता ! मैं यावत् अभी दीक्षा ग्रहण करना चाहता हूँ।' तत्पश्चात् माता-पिता ने मेघकुमार से इस प्रकार कहा-हे पुत्र ! तुम्हारे पितामह, पिता के पितामह और पिता के प्रपितामह से आया हुआ यह बहुत-सा हिरण्य, सुवर्ण, कांसा, दूष्य-वस्त्र, मणि, मोती, शंख, सिला, मूंगा, लाल-रत्न आदि सारभूत द्रव्य विद्यमान है । यह इतना है कि सात पीढियों तक भी समाप्त न हो । इसका तम खब दान करो, स्वयं भोग करो और बाँटो । हे पुत्र ! यह जितना मनुष्यसम्बन्धी ऋद्धि-सत्कार का समुदान है, उतना सब तुम भोगो । उसके बाद अनुभूत-कल्याण होकर श्रमण भगवान महावीर के समक्ष दीक्षा ग्रहण कर लेना । तत्पश्चात् मेघकुमार ने माता-पिता से कहा-आप जो कहते हैं सो ठीक है कि-'हे पुत्र ! यह दादा, पड़दादा और पिता के पड़दादा से आया हुआ यावत् उत्तम द्रव्य है, इसे भोगो और फिर अनुभूत-कल्याण होकर दीक्षा ले लेना, मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 23 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक परन्तु हे माता-पिता ! यह हिरण्य सुवर्ण यावत् स्वापतेय (द्रव्य) सब अग्निसाध्य है-इसे अग्नि भस्म कर सकती है, चोर चूरा सकता है, राजा अपहरण कर सकता है, हिस्सेदार बँटवारा कर सकते हैं और मृत्यु आने पर वह अपना नहीं रहता है । इसी प्रकार यह द्रव्य अग्नि के लिए समान है, अर्थात् जैसे द्रव्य उसके स्वामी का है, उसी प्रकार अग्नि का भी है और इसी तरह चोर, राजा, भागीदार और मृत्यु के लिए भी सामान्य है । यह सड़ने, पड़ने और विध्वस्त होने के स्वभाव वाला है । पश्चात् या पहले अवश्य त्याग करने योग्य है । हे माता-पिता ! किसे ज्ञात है कि पहले कौन जाएगा और पीछे कौन जाएगा? अत एव मैं यावत् दीक्षा अंगीकार करना चाहता हूँ। सूत्र-३३ मेघकुमार के माता-पिता जब मेघकुमार को विषयों के अनुकूल आख्यापना से, प्रज्ञापना से, संज्ञापना से, विज्ञापना से समझाने, बझाने, संबोधित करने और मनाने में समर्थ नहीं हए, तब विषयों के प्रतिकल तथा संयम के प्रति भय और उद्वेग उत्पन्न करने वाली प्रज्ञापना से कहने लगे-हे पुत्र ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है, अनुत्तर है, सर्वज्ञकथित है, प्रतिपूर्ण है, नैयायिक है, शल्यकर्त्तन है, सिद्धि का मार्ग है, मुक्तिमार्ग है, निर्याण का मार्ग है, निर्वाण का मार्ग है और समस्त दुःखों का पूर्णरूपेण नष्ट करने का मार्ग है । जैसे सर्प अपने भक्ष्य को ग्रहण करने में निश्चल दृष्टि रखता है, उसी प्रकार इस प्रवचन में दृष्टि निश्चल रखनी पड़ती है । यह छूरे के समान एक धार वाला है, इस प्रवचन के अनुसार चलना लोहे के जौ चबाना है । यह रेत के कवल के समान स्वादहीन है । इसका पालन करना गंगा नामक महानदी के सामने पूर में तैरने के समान कठिन है, भुजाओं से महासमुद्र को पार करना है, तीखी तलवार पर आक्रमण करने के समान है, महाशिला जैसी भारी वस्तुओं को गले में बाँधने के समान है, तलवार की धार पर चलने के समान है। हे पुत्र ! निर्ग्रन्थ श्रमणों को आधाकर्मी औद्देशिक, क्रीतकृत स्थापित, रचित, दुर्भिक्षभक्त, कान्तारभक्त, वर्दलिका भक्त, ग्लान भक्त आदि दूषित आहार ग्रहण करना नहीं कल्पता है । इसी प्रकार मूल का भोजन, कंद का भोजन, फल का भोजन, शालि आदि बीजों का भोजन अथवा हरित का भोजन करना भी नहीं कल्पता है। इसके अतिरिक्त हे पुत्र ! तू सुख भोगने योग्य है, दुःख सहने योग्य नहीं है । तू सर्दी या गर्मी सहने में समर्थ नहीं है । भूख प्यास नहीं सह सकता, वात, पित्त, कफ और सन्निपात से होने वाले विविध रोगों को तथा आतंकों को, प्रतिकूल वचनों को, परीषहों को और उपसर्गों को सम्यक् प्रकार सहन नहीं कर सकता । अत एव हे लाल ! तू मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों को भोग । बाद में भुक्तभोग होकर श्रमण भगवान महावीर के निकट प्रव्रज्या अंगीकार करना। तत्पश्चात् माता-पिता के इस प्रकार कहने पर मेघकुमार ने माता-पिता से इस प्रकार कहा-हे माता-पिता ! आप मुझे यह जो कहते हैं सो ठीक है कि-हे पुत्र ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है, सर्वोत्तम है, आदि पूर्वोक्त कथन यहाँ दोहरा लेना चाहिए; यावत् बाद में भुक्तभोग होकर प्रव्रज्या अंगीकार कर लेना । परन्तु हे माता-पिता ! इस प्रकार यह निर्ग्रन्थ प्रवचन क्लीब-हीन संहनन वाले, कायर-चित्त की स्थिरता से रहित, कुत्सित, इस लोक सम्बन्धी विषयसुख की अभिलाषा करने वाले, परलोक के सुख की ईच्छा न करने वाले सामान्य जन के लिए ही दुष्कर है । धीर एवं दृढ़ संकल्प वाले पुरुष को इसका पालन करना कठिन नहीं है । इसका पालन करने में कठिनाई क्या है ? अत एव हे माता-पिता ! आपकी अनुमति पाकर मैं श्रमण भगवान महावीर के निकट प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता हूँ। जब माता-पिता मेघकुमार को विषयों के अनुकूल और विषयों में प्रतिकूल बहुत सी आख्यापना, प्रज्ञापना और विज्ञापना से समझाने, बुझाने, सम्बोधन करने और विज्ञप्ति करने में समर्थ न हुए, तब ईच्छा के बिना भी मेघ-कुमार से बोले-'हे पुत्र ! हम एक दिन भी तुम्हारी राज्यलक्ष्मी देखना चाहते हैं ।' तब मेघकुमार माता-पिता का अनुसरण करता हुआ मौन रह गया । तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों-सेवकों को बुलवाया और ऐसा कहा-'देवानुप्रियो ! मेघकुमार का महान अर्थ वाले, बहुमूल्य एवं महान पुरुषों के योग्य विपुल राज्याभिषेक तैयार करो ।' कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् सब सामग्री तैयार की। तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने बहुत से गणनायकों एवं दंडनायकों आदि से परिवृत्त होकर मेघकुमार को, एक मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 24 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक सौ आठ सुवर्ण कलशों, इसी प्रकार एक सौ आठ चाँदी के कलशों, एक सौ आठ स्वर्ण-रजत के कलशों, एक सौ आठ मणिमय कलशों, एक सौ आठ स्वर्ण-मणि के कलशों, एक सौ आठ रजत-मणि के कलशों, एक सौ आठ स्वर्ण-रजत-मणि के कलशों और एक सौ आठ मिट्टी के कलशों-इस प्रकार आठ सौ चौंसठ कलशों में सब प्रकार का जल भरकर तथा सब प्रकार की मृत्तिका से, सब प्रकार के पुष्पों से सब प्रकार के गंधों से, सब प्रकार की मालाओं से, सब प्रकार की औषधियों से तथा सरसों से उन्हें परिपूर्ण करके, सर्व समृद्धि, द्युति तथा सर्व सैन्य के साथ, दुंदुभि के निर्घोष की प्रतिध्वनि के शब्दों के साथ उच्चकोटि के राज्याभिषेक से अभिषिक्त किया । अभिषेक करके श्रेणिक राजा ने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि घूमाकर यावत् इस प्रकार कहा 'हे नन्द ! तुम्हारी जय हो, जय हो । हे भद्र ! तुम्हारी जय हो, जय हो । हे जगन्नन्द ! तुम्हारा भद्र हो । तुम न जीते हुए को जीतो और जीते हुए का पालन करो । जितों-आधारवानों के मध्य में निवास करो । नहीं जीते हुए शत्रुपक्ष को जीतो । जीते हुए मित्रपक्ष का पालन करो । यावत् देवों में इन्द्र, असुरों में चमरेन्द्र, नागों में धरण, ताराओं में चन्द्रमा एवं मनुष्यों में भरत चक्री की भाँति राजगह नगर का तथा दूसरे बहत से ग्रामों, आकरों, नगरों यावत् खेट, कर्बट, द्रोणमुख, मडंब, द्रोणमुख, मडंब, पट्टन, आश्रम, निगम, संवाह और सन्निवेशों का आधिपत्य यावत् नेतृत्व आदि करते हुए विविध वाद्यों, गीत, नाटक आदि का उपयोग करते हुए विचरण करो ।' इस प्रकार कहकर श्रेणिक राजा ने जय-जयकार किया । तत्पश्चात् मेघ राजा हो गया और पर्वतों में महाहिमवन्त की तरह शोभा पाने लगा । माता-पिता ने राजा मेघ से कहा- हे पुत्र ! बताओ, तुम्हारे किस अनिष्ट को दूर करें अथवा तुम्हारे इष्ट-जनों को क्या दें ? तुम्हें क्या दें ? तुम्हारे चित्त में क्या चाह है ? । तब राजा मेघ ने मातापिता से इस प्रकार कहा-'हे माता-पिता ! मैं चाहता हूँ कि कुत्रिकापण से रजोहरण और पात्र मंगवा दीजिए और काश्यप-नापित को बुलवा दीजिए । तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलवाया । बुलवाकर इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रियों ! तुम जाओ, श्रीगृह से तीन लाख स्वर्ण-मोहरें लेकर दो लाख से कुत्रिकापण से रजोहरण और पात्र ले आओ तथा एक लाख देकर नाई को बुला लाओ । तत्पश्चात् वे कौटुम्बिक पुरुष, राजा श्रेणिक के ऐसा कहने पर हृष्ट-तुष्ट होकर श्रीगृह से तीन लाख मोहरें लेकर कुत्रिकापण से, दो लाख से रजोहरण और पात्र लाए और एक लाख मोहरें देकर उन्होंने नाई को बुलवाया। तत्पश्चात् कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा बुलाया गया वह नाई हृष्ट-तुष्ट हुआ यावत् उसका हृदय आनन्दित हुआ। उसने स्नान किया, बलिकर्म किया, मषी-तिलक आदि कौतुक, दहीं दूर्वा आदि मंगल एवं दुःस्वप्न का निवारण रूप प्रायश्चित्त किया, साफ और राजसभा में प्रवेश करने योग्य मांगलिक और श्रेष्ठ वस्त्र धारण किए । थोड़े और बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को विभूषित किया । फिर जहाँ श्रेणिक राजा था, वहाँ आया । आकर, दोनों हाथ जोड़कर श्रेणिक राजा से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिय ! मुझे जो करना है, उसकी आज्ञा दीजिए ।' तब श्रेणिक राजा ने नाई से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! तुम जाओ और सुगंधित गंधोदक से अच्छी तरह हाथ पैर धो लो । फिर चार तह वाले श्वेत वस्त्र से मुँह बाँधकर मेघकुमार के बाल दीक्षा के योग्य चार अंगुल छोड़कर काट दो ।' तत्पश्चात् वह नापित श्रेणिक राजा के ऐसा कहने पर हृष्ट-तुष्ट और आनन्दितहृदय हुआ । उसने यावत् श्रेणिक राजा का आदेश स्वीकार किया । स्वीकार करके सुगंधित गंधोदक से हाथ-पैर धोए । हाथ-पैर धोकर शुद्ध वस्त्र से मुँह बाँधा । बाँधकर बड़ी सावधानी से मेघकुमार के चार अंगुल छोड़कर दीक्षा के योग्य केश काटे । उस समय मेघकुमार की माताने उन केशों को बहुमूल्य और हंस के चित्र वाले उज्ज्वल वस्त्र में ग्रहण किया । ग्रहण करके उन्हें सुगंधित गंधोदक से धोया । फिर सरस गोशीर्ष चन्दन उन पर छिड़क कर उन्हें श्वेत वस्त्र में बाँधा । बाँधकर रत्न की डिबिया में रखा । रखकर उस डिबिया को मंजूषा में रखा । फिर जल की धार, निर्गुड़ी के फूल एवं टूटे हुए मोतियों के हार के समान अश्रुधार प्रवाहित करती-करती, रोती-रोती, आक्रन्दन करती-करती और विलाप करती-करती इस प्रकार कहने लगी-'मेघकुमार के केशों का यह दर्शन राज्यप्राप्ति आदि अभ्युदय के अवसर पर, उत्सव के अवसर पर, प्रसव के अवसर पर, तिथियों के अवसर पर, इन्द्रमहोत्सव आदि के अवसर मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 25 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक पर, नागपूजा आदि के अवसर पर तथा कार्तिकी पूर्णिमा आदि पर्वो के अवसर पर हमें अन्तिम दर्शन रूप होगा। तात्पर्य यह है कि इन केशों का दर्शन, केशरहित मेघकुमार का दर्शन रूप होगा। इस प्रकार कहकर धारिणी ने वह पेटी अपने सिरहाने के नीचे रख ली। तत्पश्चात् मेघकुमार के माता-पिताने उत्तराभिमुख सिंहासन रखवाया । फिर मेघकुमार को दो-तीन बार श्वेत और पीत अर्थात् चाँदी और सोने के कलशों से नहलाया । नहलाकर रोएंदार और अत्यन्त कोमल गंधकाषाय वस्त्र से उसके अंग पोंछे । पोंछकर सरस गोशीर्ष चन्दन से शरीर पर विलेपन किया । विलेपन करके नासिका के निःश्वास की वायु से भी उड़ने योग्य-अति बारीक तथा हंस-लक्षण वाला वस्त्र पहनाया । पहनाकर अठारह लड़ों का हार पहनाया, नौ लड़ों का अर्द्धहार पहनाया, फिर एकावली, मुक्तावली, कनकावली, रत्नावली, प्रालंब, पादप्रलम्ब, कड़े, तुटिक, केयूर, अंगद, दसों उंगलियों में दस मुद्रिकाएं, कंदोरा, कुंडल, चूडामणि तथा रत्नजटित मुकूट पहनाए । यह सब अलंकार पहनाकर पुष्पमाला पहनाई । फिर दर्दर में पकाए हुए चन्दन के सुगन्धित तेल की गंध शरीर पर लगाई । तत्पश्चात् मेघकुमार को सूत से गूंथी हुई, पुष्प आदि से बेढ़ी हुई, बाँस की सलाई आकि से पूरित की गई तथा वस्तु के योग से परस्पर संघात रूप की हई-इस तरह चार प्रकार की पुष्पमालाओं से कल्पवृक्ष के समान अलंकृत और विभूषित किया। तत्पश्चात् राजा श्रेणिक ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा-देवानुप्रिय ! तुम शीघ्र ही एक शिबिका तैयार करो जो अनेक-सैकड़ों स्तम्भों से बनी हो, जिसमें क्रीड़ा करती हुई पुतलियाँ बनी हों, ईहामृग, वृषभ, तुरगघोड़ा, नर, मगर, विहग, सर्प, किन्नर, रुरु, सरभ, चरमरी गाय, कुञ्जर, वनलता और पद्मलता आदि के चित्रों की रचना से युक्त हो, जिससे घंटियों के समूह से मधुर और मनोहर शब्द हो रहे हों, जो शुभ, मनोहर और दर्शनीय हो, जो कुशल कारीगरों द्वारा निर्मित देदीप्यमान मणियों और रत्नों की घुघरूओं के समूह से व्याप्त हो, स्तम्भ पर बनी हुई वेदिका से युक्त होने के कारण जो मनोहर दिखाई देती हो, जो चित्रित विद्याधर-युगलों से शोभित हो, चित्रित सूर्य की हजार किरणों से शोभित हो, इस प्रकार हजारों रूपोंवाली, देदीप्यमान, अतिशय देदीप्यमान, जिसे देखते नेत्रों की तृप्ति न हो, जो सुखद स्पर्शवाली हो, सश्रीक स्वरूपवाली हो, शीघ्र त्वरित चपल और अतिशय चपल हो, और जो १००० पुरुषों द्वारा वहन की जाती हो । वे कौटुम्बिक पुरुष हृष्ट-तुष्ट होकर शिबिका उपस्थित करते हैं। तत्पश्चात् मेघकुमार शिबिका पर आरूढ़ हुआ, सिंहासन के पास पहुँचकर पूर्वदिशा की ओर मुख करके बैठ गया। तत्पश्चात् जो स्नान कर चुकी है, बलिकर्म कर चुकी है यावत् अल्प और बहुमूल्य आभरणों से शरीर को अलंकृत कर चूकी है, ऐसी मेघकुमार की माता उस शिबिका पर आरूढ़ हुई । आरूढ़ होकर मेघकुमार के दाहिने पार्श्व में भद्रासन पर बैठी । तत्पश्चात् मेघकुमार की धायमाता रजोहरण और पात्र लेकर शिबिका पर आरूढ़ होकर मेघकुमार के बाएं पार्श्व में भद्रासन पर बैठ गई । मेघकुमार के पीछे शृंगार के आगार रूप, मनोहर केषवाली, सुन्दर गति, हास्य, वचन, चेष्टा, विलाक, संलाप, उल्लाप करने में कुशल, योग्य उपचार करने में कुशल, परस्पर मिले हुए, समश्रेणी में स्थित, गोल, ऊंचे, पुष्ट, प्रीतिजनक और उत्तम आकार के स्तनों वाली एक उत्तम तरुणी, हिम, चाँदी, कुन्दपुष्प और चन्द्रमा के समान प्रकाश वाले, कोरंट के पुष्पों की माला से युक्त धवल छत्र को हाथों में थामकर लीलापूर्वक खड़ी हुई। तत्पश्चात् मेघकुमार के समीप शृंगार के आगार के समान, सुन्दर वेषवाली, यावत् उचित उपचारमें कुशल श्रेष्ठ तरुणियों शिबिका पर आरूढ़ हुई । आरूढ़ होकर मेघकुमार के दोनों पार्यों में, विविध प्रकार के मणि सुवर्ण रत्न और महान जनों के योग्य, अथवा बहुमूल्य तपनीयमय उज्ज्वल एवं विचित्र दंडीवाले, चमचमाते हुए, पतले उत्तम और लम्बे बालोंवाले, शंख गन्धपुष्प जलकण रजत एवं मंथन किये हुए अमृत फेन के समूह सरीखे दो चामर धारण करके लीलापूर्वक वींजती-वींजती हुई खड़ी हुई । तत्पश्चात् मेघकुमार के समीप शृंगार के आगार रूप यावत् उचित उपचार करने में कुशल एक उत्तम तरुणी यावत् शिबिका पर आरूढ़ हुई । आरूढ़ होकर मेघकुमार के पास पूर्व दिशा के सन्मुख चन्द्रकान्त मणि वज्ररत्न और वैडूर्यमय निर्मल दंडी वाले पंखे को ग्रहण करके खड़ी हुई । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 26 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक तत्पश्चात् मेघकुमार के माता-पिता ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया । बुलाकर इस प्रकार कहा-'देवानुप्रियो ! शीघ्र ही एक सरीखे, एक सरीखी त्वचा वाले, एक सरीखी उम्र वाले तथा एक सरीखे आभूषणों से समान वेश धारण करने वाले एक हजार उत्तम तरुण कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाओ।' यावत् उन्होंने एक हजार पुरुषों को बुलाया । तत्पश्चात् श्रेणिक राजा के कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा बुलाये गये वे एक हजार श्रेष्ठ तरुण सेवक हृष्ट-तुष्ट हुए । उन्होंने स्नान किया, यावत् एक-से आभूषण पहनकर समान पोशाक पहनी । फिर जहाँ श्रेणिक राजा था, वहाँ आए । आकर श्रेणिक राजा से इस प्रकार बोले-हे देवानुप्रिय ! हमें जो करने योग्य है, उसके लिए आज्ञा दीजिए। तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने उन एक हजार उत्तम तरुण कौटुम्बिक पुरुषों से कहा-देवानुप्रियो ! तुम जाओ और हजार पुरुषों द्वारा वहन करने योग्य मेघकुमार की पालकी को वहन करो । तत्पश्चात् वे उत्तम तरुण हजार कौटम्बिक पुरुष श्रेणिक राजा के इस प्रकार कहने पर हष्ट-तष्ट हए और हजार पुरुषों द्वारा वहन कुमार की शिबिका को वहन करने लगे । तत्पश्चात् पुरुषसहस्रवाहिनी शिबिका पर मेघकुमार के आरूढ़ होने पर, उसके सामने सर्वप्रथम यह आठ मंगलद्रव्य अनुक्रम से चले अर्थात् चलाये गए । वे इस प्रकार है स्वस्तिक श्रीवत्स नंदावर्त वर्धमान भद्रासन कलश मत्स्य और दर्पण । बहुत से धन के अर्थी जन, कामार्थी, भोगार्थी, लाभार्थी, भांड आदि, कापालिक अथवा ताम्बूलवाहक, करों से पीड़ित, शंख बजाने वाले, चाक्रिक-चक्र नामक शस्त्र हाथ में लेने वाले या कुंभार तेली आदि, नांगलिक-गले में हल के आकार का स्वर्णाभूषण पहनने वाले, मुखमांगलिक-मीठीमीठी बातें करने वाले, वर्धमान-अपने कंधे पर पुरुष को बिठाने वाले, पूष्यमानव-मागध-स्तुतिपाठक, खण्डिकगण-छात्रसमुदाय उसका इष्ट प्रिय मधुर वाणी से अभिनन्दन करते हुए कहने लगे हे नन्द ! जय हो, जय हो, हे भद्र जय हो, जय हो ! हे जगत् को आनन्द देने वाले ! तुम्हारा कल्याण हो । तुम नहीं जीती हुई पाँच इन्द्रियों को जीतो और जीते हुए साधुधर्म का पालन करो । हे देव ! विघ्नों को जीत कर सिद्धि में निवास करो । धैर्यपूर्वक कमर कस कर, तप के द्वारा राग-द्वेष रूपी मल्लों का हनन करो । प्रमादरहित होकर उत्तम शुक्लध्यान के द्वारा आठ कर्मरूपी शत्रुओं का मर्दन करो । अज्ञानान्धकार से रहित सर्वोत्तम केवलज्ञान को प्राप्त करो । परीषह रूपी सेना का हनन करके, परीषहों और उपसर्गों से निर्भय होकर शाश्वत एवं अचल परमपद रूप मोक्ष को प्राप्त करो । तुम्हारे धर्मसाधन में विघ्न न हो । उस प्रकार कहकर वे पुनः पुनः मंगलमय 'जयजय' शब्द का प्रयोग करने लगे । तत्पश्चात् मेघकुमार राजगृह के बीचों-बीच होकर नीकला । नीकलकर जहाँ गुणशील चैत्य था, वहाँ आया आकर पुरुषसहस्रवाहिनी पालकी से नीचे ऊतरा। सूत्र - ३४ मेघकुमार के माता-पिता मेघकुमार को आगे करके जहाँ श्रमण भगवान महावीर थे, वहाँ आकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा तरफ से आरंभ करके प्रदक्षिणा करते हैं । वन्दन करते हैं, नमस्कार करते हैं । फिर कहते हैं-हे देवानुप्रिय ! यह मेघकुमार हमारा इकलौता पुत्र है । प्राणों के समान और उच्छ्वास के समान है । हृदय को आनन्द प्रदान करने वाला है । गूलर के पुष्प के समान इसका नाम श्रवण करना भी दुर्लभ है तो दर्शन की बात क्या है ? जैसे उत्पल, पद्म अथवा कुमुद कीच में उत्पन्न होता है और जल में वृद्धि पाता है, फिर भी पंक की रज से अथवा जल की रज से लिप्त नहीं होता, इसी प्रकार मेघकुमार कामों में उत्पन्न हुआ और भोगों में वृद्धि पाया है, फिर भी काम-रज से लिप्त नहीं हुआ, भोगरज से लिप्त नहीं हुआ । यह मेघकुमार संसार के भय से उद्विग्न हुआ है और जन्म जरा मरण से भयभीत हुआ है । अतः देवानुप्रिय (आप) के समीप मुण्डित होकर, गृहत्याग करके साधुत्व की प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहता है । हम देवानुप्रिय को शिष्यभिक्षा देते हैं । हे देवानुप्रिय ! आप शिष्यभिक्षा अंगीकार कीजिए। तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर ने मेघकुमार के माता-पिता द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर इस अर्थ को सम्यक् प्रकार से स्वीकार किया । तत्पश्चात् मेघकुमार श्रमण भगवान् महावीर के पास से ईशान दिशा के भाग में गया । जाकर स्वयं ही आभूषण, माला और अलंकार उतार डाले । तत्पश्चात् मेघकुमार की माता ने हंस के लक्षण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 27 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक वाले और मृदुल वस्त्र में आभूषण, माल्य और अलंकार ग्रहण किये । ग्रहण करके हार, जल की धारा, निर्गुडी के पुष्प और टूटे हए मुक्तावली-हार से समान अश्रु टपकाती हई, रोती-रोती, आक्रन्दन करती-करती और विलाप करती-करती इस प्रकार कहने लगी-'हे लाल ! प्राप्त चारित्रयोग में यतना करना, हे पुत्र ! अप्राप्त चारित्रयोग को प्राप्त करने का यत्न करना, हे पुत्र ! पराक्रम करना । संयम-साधना में प्रमाद न करना, 'हमारे लिए भीय ही मार्ग हो' इस प्रकार कहकर मेघकुमार के माता-पिता ने श्रमण भगवान महावीर का वन्दन नमस्कार किया । वन्दन नमस्कार करके जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में लौट गए। सूत्र-३५ मेघकुमार ने स्वयं ही पंचमुष्टि लोच किया । जहाँ श्रमण भगवान महावीर थे, वहाँ आया । भगवान महावीर को तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा की। फिर वन्दन-नमस्कार किया और कहा-भगवन् ! यह संसार जरा और मरण से आदीप्त है, यह संसार प्रदीप्त है । हे भगवन् ! यह संसार आदीप्त-प्रदीप्त है । जैसे कोई गाथापति अपने घर में आग लग जाने पर, उस घर में जो अल्प भारवाली और बहुमूल्य वस्तु होती है उसे ग्रहण करके स्वयं एकान्त में चला जाता है । वह सोचता है कि 'अग्नि में जलने से बचाया हुआ यह पदार्थ मेरे लिए आगे-पीछे हित के लिए, सुख के लिए, क्षमा के लिए, कल्याण के लिए और भविष्य में उपयोग के लिए होगा । इसी प्रकार मेरा भी यह एक आत्मा रूपी भांड है, जो मुझे इष्ट है, कान्त है, प्रिय है, मनोज्ञ है और अतिशय मनोहर है । इस आत्मा को मैं नीकाल लूँगा-जरा-मरण की अग्नि में भस्म होने से बचा लूँगा, तो यह संसार का उच्छेद करने वाला होगा । अत एव मैं चाहता हूँ कि देवानुप्रिय स्वयं ही मुझे प्रव्रजित करें, स्वयं ही मुझे मुण्डित करें, स्वयं ही प्रतिलेखन आदि सिखावें, स्वयं ही सूत्र और अर्थ प्रदान करके शिक्षा दें, स्वयं ही ज्ञानादिक आचार, गोचरी, विनय, वैनयिक, चरणसत्तरी, करणसत्तरी, संयमयात्रा और मात्रा आदि स्वरूप वाले धर्म का प्ररूपण करें। तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर ने मेघकुमार को स्वयं ही प्रव्रज्या प्रदान की और स्वयं ही यावत् आचारगोचर आदि धर्म की शिक्षा दी । हे देवानुप्रिय ! इस प्रकार चलना इस प्रकार खड़ा होना, बैठना, शयन करना, निर्दोष आहार करना, भाषण करना । प्राण, भूत, जीव और सत्त्व की रक्षा करके संयम का पालन करना चाहिए। इस विषय में तनिक भी प्रमाद नहीं करना चाहिए । तत्पश्चात् मेघकुमार ने श्रमण भगवान महावीर के निकट इस प्रकार का धर्म सम्बन्धी यह उपदेश सूनकर और हृदय में धारण करके सम्यक् प्रकार से उसे अंगीकार किया । वह भगवान की आज्ञा के अनुसार गमन करता, उसी प्रकार बैठता यावत् उठ-उठ कर प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों की यतना करके संयम का आराधन करने लगा। सूत्र - ३६ जिस दिन मेघकुमार ने मुंडित होकर गृहवास त्याग कर चारित्र अंगिकार किया, उसी दिन के सन्ध्याकाल में रात्निक क्रम में अर्थात् दीक्षापर्याय के अनुक्रम से, श्रमण निर्ग्रन्थों के शय्या-संस्तारकों का विभाजन करते समय मेघकमार का शय्या-संस्तारक द्वार के समीप हआ। तत्पश्चात श्रमण निर्ग्रन्थ अर्थात अन्य मनि रात्रि के पहले और पीछले समय में वाचना के लिए, पृच्छना के लिए, परावर्तन के लिए, धर्म के व्याख्यान का चिन्तन करने के लिए, उच्चार के लिए एवं प्रस्रवण के लिए प्रवेश करते थे और बाहर नीकलते थे । उनमें से किसी-किसी साधु के हाथ का मेघकुमार के साथ संघट्टन हुआ, इसी प्रकार किसी के पैर की मस्तक से और किसी के पैर की पेट से टक्कर हुई । कोई-कोई मेघकुमार को लाँघ कर नीकले और किसी-किसी ने दो-तीन बार लाँघा । किसी-किसी ने अपने पैरों की रज से उसे भर दिया या पैरों के वेग से उड़ती हुई रज से वह भर गया । इस प्रकार लम्बी रात्रि में मेघकुमार क्षणभर भी आँख बन्द नहीं कर सका। तब मेघकुमार के मन में इस प्रकार का अध्यवसाय उत्पन्न हुआ–'मैं श्रेणिक राजा का पुत्र और धारिणी देवी का आत्मज मेघकुमार हूँ | गूलर के पुष्प के समान मेरा नाम श्रवण करना भी दुर्लभ है । जब मैं घर रहता था, तब श्रमण निर्ग्रन्थ मेरा आदर करते थे, 'यह कुमार ऐसा है। इस प्रकार जानते थे, सत्कार-सन्मान करते थे, जीवादि मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 28 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक पदार्थों को, उन्हें सिद्ध करने वाले हेतुओं को, प्रश्नों को, कारणों को और व्याकरणों को कहते थे और बार-बार कहते थे । इष्ट और मनोहर वाणी से मेरे साथ आलाप-संलाप करते थे । किन्तु जब से मैंने मुण्डित होकर, गृहवास से नीकलकर साधु-दीक्षा अंगीकार की है, तब से लेकर साधु मेरा आदर नहीं करते, यावत् आलाप-संलाप नहीं करते । तिस पर भी वे श्रमण निर्ग्रन्थ पहली और पीछली रात्रि के समय वाचना, पृच्छना आदि के लिए आते-जाते मेरे संस्तारक को लाँघते हैं और मैं इतनी लम्बी रातभर में आँख भी न मीच सका । अत एव कल रात्रि के प्रभात रूप होने पर यावत् तेज जाज्वल्यमान होने पर श्रमण भगवान महावीर से आज्ञा लेकर पुनः गृहवास में बसना ही मेरे लिए अच्छा है ।' मेघकुमार ने ऐसा विचार किया । विचार करके आर्तध्यान के कारण दुःख से पीड़ित और विकल्प-युक्त मानस को प्राप्त होकर मेघकुमार ने वह रात्रि नरक की भाँति व्यतीत की । रात्रि व्यतीत करके प्रभात होने पर, सर्य के तेज से जाज्वल्यमान होने पर, जहाँ श्रमण भगवान महावीर थे, वहाँ आया । आकर तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की । प्रदक्षिणा करके भगवान को वन्दन किया, नमस्कार किया । वन्दन नमस्कार करके यावत् भगवान की पर्युपासना करने लगा। सूत्र-३७ तत्पश्चात् हे मेघ' इस प्रकार सम्बोधन करके श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने मेघकुमार से कहा-'हे मेघ! तुम रात्रि के पहले और पीछले काल के अवसर पर, श्रमण निर्ग्रन्थों के वाचना पृच्छना आदि के लिए आवागमन करने के कारण, लम्बी रात्रि पर्यन्त थोड़ी देर के लिए भी आँख नहीं मींच सके । मेघ ! तब तुम्हारे मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ-जब मैं गृहावास में निवास करता था, तब श्रमण निर्ग्रन्थ मेरा आदर करते थे यावत् मुझे जानते थे; परन्तु जब से मैंने मुण्डित होकर, गृहवास से नीकलकर साधुता की दीक्षा ली है, तब से श्रमण निर्ग्रन्थ न मेरा आदर करते हैं, न मुझे जानते हैं । इसके अतिरिक्त श्रमण रात्रि में कोई वाचना के लिए यावत् आते-जाते मेरे संथारा को लाँघते हैं यावत मुझे पैरों की रज से भरते हैं । अत एव मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि कल प्रभात होने पर श्रमण भगवान महावीर से पूछकर मैं पुनः गहवास में बसने लगें ।' तुमने इस प्रकार का विचार करके आर्त्त-ध्यान के कारण दुःख से पीड़ित एवं संकल्प-विकल्प से युक्त मानस वाले होकर नरक की तरह रात्रि व्यतीत की है। रात्रि व्यतीत करके शीघ्रतापूर्वक मेरे पास आए हो । हे मेघ ! यह अर्थ समर्थ है ? मेघकुमार ने उत्तर दिया-हाँ, यह अर्थ समर्थ है। भगवान बोले-हे मेघ ! इससे पहले इतीत तीसरे भव में वैताढ्य पर्वत के पादमूल में तुम गजराज थे । वनचरों ने तुम्हारा नाम 'सुमेरुप्रभ' रखा था । उस सुमेरुप्रभ का वर्ण श्वेत था । शंख के दल के समान उज्ज्वल, विमल, निर्मल, दही के थक्के के समान, गाय के दूध के फेन के समान और चन्द्रमा के समान रूप था । वह सात हाथ ऊंचा और नौ हाथ लम्बा था । मध्यभाग दस हाथ के परिमाण वाला था । चार पैर, सैंड पूँछ और जननेन्द्रिय-यह सात अंग प्रतिष्ठित थे । सौम्य, प्रमाणोपेत अंगों वाला, सुन्दर रूप वाला, आगे से ऊंचा, ऊंचे मस्तक वाला, शुभ या सुखद आसन वाला था । उसका पीछला भाग वराह के समान नीचे झुका हुआ था । इसकी कूँख बकरी की कूँख जैसी थी और वह छिद्रहीन थी । वह लम्बे उदर वाला, लम्बे होठ वाला और लम्बी सूंड वाला था । उसकी पीठ धनुष पृष्ठ जैसी आकृति वाली थी । उसके अन्य अवयव भलीभाँति मिले हुए, प्रमाणयुक्त, गोल एवं पुष्प थे । पूँछ चिपकी हुई तथा प्रमाणोपेत थी । पैर कछुए जैसे परिपूर्ण और मनोहर थे । बीसों नाखून श्वेत, निर्मल, चिकने और निरुपहत थे । छह दाँत थे। हे मेघ ! वहाँ तुम बहुत से हाथियों, हाथिनियों, लोट्टकों, लोट्टिकाओं, कलभों और कलभिकाओं से परिवृत्त होकर एक हजार हाथियों के नायक, मार्गदर्शक, अगुवा, प्रस्थावक, यूथपति और यूथ की वृद्धि करने वाले थे । इनके अतिरिक्त अन्य बहुत-से अकेले हाथी के बच्चों का आधिपत्य करते हुए, स्वामित्व, नेतृत्व करते हुए एवं उनका पालन-रक्षण करते हुए विचरण कर रहे थे । हे मेघ ! तुम निरन्तर मस्त, सदा क्रीड़ापरायण, कंदर्परति-क्रीड़ा करने में प्रीति वाले, मैथुनप्रिय, कामभोग में अतृप्त और कामभोग की तृष्णा वाले थे । बहुत से हाथियों वगैरह से मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 29 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक परिवृत्त होकर वैताढ्य पर्वत के पादमूल में, पर्वतों में, दरियों में, कुहरों में, कंदराओं में, उज्झरों, झरणों में, विदरों में, गड़हों में, पल्वलों में, चिल्ललों में, कटक में, कटपल्लवों में, तटों में, अटवी में, टंकों में, कूटों में, पर्वत के शिखरों पर, प्राग्भारों में, मंचों पर, काननों में, वनों में, वनखण्डों में, वनों की श्रेणियों में, नदियों में, नदीकक्षों में, यूथों में, नदियों के संगमस्थलों में, वापियों में, पुष्करणियों में, दीर्घिकाओं में, गुंजालिकाओं में, सरोवरों में, सरोवरों की पंक्तियों में, सरः-सर पंक्तियों में, वनचरों द्वारा तुम्हें विचार दी गई थी । ऐसे तुम बहुसंख्यक हाथियों आदि के साथ, नाना प्रकार के तरुपल्लवों, पानी और घास का उपयोग करते हुए निर्भय, और उद्वेगरहित होकर सुख के साथ विचरते थे-रहते थे। तत्पश्चात् एक बार कदाचित् प्रावृट्, वर्षा, शरद हेमन्त और वसन्त, इस पाँच ऋतुओं के क्रमशः व्यतीत हो जाने पर ग्रीष्म ऋतु का समय आया । ज्येष्ठ मास में, वृक्षों की आपस की रगड़ से उत्पन्न हुईं तथा सूखे घास, पत्तों और कचरे से एवं वाय के वेग से प्रदीप्त हई अत्यन्त भयानक अग्नि से उत्पन्न वन के दावानल की ज्वालाओं से वन का मध्य भाग सुलग उठा । दिशाएं धुएं से व्याप्त हो गई। प्रचण्ड वायु-वेग से अग्नि की ज्वालाएं टूट जाने लगी और चारों ओर गिरने लगीं । पोले वृक्ष भीतर ही भीतर जलने लगे । वन-प्रदेशों के नदी-नालों का जल मृत मृगादिक के शवों से सड़ने लगा । उनका कीचड़ कीड़ों से व्याप्त हो गया । उनके किनारों का पानी सूख गया । भंगारक पक्षी दीनता पूर्वक आक्रन्दन करने लगे । उत्तम वृक्षों पर स्थित काक अत्यन्त कठोर और अनिष्ट शब्द करने लगे । उन वक्षों के अग्रभाग अग्निकणों के कारण मँगे के समान लाल दिखाई देने लगे । पक्षियों के समह प्यास से पीड़ित होकर पंख ढीले करके, जिह्वा एवं तालु को बाहर नीकाल करके तथा मुँह फाड़कर साँसे लेने लगे। ग्रीष्मकाल की उष्णता, सूर्य के ताप, अत्यन्त कठोर एवं प्रचंड वायु तथा-सूखे घास के पत्तों और कचरे से युक्त बवंडर के कारण भाग-दौड़ करने वाले, मदोन्मत्त एवं घबराए सिंह आदि श्वापदों के कारण पर्वत आकुल-व्याकुल हो उठे । ऐसा प्रतीत होने लगा मानो उन पर्वतों पर मृगतृष्णा रूप पट्टबंध बँधा हो । त्रास को प्राप्त मृग, अन्य पशु और सरीसृप इधर-उधर तड़फने लगे । इस भयानक अवसर पर, मे मेघ ! तुम्हारे पूर्वभव के सुमेरुप्रभ नामक हाथी का मुख-विवर फट गया । जिह्वा का अग्रभाग बाहर नीकल आया । बड़े-बड़े दोनों कान भय से स्तब्ध और व्याकुलता के कारण शब्द ग्रहण करने में तत्पर हुए । बड़ी और मोटी सँड़ सिकुड़ गई । उसने पूँछ ऊंची कर ली। पीना के समान विरस अरटि के शब्द-चित्कार से वह आकाशतल को फोड़ता हुआ सा, सीत्कार करता हुआ, चहुँ ओर सर्वत्र बेलों के समूह को छेदता हुआ, त्रस्त और बहुसंख्यक सहस्रों वृक्षों को उखाड़ता हुआ, राज्य से भ्रष्ट हुए राजा के समान, वायु से डोलते हुए जहाज के समान और बवंडर के समान इधर-उधर भ्रमण करता हुआ एवं बारबार लींड़ी त्यागता हुआ, बहुत-से हाथियों के साथ दिशाओं और विदिशाओं में इधर-उधर भागदौड़ करने लगा। ___ हे मेघ ! तुम वहाँ जीर्ण, जरा से जर्जरित देह वाले, व्याकुल, भूखे, प्यासे, दुबले, थके-माँदे, बहिरे तथा दिङ्मूढ होकर अपने यूथ से बिछुड़ गए । वन के दावानल की ज्वालाओं से पराभूत हुए । गर्मी से, प्यास से और भूख से पीड़ित होकर भय से घबरा गए, त्रस्त हुए । तुम्हारा आनन्द-रस शुष्क हो गया । इस विपत्ति से कैसे छूटकारा पाऊं, ऐसा विचार करके उद्विग्न हुए । तुम्हें पूरी तरह भय उत्पन्न हो गया । अत एव तुम इधर-उधर दौड़ने और खूब दौड़ने लगे । इसी समय अल्प जल वाला और कीचड़ की अधिकता वाला एक बड़ा सरोवर तुम्हें दिखाई दिया । उसमें पानी पीने के लिए बिना घाट के ही तुम उत्तर गए । हे मेघ ! वहाँ तुम किनारे से तो दूर चले गए परन्तु पानी तक न पहुँच पाये और बीच ही में कीचड़ में फँस गये । हे मेघ ! 'मैं पानी पीऊं ऐसा सोचकर तुमन अपनी सूंड़ फैलाई, मगर तुम्हारी सँड़ भी पानी न पा सकी । तब हे मेघ ! तुमने पुनः 'शरीर को कीचड़ से बाहर नीकालूँ ऐसा विचार कर जोर मारा तो कीचड़ में और गाढ़े फँस गए। तत्पश्चात् हे मेघ ! एक बार कभी तुमने एक नौजवान श्रेष्ठ हाथी को सूंड, पैर और दाँत रूपी मूसलों से प्रहार करके मारा था और अपने झुंड में से बहुत समय पूर्व नीकाल दिया था । वह हाथी पानी पीने के लिए उसी सरोवर में उतरा । उस नौजवान हाथी ने तुम्हें देखा । देखते ही उसे पूर्व वैर का स्मरण हो आया । स्मरण आते ही मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 30 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक उसमें क्रोध के चिह्न प्रकट हुए । उसका क्रोध बढ़ गया । उसने रौद्र रूप धारण किया और वह क्रोधाग्नि से जल उठा । अत एव वह तुम्हारे पास आया । आकर तीक्ष्ण दाँत रूपी मूसलों से तीन बार तुम्हारी पीठ बींध दी और बींध कर पूर्व वैर का बदला लिया । बदला लेकर हृष्ट-तुष्ट होकर पानी पीया । पानी पीकर जिस दिशा से प्रकट हुआ था-आया था, उस दिशा में वापिस लौट गया। तत्पश्चात् हे मेघ ! तुम्हारे शरीर में वेदना उत्पन्न हुई । वह वेदना ऐसी थी कि तुम्हें तनिक भी चैन न थी, वह सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त थी और त्रितुला थी । वह वेदना कठोर यावत् बहुत ही प्रचण्ड थी, दुस्सह थी । उस वेदना के कारण तुम्हारा शरीर पित्त-ज्वर से व्याप्त हो गया और शरीर में दाह उत्पन्न हो गया । उस समय तुम इस बूरी हालत में रहे । तत्पश्चात् हे मेघ ! तुम उस उज्ज्वल-बेचैन बना देने वाली यावत् दुस्सह वेदना को सात दिन-रात पर्यन्त भोग कर, एक सौ बीस वर्ष की आयु भोगकर, आर्तध्यान के वशीभूत एवं दुःख से पीड़ित हुए । तुम कालमास में काल करके, इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में, दक्षिणार्ध भरत में, गंगा नामक महानदी के दक्षिण किनारे पर, विंध्याचल के समीप एक मदोन्मत्त श्रेष्ठ गंधहस्ती से, एक श्रेष्ठ हथिनी की कुंख में हाथी के बच्चे के रूप में उत्पन्न हए । तत्पश्चात् उस हथिनी ने नौ मास पूर्ण होने पर वसन्त मास में तुम्हें जन्म दिया। हे मेघ ! तुम गर्भावास से मुक्त होकर गजकलभक भी हो गए । लाल कमल के समान लाल और सुकुमार हुए । जपाकुसुम, रक्त वर्ण पारिजात नामक वृक्ष के पुष्प, लाख के रस, सरस कुंकुम और सन्ध्याकालीन बादलों के रंग के समान रक्तवर्ण हुए । अपने यूथपति के प्रिय हुए । गणिकाओं जैसी युवती हथिनियों के उदर-प्रदेश में अपनी सूंड जालकते हुए काम-क्रीड़ा में तत्पर रहने लगे । इस प्रकार सैकड़ों हाथियों से परिवृत्त होकर तुम पर्वत के रमणीय काननों में सुखपूर्वक विचरने लगे । हे मेघ ! तुम यौवन को प्राप्त हुए । फिर यूथपति ने कालधर्म को प्राप्त होने पर, तुम स्वयं ही उस यूथ को वहन करने लगे । हे मेघ ! वनचरों ने तुम्हारा नाम मेरुप्रभ रखा । तुम चार दाँत वाले हस्तिरत्न हुए । हे मेघ ! तुम सात अंगों से भूमि का स्पर्श करने वाले, आदि पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त यावत् सुन्दर रूप वाले हुए । हे मेघ ! तुम वहाँ सात सौ हाथियों के यूथ का अधिपतित्व, स्वामित्व, नेतृत्व आदि करते हुए तथा उनका पालन करते हुए अभिरमण करने लगे। तब एक बार कभी ग्रीष्मकाल के अवसर पर ज्येष्ठ मास में, वन के दावानल की ज्वालाओं से वन-प्रदेश जलने लगे । दिशाएं धूम से व्याप्त हो गईं । उस समय तुम बवण्डर की तरह इधर-उधर भागदौड़ करने लगे। भयभीत हुए, व्याकुल हुए और बहुत डर गए । तब बहुत से हाथियों यावत् हथिनियों आदि के साथ, उनसे परिवृत्त होकर, चारों ओर एक दिशा से दूसरी दिशा में भागे । हे मेघ ! उस समय उस वन के दावानल को देखकर तुम्हें इस का अध्यवसाय, चिन्तन एवं मानसिक विचार उत्पन्न हुआ-'लगता है जैसे इस प्रकार की अग्नि की उत्पत्ति मैंने पहले भी कभी अनुभव की है। तत्पश्चात् हे मेघ ! विशुद्ध होती हुई लेश्याओं, शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम और जातिस्मरण को आवृत्त करनेवाले कर्मों का क्षयोपशम होने से ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए तुम्हें संज्ञी जीवों को प्राप्त होने वाला जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ । तत्पश्चात् मेघ ! तुमने यह अर्थ-सम्यक् प्रकार से जान लिया कि – 'निश्चय ही मैं व्यतीत हुए दूसरे भव में, इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भरतक्षेत्र में, वैताढ्य पर्वत की तलहटी में सुखपूर्वक विचरता था । वहाँ इस प्रकार का महान अग्नि का संभव-प्रादुर्भाव मैंने अनुभव किया है ।' तदनन्तर हे मेघ ! तुम उस भव में उसी दिन के अन्तिम प्रहर तक अपने यूथ के साथ विचरण करते थे। हे मेघ ! उसके बाद शत्रु हाथी की मार से मृत्यु को प्राप्त होकर दूसरे भव में सात हाथ ऊंचे यावत् जातिस्मरण से युक्त, चार दाँत वाले मेरुप्रभ नामक हाथी हुए। तत्पश्चात् हे मेघ ! तुम्हें इस प्रकार का अध्यवसाय-चिन्तन, संकल्प उत्पन्न हुआ कि-'मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि इस समय गंगा महानदी के दक्षिणी किनारे पर विंध्याचल की तलहटी में दावानल से रक्षा करने के लिए अपने यूथ के साथ बड़ा मंडल बनाऊं ।' इस प्रकार विचार करके हे मेघ ! तुमने एक बार कभी प्रथम वर्षाकाल में खूब वर्षा होने पर गंगा महानदी के समीप बहुत-से हाथियों यावत् हथिनियों से परिवृत्त होकर एक मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 31 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक योजन परिमित बड़े घेरे वाला विशाल मंडल बनाया । उस मंडल में जो कुछ भी घास, पत्ते, काष्ठ, काँटे, लता, बेलें, ढूंठ, वृक्ष या पौधे आदि थे, उन सबको तीन बार हिला कर पैर से उखाड़ा, सूंड से पकड़ा और एक और ले जाकर डाल दिया । हे मेघ ! तत्पश्चात् तुम उसी मंडल के समीप गंगा महानदी के दक्षिणी किनारे, विंध्याचल के पादमूल में, पर्वत आदि पूर्वोक्त स्थानों में विचरण करने लगे । हे मेघ ! किसी अन्य समय मध्य वर्षाऋतु में खूब वर्षा होने पर तुम उस स्थान पर गए जहाँ मंडल था । वहाँ जाकर दूसरी बार, इसी प्रकार अन्तिम वर्षा-रात्रि में भी घोर वृष्टि होने पर जहाँ मंडल था, वहाँ जाकर तीसरी बार उस मंडल को साफ किया । वहाँ जो भी घास, पत्ते, काष्ठ, काँटे, लता, बैलें, ढूंठ, वृक्ष या पौधे ऊगे थे, उन सबको उखाड़कर सुखपूर्वक विचरण करने लगे। हे मेघ ! तुम गजेन्द्र पर्याय में वर्त्त रहे थे कि अनुक्रम से कमलिनियों के वन का विनाश करने वाला, कुंद और लोध्र के पुष्पों की समद्धि से सम्पन्न तथा अत्यन्त हिम वाला हेमन्त ऋत व्यतीत हो गया और अभिनव ग्रीष्म काल आ पहँचा । उस समय तम वनों में विचरण कर रहे थे। वहाँ क्रीडा करते समय वन की हथिनियाँ तम्हारे ऊपर विविध प्रकार के कमलों एवं पुष्पों का प्रहार करती थीं । तुम उस ऋतु में उत्पन्न पुष्पों के ब कर्ण के आभूषणों से मंडित और मनोहर थे । मद के कारण विकसित गंडस्थलों को आर्द्र करने वाले तथा झरते हुए सुगन्धित मदजल से तुम सुगन्धमय बन गए थे । हथिनियों से घिरे थे । सब तरह से ऋतु सम्बन्धी शोभा उत्पन्न हुई थी । उस ग्रीष्मकाल में सूर्य की प्रखर किरणें पड़ रही थीं । उस ग्रीष्मऋतु ने श्रेष्ठ वृक्षों के शिखरों को शुष्क बना दिया था । वह बड़ा ही भयंकर प्रतीत होता था । शब्द करने वाले श्रृंगार नामक पक्षी भयानक शब्द कर रहे थे। पत्र, काष्ठ, तृण और कचरे को उड़ाने वाले प्रतिकूल पवन से आकाशतल और वृक्षों का समूह व्याप्त हो गया था । वह बवण्डरों के कारण भयानक दीख पड़ता था । प्यास के कारण उत्पन्न वेदनादि दोषों से ग्रस्त और इसी कारण इधर-उधर भटकते हुए श्वापदों से युक्त था । देखने में ऐसा भयानक ग्रीष्मऋतु, उत्पन्न हुए दावानल के कारण अधिक दारुण हो गया । वह दावानल वायु के संचार के कारण फैला हुआ और विकसित हुआ था । उसके शब्द का प्रकार अत्यधिक भयंकर था । वृक्षों से गिरने वाले मधु की धाराओं से सिञ्चित होने के कारण वह अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त हुआ था, धधकने की ध्वनि से परिव्याप्त था । वह अत्यन्त चमकती हुई चिनगारियों से युक्त और धूम व्याप्त था । सैकड़ों के प्राणों का अन्त करने वाला था । इस प्रकार तीव्रता को प्राप्त दावानल के कारण वह ग्रीष्म ऋतु अत्यन्त भयङ्कर दिखाई देती थी। हे मेघ ! तुम उस दावानल की ज्वालाओं से आच्छादित हो ईच्छानुसार गमन करने में असमर्थ हो गए । धूएं के कारण उत्पन्न हुए अन्धकार से भयभीत हो गए । अग्नि के ताप को देखने से तुम्हारे दोनों कान अरघट्ट के तुंब के समान स्तब्ध रह गए । तुम्हारी मोटी और बड़ी सँड़ सिकुड़ गई। तुम्हारे चमकते हुए नेत्र भय के कारण इधर-उधर फिरते-देखने लगे । जैसे वायु के कारण महामेघ का विस्तार हो जाता है, उसी प्रकार वेग के कारण तुम्हारा स्वरूप विस्तृत दिखाई देने लगा । पहले दावानल के भय से भीतहृदय होकर दावानल से अपनी रक्षा करने के लिए, जिस दिशा में तृण के प्रदेश और वृक्ष आदि हटाकर सफाचट प्रदेश बनाया था और जिधर वह मंडल बनाया था, उधर ही जाने का तुमने विचार किया। वहीं जाने का निश्चय किया। हे मेघ ! किसी अन्य समय पाँच ऋतएं व्यतीत हो जाने पर ग्रीष्मकाल के अवसर पर ज्येष्ठ मास में, वक्षों की परस्पर की रगड़ से उत्पन्न दावानल के कारण यावत् अग्नि फैल गई और मृग, पशु, पक्षी तथा सरीसृप आदि भाग-दौड़ करने लगे । तब तुम बहुत-से हाथियों आदि के साथ जहाँ वह मंडल था, वहाँ जाने के लिए दौड़े । उस मंडल में अन्य बहुत से सिंह, बाघ, भेड़िया, द्वीपिका (चिते), रीछ, तरच्छ, पारासर, शरभ, शृंगाल, बिडाल, श्वान, शूकर, खरगोश, लोमड़ी, चित्र और चिल्लन आदि पशु अग्नि के भय से घबरा कर पहले ही आ घूसे थे और एक साथ बिलधर्म से रहे हुए थे अर्थात् जैसे एक बिल में बहुत से मकोड़े ठसाठस भरे रहते हैं, उसी प्रकार उस मंडल में भी पूर्वोक्त प्राणी ठसाठस भरे थे । तत्पश्चात् हे मेघ ! तुम जहाँ मंडल था, वहाँ आए और आकर उन बहुसंख्यक सिंह यावत् चिल्लन आदि के साथ एक जगह बिलधर्म में ठहर गए। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 32 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक हे मेघ ! तुमने पैर से शरीर खुजाऊं ऐसा सोचकर पैर उपर ऊठाया । इसी समय उस खाली हुई जगह में, अन्य बलवान् प्राणियों द्वारा प्रेरीत-धकियाया हुआ एक शशक प्रविष्ट हो गया । तब हे मेघ ! तुमने पेर खुजा कर सोचा कि मैं पैर नीचे रखू, परन्तु शशक को पैर की जगह में घूसा हुआ देखा । देखकर प्राणों की अनुकम्पा से, वनस्पति रूप भूतों की अनुकम्पा से, जीवों की अनुकम्पा से तथा सत्त्वों की अनुकम्पा से वह पैर अधर ही उठाए रखा । तब उस प्राणानुकम्पा यावत् सत्त्वानुकम्पा से तुमने संसार परीत किया और मनुष्यायु का बन्ध किया । वह दावानल अढ़ाई अहोरात्र पर्यन्त उस वन को जला कर पूर्ण हो गया, उपरत हो गया, उपशान्त हो गया, बुझ गया । तब वह बहुत से सिंह यावत् चिल्लनक आदि पूर्वोक्त प्राणीयों ने उन वन-दावानल को पूर्ण हुआ यावत् बुझा हुआ देखा और देखकर वे अग्नि के भय से मुक्त हुए । वे प्यास एवं भूख से पीड़ित होते हुए उस मंडल से बाहर नीकले और सब दिशाओं और विदिशाओं में फैल गए । हे मेघ ! उस समय तुम जीर्ण, जरा से जर्जरीत शरीर वाले, शिथिल एवं सलों वाली चमड़ी से व्याप्त गात्र वाले, दुर्बल, थके हुए, भूखे-प्यासे, शारीरिक शक्ति से हीन, सहारा न होने से निर्बल, सामर्थ्य से रहित और चलने फिरने की शक्ति से रहित एवं ठंठ की भाँति स्तब्ध रह गए। 'मैं वेग से चलूँ ऐसा विचार कर ज्यों ही पैर पसारा कि विद्युत से आघात पाए हए रजतगिरि के शिखर के समान तुम धड़ाम से धरती पर गिर पड़े। तत्पश्चात् हे मेघ ! तुम्हारे शरीर में उत्कट वेदना उत्पन्न हई । शरीर पित्तज्वर से व्याप्त हो गया और शरीर में जलन होने लगी। तुम ऐसी स्थिति में रहे । तब हे मेघ ! तुम उस उत्कट यावत् दुस्सह वेदना को तीन रात्रि-दिवस पर्यन्त भोगते रहे । अन्त में सौ वर्ष की पूर्ण आयु भोगकर इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में भारतवर्ष में राजगृह नगर में श्रेणिक राजा की धारिणी देवी की कुंख में कुमार के रूप में उत्पन्न हुए। सूत्र - ३८ तत्पश्चात् हे मेघ ! तुम अनुक्रम से गर्भवास से बाहर आए-तुम्हारा जन्म हुआ । बाल्यावस्था से मुक्त हुए और युवावस्था को प्राप्त हुए । तब मेरे निकट मुण्डित होकर गृहवास से अनगार हुए । तो हे मेघ ! जब तुम तिर्यंच योनिरूप पर्याय को प्राप्त थे और जब तुम्हें सम्यक्त्व-रत्न का लाभ भी नहीं हुआ था, उस समय भी तुमने प्राणियों की अनुकम्पा से प्रेरीत होकर यावत् अपना पैर अधर ही रखा था, नीचे नहीं टिकाया था, तो फिर हे मेघ ! इस जन्म में तुम विशाल कुल में जन्मे हो, तुम्हें उपघात से रहित शरीर प्राप्त हुआ है । प्राप्त हुई पाँचों इन्द्रियों का तुमने दमन किया है और उत्थान, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम से युक्त हो और मेरे समीप मुण्डित होकर गृहवास का त्याग कर अगेही बने हो, फिर भी पहली और पीछली रात्रि के समय श्रमण निर्ग्रन्थ वाचना के लिए यावत् धर्मानुयोग के चिन्तन के लिए तथा उच्चार-प्रस्रवण के लिए आते-जाते थे, उस समय तुम्हें अनेक हाथ का स्पर्श हुआ, पैर का स्पर्श हुआ, यावत् रजकणों से तुम्हारा शरीर भर गया, उसे तुम सम्यक् प्रकार से सहन न कर सके । बिना क्षुब्ध हुए सहन न कर सके । अदीनभाव से तितिक्षा न कर सके । शरीर को निश्चल रखकर सहन न कर सके तत्पश्चात् मेघकुमार अनगार को श्रमण भगवान महावीर के पास से यह वृत्तान्त सून-समझ कर, शुभ परिणामों के कारण, प्रशस्त अध्यवसायों के कारण, विशुद्ध होती हुई लेश्याओं के कारण और जातिस्मरण को आवृत्त करने वाले ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम के कारण, ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए, संज्ञी जीवों को प्राप्त होने वाला जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ । उससे मेघ मुनि ने अपना पूर्वोक्त वृत्तान्त सम्यक् प्रकार से जान लिया । तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर के द्वारा मेघकुमार को पूर्व वृत्तान्त स्मरण करा देने से दुगुना संवेग प्राप्त हुआ । उसका मुख आनन्द के आँसुओं से परिपूर्ण हो गया । हर्ष के कारण मेघधारा से आहत कदंबपुष्प की भाँति रोम विकसित हो गए। उसने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन किया, नमस्कार किया । वन्दननमस्कार करके इस प्रकार कहा-'भन्ते ! आज से मैंने अपने दोनों नेत्र छोडकर समस्त शरीर श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए समर्पित किया। इस प्रकार कहकर मेघकुमार ने पुनः श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार किया । वन्दन-नमस्कार करके इस भाँति कहा-'भगवन् ! मेरी ईच्छा है कि अब आप स्वयं ही दूसरी बार मुझे प्रव्रजित मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 33 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक करें, स्वयं ही मुण्डित करें, यावत् स्वयं ही ज्ञानादिक आचार, गोचर-गोचरी के लिए भ्रमण यात्रा-पिण्डविशुद्धि आदि संयमयात्रा तथा मात्रा-प्रमाणयुक्त आहार ग्रहण करना, इत्यादि स्वरूप वाले श्रमणधर्म का उपदेश दें। तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर ने मेघकुमार को स्वयमेव पुनः दीक्षित किया, यावत् स्वयमेव यात्रा-मात्रा रूप धर्म का उपदेश दिया। कहा-'हे देवानुप्रिय! इस प्रकार गमन करना, बैठना चाहिए, शयन करना चाहिए, आहार करना और बोलना चाहिए । प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों की रक्षा रूप संयम में प्रवृत्त रहना चाहिए । तात्पर्य यह है कि मुनि को प्रत्येक क्रिया यतना के साथ करना चाहिए । तत्पश्चात् मेघमुनिने श्रमण भगवान महावीर के इस प्रकार के धार्मिक उपदेश को सम्यक् प्रकार से अंगीकार किया । अंगीकार करके उसी प्रकार वर्ताव करने लगे यावत संयम में उद्यम करने लगे। तब मेघ ईर्यासमिति आदि से यक्त अनगार हए (अनगार वर्णन जानना)। उन मेघ मनिने श्रमण भगवान महावीर के निकट रहकर तथा प्रकार के स्थविर मनियों से सामायिक से आरम्भ करके ग्यारह अंगशास्त्रों का अध्ययन किया । बहत से उपवास, बेला, तेला, पंचौला आदि से तथा अर्धमास खमण एवं मासखमण आदि तपस्या से आत्मा को भावित करते हुए वे विचरने लगे । तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर राजगृह नगर से, गुणशीलक चैत्य से नीकले । बाहर जनपदों में विहार करने लगे। सूत्र - ३९ तत्पश्चात् उन मेघ अनगार ने किसी अन्य समय श्रमण भगवान महावीर की वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार करके कहा-'भगवन् ! मैं आपकी अनुमति पाकर एक मास की मर्यादा वाली भिक्षुप्रतिमा को अंगीकार करके विचरने की ईच्छा करता हूँ | भगवान् ने कहा-'देवानुप्रिय ! तुम्हें जैसा सुख उपजे वैसा करो । प्रतिबन्ध न करो, विलम्ब न करो।' तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर द्वारा अनुमति पाए हुए अनगार एक मास की भिक्षुप्रतिमा अंगीकार करके विचरने लगे । एक मास की भिक्षुप्रतिमा को यथासूत्र-सूत्र के अनुसार, कल्प के अनुसार, मार्ग के अनुसार सम्यक् प्रकार के काय से ग्रहण किया, निरन्तर सावधान रहकर उसका पालन किया, देन गुरु को देकर शेष बचा भोजन करके शोभित किया, अथवा अतिचारों का निवारण करके शोधन किया, प्रतिमा का काल पूर्ण हो जाने पर भी किंचित् काल अधिक प्रतिमा में रहकर तीर्ण किया, पारण के दिन प्रतिमा सम्बन्धी कार्यों का कथन करके कीर्तन किया । इस प्रकार समीचीन रूप से काया से स्पर्श करके, पालन करके, शोभित या शोधित करके, तीर्ण करके एवं कीर्तन करके पुनः श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा 'भगवन् ! आपकी अनुमति प्राप्त करके मैं दो मास की भिक्षुप्रतिमा अंगीकार करके विचरना चाहता हूँ।' भगवान ने कहा-'देवानुप्रिय ! जैसे सुख उपजे वैसा करो । प्रतिबन्ध मत करो ।' जिस प्रकार पहली प्रतिमा में आलापक कहा है, उसी प्रकार दूसरी प्रतिमा दो मास की, तीसरी तीन मास की, चौथी चार मास की, पाँचवी पाँच मास की, छठी छह मास की, सातवीं सात मास की, सात अहोरात्र की, सात अहोरात्र की, सात अहोरात्र की और एक-एक अहोरात्र प्रतिमा की कहना चाहिए । तत्पश्चात् मेघ अनगार ने बारहों भिक्षुप्रतिमाओं का सम्यक् प्रकार से काय से स्पर्श करके, पालन करके, शोधन करके, तीर्ण करके और कीर्तन करके पुनः श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार किया । वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा-'भगवन् ! मैं आपकी आज्ञा प्राप्त करके गुणरत्नसंवत्सर नामक तपश्चरण अंगीकार करना चाहता हूँ। भगवान बोले-'हे देवानुप्रिय ! जैसे सुख उपजे वैसा करो। प्रतिबन्ध मत करो। तत्पश्चात् मेघ अनगार पहले महीने में निरन्तर चतुर्थभक्त अर्थात् एकान्तर उपवास की तपस्या के साथ विचरने लगे । दिन में उत्कट आसन से रहते और आतापना लेने की भूमि में सूर्य के सन्मुख आतापना लेते । रात्रि में प्रावरण से रहित होकर वीरासन में स्थित रहते थे । इसी प्रकार दूसरे महीने निरन्तर षष्ठभक्त तप-बेला, तीसरे महीने अष्टमभक्त तथा चौथे मास में दशमभक्त तप करते हुए विचरने लगे । दिन में उत्कट आसन से स्थित रहते, सूर्य के सामने आतापना भूमि में आतापना लेते और रात्रि में प्रावरण रहित होकर वीरासन से रहते, पाँचवे मास में मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 34 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र - ६, 'ज्ञाताधर्मकथा ' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक द्वादशम-द्वादशम का निरन्तर तप करने लगे । दिन में उकडू आसन से स्थिर होकर, सूर्य के सन्मुख आतापनाभूमि में आतापना लेते और रात्रि में प्रावरणरहित होकर वीरासन से रहते थे । , इसी प्रकार के आलापक के साथ छठे मास में छह-छह उपवास का, सातवे मास में सात-सात उपवास का, आठवें मास में आठ-आठ उपवास का, नौवें मास में नौ-नौ उपवास का दसवें मास में दस-दस उपवास का, ग्यारहवें मास में ग्यारह - ग्यारह उपवास का, बारहवें मास में बारह-बारह उपवास का, तेरहवें मास में तेरह-तेरह उपवास का, चौदहवें मास में चौदह-चौदह उपवास का, पन्द्रहवे मास में पन्द्रह - पन्द्रह उपवास का और सोलहवे मास में सोलह-सोलह उपवास का निरन्तर तप करते हुए विचरने लगे। दिन में उकडी आसन से सूर्य के सन्मुख आतापनाभूमि में आतापना लेते थे और रात्रि में प्रावरणरहित होकर वीरासन से स्थित रहते थे । इस प्रकार मेघ अनगार ने गुणरत्न संवत्सर नामक तपःकर्म का सूत्र के अनुसार, कल्प के अनुसार तथा मार्ग के अनुसार सम्यक् प्रकार के काय द्वारा स्पर्श किया, पालन किया, शोधित या शोभित किया तथा कीर्तित किया । सूत्र के अनुसार और कल्प के अनुसार यावत् कीर्तन करके श्रमण भगवान महावीर को वन्दन किया, नमस्कार किया । वन्दननमस्कार करके बहुत से षष्ठभक्त, अष्टभक्त, दशमभक्त, द्वादशभक्त आदि तथा अर्धमासखमण एवं मासखमण आदि विचित्र प्रकार के तपश्चरण करके आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे । । सूत्र - ४० तत्पश्चात् मेघ अनगार उस उराल, विपुल, सश्रीक प्रयत्नसाध्य, बहुमानपूर्वक गृहीत, कल्याणकारी शिवधन्य, मांगल्य-उदग्र, उदार, उत्तम महान प्रभाव वाले तपः कर्म से शुष्क- नीरस शरीर वाले, भूखे, रूक्ष, मांसरहित और रुधिररहित हो गए । उठते-उठते उनके हाड़ कड़कड़ाने लगे । उनकी हड्डियाँ केवल चमड़े से मढ़ी रह गई । शरीर कृश 'और नसों से व्याप्त हो गया । वह अपने जीव के बल से ही चलते एवं जीव के बल से ही खड़े रहते । भाषा बोलकर थक जाते, बात करते-करते थक जाते, यहाँ तक कि 'मैं बोलूँगा' ऐसा विचार करते ही थक जाते थे। उग्र तपस्या के कारण उनका शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया था । जैसे कोई कोयले से भरी गाड़ी हो, लकड़ियों से भरी गाड़ी हो, सूखे पत्तों से भरी गाड़ी हो, तिलों से भरी गाड़ी हो, अथवा एरंड के काष्ठ से भरी गाड़ी हो, धूप में डालकर सुखाई हुई हो, वह गाड़ी खड़बड़ की आवाज करती हुई चलती हुई और आवाज करती हुई ठहरती है, उसी प्रकार मेघ अनगार हाड़ों की खड़खड़ाहट के साथ चलते थे और खड़खड़ाहट के साथ खड़े रहते थे । वह तपस्या से तो उपचित थे, मगर माँस और रुधिर से अपचित-थे । वह भस्म के समूह से आच्छादित अग्नि की तरह तपस्या के तेज से देदीप्यमान थे । वह तपस्तेज की लक्ष्मी से अतीव शोभायमान हो रहे थे। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर धर्म की आदि करने वाले, तीर्थ की स्थापना करने वाले, यावत् अनुक्रम से चलते हुए, एक ग्राम को पार करते हुए, सुखपूर्वक विहार करते हुए, जहाँ राजगृह नगर था और जहाँ गुणशील चैत्य था, उसी जगह पधारे । पधार कर यथोचित अवग्रह आज्ञा लेकर संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे । तत्पश्चात् उन मेघ अनगार को रात्रि में पूर्व रात्रि और पीछली रात्रि के समय अर्थात् मध्य रात्रि में धर्मजागरण करते हुए इस प्रकार का अध्यवसाय उत्पन्न हुआ इस प्रकार में इस प्रधान तप के कारण, इत्यादि पूर्वोक्त सब कथन यहाँ कहना चाहिए, यावत् भाषा बोलूंगा ऐसा विचार आते ही थक जाता हूँ, तो अभी मुझ में उठने की शक्ति है, वह, वीर्य, पुरुषकार, पराक्रम, श्रद्धा, धृति और संवेग है, तो जब तक मुझ में उत्थान, कार्य करने की शक्ति, बल, वीर्य, पुरुषकार, पराक्रम, श्रद्धा, धृति और संवेग है, तो जब तक मुझ में उत्थान, कार्य करने की शक्ति, बल, वीर्य, पुरुषकार, पराक्रम, श्रद्धा, धृति और संवेग है तथा जब तक मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण भगवान महावीर गंधहस्ती के समान जिनेश्वर विचर रहे हैं, तब तक, कल रात्रि के प्रभात रूप में प्रकट होने पर यावत् सूर्य के तेज से जाज्वल्यमान होने पर मैं श्रमण भगवान महावीर को वन्दना और नमस्कार करके, श्रमण भगवान महावीर की आज्ञा लेकर स्वयं ही पाँच महाव्रतों को पुनः अंगीकार करके गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थों तथा मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा )" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद" - Page 35 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक निर्ग्रन्थियों से क्षमायाचना करके तथारूपधारी एवं योगवहन आदि क्रियाएं जिन्होंने की है, ऐसे स्थविर साधुओं के साथ धीरे-धीरे, विपुलाचल पर आरूढ़ होकर स्वयं ही सघन मेघ के सदृश पृथ्वीशिलापट्टक का प्रतिलेखन करके, संलेखना स्वीकार करके, आहार-पानी का त्याग करके, पादपोपगमन अनशन धारण करके मृत्यु की भी आकांक्षा न करता हुआ विचरूँ। मेघ मुनि ने इस प्रकार विचार करके दूसरे दिन रात्रि के प्रभात रूप में परिणत होने पर यावत् सूर्य के जाज्वल्यमान होने पर जहाँ श्रमण भगवान महावीर थे, वहाँ पहुँचे । श्रमण भगवान महावीर को तीन बार, दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा की । प्रदक्षिणा करके वन्दना-नमस्कार करके न बहत समीप और न बहत दूर योग्य स्थान पर रहकर भगवान की सेवा करते हुए, नमस्कार करते हुए, सन्मुख विनय के साथ दोनों हाथ जोड़कर उपासन करने लगे । अर्थात् बैठ गए । 'हे मेघ !' इस प्रकार सम्बोधन करके श्रमण भगवान ने मेघ अनगार से इस भाँति कहा'निश्चय ही हे मेघ ! रात्रि में, मध्यरात्रि के समय, धर्म-जागरणा जागते हए तम्हें इस प्रकार का विचार उत्पन्न हआ है कि-इस प्रकार निश्चय ही मैं इस प्रधान तप के कारण दुर्बल हो गया हूँ, इत्यादि यावत् तुम तुरन्त मेरे निकट आए हो। हे मेघ ! क्या यह अर्थ समर्थ है ? अर्थात् यह बात सत्य है ?' मेघ मुनि बोले-'जी हाँ' जब भगवान ने कहा'देवानुप्रिय ! जैसे सुख उपजे वैसा करो । प्रतिबन्ध न करो ।' तत्पश्चात् मेघ अनगार श्रमण भगवान महावीर की आज्ञा प्राप्त करके हृष्ट-तुष्ट हुए । उनके हृदय में आनन्द हुआ । वह उत्थान करके उठे और उठकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार दक्षिण दिशा से आरम्भ करके प्रदक्षिणा की । प्रदक्षिणा करके वन्दना की, नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार करके स्वयं ही पाँच महाव्रतों का उच्चारण किया और गौतम आदि साधुओं को तथा साध्वीयों को खमाया । खमा कर तथारूप और योगवहन आदि किये हुए स्थविर संतों के सात धीरे-धीरे विपुल नामक पर्वत पर आरूढ़ हुए । आरूढ़ होकर स्वयं ही सघन मेघ के समान पृथ्वी-शिलापट्टक की प्रतिलेखना की । प्रतिलेखना करके दर्भ का संथारा बिछाया और उस पर आरूढ़ हो गए । पूर्व दिशा के सन्मुख पद्मासन से बैठकर, दोनों हाथ जोड़कर और उन्हें मस्तक से स्पर्श करके इस प्रकार बोले-'अरिहंत भगवान को यावत् सिद्धि को प्राप्त सब तीर्थंकरों को नमस्कार हो । मेरे धर्माचार्य यावत् सिद्धिगति को प्राप्त करने के इच्छुक श्रमण भगवान महावीर को नमस्कार हो । वहाँ स्थित भगवान को यहाँ स्थित मैं वन्दना करता हूँ। वहाँ स्थित भगवान यहाँ स्थित मुझको देखें । इस प्रकार कहकर भगवान को वन्दना की; नमस्कार किया । वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार कहा पहले भी मैंने श्रमण भगवान महावीर के निकट समस्त प्राणातिपात का त्याग किया है, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, नाम, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, धर्म में अरति, अधर्म में रति, मायामृषा और मिथ्यादर्शनशल्य, इन सब अठारह पापस्थानों का प्रत्याख्यान किया है । अब भी मैं उन्हीं भगवान के निकट सम्पूर्ण प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूँ, यावत् मिथ्यादर्शनशल्य का प्रत्याख्यान करता हूँ तथा सब प्रकार के अशन, पान, खादिम और स्वादिम रूप चारों प्रकार के आहार का आजीवन प्रत्याख्यान करता हूँ। और यह शरीर जो इष्ट है, कान्त है और प्रिय है, यावत् विविध प्रकार के रोग, शुलादिक आतंक, बाईस परीषह और उपसर्ग स्पर्श न करें, ऐसे रक्षा की है, इस शरीर का भी मैं अन्तिम श्वासोच्छवास पर्यन्त परित्याग करता हूँ। इस प्रकार कहकर संलेखना को अंगीकार करके, भक्तपान का त्याग करके, पादपोपगमन समाधिमरण अंगीकार कर मृत्यु की भी कामना न करते हुए मेघ मुनि विचरने लगे । तब वे स्थविर भगवंत ग्लानिरहित होकर मेघ अनगार की वैयावृत्य करने लगे। तत्पश्चात् वह मेघ अनगार श्रमण भगवान महावीर के तथारूप स्थविरों के सन्निकट सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन करके, लगभग बारह वर्ष तक चारित्र पर्याय का पालन करके, एस मास की संलेखना के द्वारा आत्मा को क्षीण करके, अनशन से साठ भक्त छेद कर, आलोचना प्रतिक्रमण करके, माया, मिथ्यात्व और निदान शल्यों को हटाकर समाधि को प्राप्त होकर अनुक्रम से कालधर्म को प्राप्त हुए । मेघ अनगार के साथ गये मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 36 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक हए स्थविर भगवंतों ने मेघ अनगार को क्रमशः कालगत देखा । देखकर परिनिर्वाणनिमित्तक कायोत्सर्ग करके मेघ मुनि के उपकरण ग्रहण किये और विपुल पर्वत से धीरे-धीरे नीचे उतरे । जहाँ गुणशील चैत्य था और जहाँ श्रमण भगवान महावीर थे वहीं पहुँचे । श्रमण भगवान महावीर को वन्दना की, नमस्कार किया । इस प्रकार बोले-आप देवानुप्रिय के अन्तेवासी मेघ अनगार स्वभाव से भद्र और यावत् विनीत थे । वह देवानुप्रिय से अनुमति लेकर गौतम आदि साधुओं और साध्वीयों को खमा कर हमारे साथ विपुल पर्वत पर धीरे-धीरे आरूढ़ हुए । स्वयं ही सघन मेघ के समान कृष्णवर्ण पृथ्वीशिलापट्टक का प्रतिलेखन किया । प्रतिलेखन करके भक्त-पान का प्रत्याख्यान कर दिया और अनुक्रम से कालधर्म को प्राप्त हुए । हे देवानुप्रिय ! यह है मेघ अनगार के उपकरण । सूत्र-४१ 'भगवन्!' इस प्रकार कहकर भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय के अन्तेवासी मेघ अनगार थे । भगवन् ! यह मेघ अनगार काल-मास में काल करके किस गति में गए? और किस जगह उत्पन्न हुए? 'हे गौतम!' इस प्रकार कहकर श्रमण भगवान महावीर ने भगवान गौतम से कहा-हे गौतम ! मेरा अन्तेवासी मेघ नामक अनगार प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था । उसने तथारूप स्थविरों से सामायिक से प्रारम्भ करके ग्यारह अंगों का अध्ययन किया । अध्ययन करके बारह भिक्षु-प्रतिमाओं का और गुणरत्नसंवत्सर नामक तप का काय से स्पर्श करके यावत् कीर्तन करके, मेरी आज्ञा लेकर गौतम आदि स्थविरों को खमाया । खमाकर तथारूप यावत् स्थविरों के साथ विपुल पर्वत पर आरोहण किया । दर्भ का संथारा बिछाया । फिर दर्भ के संथारे पर स्थित होकर स्वयं ही पाँच महाव्रतों का उच्चारण किया, बारह वर्ष तक साधुत्व-पर्याय का पालन करके एक मास की संलेखना से अपने शरीर को क्षीण करके, साठ भक्त अनशन से छेदन करके, आलोचना-प्रतिक्रमण करके, शल्यों को निर्मूल करके समाधि को प्राप्त होकर, काल-मास में मृत्यु को प्राप्त करके, ऊपर चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और तारा रूप ज्योतिष्चक्र से बहुत योजन, बहुत सैकड़ों योजन, बहुत हजारों योजन, बहुत लाखों योजन, बहुत करोड़ों योजन और बहुत कोड़ाकोड़ी योजन लाँघकर, ऊपर जाकर सौधर्म ईशान सनत्कुमार माहेन्द्र ब्रह्मलोक लान्तक महाशुक्र सहस्रार आनत प्राणत आरण और अच्युत देवलोकों तथा तीन सौ अठारह नवग्रैवेयक के विमानावासों को लाँघकर वह विजय नामक अनुत्तर महाविमान में देव के रूप में उत्पन्न हुआ है। उस विजय नामक अनुत्तर विमान में किन्हीं-किन्हीं देवों की तैंतीस सागरोपम की स्थिति कही है। उसमें मेघ नामक देव की भी तैंतीस सागरोपम की स्थिति है । गौतम स्वामी ने पुनः प्रश्न किया-भगवन् ! वह मेघ देवलोक से आयु का क्षय करके, आयुकर्म की स्थिति का वेदन द्वारा क्षय करके तथा भव का क्षय करके तथा देवभव के शरीर का त्याग करके अथवा देवलोक से च्यवन करके किस गति में जाएगा? किस स्थान पर उत्पन्न होगा? भगवान ने उत्तर दिया-हे गौतम ! महाविदेह वर्ष में सिद्धि प्राप्त करेगा-समस्त मनोरथों को सम्पन्न करेगा, केवल-ज्ञान से समस्त पदार्थों को जानेगा, समस्त कर्मों से मुक्त होगा और परिनिर्वाण प्राप्त करेगा, अर्थात् कर्मजनित समस्त विकारों से रहित हो जाने के कारण स्वस्थ होगा और समस्त दुःखों का अन्त करेगा। श्री सुधर्मास्वामी अपने प्रधान शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं-इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने, जो प्रवचन की आदि करने वाले, तीर्थ की संस्थापना करने वाले यावत् मुक्ति को प्राप्त हुए हैं, आप्त गुरु को चाहिए की अविनीत शिष्य को उपालम्ब दे, इस प्रयोजन से प्रथम ज्ञाताध्ययन का यह अर्थ कहा है । ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-१ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 37 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र -६, 'ज्ञाताधर्मकथा ' अध्ययन २ संघाट — श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक सूत्र - ४२ श्री जम्बू स्वामी, श्री सुधर्मा स्वामी से प्रश्न करते हैं- भगवन् ! श्रमण भगवान महावीर ने द्वीतिय ज्ञाताध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उस काल उस समय में- जब राजगृह नामक नगर था । (वर्णन) उस राजगृह नगर में श्रेणिक राजा था । वह महान् हिमवन्त पर्वत के समान था, इत्यादि उस राजगृह नगर से बाहर ईशान कोण में-गुणशील नामक चैत्य था । (वर्णन) उस गुणशील चैत्य से न बहुत दूर न अधिक समीप, एक भाग में गिरा हुआ जीर्ण उद्यान था । उस उद्यान का देवकुल विनष्ट हो चूका था । उस के द्वारों आदि के तोरण और दूसरे गृह भग्न हो गए थे। नाना प्रकार के गुच्छों, गुल्मों, अशोक आदि की लताओं, ककड़ी आदि की बेलों तथा आम्र आदि के वृक्षों से वह उद्यान व्याप्त था। सैकड़ों सर्पों आदि के कारण वह भय उत्पन्न करता था। उस जीर्ण उद्यान के बहुमध्यदेश भाग में बीचोंबीच एक टूटा-फूटा बड़ा कूप भी था। उस भग्न कूप से न अधिक दूर न अधिक समीप, एक जगह एक बड़ा मालुकाकच्छ था । अंजन के समान कृष्ण और कृष्ण प्रभा वाला था। रमणीय और महामेघों के समूह जैसा था। वह बहुत से वृक्षों, गुच्छों, गुल्मों, लताओं, बेल, तृण, कुशों और ठूंठों से व्याप्त था और चारों ओर से आच्छादित था। वह अन्दर से पोला था और बाहर से गंभीर था, अनेक सैकड़ों हिंसक पशुओं अथवा सर्पों के कारण शंकाजनक था । सूत्र - ४३ राजगृह नगर में धन्य नामक सार्थवाह था । वह समृद्धिशाली था, तेजस्वी था, घर में था, घर में बहुत सा भोजनपानी तैयार होता था । उस धन्य सार्थवाह की पत्नी का नाम भद्रा था। उसके हाथ पैर सुकुमार थे। पाँचों इन्द्रियाँ । हीनता से रहित परिपूर्ण थीं। वह स्वस्तिक आदि लक्षणों तथा तिल मसा आदि व्यंजनों के गुणों से युक्त थीं । मान, उन्मान और प्रमाण से परिपूर्ण थी । अच्छी तरह उत्पन्न हुए- सुन्दर सब अवयवों के कारण वह सुन्दरांगी थी । उसका आकार चन्द्रमा के समान सौम्य था। वह अपने पति के लिए मनोहर थी। देखने में प्रिय लगती थी । सुरूपवती थी। मुट्ठी में समा जाने वाला उसका मध्य भाग त्रिवलि से सुशोभित था। कुण्डलों से उसके गंडस्थलों की रेखा घिसती रहती थी। उसका मुख पूर्णिमा के चन्द्र के समान सौम्य था। वह शृंगार का आगार थी। उसका वेष सुन्दर था । यावत् वह प्रतिरूप थी मगर वह वन्ध्या थी, प्रसव करने के स्वभाव से रहित थी । जाने और कूर्पर की ही माता थी। सूत्र - ४४ उस धन्य सार्थवाह का पंथक नामक एक दास चेटक था। वह सर्वांग सुन्दर था, माँस से पुष्ट था और बालकों को खेलाने में कुशल था । वह धन्य सार्थवाह राजगृह नगर में बहुत से नगर के व्यापारियों, श्रेष्ठियों और सार्थवाहों के तथा अठारहों श्रेणियों और प्रश्रेणियों के बहुत से कार्यों में, कुटुम्बों में कुटुम्ब सम्बन्धी विषयों में और मंत्रणाओं में यावत् चक्षु के समान मार्गदर्शक था, अपने कुटुम्ब में भी बहुत से कार्यों में यावत् चक्षु समान था । सूत्र - ४५ उस राजगृह में विजय नामक एक चोर था । वह पापकर्म करने वाला, चाण्डाल के समान रूपवाला, अत्यन्त भयानक और क्रूर कर्म करने वाला था। क्रुद्ध हुए पुरुष के समान देदीप्यमान और लाल उसके नेत्र थे । उसकी दाढ़ी या दाढ़े अत्यन्त कठोर, मोटी, विकृत और बीभत्स थीं । उसके होठ आपस में मिलते नहीं थे, उसके मस्तक के केश हवा से उड़ते रहते थे, बिखरे रहते थे और लम्बे थे। वह भ्रमर और राहु के समान काला था। वह दया और पश्चात्ताप से रहित था। दारुण था और इसी कारण भय उत्पन्न करता था। वह नृशंस नरसंघातक था। उसे प्राणियों पर अनुकम्पा नहीं थी वह साँप की भाँति एकान्त दृष्टि वाला था, वह छूरे की तरह एक धार वाला था, वह गिद्ध की तरह माँस का लोलुप था और अग्नि के समान सर्वभक्षी था, जल के समान सर्वग्राही था, वह मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा )" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद" Page 38 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक उत्कंचन में वंचन में, माया में, निकृति में, कूट में था । साति-संप्रयोग में निपुण था । वह चिरकाल में नगर में उपद्रव कर रहा था । उसका शील, आचार और चरित्र अत्यन्त दूषित था । वह द्यूत से आसक्त था, मदिरापान में अनुरत था, अच्छा भोजन करने में गृद्ध था और माँस में लोलुप था । लोगों के हृदय को विदारण कर देने वाला, साहसी सेंध लगाने वाला, गुप्त कार्य करने वाला, विश्वासघाती और आग लगा देने वाला था । तीर्थ रूप देवद्रोणी आदि का भेदन करके उसमें से द्रव्य हरण करने वाला और हस्तलाघव वाला था । पराया द्रव्य हरण करने में सदैव तैयार रहता था, तीव्र वैर वाला था । वह विजय चोर राजगृह नगर के बहुत से प्रवेश करने के मार्गों, नीकलने के मार्गों, दरवाजों, पीछे की खिड़कियों, छेड़ियों, किलों की छोटी खिड़कियों, मोरियों, रास्ता मिलने की जगहों, रास्ते अलग-अलग होने के स्थानों, जुआ के अखाड़ों, मदिरापान के अड्डों, वेश्या के घरों, उनके घरों के द्वारों, चोरों के घरों, शृंगाटकों-सिंघाड़े के आकार के मार्गों, तीन मार्ग मिलने के स्थानों, चौकों, अनेक मार्ग मिलने के स्थानों, नागदेव के गहों, भूतों के गहों, यक्षगहों, सभास्थानों, प्याउओं, दकानों ओर शन्यगहों को देखता फिरता था । उनकी मार्गणा करता था-उनकी गवेषणा करता था, विषम-रोग की तीव्रता, इष्टजनों के वियोग, व्यसन, अभ्युदय, उत्सवों, मदन त्रयोदशी आदि तिथियों, क्षण, यज्ञ, कौमुदी आदि पर्वणी में, बहुत से लोग मद्यपान से मत्त हो गए हों, प्रमत्त हुए हों, अमुक कार्य में व्यस्त हों, विविध कार्यों में आकुल-व्याकुल हों, सुख में हों, दुःख में हों, परदेश गए हों, परदेश जाने की तैयारी में हों, ऐसे अवसरों पर वह लोगों के छिद्र का, विरह का और अन्तर का विचार करता और गवेषणा करता रहता था। वह विजय चोर राजगृह नगर के बाहर भी आरामों में अर्थात् दम्पती के क्रीड़ा करने के लिए माधवीलतागृह आदि जहाँ बने हों ऐसे बगीचों में, चौकोर बावड़ियों में, कमल वाली पुष्करिणियों में, दीर्घिकाओं में, गुंजालिकाओं में, सरोवरों में, सरोवरों की पंक्तियों में, सर-सर पंक्तियों में, जीर्ण उद्यानों में, भग्न कूपों में, मालुकाकच्छों की झाड़ियों में, स्मशानों में, पर्वत की गुफाओं में, लयनों तथा उपस्थानों में बहुत लोगों के छिद्र आदि देखता रहता था। सूत्र -४६ धन्य सार्थवाह की भार्या भद्रा एक बार कदाचित् मध्यरात्रि के समय कुटुम्ब सम्बन्धी चिन्ता कर रही थी कि उसे इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ । बहुत वर्षों से मैं धन्य सार्थवाह के साथ, शब्द, स्पर्श, रस, गन्ध और रूप यह पाँचों प्रकार के मनुष्य सम्बन्धी कामभोग भोगती हुई विचर रही हूँ, परन्तु मैंने एक भी पुत्र या पुत्री को जन्म नहीं दिया । वे माताएं धन्य हैं, यावत् उन माताओं को मनुष्य-जन्म और जीवने का प्रशस्त-भला फल प्राप्त हुआ है, जो माताएं, मैं मानती हूँ कि, अपनी कोख से उत्पन्न हुए, स्तनों का दूध पीने में लुब्ध, मीठे बोल बोलने वाले, तुतला-तुतला कर बोलने वाले और स्तन के मूल से काँख के प्रदेश की ओर सरकने वाले मुग्ध बालकों को स्तनपान कराती हैं और फिर कमल के समान कोमल हाथों से उन्हें पकड़कर अपनी गोद में बिठलाती हैं और बारबार अतिशय प्रिय वचन वाले मधुर उल्लाप देती हैं । मैं अधन्य हूँ, पुण्यहीन हूँ, कुलक्षणा हूँ और पापिनी हूँ कि इनमें से एक भी न पा सकी। अत एव मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि कल रात्रि के प्रभात रूप में प्रकट होने पर और सूर्योदय होने पर धन्य सार्थवाह से पूछकर, आज्ञा प्राप्त करके मैं बहुत-सा अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार तैयार कराके बहुत-से पुष्प, वस्त्र, गंधमाला और अलंकार ग्रहण करके, बहुसंख्यक मित्र, ज्ञातिजनों, निजजनों, स्वजनों, सम्बन्धीयों और परिजनों की महिलाओं के साथ-उनसे परिवृत्त होकर, राजगृह नगर के बाहर जो नाग, भूत, यक्ष, इन्द्र, स्कन्द, रूद्र, शिव और वैश्रमण आदि देवों के आयतन हैं और उनमें जो नाग की प्रतिमा यावत् वैश्रमण की प्रतिमाएं हैं, उनकी बहुमूल्य पुष्पादि से पूजा करके घुटने और पैर झुकाकर इस प्रकार कहूँ-'हे देवानुप्रिय ! यदि मैं एक भी पुत्र या पुत्री को जन्म दूंगी तो मैं तुम्हारी पूजा करूँगी, पर्व के दिन दान दूंगी, भाग-द्रव्य के लाभ का हिस्सा दूंगी और तुम्हारी अक्षय-निधि की वृद्धि करूँगी।' इस प्रकार अपनी इष्ट वस्तु की याचना करूँ । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 39 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक भद्रा ने इस प्रकार विचार किया । दूसरे दिन यावत् सूर्योदय होने पर जहाँ धन्य सार्थवाह थे, वहीं आई। आकर इस प्रकार बोली-देवानुप्रिय ! मैंने आपके साथ बहुत वर्षों तक कामभोग भोगे हैं, किन्तु एक भी पुत्र या पुत्री को जन्म नहीं दिया । अन्य स्त्रियाँ बार-बार अति मधुर वचन वाले उल्लाप देती हैं-अपने बच्चों की लोरियाँ गाती हैं, किन्तु मैं अधन्य, पुण्य-हीन और लक्षणहीन हूँ, तो हे देवानुप्रिय ! मैं चाहती हूँ कि आपकी आज्ञा पाकर विपुल अशन आदि तैयार कराकर नाग आदि की पूजा करूँ यावत् उनकी अक्षय निधि की वृद्धि करूँ, ऐसी मनौती मनाऊं । तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह ने भद्रा भार्या से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिये ! निश्चय ही मेरा भी यही मनोरथ है कि किसी प्रकार तुम पुत्र या पुत्री का प्रसव करो-जन्म दो।' इस प्रकार कहकर भद्रा सार्थवाही को उस अर्थ की अर्थात् नाग, भूत, यक्ष आदि की पूजा करने की अनुमति दे दी। तत्पश्चात् वह भद्रा सार्थवाही धन्य सार्थवाह से अनुमति प्राप्त करके हृष्ट-तुष्ट यावत् प्रफुल्लित हृदय होकर विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार कराती है । तैयार कराकर बहुत-से गंध, वस्त्र, माला और अलंकारों को ग्रहण करती हैं और फिर अपने घर से बाहर नीकलती है । राजगृह नगर के बीचों-बीच होकर नीकलती है । जहाँ पुष्करिणी थी, वहीं पहुँचती है । पुष्करिणी के किनारे बहुत से पुष्प, गंध, वस्त्र, मालाएं और अलंकार रख दिए | पुष्करिणी में प्रवेश किया, जलमज्जन किया, जलक्रीया कि, स्नान किया और बलिकर्म किया। तत्पश्चात् ओढ़ने-पहनने के दोनों गीले वस्त्र धारण किए हए भद्रा सार्थवाही ने वहाँ जो उत्पल-कमल, पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, पुंडरीक, महापुंडरीक, शतपत्र और सहस्र-पत्र-कमल थे उन सबको ग्रहण किया। बाहर नीकली । नीकलकर पहले रखे हुए बहुत-से पुष्प, गंध, मारा आदि लिए और उन्हें लेकर जहाँ नागागृह था यावत् वैश्रमणगृह था, वहाँ पहुँची । उनमें स्थित नाग की प्रतिमा यावत् वैश्रमण की प्रतिमा पर दृष्टि पड़ते ही उन्हें नमस्कार किया । जल की धार छोड़कर अभिषेक किया । रूएंदार और कोमल कषाय-रंग वाले सुगंधित वस्त्र से प्रतिमा के अंग पौंछे । बहुमूल्य वस्त्रों का आरोहण किया, पुष्पमाल पहनाई, गंध का लेपन किया, चूर्ण चढ़ाया और शोभाजनक वर्ण का स्थापन किया, यावत् धूप जलाई । घुटने और पैर टेक कर, दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार कहा-'अगर मैं पुत्र या पुत्री को जन्म दूँगी तो मैं तुम्हारी याग-पूजा करूँगी, यावत् अक्षयनिधि की वृद्धि करूँगी । इस प्रकार भद्रा सार्थवाही मनौती करके जहाँ पुष्करिणी थी, वहाँ आई और विपुल अशन, पान, खादिम एवं स्वादिम आहार का आस्वादन करती हई यावत् विचरने लगी । भोजन करने के पश्चात् शुचि होकर अपने घर आ गई। सूत्र -४७ तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही चतुर्दशी, अष्टमी, अमावास्या और पूर्णिमा के दिन विपुल अशन, पान, खादिम और भोजन तैयार करती । बहुत से नाग यावत् वैश्रमण देवों की मनौती करती और उन्हें नमस्कार किया करती थी। वह भद्रा सार्थवाही कुछ समय व्यतीत हो जाने पर एकदा गर्भवती हो गई । भद्रा सार्थवाही को दो मास बीत गए । तीसरा मास चल रहा था, तब इस प्रकार का दोहद उत्पन्न हुआ-'वे माताएं धन्य हैं, यावत् तथा वे माताएं शुभ लक्षण वाली हैं जो विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम-यह चार प्रकार का आहार तथा बहुत-सारे पुष्प, वस्त्र, गंध औरमारा तथा अलंकार ग्रहण करके मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों की स्त्रियों के साथ परिवृत्त होकर राजगृह नगर के बीचोंबीच होकर नीकलती हैं । जहाँ पुष्करिणी हैं वहाँ आती हैं, आकर अवगाहन करती हैं, स्नान करती हैं, बलिकर्म करती हैं और सब अलंकारों से विभषित होती हैं। फिर पान, खादिम और स्वादिम आहार का आस्वादन करती हई, विशेष आस्वादन करती हई, विभाग करती हुई तथा परिभोग करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती हैं ।' दूसरे दिन प्रातःकाल सूर्योदय होने पर धन्य सार्थवाह के पास आई । धन्य सार्थवाह से कहा-देवानुप्रिय ! मुझे उस गर्भ के प्रभाव से ऐसा दोहद उत्पन्न हुआ है कि वे माताएं धन्य हैं और सुलक्षणा हैं जो अपने दोहद को पूर्ण करती हैं, आदि । अत एव हे देवानुप्रिय ! आपकी आज्ञा हो तो में भी दोहद पूर्ण करना चाहती हूँ । सार्थवाह ने कहा-जैसे सुख उपजे वैसा करो । ढील मत करो। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 40 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र - ६, 'ज्ञाताधर्मकथा ' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह से आज्ञा पाई हुई भद्रा सार्थवाही हृष्ट-तुष्ट हुई । यावत् विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करके यावत् स्नान तथा बलिकर्म करके यावत् पहनने और ओढ़ने का गीला वस्त्र धारण करके जहाँ नागायतन आदि थे, वहाँ आई । यावत् धूप जलाई तथा बलिकर्म एवं प्रणाम किया । प्रणाम करके जहाँ पुष्करिणी थी, वहाँ आई । आने पर उन मित्र, ज्ञाति यावत् नगर की स्त्रियों ने भद्रा सार्थवाही को सर्व आभूषणों से अलंकृत किया। तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही ने उन मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन एवं नगर की स्त्रियों के साथ विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम का यावत् परिभोग करके अपने दोहद को पूर्ण किया । पूर्ण करके जिस दिशा से वह आई थी, उसी दिशा में लौट गई। तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही दोहद पूर्ण करके सभी कार्य सावधानी से करती तथा पथ्य भोजन करती हुई यावत् उस गर्भ को सुखपूर्वक वहन करने लगी । तत्पश्चात् उस भद्रा सार्थवाही ने नौ मास सम्पूर्ण हो जाने पर और साढ़े सात दिन-रात व्यतीत हो जाने पर सुकुमार हाथों-पैरों वाले बालक का प्रसव किया। I तत्पश्चात् उस बालक के माता-पिता ने पहले दिन जातकर्म नामक संस्कार किया करके उसी प्रकार यावत् अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार तैयार करवाया तैयार करवाकर उसी प्रकार मित्र, ज्ञातिजनों आदि को भोजन कराकर इस प्रकार का गौण अर्थात् गुणनिष्पन्न नाम रखा क्योंकि हमारा यह पुत्र बहुत-सी नागप्रतिमाओं यावत् तथा वैश्रमण प्रतिमाओं की मनीती करने से उत्पन्न हुआ है, उस कारण हमारा यह पुत्र देवदत्त' नाम से हो, अर्थात् इसका नाम 'देवदत्त' रखा जाए । तत्पश्चात् उस बालक के माता-पिता ने उन देवताओं की पूजा की, उन्हें दान दिया, प्राप्त धन का विभाग किया और अक्षयनिधि की वृद्धि की अर्थात् मनौती के रूप में पहले जो संकल्प किया था उसे पूरा किया | सूत्र - ४८ तत्पश्चात् वह पंथन नामक दास चेटक देवदत्त बालक का बालाग्रही नियुक्त हुआ। वह बालक देवदत्त को कमर में लेता और लेकर बहुत-से बच्चों, बच्चियों, बालकों, बालिकाओं, कुमारों और कुमारियों के साथ, उनसे परिवृत्त होकर खेलता रहता था। भद्रा सार्थवाही ने किसी समय स्नान किये हुए, बलिकर्म, कौतुक, मंगल और प्रायश्चित्त किये हुए तथा समस्त अलंकारों से विभूषित हुए देवदत्त बालक को दास चेटक पंथक के हाथ में सौंपा। पंथक दास चेटक ने देवदत्त बालक को लेकर अपनी कटि में ग्रहण किया । वह अपने घर से बाहर नीकला । बहुतसे बालकों, बालिकाओं, बच्चों, बच्चिओं, कुमारों और कुमारिकाओं से परिवृत्त होकर राजमार्ग में आया । देवदत्त बालक को एकान्त में बिठाकर बहुसंख्यक बालकों यावत् कुमारिकाओं के साथ, असावधान होकर खेलने लगा। इसी समय विजय चोर राजगृह नगर के बहुत-से द्वारों एवं अपद्वारों आदि को यावत् देखता हुआ, उनकी मार्गणा करता हुआ, गवेषणा करता हुआ, जहाँ देवदत्त बालक था, वहाँ आ पहुँचा । आकर देवदत्त बालक को सभी आभूषणों से भूषित देखा देखकर बालक देवदत्त के आभरणों और अलंकारों से मूर्च्छित हो गया, ग्रथित हो गया, गृद्ध हो गया और अध्युपपन्न हो गया । उसने दास चेटक पंथक को बेखबर देखा और चारों दिशाओं का अवलोकन किया। फिर बालक देवदत्त को उठाकर कांख में दबा लिया । ओढ़ने के कपड़े से छिपा लिया । फिर शीघ्र, त्वरित, चपल और उतावल के साथ राजगृह नगर से बाहर नीकल गया । जहाँ जीर्ण उद्यान और जहाँ टूटाफूटा कूआ था, वहाँ पहुँचा । देवदत्त बालक को जीवन से रहित कर दिया । उसके सब आभरण और अलंकार ले लिए । फिर बालक देवदत्त के निर्जीव शरीर को उस भग्न कूप में पटक दिया। इसके बाद वह मालुकाकच्छ में घूस गया और निश्चल निस्पन्द और मौन रहकर दिन समाप्त होने की राह देखने लगा । सूत्र ४९ तत्पश्चात् वह पंथक नामक दास चेटक थोड़ी देर बाद जहाँ बालक देवदत्त को बिठाया था, वहाँ पहुँचा । उसने बालक देवदत्त को उस स्थान पर न देखा । तब वह रोता, चिल्लाता, विलाप करता हुआ सब जगह उसकी ढूंढ-खोज करने लगा । मगर कहीं भी उसे बालक देवदत्त की खबर न लगी, छींक वगैरह का शब्द न सुनाई दिया, मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा )" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद" Page 41 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक न पता चला । तब जहाँ धन्य सार्थवाह था, वहाँ पहुँचा । धन्य सार्थवाह से इस प्रकार कहने लगा-स्वामिन ! भद्रा सार्थवाही ने स्नान किए, बलिकर्म किये हए, कौतुक, मंगल, प्रायश्चित्त किये हुए और सभी अलंकारों से विभूषित बालक को मेरे हाथ में दिया था । तत्पश्चात् मैंने बालक देवदत्त को कमर में ले लिया । लेकर यावत् सब जगह उसकी ढूंढ-खोज की, परन्तु नहीं मालूम स्वामिन् ! की देवदत्त बालक को कोई मित्रादि अपने घर ले गया है, चोर ने उसका अपहरण कर लिया है अथवा किसी ने ललचा लिया है ? इस प्रकार धन्य सार्थवाह के पैरों में पड़कर उसने वृत्तान्त निवेदन किया । धन्य सार्थवाह पंथक दासचेटक की यह बात सूनकर, हृदयमें धारण करके महान् पुत्र-शोक से व्याकुल होकर, कुल्हाड़े से काटे हुए चम्पक वृक्ष की तरह पृथ्वी पर सब अंगों से धड़ाम से गिर पड़ा। तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह थोड़ी देर बाद आश्वस्त हआ-होश में आया, उसके प्राण मानों वापिस लौटे, उसने देवदत्त बालक की सब ओर ढंढ-खोज की, मगर कहीं भी देवदत्त बालक का पता न चला, छींक आदि का शब्द भी न सून पड़ा और न समाचार मिला । तब वह अपने घर पर आया । आकर बहुमूल्य भेंट ली और जहाँ नगररक्षक-कोतवाल आदि थे, वहाँ पहँच कर वह बहमूल्य भेंट उनके सामने रखी और इस प्रकार कहा-हे देवानप्रिय ! मेरा पुत्र और भद्रा आर्या का आत्मज देवदत्त नामक बालक हमें इष्ट है, यावत उसका न करना भी दुर्लभ है तो फिर दर्शन का तो कहना ही क्या है ! धन्य सार्थवाह ने आगे कहा-भद्रा ने देवदत्त को स्नान करा कर और समस्त अलंकारों से विभूषित करके पंथक के हाथ में सौंप दिया । यावत् पंथक ने मेरे पैरों में गिरकर मुझसे निवेदन किया। तो हे देवानुप्रिय ! मैं चाहता हूँ कि आप देवदत्त बालक की सब जगह मार्गणा-गवेषणा करें। सूत्र - ५० तत्पश्चात् उन नगररक्षकों ने धन्य सार्थवाह के ऐसा कहने पर कवच तैयार किया, उसे कसों से बाँधा और शरीर पर धारण किया । धनुष रूपी पट्टिका पर प्रत्यंचा चढाई । आयध और प्रहरण ग्रहण किये । फिर धन्य सार्थवाह के साथ राजगृह नगर के बहुत-से नीकलने के मार्गों यावत् दरवों, पीछे खिड़कियों, छेड़ियों, किले की छोटी खिड़कियों, मोरियों, रास्ते मिलने की जगहों, रास्ते अलग-अलग होने के स्थानों, जुआ के अखाड़ों, मदिरापान के स्थानों, वेश्या के घरों, चोरों के घरों, शृंगाटकों त्रिक, चौकों, अनेक मार्ग मिलने के स्थानों, नागदेव के गृहों, भूतों के गृहों, यक्षगृहों, सभास्थानों, प्याऊओं आदि में तलाश करते-करते राजगृह नगर से बाहर नीकले । जहाँ जीर्ण उद्यान था और जहाँ भग्न कूप था, वहाँ आए । आकर उस कूप में निष्प्राण, निश्चेष्ट एवं निर्जीव देवदत्त का शरीर देखा, देखकर 'हाय, हाय' 'अहो अकार्य !' इस प्रकार कहकर उन्होंने देवदत्त कुमार को उस भग्न कूप से बाहर नीकाला और धन्य सार्थवाह के हाथों में सौंप दिया। तत्पश्चात् वे नगररक्षक विजय चोर के पैरों के निशानों का अनुसरण करते हुए मालुका-कच्छ में पहुँचे । उसके भीतर प्रविष्ट हुए । विजय चोर को पंचों की साक्षीपूर्वक, चोरी के माल के साथ, गर्दन में बांधा और जीवित पकड़ लिया । फिर अस्थि, मुष्टि से घुटनों, कोहनियों आदि पर प्रहार करके शरीर को भग्न और मथित कर दिया। उसकी गर्दन और दोनों हाथ, पीठ तरफ बांध दिए । फिर बालक देवदत्त के आभरण कब्जे किए । तत्पश्चात् विजय चोर को गर्दन से बांधा और मालुकाकच्छ से बाहर नीकले । राजगृह नगर आए । राजगृह नगर में प्रविष्ट हुए और नगर के त्रिक, चतुष्क, चत्वर एवं महापथ आदि मार्गों के कोड़ों के प्रहार, छड़ियों के प्रहार, छिव के प्रहार कर करते और उसके ऊपर राख धूल और कचरा डालते हुए तेज आवाज से घोषित करते हुए इस प्रकार कहने लगे 'हे देवानुप्रिय ! यह विजय नाम का चोर है । यह गीध समान मांसभक्षी, बालघातक है । हे देवानुप्रिय ! कोई राजा, राजपत्र अथवा राजा का अमात्य इसके लिए अपराधी नहीं है कोई निष्कारण ही इसे लिए अपराधी नहीं है कोई निष्कारण ही इसे दंड नहीं दे रहा है। इस विषय में इसके किए कुकर्म ही अपराधी हैं । इस प्रकार कहकर जहाँ चार कशाला थी, वहाँ पहुँचे, वहाँ पहुँच कर उसे बेड़ियों से जकड़ दिया । भोजन-पानी बंद कर दिया । तीनों संध्याकालों में चाबुकों, छड़ियों और कंबा आदि के प्रहार करने लगे । तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह ने मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, संबंधी और परिवार के साथ रोते-रोते, आक्रंदन करते यावत् विलाप करते बालक देवदत्त के शरीर का महान् ऋद्धि सत्कार के समूल के मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 42 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक साथ नीहरण किया । अनेक लौकिक मृतक-कृत्य किए । तत्पश्चात् कुछ समय व्यतीत हो जाने पर वह उस शोक से रहित हो गया। सूत्र-५१ तत्पश्चात् किसी समय धन्य सार्थवाह को चुगलखोरों ने छोटा-सा राजकीय अपराध लगा दिया । तब नगररक्षकों ने धन्य सार्थवाह को गिरफ्तार कर लिया । कारागार में ले गए । कारागार में प्रवेश कराया और विजय चोर के साथ एक ही बेड़ी में बांध दिया । भद्रा आर्या ने अगले दिन यावत् सूर्य के जाज्वल्यमान होने पर विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन तैयार किया । भोजन तैयार करके भोजन रखने का पिटक ठीक-ठाक किया और उसमें भोजन के पात्र रख दिए । फिर उस पिटक को लांछित और मुद्रित कर दिया । सुगंधित जल से परिपूर्ण छोटा-सा घड़ा तैयार किया । फिर पंथक दास चेटक को आवाज दी और कहा-'हे देवानुप्रिय ! तू जा । यह विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम लेकर कारागार में धन्य सार्थवाह के पास ले जा। तत्पश्चात् पंथक ने भद्रा सार्थवाही के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट होकर उस भोजन-पिटक को और उत्तम सुगंधित जल से परिपूर्ण घट को ग्रहण किया । राजगृह के मध्यमार्ग में हदोरक जहाँ कारागार था और जहाँ धन्य सार्थवाह था, वहाँ पहुँचा । भोजन का पिटक रख दिया । उसे लांछन और मुद्रा से रहित किया । फिर भोजन के पात्र लिए, उन्हें धोया और फिर हाथ धोने का पानी दिया । धन्य सार्थवाह को वह विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन परोसा । उस समय विजय चोर ने धन्य सार्थवाह से कहा- 'देवानुप्रिय ! तुम मुझे इस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन में से संविभाग करो।' तब धन्य सार्थवाह ने उत्तर में विजय चोर से कहा -'हे विजय ! भले ही मैं यह विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम काकों और कुत्तों को दे दूँगा अथवा उकरड़े में फैंक दूंगा परन्तु तुझ पुत्रघातक, पुत्रहन्ता, शत्रु, वैरी, प्रतिकूल आचरण करने वाले एवं प्रत्यमित्र-को इस अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य में से संविभाग नहीं करूँगा। - इसके बाद धन्य सार्थवाह ने उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का आहार किया । आहार करके पंथक को लौटा दिया-रवाना कर दिया । पंथक दास चेटक ने भोजन का वह पिटक लिया और लेकर जिस ओर से आया था, उसी ओर लौट गया । विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन करने के कारण धन्य सार्थवाह को मल-मूत्र की बाधा उत्पन्न हुई । तब धन्य सार्थवाह ने विजय चोर से कहा-विजय ! चलो, एकान्त में चलें, जिससे मैं मलमूत्र का त्याग कर सकूँ । तब विजय चोर ने धन्य सार्थवाह से कहा-देवानुप्रिय ! तुमने विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम का आहार किया है, अत एव तुम्हें मल और मत्र की बाधा उत्पन्न हई है । मैं तो इन बहुत चाबुकों के प्रहारों से यावत् लता के प्रहारों से तथा प्यास और भूख से पीड़ित हो रहा हूँ | मुझे मल-मूत्र की बाधा नहीं है । जाने की इच्छा हो तो तुम्ही एकान्त में जाकर मल-मूत्र का त्याग करो। धन्य सार्थवाह विजय चोर के इस प्रकार कहने पर मौन रह गया । इसके बाद थोड़ी देर में धन्य सार्थवाह उच्चार-प्रस्रवण की अति तीव्र बाधा से पीड़ित होता हुआ विजय चोर से फिर कहने लगा-विजय, चलो, यावत् एकान्त में चलें । तब विजय चोर ने धन्य सार्थवाह से कहा-देवानुप्रिय ! यदि तुम उस विपुल अशन, पान, खादिम र स्वादिम में से संविभाग करो अर्थात् मुझे हिस्सा देना स्वीकार करो तो मैं तुम्हारे साथ एकान्त में चलूँ । धन्य सार्थवाह ने विजय से कहा-मैं तुम्हें विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम में से संविभाग करूँगा-तत्पश्चात् विजय ने धन्य सार्थवाह के इस अर्थ को स्वीकार किया । फिर विजय, धन्य सार्थवाह के साथ एकान्तमें गया । धन्य सार्थवाह ने मल-मूत्र परित्याग किया । जल से स्वच्छ और परम शुचि हुआ । लौटकर अपने स्थान पर आया । तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही ने दूसरे दिन सूर्य के देदीप्यमान होने पर विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करके पंथक के साथ भेजा । यावत् पंथक ने धन्य को जिमाया । तब धन्य सार्थवाह ने विजय चोर को उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम में से भाग दिया । तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह ने पंथक दास चेटक को रवाना कर दिया । पंथक भोजन-पिटक लेकर कारागार से बाहर नीकला । नीकलकर राजगृह नगर के बीचों मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 43 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र - ६, 'ज्ञाताधर्मकथा ' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक बीच होकर जहाँ अपना घर था और जहाँ भद्रा आर्या थी वहाँ पहुँचा । वहाँ पहुँचकर उसने भद्रा सार्थवाही से कहा- देवानुप्रिय ! धन्य सार्थवाह ने तुम्हारे पुत्र के घातक यावत् दुश्मन को उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम में से हिस्सा दिया है । सूत्र - ५२ तब भद्रा सार्थवाही दास चेटक पंथक के मुख से यह अर्थ सूनकर तत्काल लाल हो गई, रुष्ट हुई यावत् मिसमिसाती हुई धन्य सार्थवाह पर प्रद्वेष करने लगी। तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह को किसी समय मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिवार के लोगों ने अपने साभूत अर्थ से-राजदण्ड से मुक्त कराया । मुक्त होकर वह कारागार से बाहर नीकला। नीकलकर जहाँ आलंकारिक सभा थी, वहाँ पहुँचा। आलंकारिक-कर्म किया। फिर हाँ पुष्करिणी थी, वहाँ गया । नीचे की ने की मिट्टी ली और पुष्करिणी में अवगाहन किया, जल से मज्जन किया, स्नान किया, बलिकर्म किया, यावत् फिर राजगृह में प्रवेश किया । राजगृह के मध्य में होकर जहाँ अपना घर था वहाँ जाने के लिए रवाना हुआ। तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह को आता देखकर राजगृह नगर के बहुत-से आत्मीय जनों, श्रेष्ठी जनों तथा सार्थवाह आदि ने उसका आदर किया, सन्मान से बुलाया, वस्त्र आदि से सत्कार किया, नमस्कार आदि करके सन्मान कया, खड़े होकर मान किया और शरीर की कुशल पूछी । तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह अपने घर पहुँचा । वहाँ जो बाहर की सभा थी, जैसे-दास, प्रेष्य, भूतक और व्यापार के हिस्सेदार, उन्होंने भी धन्य सार्थवाह को देखा। देखकर पैरों में गिरकर क्षेम, कुशल की पृच्छा की। वहाँ जो आभ्यन्तर सभा थी, जैसे की माता, पिता, भाई, बहिन आदि, उन्होंने भी धन्य सार्थवाह को आता देखा । देखकर वे आसन से उठ खड़े हुए, उठकर गले से गला मिलाकर उन्होंने हर्ष के आंसू बहाए । तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह भद्रा भार्या के पास गया। भद्रा सार्थवाही ने धन्य सार्थवाह को अपनी ओर आता देखा । न उसने आदर किया, न जाना । न आगर करती हुई और न जानती हुई वह मौन रहकर और पीठ फेर कर बैठी रही। तब धन्य सार्थवाह ने अपनी पत्नी भद्रा से इस प्रकार कहादेवानुप्रिये! मेरे आने से तुम्हें सन्तोष क्यों नहीं है ? हर्ष क्यों नहीं है ? आनन्द क्यों नहीं है ? मैंने अपने सारभूत अर्थ से राजकार्य से अपने आपको छुड़ाया है । तब भद्रा ने धन्य सार्थवाह से इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय ! मुझे क्य सन्तोष, हर्ष और आनन्द होगा, जब की तुमने मेरे पुत्र के घातक यावत् वैरी तथा प्रत्यमित्र को उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन में से संविभाग किया - हिस्सा दिया । तब धन्य सार्थवाह ने भद्रा से कहा- देवानुप्रिये ! धर्म समझकर, तप, किये उपकार का बदला, लोकयात्रा, न्याय, नायक, सहचर, सहायक, अथवा सुहृद समझकर मैंने उसे विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम में से संविभाग नहीं किया है। सिवाय शरीर चिन्ता के और किसी प्रयोजन से संविभाग नहीं किया ।' धन्य सार्थवाह के इस स्पष्टीकरण से भद्रा हृष्ट-तुष्ट हुई, वह आसन से उठी, उसने धन्य सार्थवाह को कंठ से लगाया और उसका कुशल-क्षेम पूछा । फिर स्नान किया, यावत् प्रायश्चित्त किया और पाँचों इन्द्रियों के विपुल भोग भोगती हुई रहने लगी । तत्पश्चात् विजय चोर कारागार में बन्द वध, चाबूकों के प्रहार यावत् प्यास और भूख से पीड़ित होता हुआ, मृत्यु के अवसर पर काल करके नारक रूप से नरक में उत्पन्न हुआ । वह काला और अतिशय काला दिखता था, वेदना का अनुभव कर रहा था । वह नरक से नीकलकर अनादि अनन्त दीर्घ मार्ग या दीर्घकाल वाले चतुर्गति रूप संसार-कान्तार में पर्यटन करेगा । जम्बू ! इसी प्रकार हमारा जो साधु या साध्वी, आचार्य या उपाध्याय के पास मुण्डित होकर, गृहत्याग कर, साधुत्व की दीक्षा अंगीकार करके विपुल मणि मौक्तिक धन कनक और सारभूत रत्नों में लुब्ध होता है, उसकी दशा भी चोर जैसी होती है। . सूत्र - ५३ उस काल और उस समय में धर्मघोष नामक स्थविर भगवंत जाति से उत्पन्न, कुल से सम्पन्न, यावत् मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा )" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद" Page 44 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक अनुक्रम से चलते हुए, जहाँ राजगृह नगर था और जहाँ गुणशील चैत्य था, यथायोग्य उपाश्रय की याचना करके संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे-रहे । उनका आगमन जानकर परिषद नीकली। धर्मघोष स्थविर ने धर्मदेशना दी । तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह को बहुत लोगों से यह अर्थ सूनकर और समझकर ऐसा अध्यवसाय, अभिलाष, चिन्तन एवं मानसिक संकल्प उत्पन्न हुआ-'उत्तम जाति से सम्पन्न स्थविर भगवान यहाँ आए हैं, यहाँ प्राप्त हुए हैं-आ पहुँचे हैं । तो मैं जाऊं, स्थविर भगवान को वन्दन करूँ, नमस्कार करूँ । इस प्रकार विचार करके धन्य ने स्नान किया, यावत् शुद्ध-साफ तथा सभा में प्रवेश करने योग्य उत्तम मांगलिक वस्त्र धारण किये। फिर पैदल चलकर जहाँ गुणशील चैत्य था और जहाँ स्थविर भगवान थे, वहाँ पहुँचा । वन्दना की, नमस्कार किया । स्थविर भगवान ने धन्य सार्थवाह को विचित्र धर्म का उपदेश दिया, अर्थात् ऐसे धर्म का उपदेश दिया जो जिनशासन के सिवाय अन्यत्र सुलभ नहीं है। तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह ने धर्मोपदेश सूनकर इस प्रकार कहा-'हे भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ। यावत वह प्रव्रजित हो गया। यावत बहत वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय पालन कर, आहार को प्रत्याख्यात करके एक मास की संलेखना करके, अनशन से साठ भक्तों को त्याग कर, कालमास में काल करके सौधर्म देवलोक में देव के रूप में उत्पन्न हआ । सौधर्म देवलोक में किन्हीं-किन्हीं देवों की चार पल्योपम की स्थिति कही है। धन्य नामक देव की भी चार पल्योपम की स्थिति कही है । वह धन्य नामक देव आयु के दलिकों का क्षय करके, आयुकर्म की स्थिति का क्षय करके तथा भव का क्षय करके, देह का त्याग करके अनन्तर ही महाविदेह क्षेत्र में सिद्धि प्राप्त करेगा यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेगा। सूत्र -५४ जम्ब ! जैसे धन्य सार्थवाह ने 'धर्म है। ऐसा समझकर या तप, प्रत्यपकार, मित्र आदि मानकर विजय चोर को उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम में से संविभाग नहीं किया था, सिवाय शरीर की रक्षा करने के । इसी प्रकार हे जम्बू ! हमारा जो साधु या साध्वी यावत् प्रव्रजित होकर स्नान, उपामर्दन, पुष्प, गंध, माला, अलंकार आदि शृंगार को त्याग करके अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार करता है, सो इस औदारिक शरीर के वर्ण के लिए, रूप के लिए या विषय-सुख के लिए नहीं करता । ज्ञान, दर्शन और चारित्र को वहन करने के सिवाय उसका अन्य कोई प्रयोजन नहीं होता । वह साधुओं, साध्वीयों, श्रावकों और श्राविकाओं द्वारा इस लोक में अर्चनीय वह सर्व प्रकार से उपासनीय होता है । परलोक में भी वह हस्तछेदन, कर्णछेदन और नासिकाछेदन को तथा इसी प्रकार हृदय के उत्पाटन एवं वृषणों के उत्पाटन और उद्बन्धन आदि कष्टों को प्रपात नहीं करेगा । वह अनादि अनन्त दीर्घमार्ग वाले संसार रूप अटवी को पार करेगा, जैसे धन्य सार्थवाह ने किया । हे जम्बू ! भगवान महावीर ने द्वीतिय ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है। अध्ययन-२ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 45 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र -६, 'ज्ञाताधर्मकथा ' अध्ययन ३ - अंड श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक सूत्र- ५५ भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाताधर्मकथा के द्वीतिय अध्ययन का यह अर्थ फरमाया है तो तीसरे अध्ययन का क्या फरमाया है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में चम्पा नामक नगरी थी । (वर्णन) उस चम्पा नगरी से बाहर ईशान कोण में सुभूमिभाग नामक एक उद्यान था । वह सभी ऋतुओं के फूलों-फलों से सम्पन्न रहता था और रमणीय था। नन्दन-वन के समान शुभ था या सुखकारक था तथा सुगंधयुक्त और शीतल छाया से व्याप्त था । उस सुभूमिभाग उद्यान के उत्तर में, एक प्रदेश में, एक मालुकाकच्छ था, उस मालुकाकच्छ में एक श्रेष्ठ मयूरी ने पुष्ट, पर्यायागत चावलों के पिंड के समान श्वेत वर्ण वाले, व्रण रहित, उपद्रव रहित तथा पोली मुट्ठी के बराबर दो मयूरी के अंडों का प्रसव किया। वह अपने पांखों की वायु से उनकी रक्षा करती, उनका संगोपन करती और संवेष्टन करती हुई रहती थी । T उस चम्पा नगरी में दो सार्थवाह - पुत्र निवास करते थे । जिनदत्त पुत्र और सागरदत्त पुत्र । दोनों साथ ही जन्मे थे, साथ ही बड़े हुए थे, साथ ही धूल में खेले थे, साथ ही विवाहित हुए थे अथवा एक साथ रहते हुए एकदूसरे को देखने वाले थे। दोनों का परस्पर अनुराग था। एक दूसरे का अनुसरण करता था, एक दूसरे की ईच्छा के अनुसार चलता था । दोनों एक दूसरे के हृदय का ईच्छित कार्य करते थे और एक-दूसरे के घरों में कृत्य करणीय करते हुए रहते थे । और | सूत्र - ५६ तत्पश्चात् वे सार्थवाहपुत्र किसी समय इकट्ठे हुए एक घर में आए और एक साथ बैठे थे, उस समय उनमें आपस में इस प्रकार वार्तालाप हुआ हे देवानुप्रिय ! जो भी हमें सुख, दुःख, प्रव्रज्या अथवा विदेश गमन प्राप्त हो, उस सबका हमें एक दूसरे के साथ ही निर्वाह करना चाहिए । इस प्रकार कहकर दोनों ने आपस में इस प्रकार की प्रतिज्ञा अंगीकार करके अपने-अपने कार्य में लग गए । सूत्र - ५७ उस चम्पा नगरी में देवदत्ता नामक गणिका निवास करती थी । वह समृद्ध थी, वह बहुत भोजन - पान वाली थी । चौंसठ कलाओं में पंडिता थीं । गणिका के चौंसठ गुणों से युक्त थीं। उनतीस प्रकार की विशेष क्रिडाएं करने वाली थी । कामक्रीड़ा के इक्कीस गुणों में कुशल थी। बत्तीस प्रकार के पुरुष के उपचार करने में कुशल थी । उसके सोते हुए नौ अंग जागृत हो चूके थे । अठारह प्रकार की देशी भाषाओं में निपुण थी । वह ऐसा सुन्दर वेष धारण करती थी, मानो शृंगाररस का स्थान हो । सुन्दर गति, उपहास, वचन, चेष्टा, विलास एवं ललिच संलाप करने में कुशल थी । योग्य उपचार करने में चतुर थी । उसके घर पर ध्वजा फहराती थी । एक हजार देने वाले को प्राप्त होती थी । राजा के द्वारा उसे छत्र, चामर और बाल व्यजन प्रदान किया गया था। वह कर्णीरथ नामक वाहन पर आरूढ़ होकर आती जाती थी, यावत् एक हजार गणिकाओं का आधिपत्य करती हुई रहती थी। वे सार्थवाहपुत्र किसी समय मध्याह्नकाल में भोजन करने के अनन्तर आचमन करके, हाथ-पैर धोकर स्वच्छ होकर, परम पवित्र होकर सुखद आसनों पर बैठे। उस समय उन दोनों में आपस में इस प्रकार की बात-चीत हुई है देवानुप्रिय ! अपने लिए यह अच्छा होगा की कल यावत् सूर्य के देदीप्यमान होने पर विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादि तथा धूप, पुष्प, गंध और वस्त्र साथ में लेकर देवदत्ता गणिका के साथ सुभूमिभाग नामक उद्यान में उद्यान की शोभा का अनुभव करते हुए विचरें । इस प्रकार कहकर दोनों ने एक दूसरे की बात स्वीकार की । दूसरे दिन सूर्योदय होने पर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार कहा + 'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करो। तैयार करके उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम को तथा धूप, पुष्प आदि को लेकर जहाँ सुभूमिभाग नामक उद्यान है और जहाँ नन्दा पुष्करिणी है, वहाँ जाओ । नन्दा पुष्करिणी के समीप स्थूणामंडप तैयार करो । जल सींचकर, मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा )" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद” Page 46 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक झाड़-बुहार कर, लीप कर यावत् बनाओ । यह सब करके हमारी बाट-राह देखना ।' यह सूनकर कौटुम्बिक पुरुष आदेशानुसार कार्य करके यावत् उनकी बाट देखने लगे । तत्पश्चात् सार्थवाहपुत्रों ने दूसरी बार कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर कहा-'शीघ्र ही एक समान खुर और पूंछ वाले, एक से चित्रित तीखे सींगों के अग्रभाग वाले, चाँदी की घंटियों वाले, स्वर्णजटित सूत की डोर की नाथ से बंधे हुए तथा नीलकमल की कलंगी से युक्त श्रेष्ठ जवान बैल जिसमें जुते हों, नाना प्रकार की मणियों की, रत्नों की और स्वर्ण की घंटियों के समूह से युक्त तथा श्रेष्ठ लक्षणों वाला रथ ले आओ ।' वे कौटुम्बिक पुरुष आदेशानुसार रथ उपस्थित करते हैं । तत्पश्चात् उन सार्थवाहपुत्रों ने स्नान किया, यावत् वे रथ पर आरूढ़ हुए । देवदत्ता गणिका के घर आए । वाहन से नीचे ऊतरे और देवदत्ता गणिका के घर में प्रविष्ट हुए। उस समय देवदत्ता गणिका ने सार्थवाहपुत्रं को आता देखा । वह हृष्ट-तुष्ट होकर आसन से उठी और सातआठ कदम सामने गई । उसने सार्थवाहपुत्रों से कहा-देवानप्रिय ! आज्ञा दीजिए, आपके यहाँ आने का क्या प्रयोजन है ? तत्पश्चात सार्थवाहपुत्रों ने देवदत्ता गणिका से कहा-'देवानप्रिय ! हम तुम्हारे साथ सुभूमि मिभाग नामक उद्यान की श्री का अनुभव करते हुए विचरना चाहते हैं ।' गणिका देवदत्ता ने उस सार्थवाहपुत्रों का यह कथन स्वीकार किया । स्नान किया, मंगलकृत्य किया यावत् लक्ष्मी के समान श्रेष्ठ वेष धारण किया । जहाँ सार्थवाह-पुत्र थे वहाँ आ गई । वे सार्थवाहपुत्र देवदत्ता गणिका के साथ यान पर आरूढ़ हुए और जहाँ सुभूमिभाग उद्यान था और जहाँ नन्दा पुष्करिणी थी, वहाँ पहुँचे । यान से नीचे उतरे । नंदा पुष्करिणी में अवगाहन किया । जल-मज्जन किया, जल-क्रीड़ा की, स्नान किया और फिर देवदत्ता के साथ बाहर नीकले । जहाँ स्थूणामंडप था वहाँ आए । स्थूणामंडप में प्रवेश किया । सब अलंकारों से विभूषित हए, आश्वस्त हुए, विश्वस्त हुए श्रेष्ठ आसन पर बैठे । देवदत्ता गणिका के साथ उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तथा धूप, पुष्प, गंध और वस्त्र का उपभोग करते हुए, विशेषरूप से आस्वादन करते हुए, विभाग करते हुए एवं भोग भोगते हुए विचरने लगे। भोजन के पश्चात् देवदत्ता के साथ मनुष्य सम्बन्धी विपुल कामभोग भोगते हुए विचरने लगे। सूत्र-५८ तत्पश्चात् वे सार्थवाहपुत्र दिन के पीछले प्रहर में देवदत्ता गणिका के साथ स्थूणामंडप से बाहर नीकलकर हाथ में हाथ जालकर, सुभूमिभाग में बने हुए आलिनामक वृक्षों के गृहों में, कदली-गृहों में, लतागृहों में, आसन गृहों में, प्रेक्षणगृहों में, मंडन करने के गृहों में, मोहन गृहों में, साल वृक्षों के गृहों में, जाली वाले गृहों में तथा पुष्पगृहों में उद्यान की शोभा का अनुभव करते हुए घूमने लगे। सूत्र - ५९ तत्पश्चात् वे सार्थवाहदारक जहाँ मालुकाकच्छ था, वहाँ जाने के लिए प्रवृत्त हुए । तब उस वनमयूरी ने सार्थवाहपुत्रों को आता देखा । वह डर गई और घबरा गई । वह जोर-जोर से आवाज करके केकारव करती हुई मालकाकच्छ से बाहर नीकली । एक वक्ष की जाली पर स्थित होकर उन सार्थवाहपत्रों को तथा मालकाकच्छ को अपलक दृष्टि से देखने लगी । तब उन सार्थवाहपुत्रों ने आपस में एक-दूसरे को बुलाया और इस प्रकार कहा'देवानुप्रिय ! यह वनमयूरी हमें आता देखकर भयभीत हुई, स्तब्ध रह गई, त्रास को प्राप्त हुई, उद्विग्न हुई, भाग गई और जोर-जोर की आवाज करके यावत् हम लोगों को तथा मालुकाकच्छ को पुनः पुनः देख रही है, अत एव इसका कोई कारण होना चाहिए । वे मालुका-कच्छ के भीतर घूसे । उन्होंने वहाँ दो पुष्ट और अनुक्रम से वृद्धि प्राप्त मयूरी-अंडे यावत् देखे, एक दूसरे को आवाज देकर इस प्रकार कहा हे देवानुप्रिय ! वनमयूरी के इन अंडों को अपनी उत्तम जाति की मुर्गी के अंडों में डलवा देना, अपने लिए अच्छा रहेगा । ऐसा करने से अपनी जातिवंत मुर्गियाँ इन अंडों का और अपने अंडों का अपने पंखों की हवा से रक्षण करती और संभालती रहेगी तो हमारे दो क्रीडा करने के मयूरी-बालक हो जाएंगे । इस प्रकार कहकर उन्होंने एक दूसरे की बात स्वीकार की । अपने-अपने दासपुत्रों को बुलाया । इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! तुम जाओ । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 47 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक इन अंडों को लेकर अपनी उत्तम जाति की मुर्गियों के अंडों में डाल दो । उन दासपुत्रों ने उन दोनों अंडों को मुर्गियों के अंडों मे मिला दिया । तत्पश्चात् वे सार्थवाहपुत्र देवदत्ता गणिका के साथ सुभूमिभाग उद्यान में उद्यान की शोभा का अनुभव करते हुए विचरण करके उसी यान पर आरूढ़ होकर जहाँ चम्पा नगरी थी और जहाँ देवदत्ता गणिका के घर आए । देवदत्ता गणिका के घर में प्रवेश किया । देवदत्ता गणिका को विपुल जीविका के योग्य प्रीतिदान दिया। उसका सत्कार-सम्मान किया । दोनों देवदत्ता के घर से बाहर नीकलकर जहाँ अपने-अपने घर थे, वहाँ आए। आकर अपने कार्य में संलग्न हो गए। सूत्र-६० तत्पश्चात् उनमें जो सागरदत्त का पुत्र सार्थवाह दारक था, वह कल सूर्य के देदीप्यमान होने पर जहाँ वनमयूरी का अंडा था, वहाँ आया । आकर उस मयूरी अंडे में शंकित हुआ, उसके फल की आकांक्षा करने लगा कि कब इससे अभीष्ट फल की प्राप्ति होगी? विचिकित्सा को प्राप्त हुआ, भेद को प्राप्त हुआ, कलुषता को प्राप्त हुआ। अत एव वह विचार करने लगा कि मेरे इस अंडे में से क्रीड़ा करने का मयूरी-बालक उत्पन्न होगा अथवा नहीं होगा ? वह बार-बार उस अंडे को उद्वर्त्तन करने लगा, आसारण करने लगा संसारण करने लगा, चलाने लगा, हिलाने लगा, करने लगा, भूमि को खोदकर उसमें रखने लगा और बार-बार उसे कान के पास ले जाकर बजाने लगा । तदनन्तर वह मयूरी-अंडा बार-बार उद्वर्त्तन करने से यावत् निर्जीव हो गया । सागरदत्त का पुत्र सार्थवाह दारक किसी समय जहाँ मयूरी का अंडा था वहाँ आया । उस मयूरी-अंडे को उसने पोचा देखा । देखकर 'ओह ! यह मयूरी का बच्चा मेरी क्रिया करने के योग्य न हुआ' ऐसा विचार करके खेदखिन्नचित्त होकर चिन्ता करने लगा। उसके सब मनोरथ विफल हो गए। आयुष्मन् श्रमणों ! इस प्रकार जो साधु या साध्वी आचार्य या उपाध्याय के समीप प्रव्रज्या ग्रहण करके पाँच महाव्रतों के विषय में अथवा षट जीवनिकाय के विषय में अथवा निर्ग्रन्थ प्रवचन के विषय में शंका करता है या कलुषता को प्राप्त होता है, वह इसी भव में बहुत-से साधुओं, साध्वीओं, श्रावकों और श्राविकाओं के द्वारा हीलना करने योग्य-मन से निन्दा करने योग्य, समक्ष में ही गर्दा करने योग्य और परिभव के योग्य होता है। परभव में भी बहुत दंड पाता है यावत् परिभ्रमण करेगा। सूत्र - ६१ जिनदत्त का पुत्र जहाँ मयूरी का अंडा था, वहाँ आया । आकर उस मयूरी के अंडे के विषय में निःशंक रहा। 'मेरे इस अंडे में से क्रड़ा करने के लिए बढ़िया गोलाकार मयूरी-बालक होगा' इस प्रकार निश्चय करके, उस मयूरी के अंडे को उसने बार-बार उलटा-पलटा नहीं यावत् बजाया नहीं आदि । इस कारण उलट-पलट न करने से और न बजाने से उस काल और उस समय में अर्थात् समय का परिपाक होने पर वह अंडा फूटा और मयूरी के बालक का जन्म हुआ । तत्पश्चात् जिनदत्त के पुत्र ने उस मयूरी के बच्चे को देखा । देखकर हृष्ट-तुष्ट होकर मयूरपोषकों को बुलाया । इस प्रकार कहा-देवानप्रियों ! तम मयर के इस बच्चे को अनेक मयर कोप पदार्थों से अनुक्रम से संरक्षण करते हए और संगोपन करते हए बडा करो और नृत्यकला सिखलाओ। तब उस मयूरपोषकों ने जिनदत्त के पुत्र की यह बात स्वीकार की । उस मयूर-बालक को ग्रहण किया । ग्रहण करके जहाँ अपना घर था वहाँ आए । आकर उस मयूर-बालक को यावत् नृत्य कला सिखलाने लगे। तत्पश्चात् मयूरी का बच्चा बचपन से मुक्त हुआ । उसमें विज्ञान का परिणमन हुआ । युवावस्था को प्राप्त हआ । लक्षणों और तिल आदि व्यंजनों के गुणों से युक्त हआ । चौड़ाई रूप मान, स्थूलता रूप उन्मान और लम्बाई रूप प्रमाण से उसके पंखों और पिच्छों का समूह परिपूर्ण हुआ । उसके पंख रंग-बिरंगे हो गए । उनमें सैकड़ों चन्द्रक थे । वह नीले कंठ वाला और नृत्य करने के स्वभाव वाला हुआ । एक चुटकी बजाने से अनेक प्रकार के सैकड़ों केकारव करता हुआ विचरण करने लगा । तत्पश्चात् मयूरपालकों ने उस मयूर के बच्चे को बचपन से मुक्त यावत् केकारव करता हुआ देखकर उस मयूर-बच्चे को ग्रहण किया । जिनदत्त के पुत्र के पास ले गए । तब मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 48 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक जिनदत्त के पुत्र सार्थवाहदारक ने मयूर-बालक को बचपन से मुक्त यावत् केकारव करता देखकर, हृष्ट-तुष्ट होकर उन्हें जीविका के योग्य विपुल प्रीतिदान दिया। प्रीतिदान देकर बिदा किया । तत्पश्चात वह मयूर-बालक जिनदत्त के पुत्र द्वारा एक चुटकी बजाने पर लांगूल के भंग के समान अपनी गर्दन टेढ़ी करता था । उसके शरीर पर पसीना आ जाता था अथवा उसके नेत्र के कोने श्वेत वर्ण के हो गए थे । वह बिखरे पिच्छों वाले दोनों पंखों को शरीर से जुदा कर लेता था । वह चन्द्रक आदि से युक्त पिच्छों के समूह को ऊंचा कर लेता था और सैकड़ों केकारव करता हुआ नृत्य करता था । तत्पश्चात् वह जिनदत्त का पुत्र उस मयूर-बालक के द्वारा चम्पानगरी के शृंगाटकों, मार्गों में सैकड़ों, हजारों और लाखों की होड़ में विजय प्राप्त करता था। हे आयष्मन श्रमणों ! इसी प्रकार हमारा जो साध या साध्वी दीक्षित होकर पाँच महाव्रतों में, षट जीवनिकाय में तथा निर्ग्रन्थ-प्रवचन में शंका से रहित, काँक्षा से रहित तथा विचिकित्सा से रहित होता है, वह इसी भव में बहुत से श्रमणों एवं श्रमणियों में मान-सम्मान प्राप्त करके यावत् संसार रूप अटवी को पार करेगा । हे जम्बू! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के तृतीय अध्ययन का अर्थ फरमाया है। अध्ययन-३ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 49 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक अध्ययन-४ - कूर्म सूत्र - ६२ 'भगवन् ! श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञात अंग के चौथे ज्ञात-अध्ययन का क्या अर्थ फरमाया है ?' हे जम्बू! उस काल और उस समय में वाराणसी नामक नगरी थी । उस वाराणसी नगरी के बाहर गंगा नामक महानदी के ईशान कोण में मृतगंगातीर द्रह नामक एक द्रह था । उसके अनुक्रम से सुन्दर सुशोभित तट थे । जल गहरा और शीतल था । स्वच्छ एवं निर्मल जल से परिपूर्ण था । कमलिनियों के पत्तों और फूलों की पंखुड़ियों से आच्छादित था । बहुत से उत्पलों, पद्मों, कुमुदों, नलिनों तथा सुभग, सौगंधिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र आदि कमलों से तथा केसरप्रधान अन्य पुष्पों से समृद्ध था । इस कारण वह आनन्दजनक, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप था। उस द्रह में सैकड़ों, सहस्रों और लाखों मत्सरों कच्छों, ग्राहों और सुंसुमार जाति के जलचर जीवों के समूह भय से रहित, उद्वेग से रहित, सुखपूर्वक रमते-रमते विचरण करते थे। उस मृतगंगातीर द्रह के समीप एक बड़ा मालुकाकच्छ था । (वर्णन) उस मालुकाकच्छ में दो पापी शृंगाल निवास करते थे । वे पाप का आचरण करने वाले, चंड, रौद्र, इष्ट वस्तु को प्राप्त करने में दत्तचित्त और साहसी थे । उनके हाथ पैर रक्तरंजित रहते थे । वे मांस के अर्थी, मांसाहारी, मांसप्रिय एवं मांसलोलुप थे । मांस की गवेषणा करते हुए रात्रि और सन्ध्या के समय घूमते थे और दिन में छिपे रहते थे । तत्पश्चात् किसी समय, सूर्य के बहुत समय पहले अस्त हो जाने पर, सन्ध्याकाल व्यतीत हो जाने पर, जब कोई विरले मनुष्य ही चलते-फिरते थे और सब मनुष्य अपने-अपने घरों में विश्राम कर रहे थे, तब मृतगंगातीर द्रह में से आहार के अभिलाषी दो कछुए बाहर नीकले । वे आसपास चारों ओर फिरते हुए अपनी आजीविका करते हुए विचरण करने लगे। आहार के अर्थी यावत् आहार की गवेषणा करते हुए वे दोनों पापी शृंगाल मालुकाकच्छ से बाहर नीकले । जहाँ मृतगंगातीर नाम द्रह था, वहाँ आए । उसी मृतगंगातीर द्रह के पास इधर-उधर चारों ओर फिरने लगे और आहार की खोज करते हुए विचरण करने लगे । उन पापी सियारों ने उन दो कछुओं को देखा । दोनों कछुए के पास आने के लिए प्रवृत्त हुए । उन कछुओं ने उन पापी सियारों को आता देखा । वे डरे, त्रास को प्राप्त हुए, भागने लगे, उद्वेग को प्राप्त हुए और बहुत भयभीत हए । उन्होंने अपने हाथ पैर और ग्रीवा को अपने शरीर में गोपित कर लिया -छिपा लिया, निश्चल, निस्पंद और मौन रह गए । वे पापी सियार, वहाँ आए । उन कछुओं को सब तरफ से फिराने-घूमाने लगे, स्थानान्तरित करने लगे, सरकाने हटाने लगे, चलाने लगे, स्पर्श करने लगे, हिलाने लगे, क्षुब्ध करने लगे, नाखूनों से फाड़ने लगे और दाँतों से चीथने लगे, किन्तु उन कछुओं के शरीर को थोड़ी बाधा, अधिक बाधा या विशेष बाता उत्पन्न करने में उनकी चमड़ी छेदने में समर्थ न हो सके । उन पापी सियारों ने इस कछुओं को दूसरी बार और तीसरी बार सब ओर से घूमाया-फिराया, किन्तु यावत् वे उनकी चमड़ी छेदने में समर्थ न हुए । तब वे श्रान्त हो गए-तान्त हो गए और शरीर तथा मन दोनों से थक गए तथा खेद को प्राप्त हुए। धीमे-धीमे पीछे लौट गए, एकान्त में चले गये और निश्चल, निस्पंद तथा मूक होकर ठहर गए। उन दोनों कछुओं में से एक कछुए ने उन पापी सियारों को बहुत समय पहले और दूर गया जान कर धीरेधीरे अपना एक पैर बाहर नीकाला । उन पापी सियारों ने देखा कि उस कछुए ने धीरे-धीरे एक पैर नीकाला है । यह देखकर वे दोनों उत्कृष्ट गति से शीघ्र, चपल, त्वरित, चंड, जययुक्त और वेगयुक्त रूप से जहाँ वह कछुआ था, वहाँ गए । उसके मांस और रक्त का आहार किया । आहार करके वे कछुए को उलट-उलट कर देखने लगे, किन्तु यावत् उसकी चमड़ी छेदने में समर्थ न हुए तब वे दूसरी बार हट गए । इसी प्रकार चारों पैरों के विषय में कहना यावत कछए ने ग्रीवा बाहर नीकाली । यह देखकर वे शीघ्र ही उसके समीप आए । उन्होंने नाखूनों से विदारण करके और दाँतों से तोड़ कर उसके कपाल को अलग कर दिया । अलग करके कछुए को जीवन-रहित कर दिया। जीवन-रहित करके उसके मांस और रुधिर का आहार किया। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 50 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र - ६, 'ज्ञाताधर्मकथा ' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! हमारे जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आचार्य या उपाध्याय के निकट दीक्षित होकर पाँचों इन्द्रियों का गोपन नहीं करते हैं, वे इसी भव में बहुत साधुओं, साध्वीओं, श्रावकों, श्राविकाओं द्वारा हीनता करने योग्य हैं और परलोक में भी बहुत दंड पाते हैं, यावत् अनन्त संसार में परिभ्रमण करते हैं, जैसे अपनी इन्द्रियों-अंगों का गोपन न करने वाला वह कछुआ मृत्यु को प्राप्त हुआ । तत्पश्चात् वे पापी सियार जहाँ दूसरा कछुआ था, वहाँ पहुँचे। पहुँचकर उस कछुए को चारों तरफ से, सब दिशाओं से उलट उलट कर देखने लगे, यावत् दाँतों से तोड़ने लगे। परन्तु उसकी चमड़ी का छेदन करने में समर्थ न हो सके । तत्पश्चात् वे पापी सियार दूसरी बार और तीसरी बार दूर चले गए किन्तु कछुए ने अपने अंग बाहर न नीकाले, अतः वे उस कछुए को कुछ भी आबाधा या विबाधा उत्पन्न न कर सके। यावत् उनकी चमड़ी छेदने में भी समर्थन हो सके। तब वे श्रान्त, क्लान्त और परितान्त होकर तथा खिन्न होकर जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में लौट गए । तत्पश्चात् उस कछुए ने उन पापी सियारों को चिरकाल से गया और दूर गया जानकर धीरे-धीरे अपनी ग्रीवा बाहर नीकाली। ग्रीवा नीकालकर सब दिशाओं में अवलोकन किया। अवलोकन करके एकसाथ चारों पैर बाहर नीकाले और उत्कृष्ट कूर्मगति से दौड़ता दौड़ता जहाँ मृतगंगातीर नामक द्रह था, वहाँ जा पहुँचा । वहाँ आकर मित्र, ज्ञात, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों से मिल गया। हे आयुष्मन् श्रमणों! इसी प्रकार हमारा जो श्रमण या श्रमणी पाँचों इन्द्रियों का गोपन करता है, जैसे उस कछुए ने अपनी इन्द्रियों को गोपन करके रखा था, वह इसी भव में बहुसंख्यक श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों और श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय वन्दनीय नमस्करणीय पूजनीय सत्कारणीय और सम्माननीय होता है। वह कल्याण मंगल देवस्वरूप एवं चैत्यस्वरूप तथा उपासनीय बनता है । परलोक में उसे हाथों, कानों और नाक के छेदन के दुःख नहीं भोगने पड़ते। हृदय के उत्पाटन, वृषणों अंडकोषों के उखाड़ने, फाँसी चढ़ाने आदि के कष्ट नहीं झेलने पड़ते । वह अनादि-अनन्त-संसार- कांतार को पार कर जाता है । हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने चौथे ज्ञाताध्ययन का यह अर्थ कहा है, वैसा ही मैं कहता हूँ । अध्ययन - ४ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा )" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद” Page 51 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-५-शैलक सूत्र - ६३ भगवन! श्रमण भगवान महावीर ने पाँचवे ज्ञात-अध्ययन का क्या अर्थ कहा है? हे जम्ब ! उस काल और उस समय में दारवती नगरी थी । वह पर्व-पश्चिम में लम्बी और उत्तर-दक्षिण में चौडी थी । नौ योजन चौडी और बारह योजन लम्बी थी । वह कबेर की मति से निर्मित हई थी। सवर्ण के श्रेष्ठ प्राकार से और पंचरंगी नान मणियों के बने कंगरों से शोभित थी । अलकापरी समान सन्दर थी । उसके निवासी जन प्रमोदयक्त एवं क्रीडा करने में तत्पर रहते थे। वह साक्षात देवलोक सरीखी थी। उस द्वारका नगरी के बाहर ईशानकोण में रैवतक नामक पर्वत था । वह बहुत ऊंचा था । उसके शिखर गगन-तल को स्पर्श करते थे । वह नाना प्रकार के गुच्छों, गुल्मों, लताओं और वल्लियों से व्याप्त था । हंस, मृग, मयूर, क्रौंच, सारस, चक्रवाक, मगनसारिका और कोयल आदि पक्षियों के झुंडों से व्याप्त था । उसमें अनेक तट और गंडशैल थे । बहुसंख्यक गुफाएं थीं । झरने, प्रपात, प्राग्भार और शिखर थे । वह पर्वत अप्सराओं के समूहों, देवों के समूहों, चारण मुनियों और विद्याधरों के मिथुनों से युक्त था । उसमें दशार वंश के समुद्रविजय आदि वीर पुरुष थे, जो कि नेमिनाथ के साथ होने के कारण तीनों लोकों से भी अधिक बलवान थे, नित्य नए उत्सव होते रहते थे । वह पर्वत सौम्य, सुभग, देखने में प्रिय, सुरूप, प्रसन्नता प्रदान करने वाला, दर्शनीय, अभिरूप तथा प्रतिरूप था। उस रैवतक पर्वत से न अधिक दूर और न अधिक समीप एक नन्दनवन नामक उद्यान था । वह सब ऋतुओं सम्बन्धी पुष्पों और फलों से समृद्ध था, मनोहर था । नन्दनवन के समान आनन्दप्रद, दर्शनीय, अभिरूप तथा प्रतिरूप था । उस उद्यान के ठीक बीचोंबीच सुरप्रिय नामक दिव्य यक्षायतन था। उस द्वारका नगरी में महाराज कृष्ण नामक वासुदेव निवास करते थे । वह वासुदेव वहाँ समुद्रविजय आदि दश दशारों, बलदेव आदि पाँच महावीरों, उग्रसेन आदि सोलह हजार राजाओं, प्रद्युम्न आदि साढ़े तीन करोड़ कुमारों, शाम्ब आदि साठ हजार दुर्दान्त योद्धाओं, वीरसेन आदि इक्कीस हजार पुरुषों-महान् पुरुषार्थ वाले जनों, महासेन आदि छप्पन हजार बलवान पुरुषों, रुक्मिणी आदि बत्तीस हजार रानियों, अनंगसेना आदि अनेक सहस्र गणिकाओं तथा अन्य बहुत-से ईश्वरों, तलवरों यावत् सार्थवाह आदि का एवं उत्तर दिशा में वैताढ्य पर्वत पर्यन्त तथा अन्य तीन दिशाओं में लवणसमुद्र पर्यन्त दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र का और द्वारका नगरी का अधिपतित्व करते हुए और पालन करते हुए विचरते थे। सूत्र - ६४ द्वारका नगरी में थावच्चा नामक एक गाथापत्नी निवास करती थी । वह समृद्धि वाली थी यावत् बहुत लोग मिलकर भी उसका पराभव नहीं कर सकते थे । उस थावच्चा गाथापत्नी का थावच्चपुत्र नामक सार्थवाह का बालक पुत्र था । उसके हाथ-पैर अत्यन्त सुकुमार थे । वह परिपूर्ण पाँचों इन्द्रियों से युक्त सुन्दर शरीर वाला, प्रमाणोपेत अंगोपांगों से सम्पन्न और चन्द्रमा के समान सौम्य आकृति वाला था । सुन्दर रूपवान था । उस थावच्चा गाथापत्नी ने उस पुत्र को कुछ अधिक आठ वर्ष का हुआ जानकर शुभतिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त में कलाचार्य के पास भेजा । फिर भोग भोगने में समर्थ हुआ जानकर इभ्यकुल की बत्तीस कुमारिकाओं के साथ एक ही दिन में पाणिग्रहण कराया । प्रासाद आदि बत्तीस-बत्तीस का दायजा दिया । वह इभ्यकुल की बत्तीस कुमारिकाओं के साथ विपुल शब्द, स्पर्श, रस, रूप, वर्ण और गंध का भोग-उपभोग करता हआ रहने लगा। उस काल और उस समय में अरिहंत अरिष्टनेमि पधारे । धर्म की आदि करने वाले, तीर्थ की स्थापना करने वाले, आदि वर्णन भगवान महावीर के समान ही समझना । विशेषता यह है कि भगवान अरिष्टनेमि दस धनुष ऊंचे थे, नीलकमल, भैंस के सींग, नील गुलिका और अलसी के फूल के समान श्याम कान्ति वाले थे । अठारह हजार साधुओ से और चालीस हजार साध्वीओं से परिवृत्त थे । वे भगवान अरिष्टनेमि अनुक्रम से विहार करते हुए सुखपूर्वक ग्रामानुग्राम पधारते हुए जहाँ द्वारका नगरी थी, जहाँ गिरनार पर्वत था, जहाँ नन्दनवन नामक उद्यान था, मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 52 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र - ६, 'ज्ञाताधर्मकथा ' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक जहाँ सुरप्रिय नामक यक्ष का यक्षायतन था और जहाँ अशोक वृक्ष था, वहीं पधारे । संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। नगरी से परीषद् नीकली भगवान् ने उसे धर्मोपदेश दिया। तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने यह कथा सूनकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा - शीघ्र ही सुधर्मा सभा में जाकर मेघों के समूह जैसी ध्वनि वाली एवं गम्भीर तथा मधुर शब्द करने वाली कौमुदी भेरी बजाओ । तब वे कौटुम्बिक पुरुष, कृष्ण वासुदेव द्वारा इस प्रकार आज्ञा देने पर हृष्ट-तुष्ट हुए, आनन्दित हुए । यावत् मस्तक पर अंजलि करके आज्ञा अंगीकार की । अंगीकार करके कृष्ण वासुदेव के पास से चले । जहाँ सुधर्मा सभा थी और जहाँ कौमुदी नामक भेरी थी, वहाँ आकर मेघ - समूह के समान ध्वनि वाली तथा गंभीर एवं मधुर करने वाली भेरी बजाई । उस समय भेरी बजाने पर स्निग्ध, मधुर और गंभीर प्रतिध्वनि करता हुआ, शरदऋतु के मेघ जैसा भेरी का शब्द हुआ । उस कौमुदी भेरी का ताड़न करने पर नौ योजन चौड़ी और बारह योजन लम्बी द्वारका नगरी के शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, कंदरा, गुफा, विवर, कुहर, गिरिशिखर, नगर के गोपुर, प्रासाद, द्वार, भवन, देवकुल आदि समस्त स्थानों में, लाखों प्रतिध्वनियों से युक्त होकर, भीतर और बाहर के भागों सहित सम्पूर्ण द्वारका नगरी को शब्दायमान करता हुआ वह शब्द चारों ओर फैल गया। तत्पश्चात् नौ योजन चौड़ी और बारह योजन लम्बी द्वारका नगरी में समुद्र। विजय आदि दस दशार अनेक हजार गणिकाएं उस कौमुदी भेरी का शब्द सूनकर एवं हृदय में धारण करके हृष्टतुष्ट, प्रसन्न हुए । यावत् सबने स्नान किया । लम्बी लटकने वाली फूल-मालाओं के समूह को धारण किया । कोरे नवीन वस्त्रों को धारण किया । शरीर पर चन्दन का लेप किया। कोई अश्व पर आरूढ़ हुए, इसी प्रकार कोई गज पर आरूढ़ हुए, कोई रथ पर कोई पालकी में और कोई म्याने में बैठे । कोई-कोई पैदल ही पुरुषों के समूह के साथ चले और कृष्ण वासुदेव के पास प्रकट हुए आए। तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने समुद्रविजय वगैरह दस दसारों को तथा पूर्ववर्णित अन्य सबको यावत् अपने निकट प्रकट हुआ देखा । देखकर वह हृष्ट-तुष्ट हुए, यावत् उन्होंने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया । बुलाकर इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिय ! शीघ्र ही चतुरंगिणी सेना सजाओ और विजय नामक गंधहस्ती को उपस्थित करो ।' कौटुम्बिक पुरुषों ने 'बहुत अच्छा' कहकर सेना सजवाई और विजय नामक गंधहस्ती को उपस्थित किया । तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने स्नान किया। वे सब अलंकारों से विभूषित हुए। विजय गंधहस्ती पर सवार हुए। कोरंट वृक्ष के फूलों की माला वाले छत्र को धारण किये और भटों के बहुत बड़े समूह से घिरे हुए द्वारका नगरी के बीचोंबीच होकर बाहर नीकले । जहाँ गिरनार पर्वत था, जहाँ नन्दनवन उद्यान था, जहाँ सुरप्रिय यक्ष का यक्षायतन था और हजाँ अशोक वृक्ष था, उधर पहुँचे । पहुँचकर अर्हत् अरिष्टनेमि के छत्रातिछत्र पताकातिपताका, विद्याधरों, चारणों एवं जृम्भक देवों को नीचे उतरते और ऊपर चढ़ते देखा । यह सब देखकर वे विजय गंधहस्ती से नीचे उतर गए । उतरकर पाँच अभिग्रह करके अर्हत् अरिष्टनेमि के सामने गए। इस प्रकार भगवान के निकट पहुँचकर तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की, उन्हें वन्दन- नमस्कार किया। फिर अर्हत् अरिष्टनेमि ने न अधिक समीप, न अधिक दूर शुश्रूषा करत हुए, नमस्कार करते हुए, अंजलिबद्ध सम्मुख होकर पर्युपासना करने लगे । सूत्र - ६५ मेघकुमार की तरह थावच्चापुत्र भी भगवान को वन्दना करने के लिए नीकला। उसी प्रकार धर्म को श्रवण करके और हृदय में धारण करके जहाँ थावच्चा गाथापत्नी थी, वहाँ आया । आकर माता के पैरों को ग्रहण किया । मेघकुमार समान थावच्चापुत्र का वैराग्य निवेदना समझनी माता जब विषयों के अनुकूल और विषयों के प्रतिकूल बहुत-सी आघवणा, पन्नवणा-सन्नवणा, विन्नवणा, सामान्य कहने, विशेष कहने, ललचाने और मनाने में समर्थ न हुई, तब ईच्छा न होने पर भी माता ने थावच्चापुत्र बालक का निष्क्रमण स्वीकार कर लिया। विशेष यह कहा कि'मैं 'तुम्हारा दीक्षा महोत्सव देखना चाहती हूँ ।' तब थावच्चापुत्र मौन रह गया । तब गाथापत्नी थावच्चा आसन से उठी । उठकर महान अर्थवाली, महामूल्यवाली, महापुरुषों के योग्य तथा राजा के योग्य भेंट ग्रहण की। मित्र ज्ञाति आदि से परिवृत्त होकर जहाँ कृष्ण वासुदेव के श्रेष्ठ भवन का मुख्य द्वार का देशभाग था, वहाँ आई प्रतीहार द्वारा मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा )" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद" Page 53 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक दिखलाये मार्ग से जहाँ कृष्ण वासुदेव थे, वहाँ आई। दोनों हाथ जोड़कर कृष्ण वासुदेव को बधाया । बधाकर वह महान अर्थ वाली, महामूल्य वाली महान पुरुषों के योग्य और राजा के योग्य भेंट सामने रखी । इस प्रकार बोली हे देवानुप्रिय ! मेरा थावच्चापुत्र नामक एक ही पुत्र है । वह मुझे इष्ट है, कान्त है, यावत् वह संसार के भय से उद्विग्न होलक अरिहंत अरिष्टनेमि के समीप गृहत्याग कर अनगार-प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहता है । मैं उसका निष्क्रमण-सत्कार करना चाहती हूँ । अत एव हे देवानुप्रिय ! प्रव्रज्या अंगीकार करने वाले थावच्चापुत्र के लिए आप छत्र, मुकुट और चामर प्रदान करें, यह मेरी अभिलाषा है । कृष्ण वासुदेव ने थावच्चा गाथापत्नी से कहा-देवानुप्रिये ! तुम निश्चिंत और विश्वस्त रहो । मैं स्वयं ही थावच्चापुत्र बालक का दीक्षा-सत्कार करूँगा । कृष्ण वासुदेव चतुरंगिणी सेना के साथ विजय नामक उत्तम हाथी पर आरूढ़ होकर जहाँ थावच्चा गाथापत्नी का भवन था वहीं आए । थावच्चापुत्र से बोले-हे देवानुप्रिय ! तुम मुण्डित होकर प्रव्रज्या ग्रहण मत करो । मेरी भुजाओं की छाया के नीचे रहकर मनुष्य सम्बन्धी विपुल कामभोगों को भोगो । मैं केवल तुम्हारे ऊपर होकर जाने वाले वायुकाय को रोकने में तो समर्थ नहीं हूँ किन्तु इसके सिवाय देवानुप्रिय को जो कोई भी सामान्य पीड़ा या विशेष पीड़ा उत्पन्न होगी, उस सबका निवारण करूँगा। तब कृष्ण वासुदेव के इस प्रकार कहने पर थावच्चापुत्र ने कृष्ण वासुदेव से कहा-'देवानुप्रिय ! यदि आप मेरे जीवन का अन्त करनेवाले आते हए मरण को रोक दें, शरीर पर आक्रमण करनेवाली एवं शरीर के रूप-सौन्दर्य का विनाश करनेवाली जरा रोक सकें, तो मैं आपकी भुजाओं की छायामे रह कर मनुष्य सम्बन्धी विपुल कामभोग भोगता हुआ विचरूँ।' थावच्चापुत्र द्वारा इस प्रकार कहने पर कृष्ण वासुदेव ने थावच्चापुत्र से कहा-'हे देवानुप्रिय ! मरण और जरा का उल्लंघन नहीं किया जा सकता । अतीव बलशाली देव या दानव के द्वारा भी इनका निवारण नहीं किया जा सकता । हाँ, अपने द्वारा उपार्जित पूर्व कर्मों का क्षय ही इन्हें रोक सकता है।' 'तो हे देवानुप्रिय ! मैं अज्ञान, मिथ्यात्व, अविरति और कषाय द्वारा संचित, अपने आत्मा के कर्मों का क्षय करना चाहता हूँ।' थावच्चापुत्र के द्वारा इस प्रकार कहने पर कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और द्वारिका नगरी के शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर आदि स्थानों में, यावत् श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर आरूढ़ होकर ऊंची-ऊंची ध्वनि से, ऐसी उद्घोषणा करो-'हे देवानुप्रियो ! संसार के भय से उद्विग्न और जन्म-मरण से भयभीत थावच्चापुत्र अर्हन्त अरिष्टनेमि के निकट मुण्डित होकर दीक्षा ग्रहण करना चाहता है तो हे देवानुप्रिय ! जो राजा, युवराज, रानी, कुमार, ईश्वर, तलवर, कौटुम्बिक, माडंबिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति वा सार्थवाह दीक्षित होते हुए थावच्चापुत्र के साथ दीक्षा ग्रहण करेगा, उसे कृष्ण वासुदेव अनुज्ञा देते हैं और पीछे रहे उनके मित्र, ज्ञाति, निजक, सम्बन्धी या परिवार में कोई भी दुःखी होगा तो उसके योग और निर्वाह करेंगे कौटुम्बिक पुरुषों ने यह की घोषणा कर दी। तत्पश्चात् थावच्चापुत्र पर अनुराग होने के कारण एक हजार पुरुष निष्क्रमण के लिए तैयार हुए । वे स्नान करके सब अलंकारों से विभूषित होकर, प्रत्येक-प्रत्येक अलग-अलग हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली पालकियों पर सवार होकर, मित्रों एवं ज्ञातिजनों आदि से परिवृत्त होकर थावच्चापुत्र के समीप प्रकट हुए-आए । तब कृष्ण वासुदेव ने एक हजार पुरुषों को आया देखा । देखकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा (मेघकुमार के दीक्षाभिषेक के वर्णन समान कहना) । चाँदी और सोने के कलशों से उसे स्नान कराया यावत् सर्व अलंकारों से विभूषित किया । थावच्चातुत्र उन हजार पुरुषों के साथ, शिबिका पर आरूढ़ होकर, यावत् वाद्यों की ध्वनि के साथ, द्वारका नगरी के बीचों-बीच होकर नीकला । जहाँ गिरनार पर्वत, नन्दनवन उद्यान, सुरप्रिय यक्ष का यक्षायतन एवं अशोक वृक्ष था, उधर गया । वहाँ जाकर अरिहंत अरिष्टनेमि के छत्र पर छत्र और पताका पर पताका देखता है और विद्याधरों एवं चारण मुनियों को और जृम्भक देवों को नीचे ऊतरते-चढ़ते देखता है, वहीं शिबिका से नीचे उतर जाता है । तत्पश्चात् थावच्चापुत्र ने हजार पुरुषों के साथ स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच किया, यावत् प्रव्रज्या अंगीकार की । थावच्चापुत्र अनगार हो गया । ईर्यासमिति से युक्त, भाषासमिति से युक्त होकर मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 54 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र - ६, 'ज्ञाताधर्मकथा ' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक यावत् साधुता के समस्त गुणों से उत्पन्न होकर विचरने लगा । तत्पश्चात् थावच्चापुत्र अरिहंत अरिष्टनेमि के तथारूप स्थविरों के पास से सामायिक से आरम्भ करके चौदह पूर्वो का अध्ययन करके बहुत से अष्टमभक्त, षष्ठभक्त यावत् चतुर्थभक्त आदि करते हुए विचरने लगे । अरिहंत अरिष्टनेमि ने थावच्चापुत्र अनगार को उनके साथ दीक्षित होने वाले इभ्य आदि एक हजार अनगार शिष्य के रूप में प्रदान किए । तत्पश्चात् थावच्चापुत्र ने एक बार किसी समय अरिहंत अरिष्टनेमि की वंदना की और नमस्कार किया । वन्दना और नमस्कार करके इस प्रकार कहा भगवन्! आपकी आज्ञा हो तो मैं हजार साधुओं के साथ जनपदों में विहार करना चाहता हूँ ।' भगवान ने उत्तर दिया- 'देवानुप्रिय ! तुम्हें जैसे सुख उपजे वैसा करो ।' भगवान की अनुमति प्राप्त करके थावच्चापुत्र एक हजार अनगारों के साथ बाहर जनपदों में विचरण करने लगे। सूत्र - ६६ उस काल और उस समय में शैलकपुर नगर था। उसके बाहर सुभूमिभाग उद्यान था। शैलक राजा था। पद्मावती रानी थी । मंडुक कुमार था । वह युवराज था । उस शैलक राजा के पंथक आदि पाँच सौ मंत्री थे । वे ओत्पत्तिकी वैनयिकी पारिणामिकी और कार्मिकी इस प्रकार चारों तरह की बुद्धियों से सम्पन्न थे और राज्य की धुरा के चिन्तक भी थे-शासन का संचालन करते थे । थावच्चापुत्र अनगार एक हजार मुनियों के साथ जहाँ शैलकपुर था और जहाँ सुभूमिभाग नामक उद्यान था, वहाँ पधारे। शैलक राजा भी उन्हें वन्दना करने के लिए कला । थावच्चापुत्र ने धर्म का उपदेश दिया । धर्म सूनकर शैलक राजा न कहा जैसे देवानुप्रिय के समीप बहुत से उग्रकुल के, भोजकुल के तथा अन्य कुलों के पुरुषों ने हिरण्य सुवर्ण आदि का त्याग करके दीक्षा अंगीकार की है, उस प्रकार मैं दीक्षित होने में समर्थ नहीं हूँ । अत एव मैं देवानुप्रिय से पाँच अणुव्रतों और सात शिक्षाव्रतों को धारण करके श्रावक बनना चाहता हूँ ।' इस प्रकार राजा श्रमणोपासक यावत् जीव- अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता हो गया यावत् तप तथा संयम से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचरने लगा। इसी प्रकार पंथक आदि पाँच सौ मंत्री भी श्रमणोपासक हो गए। थावच्चापुत्र अनगार वहाँ से विहार करके जनपदों में विचरण करने लगे। सूत्र - ६७ - उस काल और उस समय में सौगंधिका नामक नगरी थी। (वर्णन) उस नगरी के बाहर नीलाशोक नामक उद्यान था । (वर्णन) उस सौगंधिका नगरी में सुदर्शन नामक नगर श्रेष्ठी निवास करता था। वह समृद्धिशाली था, यावत् वह किसी से पराभूत नहीं हो सकता था। उस काल और उस समय में शुक नामक एक परिव्राजक था । वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद तथा षष्टितन्त्र में कुशल था। सांख्यमत के शास्त्रों के अर्थ में कुशल था । पाँच यमों और पाँच नियमों से युक्त दस प्रकार के शौचमूलक परिव्राजक धर्म का, दानधर्म का, शौचधर्म का और तीर्थस्नान का उपदेश और प्ररूपण करता था । गेरू के रंगे हुए श्रेष्ठ वस्त्र धारण करता था । त्रिदंड, कुण्डिकाकमंडलु, मयूरपिच्छ का छत्र, छन्नालिक, अंकुश पवित्री और केसरी यह सात उपकरण उसके हाथ में रहते थे । एक हजार परिव्राजकों से परिवृत्त वह शुक परिव्राजक जहाँ सौगंधिका नगरी थी और जहाँ परिव्राजक का आवसथ था, वहाँ आया। आकर परिव्राजकों के उस मठ में उसने अपने उपकरण रखे और सांख्यमत के अनुसार अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचरने लगा । तब उस सौगंधिक नगरी के शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर चतुर्मुख, महापथ, पथों में अनेक मनुष्य एकत्रित होकर परस्पर ऐसा कहने लगे निश्चय ही शुक परिव्राजक यहाँ आए हैं यावत् आत्मा को भावित करते हुए 'विचरते हैं। तात्पर्य यह कि शुक परिव्राजक के आगमन की गली गली और चौराहों में चर्चा होने लगी । उपदेश-श्रवण के लिए परीषद् नीकली । सुदर्शन भी नीकला । तत्पश्चात् शुक परिव्राजक ने उस परीषद् को, सुदर्शन को तथा अन्य बहुत-से श्रोताओं को सांख्यमत का उपदेश दिया । यथा - हे सुदर्शन ! हमारा धर्म शौचमूलक कहा गया है। यह शौच दो प्रकार का है- द्रव्यशौच और भावशीच द्रव्यशीच जल से और मिट्टी से होता है । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा )" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद” Page 55 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक भावशौच दर्भ से और मंत्र से होता है । हे देवानुप्रिय ! हमारे मत के अनुसार जो कोई वस्तु अशुचि होती है, वह सब तत्काल पृथ्वी से मांज दी जाती है और फिर शुद्ध जल से धो ली जाती है । तब अशुचि, शुचि हो जाती है। निश्चय ही जीव जलस्नान से अपनी आत्मा को पवित्र करके बिना विघ्न के स्वर्ग प्राप्त करते हैं। तत्पश्चात् सुदर्शन, शुक परिव्राजक के धर्म को श्रवण करके हर्षित हुआ । उसने शुक से शौचमूलक धर्म स्वीकार किया । स्वीकार करके परिव्राजकों को विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र से प्रतिलाभित करता हुआ अर्थात् अशन आदि दान करता हुआ रहने लगा । तत्पश्चात् वह शुक परिव्राजक सौगंधिका नगरी से बाहर नीकला । नीकलकर जनपद-विहार से विचरने लगा-देश-देशान्तर में भ्रमण करने लगा । उस काल उस समयमें थावच्चापुत्र नामक अनगार १००० साधुओं के साथ अनुक्रमण से विहार करते हुए, एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाते हए, सखे-सखे विचरते हए जहाँ सौगंधिका नामक नगरी थी और जहाँ नीलाशोक नामक उद्यान था, वहाँ पधारे। थावच्चापुत्र अनगार का आगमन जानकर परीषद् नीकली । सुदर्शन भी नीकला । उसने थावच्चापुत्र अनगार को प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके वन्दना की, नमस्कार किया । वन्दना-नमस्कार करके वह बोला'आपके धर्म का मूल क्या है ? तब सुदर्शन के इस प्रकार कहने पर थावच्चापुत्र अनगार ने सुदर्शन से कहा-हे सुदर्शन ! धर्म विनयमूलक कहा गया है । यह विनय भी दो प्रकार का कहा है-अगारविनय और अनगार विनय । इनमें जो अगारविनय है, वह पाँच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत और ग्यारह उपासक-प्रतिमा रूप है । अनगार-विनय चतुर्याम रूप है, यथा-समस्त प्राणातिपात से विरमण, समस्त मृषावाद से विरमण, समस्त अदत्तादान से विरमण, समस्त मैथुन और समस्त परिग्रह से विरमण । इसके अतिरिक्त समस्त रात्रि-भोजन से विरमण, यावत् समस्त मिथ्यादर्शन शल्य से विरमण, दस प्रकार का प्रत्याख्यान और बारह भिक्षुप्रतिमाएं । इस प्रकार दो तरह के विनय मूलक धर्म से क्रमशः आठ कर्मप्रकृतियों को क्षय करके जीवे लोक के अग्रभाग में-मोक्ष में प्रतिष्ठित होते हैं । तत्पश्चात् थावच्चापुत्र ने सुदर्शन से कहा-सुदर्शन ! तुम्हारे धर्म का मूल क्या कहा गया है ? सुदर्शन ने उत्तर दियादेवानुप्रिय ! हमारा धर्म शौचमूलक कहा गया है । तब थावच्चापुत्र अनगार ने सुदर्शन से कहा-हे सुदर्शन ! जैसे कुछ भी नाम वाला कोई पुरुष एक बड़े रुधिर से लिप्त वस्त्र को रुधिर से ही धोए, तो हे सुदर्शन ! उस रुधिर से ही धोये जाने वाले वस्त्र की कोई शुद्धि होगी? सुदर्शन ने कहा-यह अर्थ समर्थ नहीं है। सी प्रकार हे सुदर्शन ! तुम्हारे मतानुसार भी प्राणातिपात से यावत् मिथ्यादर्शन शल्य से शुद्धि नहीं हो सकती, जैसे उस रुधिरलिप्त और रुधिर से ही धोये जाने वाले वस्त्र की शुद्धि नहीं होती । हे सुदर्शन ! जैसे यथानामक कोई पुरुष एक बड़े रुधिरलिप्त वस्त्र को सज्जी के खार के पानी में भिगोवे, फिर पाकस्थान पर चढ़ावे, चढाकर उष्णता ग्रहण करावे और फिर स्वच्छ जल से धोवे, तो निश्चय हे सुदर्शन ! यह रुधिर से लिप्त वस्त्र, सज्जी खार के पानी में भीगो कर चूल्हे पर चढ़कर, उबलकर और शुद्ध जल से प्रक्षालित होकर शुद्ध हो जाता है ?' (सुदर्शन कहता है) 'हाँ, हो जाता है।' इसी प्रकार हे सुदर्शन ! हमारे धर्म के अनुसार भी प्राणातिपात के विरमण से यावत् मिथ्यादर्शन शल्य के विरमण से शुद्धि होती है, जैसे उस रुधिरलिप्त वस्त्र की यावत् शुद्ध जल से धोये जाने पर शुद्धि होती है। तत्पश्चात् सुदर्शन को प्रतिबोध प्राप्त हुआ । उसने थावच्चापुत्र को वन्दना की, नमस्कार किया । इस प्रकार कहा-'भगवन् ! मैं धर्म सूनकर उसे जानना चाहता हूँ ।' यावत् वह धर्मोपदेश श्रवण करके श्रमणोपासक को गया, जीवाजीव का ज्ञाता हो गया, यावत् निर्ग्रन्थ श्रमणों को आहार आदि का दान करता हुआ विचरने लगा। तत्पश्चात् शुक परिव्राजक को इस कथा का अर्थ जानकर इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ-'सुदर्शन ने शौच-धर्म का परित्याग करके विनयमूल धर्म अंगीकार किया है । अत एव सुदर्शन की दृष्टि का वमन कराना और पुनः लक धर्म का उपदेश करना मेरे लिए श्रेयस्कर होगा । उसने ऐसा विचार किया । विचार करके एक हजार परिव्राजकों के साथ जहाँ सौगन्धिका नगरी थी और जहाँ परिव्राजकों का मठ था, वहाँ आया । आकर उसने परिव्राजकों के मठ में उपकरण रखे । तदनन्तर गेरु से रंगे वस्त्र धारण किये हुए वह थोड़े परिव्राजकों के साथ, मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 56 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक उनसे घिरा हुआ परिव्राजक-मठ से नीकला । नीकलकर सौगंधिका नगरी के मध्यभाग में होकर जहाँ सुदर्शन का घर था और जहाँ सुदर्शन था वहाँ आया । तब सुदर्शन ने शुक परिव्राजक को आता देखा । देखकर वह खड़ा नहीं हुआ, सामने नहीं गया, उसका आदर नहीं किया, उसे जाना नहीं, वन्दना नहीं की, किन्तु मौन रहा । तब शुक परिव्राजक ने सुदर्शन को न खड़ा हुआ देखकर इस प्रकार कहा-हे सुदर्शन ! पहले तुम मुझे आता देखकर खड़े होते थे, सामने आते और आदर करते थे, वन्दना करते थे, परन्तु हे सुदर्शन ! अब तुम मुझे आता देखकर न वन्दना की तो हे सुदर्शन ! किसके समीप तुमने विनयमूल धर्म अंगीकार किया है ? तत्पश्चात् शुक परिव्राजक के इस प्रकार कहने पर सुदर्शन आसन से उठ कर खड़ा हुआ । उसने दोनों हाथ जोड़े मस्तक पर अंजलि की और शुक परिव्राजक से इस प्रकार कहादेवानुप्रिय ! अरिहंत अरिष्टनेमि के अन्तेवासी थावच्चापुत्र नामक अनगार विचरते हुए यहाँ आए हैं और यहीं नीलाशोक नामक उद्यान में विचर रहे हैं। उनके पास से मैंने विनयमूल धर्म अंगीकार किया है। सूत्र - ६८ तत्पश्चात् शुक परिव्राजक ने सुदर्शन से इस प्रकार कहा-'हे सुदर्शन ! चलें, हम तुम्हारे धर्माचार्य थावच्चापुत्र के समीप प्रकट हों-चलें और इन अर्थों को, हेतुओं को, प्रश्नों को, कारणों को तथा व्याकरणों को पूछे ।' अगर वह मेरे इन अर्थों, हेतुओं, प्रश्नों, कारणों और व्याकरणों का उत्तर देंगे तो मैं उन्हें वन्दना करूँगा, नमस्कार करूँगा और यदि वह मेरे इन अर्थों यावत् व्याकरणों को नहीं कहेंगे-मैं उन्हें इन्हीं अर्थों तथा हेतुओं आदि से निरुत्तर कर दूंगा । तत्पश्चात् वह शुक परिव्राजक, एक हजार परिव्राजकों के और सुदर्शन सेठ के साथ जहाँ नीलाशोक उद्यान था, और जहाँ थावच्चापुत्र अनगार थे, वहाँ आया । आकर थावच्चापुत्र से कहने लगा-'भगवन् ! तुम्हारी यात्रा चल रही है ? यापनीय है ? तुम्हारे अव्याबाध है ? और तुम्हारा प्रासुक विहार हो रहा है ? तब थावच्चापुत्र ने शुक परिव्राजक के इस प्रकार कहने पर शुक से कहा-हे शक ! मेरी यात्रा भी हो रही है, यापनीय भी वर्त रहा है, अव्याबाध भी है और प्रासुक विहार भी हो रहा है। तत्पश्चात् शुक ने थावच्चापुत्र से इस प्रकार कहा-'भगवन् ! आपकी यात्रा क्या है ? (थावच्चापुत्र) हे शुक! ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और संयम आदि योगों से जीवों की यतना करना हमारी यात्रा है । शुक-भगवन् ! यापनीय क्या है ? थावच्चापुत्र-शुक ! दो प्रकार का है-इन्द्रिय-यापनीय और नोइन्द्रिय-यापनीय । शुक-'इन्द्रिययापनीय किसे कहते हैं ?' 'शुक ! हमारी श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय बिना किसी उपद्रव के वशीभूत रहती हैं, यही हमारा इन्द्रिय-यापनीय है ।' शुक-'नो-इन्द्रिय-यापनीय क्या है ?' 'हे शुक! क्रोध, मान, माया और लोभ रूप कषाय क्षीण हो गए हों, उपशान्त हो गए हों, उदय में न आ रहे हों, यही हमारा नोइन्द्रिय-यापनीय कहलाता है ।' शुक ने कहा-'भगवन् ! अव्याबाध क्या है ?' 'हे शुक ! जो वात, पित्त, कफ और सन्निपात आदि सम्बन्धी विविध प्रकार के रोग और आतंक उदय में न आवें, वह हमारा अव्याबाध है।' शुक-'भगवन् ! प्रासुक विहार क्या है ? हे शुक ! हम जो आराम में, उद्यान में, देवकुल में, सभा में तथा स्त्री, पशु और नपुंसक से रहित उपाश्रय में पडिहारी पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक आदि ग्रहण करके विचरते हैं, वह हमारा प्रासुक विहार है।' शुक परिव्राजक ने प्रश्न किया-'भगवन् ! आपके लिए सरिसवया' भक्ष्य हैं या अभक्ष्य हैं ?' थावच्चापुत्र ने कहा-'हे शुक ! भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी ।' शुक ने पुनः प्रश्न किया-यावत् ! किस अभिप्राय से ऐसा कहते हो कि 'सरिसवया' भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं?' थावच्चापत्र हे शक! 'सरिसवया' दो प्रकार के हैं । मित्रसरिसवया और धान्य-सरिसवया । इनमें जो मित्र-सरिसवया है, वे तीन प्रकार के हैं । साथ जन्मे हुए, साथ बढ़े हुए और साथ-साथ धूल में खेले हुए । यह तीन प्रकार के मित्र-सरिसवया श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं । जो धान्य -सरिसवया हैं, वे दो प्रकार के हैं । शस्त्रपरिणत और अशस्त्रपरिणत । उनमें जो अशस्त्रपरिणत हैं वे श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं । जो शस्त्रपरिणत हैं, वे दो प्रकार के हैं । प्रासुक और अप्रासुक । हे शुक ! अप्रासुक भक्ष्य नहीं मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 57 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक हैं । उनमें जो प्रासुक हैं, वे दो प्रकार के हैं । याचित और अयाचित । उनमें जो अयाचित है, वे अभक्ष्य हैं । उनमें जो याचित हैं, वे दो प्रकार के हैं । यथा-एषणीय और अनेषणीय । उनमें जो अनेषणीय हैं, वे अभक्ष्य हैं । जो एषणीय हैं, वे दो प्रकार के हैं-लब्ध और अलब्ध । उनमें जो अलब्ध हैं, वे अभक्ष्य हैं । जो लब्ध हैं वे निर्ग्रन्थों के लिए भक्ष्य हैं । 'हे शुक ! इस अभिप्राय से सरिसवया भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं।' इसी प्रकार 'कुलत्था' भी कहना, विशेषता इस प्रकार हैं-कुलत्था के दो भेद हैं-स्त्री-कुलत्था और धान्यकुलत्था । स्त्री-कुलत्था तीन प्रकार की है । कुलवधू, कुलमाता और कुलपुत्री । ये अभक्ष्य हैं । धान्यकुलत्था भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं इत्यादि । मास सम्बन्धी प्रश्नोत्तर भी इसी प्रकार जानना । विशेषता इस प्रकार है-मास तीन प्रकार के हैं । कालमास, अर्थमास और धान्मास । इनमें से कालमास बारह प्रकार के हैं । श्रावण यावत् आषाढ़, वे सब अभक्ष्य हैं । अर्थमास दो प्रकार के हैं-चाँदी का माशा और सोने का माशा । वे भी अभक्ष्य हैं। धान्मास भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं; शुक परिव्राजक ने पुनः प्रश्न किया-'आप एक हैं ? आप दो हैं ? आप अनेक हैं ? आप अक्षय हैं ? आप अव्यय हैं ? आप अवस्थित हैं ? आप भूत, भाव और भावी वाले हैं ?' 'हे शुक ! मैं द्रव्य की अपेक्षा से एक हूँ, क्योंकि जीव द्रव्य एक ही है । ज्ञान और दर्शन की अपेक्षा से मैं दो भी हूँ । प्रदेशों की अपेक्षा से मैं अक्षय भी हूँ, अव्यय भी हूँ, अवस्थित भी हूँ । उपयोग की अपेक्षा से अनेक भूत, भाव और भावि भी हूँ। थावच्चापुत्र के उत्तर से शुक परिव्राजक को प्रतिबोध प्राप्त हुआ । उसने थावच्चापुत्र को वन्दना की, नमस्कार किया । इस प्रकार कहा-'भगवन् ! मैं आपके पास केवली प्ररूपित धर्म सूनने की अभिलाषा करता हूँ। तत्पश्चात् शुक परिव्राजक थावच्चापुत्र से धर्मकथा सून कर और उसे हृदय में धारण करके इस प्रकार बोला'भगवन् ! मैं एक हजार परिव्राजकों के साथ देवानुप्रिय के निकट मुण्डित होकर प्रव्रजित होना चाहता हूँ ।' थावच्चापुत्र अनगार बोले-'देवानुप्रिय ! जिस प्रकार सुख उपजे वैसा करो ।' यह सूनकर यावत् उत्तरपूर्व दिशा में जाकर शुक परिव्राजक ने त्रिदंड आदि उपकरण यावत् गेरू से रंगे वस्त्र एकान्त में उतार डाले । अपने ही हाथ से शिखा उखाड़ ली । उखाड़ कर जहाँ थावच्चापुत्र अनगार थे, वहाँ आया । वन्दन-नमस्कार किया, वन्दन-नमस्कार करके मुण्डित होकर यावत् थावच्चापुत्र अनगार के निकट दीक्षित हो गया । फिर सामायिक से आरम्भ करके चौदह पूर्वो का अध्ययन किया । तत्पश्चात् थावच्चापुत्रने शुक को १००० अनगार शिष्य के रूप में प्रदान किए। त्पश्चात थावच्चापत्र अनगार सौगंधिका नगरी से और नीलाशोक उद्यान से बाहर नीकले । नीकलकर जनपदविहार अर्थात विभिन्न देशों में विचरण करने लगे । तत्पश्चात वह थावच्चापत्र हजार साधुओं के साथ जहाँ पुण्डरीक-शत्रुजय पर्वत था, वहाँ आए । धीरे-धीरे पुण्डरीक पर्वत पर आरूढ़ हुए। उन्होंने मेघघटा के समान श्याम और जहाँ देवों का आगमन होता था, ऐसे पृथ्वीशिलापट्टक का प्रतिलेखन किया । प्रतिलेखन करके संलेखना धारण कर आहार-पानी का त्याग कर उस शिलापट्टक पर आरूढ़ होकर यावत् पादपोपगमन अनशन ग्रहण किया। वह थावच्चापुत्र बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय पाल कर, ऐसे मां की संलेखना करके साट भक्तों का अनशन करके यावत् केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त करके सिद्ध हुए, वृद्ध हुए, समस्त कर्मों से मुक्त हुए, संसार का अन्त किया, परिनिर्वाण प्राप्त किया तथा सर्व दुःखों से मुक्त हुए। तत्पश्चात् शुक अनगार किसी समय जहाँ शैलकपुर नगर था और जहाँ सुभूमिभाग नामक उद्यान था, वहीं पधारे । उन्हें वन्दना करने के लिए परीषद् नीकली । शैलक राजा भी नीकला । धर्मोपदेश सूनकर उसे प्रतिबोध प्राप्त हुआ । विशेष यह कि राजा ने निवेदन किया-हे देवानुप्रिय ! मैं पंथक आदि पाँच सौ मंत्रियों से पूछ लूँउनकी अनुमति ले लूँ और मंडुक कुमार को राज्य पर स्थापित कर दूँ । उसके पश्चात् आप देवानुप्रिय के समीप मुंडित होकर गृहवास से नीकलकर अनगार-दीक्षा अंगीकार करूँगा । यह सूनकर, शुक अनगार ने कहा-'जैसे सुख उपजे वैसा करो ।' तत्पश्चात् शैलक राजा ने शैलकपुर नगर में प्रवेश किया । जहाँ अपना घर था और उपस्थानशाला थी, वहाँ आया । आकर सिंहासन पर आसीन हुआ । तत्पश्चात् शैलक राजा ने पंथक आदि पाँच सौ मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 58 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक मंत्रियों को बुलाया । बुलाकर इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिय ! मैंने शुक अनगार से धर्म सूना है और उस धर्म की मैंने ईच्छा की है । वह धर्म मुझे रुचा है । अत एव हे देवानुप्रियो ! मैं संसार के भय से उद्विग्न होकर दीक्षा ग्रहण कर रहा हूँ । देवानुप्रियो ! तुम क्या करोगे ? कहाँ रहोगे ? तुम्हारा हित और अभीष्ट क्या है ? अथवा तुम्हारी हार्दिक ईच्छा क्या है ?' तब वे पंथक आदि मंत्री शैलक राजा से इस प्रकार कहने लगे-'हे देवानुप्रिय ! यदि आप संसार के भय से उद्विग्न होकर यावत् प्रव्रजित होना चाहते हैं, तो हे देवानुप्रिय ! हमारा दूसरा आधार कौन है ? हमारा आलंबन कौन है ? अत एव हे देवानुप्रिय ! हम भी संसार के भय से उद्विग्न होकर दीक्षा अंगीकार करेंगे । हे देवानुप्रिय ! जैसे आप यहाँ गृहावस्था में बहुत से कार्यों में, कुटुम्ब सम्बन्धी विषयों में, मन्त्रणाओं में, गुप्त एवं रहस्यमय बातों में, कोई भी निश्चय करने में एक और बार-बार पूछने योग्य है, मेढ़ी, प्रमाण, आधार, आलंबन और चक्षुरूप-मार्गदर्शक हैं, मेढी प्रमाण आधार आलंबन एवं नेत्र समान है यावत आप मार्गदर्शक हैं, उसी प्रकार दीक्षित होकर भी आप बहुत-से कार्यों में यावत् चक्षुभूत होंगे। तत्पश्चात् शैलक राजा ने पंथक प्रभृति पाँच सौं मंत्रियों से इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! यदि तुम संसार के भय से उद्विग्न हुए हो, यावत् दीक्षा ग्रहण करना चाहते हो तो, देवानुप्रियो ! जाओ और अपने-अपने कुटुम्बों में अपने-अपने ज्येष्ठ पुत्रों को कुटुम्ब के मध्य में स्थापित करके अर्थात् परिवार का समस्त उत्तरदायित्व उन्हें सौंप कर हजार पुरुषों द्वारा वहन करने योग्य शिविकाओं पर आरूढ़ होकर मेरे समीप प्रकट होओ।' यह सुनकर पाँच सौ मंत्री अपने-अपने घर चले गए और राजा के आदेशानुसार कार्य करके शिबिकाओं पर आरूढ़ होकर वापिस राजा के पास प्रकट हुए-आ पहुँचे । तत्पश्चात् शैलक राजा ने पाँच सौ मंत्रियों को अपने पास आया देखा । देखकर हृष्टतुष्ट होकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया । बुलाकर इस प्रकार कहा-'देवानुप्रियो ! शीघ्र ही मंडुक कुमार के महान् अर्थ वाले राज्याभिषेक की तैयारी करो ।' कौटुम्बिक पुरुषों ने वैसा ही किया । शैलक राजा ने राज्याभिषेक किया। मंडुक कुमार राजा हो गया, यावत् सुखपूर्वक विचरने लगा । तत्पश्चात् शैलक ने मंडुक राजा से दीक्षा लेने की आज्ञा मांगी । तब मंडुक राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया । बुलाकर इस प्रकार कहा-' शीघ्र ही शैलकपुर नगर को स्वच्छ और सिंचित करके सुगंध की बट्टी के समान करो और कराओ । ऐसा करके और कराकर यह आज्ञा मुझे वापिस सौंपो अर्थात् आज्ञानुसार कार्य हो जाने की मुझे सूचना दो।' तत्पश्चात् मंडुक राजाने दुबारा कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया । बुलाकर इस प्रकार कहा-'शीघ्र ही शैलक महाराजा के महान् अर्थवाले यावत् दीक्षाभिषेक की तैयारी करो।' जैसे मेघकुमार के प्रकरणमें प्रथम अध्ययन में कहा था, उसी प्रकार यहाँ भी कहना । विशेषता यह है कि पद्मावती देवी ने शैलक के अग्रकेश ग्रहण किये । सभी दीक्षार्थी प्रतिग्रह-पात्र आदि ग्रहण करके शिबिका पर आरूढ़ हए । शेष वर्णन पूर्ववत् समझना । यावत् राजर्षि शैलक ने दीक्षित होकर सामायिक से आरम्भ करके ग्यारह अंगों का अध्ययन किया । अध्ययन करके बहुत से उपवास आदि तपश्चरण करते हुए विचरने लगे । तत्पश्चात् शुक अनगार ने शैलक अनगार को पंथक प्रभृति पाँच सौ अनगार शिष्य के रूप में प्रदान किये । फिर शुक मुनि किसी समय शैलकपुर नगर से और सुभूमि-भाग उद्यान से बाहर नीकले । नीकलकर जनपदों में विचरने लगे । तत्पश्चात् वह शुक अनगार एक बार किसी समय एक हजार अनगारों के साथ अनुक्रम से विचरते हुए, ग्रामानुग्राम विहार करते हुए अपना अन्तिम समय समीप आया जानकर पुंडरीक पर्वत पर पधारे । यावत् केवलज्ञान केवलदर्शन प्राप्त करके सिद्ध यावत् दुःखों रहित हो गए। सूत्र-६९ तत्पश्चात् प्रकृति से सुकुमार और सुखभोग के योग्य शैलक राजर्षि के शरीर में सदा अन्त, प्रान्त, तुच्छ, रूक्ष, अरस, विरस, ठंडा-गरम, कालातिक्रान्त और प्रमाणातिक्रान्त भोजन-पान मिलने के कारण वेदना उत्पन्न हो गई । वह वेदना उत्कट यावत् विपुल, कठोर, प्रगाढ़, प्रचंड एवं दुस्सह थी । उनका शरीर खुजली और दाह उत्पन्न करने वाले पित्तज्वर से व्याप्त हो गया । तब वह शैलक राजर्षि उस रोगांतक से शुष्क हो गए । तत्पश्चात् शैलक राजर्षि किसी समय अनुक्रम से विचरते हुए यावत् जहाँ सुभूमिभाग नामक उद्यान था, वहाँ आकर विचरने लगे । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 59 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक उन्हें वन्दन करने के लिए परीषद् नीकली । मंडुक राजा भी नीकला । शैलक अनगार को सब ने वन्दन किया, नमस्कार किया । उपासना की । उस समय मंडुक राजा ने शैलक अनगार का शरीर शुष्क, निस्तेज यावत् सब प्रकार की पीड़ा से आक्रान्त और रोगयुक्त देखा । देखकर इस प्रकार कहा-'भगवन् मैं आपकी साधु के योग्य चिकित्सकों से, साधु के योग्य औषध और भेषज के द्वारा भोजन-पान द्वारा चिकित्सा कराना चाहता हूँ । भगवन्! आप मेरी यानशाला में पधारिए और प्रासुक एवं एषणीय पीठ, फलक, शय्या तथा संस्तारक ग्रहण करके विचरिए। तत्पश्चात् शैलक अनगार ने मंडुक राजा के इस अर्थ को 'ठीक है' ऐसा कहकर स्वीकार किया और राजा वन्दना-नमस्कार करके जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया । तत्पश्चात् वह शैलक राजर्षि कल प्रभात होने पर, सूर्योदय हो जाने के पश्चात् सहस्ररश्मि सूर्य के देदीप्यमान होने पर भंडमात्र और उपकरण लेकर पंथक प्रभृति पाँच सौ मुनियों के साथ शैलकपुर में प्रविष्ट हुए । प्रवेश करके जहाँ मंडुक राजा की यानशाला थी, उधर आए । आकर प्रासुक पीठ फलक शय्या संस्तारक ग्रहण करके विचरने लगे । तत्पश्चात् मंडुक राजा ने चिकित्सकों को बुलाया । बुलाकर इस प्रकार-'देवानुप्रियो ! तुम शैलक राजर्षि की प्रासक और एषणीय औषध, भेषज एवं भोजन-पान से चिकित्सा करो ।' तब चिकित्सक मंडुक राजा के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुए। उन्होंने साधु के योग्य औषध, भेषज एवं भोजन-पान से चिकित्सा की और मद्यपान करने की सलाह दी। तत्पश्चात् साधु के योग्य औषध, भेषज, भोजन-पान से तथा मद्यपान करने से शैलक राजर्षि का रोग-आतंक शान्त हो गया । वह हृष्ट -तुष्ट यावत् बलवान् शरीर वाले हो गए । उनके रोगान्तक पूरी तरह दूर हो गए । तत्पश्चात् शैलक राजर्षि उस रोगांतक के उपशान्त हो जाने पर विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम में तथा मद्यपान में मूर्छित, मत्त, गृद्ध और अत्यन्त आसक्त हो गए । वह अवसन्न-आलसी, अवसन्नविहारी इसी प्रकार पार्श्वस्थ तथा पार्श्वस्थविहारी कुशील और प्रमत्तविहारी, संसक्त तथा संसक्तविहारी हो गए । शेष काल में भी शय्या-संस्तारक के लिए पीठफलक रखने वाले प्रमादी हो गए। वह प्रासुक तथा एषणीय पीठ फलक आदि को वापस देकर और मंडुक राजा से अनुमति लेकर बाहर जनपद-विहार करने में असमर्थ हो गए। सूत्र-७० तत्पश्चात् पंथक के सिवाय वे पाँच सौ अनगार किसी समय इकट्ठे हुए-मिले, एक साथ बैठे । तब मध्य रात्रि के समय धर्मजागरणा करते हुए उन्हें ऐसा विचार, चिन्तन, मानसिक संकल्प उत्पन्न हुआ कि-शैलक राजर्षि राज्य आदि का त्याग करके दीक्षित हुए, किन्तु अब विपुल, अशन, पान, खादिम और स्वादिम में तथा मद्यपान में मूर्च्छित हो गए हैं । वह जनपद-विहार करने में समर्थ नहीं है । हे देवानुप्रियो ! श्रमणों को प्रमादी होकर रहना नहीं कल्पता है । हमारे लिए वह श्रेयस्कर है कि कल शैलकराजर्षि से आज्ञा लेकर और पडिहारी पीठ फलग शय्या एवं संस्तारक वापिस सौंपकर, पंथक अनगार को शैलक अनगार का वैयावृत्त्यकारी स्थापित करके बाहर जनपद में अभ्युद्यत विचरण करें ।' उन मुनियों ने ऐसा विचार करके, कल शैलक राजर्षि के समीप जाकर, उनकी आज्ञा लेकर, प्रतिहारी पीठ फलक शय्या संस्तारक वापिस दे दिए | पंथक अनगार को वैयावृत्त्यकारी नियुक्त कियाउनको सेवा में रखा । रखकर बाहर देश-देशान्तर में विचरने लगे। सूत्र-७१ तब वह पंथक अनगार शैलक राजर्षि की शय्या, संस्तारक, उच्चार, प्रस्रवण, श्लेष्म, संघाण के पात्र, औषध, भेषज, आहार, पानी आदि से बिना ग्लानि, विनयपूर्वक वैयावृत्य करने लगे । उस समय पंथक मुनि ने कार्तिक की चौमासी के दिन कायोत्सर्ग करके दैवसिक प्रतिक्रमण करके, चातुर्मासिक प्रतिक्रमण करने की ईच्छा से शैलक राजर्षि को खमाने के लिए अपने मस्तक से उनके चरणों को स्पर्श किया । पंथक के द्वारा मस्तक से चरणों का स्पर्श करने पर शैलक राजर्षि एकदम क्रुद्ध हए, यावत् क्रोध से मिसमिसाने लगे और उठ गए । उठकर बोले-'अरे, कौन है यह अप्रार्थित की ईच्छा रखने वाला, यावत् सर्वथा शून्य, जिसने सुखपूर्वक सोये हुए मेरे पैरों का स्पर्श किया ? मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 60 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक शैलक ऋषि के इस प्रकार कहने पर पंथक मुनि भयभीत हो गए, त्रास को और खेद को प्राप्त हए । दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि करके कहने लगे-'भगवन् ! मैं पंथक हूँ | मैंने कायोत्सर्ग करके दैवसिक प्रतिक्रमण किया है और चौमासी प्रतिक्रमण करता हूँ । अत एव चौमासी क्षमापना के लिए आप देवानुप्रिय को वन्दना करते समय, मैंने अपने मस्तक से आपके चरणों का स्पर्श किया है । सो देवानुप्रिय ! क्षमा कीजिए, मेरा अपराध क्षमा कीजिए । देवानुप्रिय ! फिर ऐसा नहीं करूँगा।' शैलक अनगार को सम्यक् रूप से, विनयपूर्वक इस अर्थ के लिए वे पुनः पुनः खमाने लगे | पंथक के द्वारा इस प्रकार कहने पर उन शैलक राजर्षि को यह विचार उत्पन्न हुआ-'मैं राज्य आदि का त्याग करके भी यावत् अवसन्न-आलसी आदि होकर शेष काल में भी पीठ, फलक आदि रखकर विचर रहा हूँ-रह रहा हूँ। श्रमण निर्ग्रन्थों को पार्श्वस्थ-शिथिलाचारी कोर रहना नहीं कल्पता । अत एव कल मंडुक राजा से पूछकर, पडिहारी पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक वापिस देकर, पंथक अनगार के साथ, बाहर अभ्युद्यत विहार से विचरना ही मेरे लिए श्रेयस्कर है ।' उन्होंने ऐसा विचार किया । विचार करके दूसरे दिन यावत् उसी प्रकार करके विहार कर दिया। सूत्र - ७२ हे आयुष्मन् श्रमणों ! इसी प्रकार जो साधु या साध्वी आलसी होकर, संस्तारक आदि के विषय में प्रमादी होकर रहता है, वह इसी लोक में बहुत-से श्रमणों, बहुत-सी श्रमणियों, बहुत-से श्रावकों और बहुत-सी श्राविकाओं की हीलना का पात्र होता है । यावत् वह चिरकाल पर्यन्त संसार-भ्रमण करता है । तत्पश्चात् पंथक को छोड़कर पाँच सौ अनगारों ने यह वृत्तान्त जाना । तब उन्होंने एक-दूसरे को बुलाया । बुलाकर इस प्रकार कहा-'शैलक राजर्षि पंथक मुनि के साथ बाहर यावत् उग्र विहार कर रहे हैं तो हे देवानुप्रियो ! अब हमें शैलक राजर्षि के समीप | उचित है। उन्होंने ऐसा विचार किया। विचार करके राजर्षि शैलक के निकट जाकर विचरने लगे। तत्पश्चात् शैलक प्रभृति पाँच सौ मुनि बहुत वर्षों तक संयमपर्याय पाल कर जहाँ पुंडरीक शत्रुजय पर्वत था, वहाँ आए । आकर थावच्चापुत्र की भाँति शुद्ध हुए। सूत्र - ७३ इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो साधु या साध्वी इस तरह विचरेगा वह इस लोक में बहुसंख्यक साधुओं, साध्वीयों, श्रावकों और श्राविकाओं के द्वारा अर्चनीय, वन्दनीय, नमनीय, पूजनीय, सत्कारणीय और सम्माननीय होगा । कल्याण, मंगल, देव और चैत्य स्वरूप होगा । विनयपूर्वक उपासनीय होगा । परलोक में उसे हाथ, कान एवं नासिका के छेदन के, हृदय तथा वषणों के उत्पाटन के एवं फाँसी आदि के दःख नहीं भोगने पडेंगे। अनादि अनन्त चातुर्गतिक संसार-कान्तार में उसे परिभ्रमण नहीं करना पड़ेगा । वह सिद्धि प्राप्त करेगा । हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने पाँचवे ज्ञात अध्ययन का यह अर्थ कहा है। उनके कथनानुसार मैं कहता हूँ। अध्ययन-५ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 61 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-६ - तुम्ब सूत्र -७४ भगवन् ! श्रमण यावत् सिद्धि को प्राप्त भगवान महावीर ने छठे ज्ञाताध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? जम्बू! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था । उस राजगृह नगर में श्रेणिक नामक राजा था । उस राजगृह नगर के बाहर ईशानकोण में गुणशील नामक चैत्य था । उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर अनक्रम से विचरते हए, यावत जहाँ राजगह नगर था और जहाँ गणशील चैत्य था, वहाँ पधारे । यथायोग्य अवग्रहण करके संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे । भगवान को वन्दना करने के लिए परीषद् नीकली। श्रेणिक राजा भी नीकला । भगवान ने धर्मदेशना दी। उसे सूनकर परीषद् वापिस चली गई। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ शिष्य इन्द्रभूति नामक अनगार श्रमण भगवान महावीर से न अधिक दूर और न अधिक समीप स्थान पर रहे हए यावत निर्मल उत्तम ध्यान में लीन होकर विचर रहे थे । तत्पश्चात् जिन्हें श्रद्धा उत्पन्न हुई है ऐसे इन्द्रभूति अनगार ने श्रमण भगवान महावीर से इस प्रकार प्रश्न किया-'भगवन् ! किस प्रकार जीव शीघ्र ही गुरुता अथवा लघुता को प्राप्त होते हैं ?' गौतम ! यथानामक, कोई पुरुष एक बड़े, सूखे, छिद्ररहित और अखंडित तुम्बे को दर्भ से और कुश से लपेटे और फिर मिट्टी के लेप से लीपे, फिर धूप में रख दे । सूख जाने पर दूसरी बार दर्भ और कुश से लपेटे और मिट्टी के लेप से लीप दे । लीप कर धूप में सूख जाने पर तीसरी बार दर्भ और कुश में लपेटे और लपेट कर मिट्टी का लेप चढ़ा दे । सूखा ले । इसी प्रकार, इसी उपाय से बीच-बीच में दर्भ और कुश से लपेटता जाए, बीच-बीच में लेप चढ़ाता जाए और बीच-बीच में सूखाता जाए, यावत् आठ मिट्टी के लेप तुम्बे पर चढ़ावे । फिर उसे अथाह, और अपौरुषिक जल में डाल दिया जाए । तो निश्चय ही हे गौतम ! वह तुम्बा मिट्टी के आठ लेपों के कारण गुरुता को प्राप्त होकर, भारी होकर तथा गुरु एवं भारी हुआ ऊपर रहे हुए जल को पार करके नीचे धरती के तलभाग में स्थित हो जाता है । इसी प्रकार हे गौतम ! जीव भी प्राणातिपात से यावत् मिथ्यादर्शन शल्य से क्रमशः आठ कर्मप्रकृतियों का उपार्जन करते हैं । उस कर्मप्रकृतियों की गुरुता के कारण, भारीपन के कारण और गुरुता के कारण मृत्यु को प्राप्त होकर, इस पृथ्वी-तल को लाँघ कर नीचे नरक-तल में स्थित होते हैं । इस प्रकार गौतम ! जीव शीघ्र गुरुत्व को प्राप्त होते हैं। ___ अब हे गौतम ! उस तुम्बे का पहला मिट्टी का लेप गीला हो जाए, गल जाए और परिशटित हो जाए तो वह तुम्बा पृथ्वीतल से कुछ ऊपर आकर ठहरता है । तदनन्तर दूसरा मृत्तिकालेप गीला हो जाए, गल जाए और हट जाए तो तुम्बा कुछ और ऊपर आता है । इस प्रकार, इस उपाय से उन आठों मृत्तिकालेपों के गीले हो जान यावत् हट जाने पर तुम्बा निर्लेप, बंधनमुक्त होकर धरणीतल से ऊपर जल की सतह पर आकर स्थित हो जाता है। इसी प्रकार, हे गौतम ! प्राणातिपातविरमण यावत् मिथ्यादर्शनशल्यविरमण से जीव क्रमशः आठ कर्मप्रकृतियों का क्षय करके ऊपर आकाशतल की ओर उड़ कर लोकाग्र भाग में स्थित हो जाते हैं । इस प्रकार हे गौतम ! जीव शीघ्र लघुत्व को प्राप्त करते हैं । हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने छठे ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है । वही मैं तुमसे कहता हूँ। अध्ययन-६ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 62 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक अध्ययन-७ - रोहिणी सूत्र - ७५ भगवन् ! यदि श्रमण यावत् निर्वाणप्राप्त भगवान महावीर ने छठे ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है तो भगवन् ! सातवें ज्ञात-अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। उस राजगृह नगर में श्रेणिक राजा था । राजगृह नगर के बाहर ईशानकोण में सुभूमिभाग उद्यान था । उस राजगृह नगर में धन्य नामक सार्थवाह निवास करता था, वह समृद्धिशाली था, वह किसीसे पराभूत होने वाला नहीं था । उस धन्य-सार्थवाह की भद्रा नामक भार्या थी । उसकी पाँचों इन्द्रियों और शरीर के अवयव परिपूर्ण थे, यावत् वह सुन्दर रूप वाली थी । उस धन्य-सार्थवाह के पुत्र और भद्रा भार्या के आत्मज चार सार्थवाह-पुत्र थे । धनपाल, धनदेव, धनगोप, धनरक्षित । उस धन्य-सार्थवाह की चार पुत्रवधूएं थीं । उज्झिका, भोगवती, रक्षिका और रोहिणी धन्य-सार्थवाह को किसी समय मध्य रात्रि में इस प्रकार का अध्यवसाय उत्पन्न हुआ निश्चय ही मैं राजगृह नगर में राजा, ईश्वर, तलवर, माडंबिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह आदि-आदि के और अपने कुटुम्ब के भी अनेक कार्यों में, करणीयों में, कुटुम्ब सम्बन्धी कार्यों में, मंत्रणाओं में, गुप्त बातों में, रहस्यमय बातों में, निश्चय करने में, व्यवहारों में, पूछने योग्य, बारबार पूछने योग्य, मेढ़ी के समान, प्रमाणभूत, आधार, आलम्बन, चक्षु के समान पथदर्शनक, मेढ़ीभूत और सब कार्यों की प्रवृत्ति करने वाला हूँ। परन्तु न जाने मेरे कहीं दूसरी जगह चले जाने पर, किसी अनाचार के कारण अपने स्थान से च्युत हो जाने पर, मर जाने पर, भग्न हो जाने पर, रुग्ण हो जाने पर, विशीर्ण हो जाने पर, पड़ जाने पर, परदेश में जाकर रहने पर अथवा मेरे कुटुम्ब का पृथ्वी की तरह आधार, रस्सी के समान अवलम्बन और बुहारू की सलाइयों के समान प्रतिबन्ध करने वाला, कौन होगा ? अत एव मेरे लिए यह उचित होगा कि कल यावत् सूर्योदय होने पर विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम-तैयार करवा कर मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजनों आदि को तथा चारों बंधुओं के कुलगृह के समुदाय को आमंत्रित करके और उन मित्र ज्ञाति निजक स्वजन आदि तथा चारों पुत्रवधूओं के कुलगृह-वर्ग का अशन, पान, खादिम, स्वादिम से तथा धूप, पुष्प, वस्त्र, गंध, माला, अलंकार आदि से सत्कार करके, सम्मान करके, उन्हीं मित्र ज्ञाति आदि के समक्ष तथा चारों पुत्रवधुओं के कुलगहवर्ग के समक्ष पुत्रवधुओं की परीक्षा करने के लिए पाँच-पाँच शालि-अक्षत दूँ। उससे जान सकूँगा कि कौन पुत्रवधू किस प्रकार उनकी रक्षा करती है, सार-सम्भाल रखती है या बढ़ाती है ? धन्य सार्थवाह ने इस प्रकार विचार करके दूसरे दिन मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी जनों तथा परिजनों को तथा चारों पुत्रवधूओं के कुलगृह वर्ग को आमंत्रित किया । आमंत्रित करके विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाया । उसके बाद धन्य-सार्थवाह ने स्नान किया । वह भोजन-मंडप में उत्तम सुखासन पर बैठा । फिर मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी एवं परिजनों आदि के तथा चारों पुत्रवधूओं के कुलगृह वर्ग के साथ उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम का भोजन करके, यावत् उन सबका सत्कार किया, सम्मान किया, उन्हीं मित्रों, ज्ञातिजनों आदि के तथा चारों पुत्रवधूओं के कुलगृह वर्ग के सामने पाँच चावल के दाने लिए। लेकर जेठी कुलवधू उज्झिका को बुलाया । इस प्रकार कहा-'हे पुत्री ! तुम मेरे हाथ से यह पाँच चावल के दानें लो। इन्हें लेकर अनुक्रम से इनका संरक्षण और संगोपन करती रहना । हे पुत्री ! जब मैं तुमसे यह पाँच चावल के दाने माँगू, तब तुम यही पाँच चावल के दाने मुझे वापिस लौटाना। उस प्रकार कहकर पुत्रवधू उज्झिका के हाथ में वह दाने दे दिए । देकर उसे बिदा किया। धन्य-सार्थवाह के हाथ से पाँच शालिअक्षत ग्रहण किये । एकांत में गई । वहाँ जाकर उसे इस प्रकार का विचार, चिन्तन, प्रार्थित एवं मानसिक संकल्प उत्पन्न हुआ- निश्चय ही पिता के कोठार में शालि से भरे हुए बहुत से पल्य विद्यमान हैं । सो जब पिता मुझसे यह पाँच शालि अक्षत मांगेंगे, तब मैं किसी पल्य से दूसरे शालि-अक्षत लेकर दे दूंगी।' उसने ऐसा विचार करके उन पाँच चावल के दानों को एकान्त में डाल दिया और डाल कर अपने काम में लग गई । इसी प्रकार दूसरी पुत्रवधू भोगवती को भी बुलाकर पाँच दाने दिए, इत्यादि । विशेष यह है कि मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 63 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक उसने वह दाने छीले और छीलकर निगल गई । निगलकर अपने काम में लग गई । इसी प्रकार तीसरी रक्षिका के सम्बन्ध में जानना । विशेषता यह है कि उसने वह दाने लिए । लेने पर उसे यह विचार उत्पन्न हुआ कि मेरे पिता ने मित्र ज्ञाति आदि के तथा चारों बहुओं के कुलगृह वर्ग के सामने मुझे बुलाकर यह कहा है कि-'पुत्री ! तुम मेरे हाथ से यह पाँच दाने लो, यावत् जब मैं माँगू तो लौटा देना । तो इसमें कोई कारण होना चाहिए। विचार करके वे चावल के पाँच दाने शुद्ध वस्त्र में बाँधे । बाँधकर रत्नों की डिबियाँ में रख लिए, रखकर सिरहाने के नीचे स्थापित किए और प्रातः मध्याह्न तथा सायंकाल-इन तीनों संध्याओं के समय उनकी सार-सम्भाल करती हुई रहने लगी। तत्पश्चात् धन्य-सार्थवाह ने उन्हीं मित्रों आदि के समक्ष चौथी पुत्रवधू रोहिणी को बुलाया । बुलाकर उसे भी वैसा ही कहकर पाँच दाने दिए । यावत् उसने सोचा-'इस प्रकार पाँच दाने देने में कोई कारण होना चाहिए । अत एव मेरे लिए उचित है कि इन पाँच चावल के दानों का संरक्षण करूँ, संगोपन करूँ और इनकी वद्धि करूँ। उसने ऐसा विचार किया। विचार करके अपने कलगह के पुरुषों को बुलाया और बलाकर इस प्रकार कहा-'देवानप्रियो ! तुम इन पाँच शालि-अक्षतों को ग्रहण करो । ग्रहण करके पहली वर्षाऋतु में अर्थात वर्षा के आरम्भ में जब खूब वर्षा हो, तब एक छोटी-सी क्यारी को अच्छी तरह साफ करना । साफ करके ये पाँच दाने बो देना । बोकर दो-तीन बार उत्क्षेप-निक्षेप करना अर्थात् एक जगह से उखाड़ कर दूसरी जगह रोपना । फिर क्यारी के चारों ओर बाड़ लगाना । इनकी रक्षा और संगोपना करते हुए अनुक्रम से इन्हें बढ़ाना । उन कौटम्बिक पुरुषों ने रोहिणी के आदेश को स्वीकार किया। उन चावल के पाँच दानों को ग्रहण किया। अनुक्रम से उनका संरक्षण, संगोपन करते हुए रहने लगे। उन कौटुम्बिक पुरुषों ने वर्षाऋतु के प्रारम्भ में महावृष्टि पड़ने पर छोटी-सी क्यारी साफ की । पाँच चावल के दाने बोये । बोकर दूसरी और तीसरी बार उनका उत्क्षेपनिक्षेप किया, बाड़ लगाई। फिर अनुक्रम से संरक्षण, संगोपन और संवर्धन करते हुए विचरने लगे । संरक्षित, संगोपित और संवर्धित किये जाते हुए वे शालि-अक्षत अनुक्रम से शालि हो गए । वे श्याम कान्ति वाले यावत् निकुरंबभूत-होकर प्रसन्नता प्रदान करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हो गए । उन शालि पौधों में पत्ते आ गए, वे वर्तित-हो गए, छाल वाले हो गए, गर्भित हो गए, प्रसूत हुए, सुगन्ध वाले हुए, बद्धफल हुए, पक गए, तैयार हो गए, शल्यकित हुए, पत्रकित हुए और हरितपर्वकाण्ड हो गए। इस प्रकार वे शालि उत्पन्न हुए। तत्पश्चात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने वह शालि पत्र वाले यावत् शलाका वाले तथा विरल पत्र वाले जान कर तीखे और पजाये हए हँसियों से काटे, काटकर उनका हथेलियों से मर्दन किया । साफ किया । निर्मल, शचि-पवित्र, अखंड और अस्फटिक-बिना टटे-फटे और सुप से झटक-झटक कर साफ किये हए हो वे मगध देश में प्रसिद्ध एक प्रस्थक प्रमाण हो गए । तत्पश्चात कौटम्बिक पुरुषों ने उन प्रस्थ-प्रमाण शालिअक्षतों को नवीन घड़े में भरा । भरकर उसके मुख पर मिट्टी का लेप कर दिया । लेप करके उसे लांछित-मुद्रित किया-उस पर सील लगा दी । फिर उसे कोठार के एक भाग में रख दिया । रखकर उसका संरक्षण और संगोपन करने लगे। तत्पश्चात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने दूसरी वर्षाऋतु में वर्षाकाल के प्रारम्भ में महावृष्टि पड़ने पर एक छोटी क्यारी को साफ किया । वे शालि बो दिए । दूसरी बार और तीसरी बार उनका उत्क्षेप-निक्षेप किया । यावत् लुनाई की । यावत पैरों के तलुओं से उनका मर्दन किया, साफ किया । अब शालि के बहत-से कुडव हो गए, यावत उन्हें कोठार के एक भाग में रख दिया । कोठार में रखकर उनका संरक्षण और संगोपन करते हुए विचरने लगे । तत्पश्चात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने तीसरी बार वर्षाऋतु में महावृष्टि होने पर बहुत-सी क्यारियाँ अच्छी तरह साफ की । यावत् उन्हें बोकर काट लिया । यावत् अब वे बहुत-से कुम्भ प्रमाण शालि हो गए । तत्पश्चात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने वह शालि कोठार में रखे, यावत् उनकी रक्षा करने लगे । चौथी वर्षाऋतु में इसी प्रकार करने से सैकड़ों कुम्भ प्रमाण शालि हो गए। तत्पश्चात् जब पाँचवा वर्ष चल रहा था, तब धन्य सार्थवाह को मध्य रात्रि के समय इस प्रकार का विचार यावत् उत्पन्न हुआ-मैंने इससे पहले के-अतीत पाँचवे वर्ष में चारों पुत्रवधूओं को परीक्षा करने के निमित्त, पाँच मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 64 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक चावल के दाने उनके हाथ में दिए थे । तो कल यावत् सूर्योदय होन पर पाँच चावल के दाने माँगना मेरे लिए उचित होगा । यावत् जानूं तो सही कि किसने किस प्रकार उनका संरक्षण, संगोपन और संवर्धन किया है ? धन्यसार्थवाह ने दूसरे दिन सूर्योदय होने पर विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम बनवाया । मित्रों, ज्ञातिजनों आदि तथा चारों पुत्रवधूओं के कुलगृहवर्ग के समक्ष जेठी पुत्रवधू उज्झिका को बुलाया और बुलाकर इस प्रकार कहा-'हे पुत्री! अतीत-विगत पाँचवे संवत्सर में अर्थात् अब से पाँच वर्ष पहले इन्हीं मित्रों, ज्ञातिजनों आदि तथा चारों पुत्रवधूओं के कुलगृह वर्ग के समक्ष मैंने तुम्हारे हाथ में पाँच शालि-अक्षत दिये थे और यह कहा था कि-'हे पुत्री ! जब मैं ये पाँच शालिअक्षत माँगू, तब तुम मेरे ये पाँच शालिअक्षत मुझे वापिस सौंपना । तो यह अर्थ समर्थ है ? उज्झिका ने कहा-'हाँ, सत्य है।' धन्य सार्थवाह बोले-'तो हे पुत्री ! मेरे वह शालिअक्षत वापिस दो।' तत्पश्चात् उज्झिका ने धन्य सार्थवाह की यह बात स्वीकार की । पल्य में से पाँच शालिअक्षत ग्रहण करके धन्य सार्थवाह के समीप आकर बोली- ये हैं वे शालिअक्षत ।' यों कहकर धन्य सार्थवाह के हाथ में पाँच शालि के दाने दे दिए । तब धन्य सार्थवाह ने उज्झिका को सौगन्ध दिलाई और कहा-'पुत्री ! क्या वही ये शालि के दाने हैं, अथवा ये दूसरे हैं ?' तब उज्झिका ने धन्य सार्थवाह से इस प्रकार कहा-'हे तात ! इससे पहले के पाँचवे वर्ष में इन मित्रों एवं ज्ञातिजनों के तथा चारों पुत्रवधूअं के कुलगृह वर्ग के सामने पाँच दाने देकर इनका संरक्षण, संगोपन और संवधर्न करती हुई विचरना' ऐसा आपने कहा था । उस समय मैंने आपकी बात स्वीकार की थी । वे पाँच शालि के दाने ग्रहण किये और एकान्त में चली गई। तब मुझे इस तरह का विचार उत्पन्न हुआ कि पिताजी के कोठार में बहुत से शालि भरे हैं, जब माँगेंगे तो दे दूँगी। ऐसा विचार करके मैंने वह दाने फेंक दिए और अपने काम में लग गई । अत एव हे तात ! ये वही शालि के दाने नहीं हैं । ये दूसरे हैं।' धन्य सार्थवाह उज्झिका से यह अर्थ सूनकर और हृदय में धारण करके क्रुद्ध हुए, कुपित हुए, उग्र हुए और क्रोध में आकर मिसमिसाने लगे । उज्झिका को उन मित्रों, ज्ञातिजनों आदि के तथा चारों पुत्रवधूओं के कुलगृह वर्ग के सामने कुलगृह की राख फेंकने वाली, छाणे डालने या थापने वाली, कचरा झाड़ने वाली, पैर धोने का पानी देने वाली, स्नान के लिए पानी देने वाली और बाहर के दासी के कार्य करने वाली के रूप में नियुक्त किया । इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो साधु अथवा साध्वी यावत् आचार्य अथवा उपाध्याय के निकट गृहत्याग करके और प्रव्रज्या लेकर पाँच महाव्रतों का परित्याग कर देता है, वह उज्झिका की तरह इसी भव में बहुत-से श्रमणों, बहुतसी श्रमणियों, बहुत-से श्रावकों और बहुत-सी श्राविकाओं की अवहेलना का पात्र बनता है, यावत् अनन्त संसार में पर्यटन करेगा। इसी प्रकार भोगवती के विषय में जानना चाहिए । विशेषता यह कि खांड़ने वाली, कूटने वाली, पीसने वाली, जांते में दल कर धान्य के छिलके उतारने वाली, रांधने वाली, परोसने वाली, त्यौहारों के प्रसंग पर स्वजनों के घर जाकर ल्हावणी बाँटने वाली, घर में भीतर की दासी का काम करने वाली एवं रसोईदारिन का कार्य करने वाली के रूप में नियुक्त किया । इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो साधु अथवा साध्वी पाँच महाव्रतों को फोड़ने वाला वह इसी भव में बहुत-से साधुओं, बहुत-सी साध्वीयों, बहुत-से श्रावकों और बहुत-सी श्राविकाओं की अवहेलना का पात्र बनता है, जैसे वह भोगवती। इस प्रकार रक्षिका के विषय में जानना चाहिए । विशेष यह है कि वह जहाँ उसका निवासगृह था, वहाँ गई। कर उसने मंजूषा खोली । खोलकर रत्न की डिबियाँ में से वह पाँच शालि के दाने ग्रहण किए । ग्रहण करके जहाँ धन्य-सार्थवाह था, वहाँ आई । आकर धन्य-सार्थवाह के हाथ में वे शालि के पाँच दाने दे दिए । उस समय धन्य सार्थवाह ने रक्षिका से इस प्रकार कहा-'हे पुत्री ! क्या यह वहीं पाँच शालि-अक्षत हैं या दूसरे हैं ?' रक्षिका ने धन्यसार्थवाह को उत्तर दिया-'तात ! ये वही शालिअक्षत हैं । धन्य ने पूछा-'पुत्री ! कैसे ?' रक्षिका बोली-'तात ! आपने इससे पहले पाँचवे वर्ष में शालि के पाँच दाने दिये थे । तब इन पाँच शालि के दानों को शुद्ध वस्त्र में बाँधा, यावत् तीनों संध्याओं में सार-सम्भाल करती रहती हूँ। अत एव हे तात ! ये वही शालि के दाने हैं, दूसरे नहीं। तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह रक्षिका से यह अर्थ सूनकर हर्षित और सन्तुष्ट हुआ । उसे अपने घर के हिरण्य मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 65 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक की, कांसा आदि बर्तनों की, दूष्य-रेशमी आदि मूल्यवान वस्त्रों की, विपुल धन, धान्य, कनक, रत्न, मणि, मुक्त, शंख, शिला, प्रवाल लाल-रत्न आदि स्वापतेय की भाण्डामारिणी नियुक्त कर दिया । इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! यावत् (दीक्षित होकर) जो साधु या साध्वी पाँच महाव्रतों की रक्षा करता है, वह इसी भव में बहुत-से साधुओं, बहुत-सी साध्वीयों, बहुत-से श्रावकों और बहुत-सी श्राविकाओं का अर्चनीय होता है, वन्दनीय, पूजनीय, सत्कारणीय, सम्माननीय होता है, जैसे वह रक्षिका । रोहिणी के विषय में भी ऐसा ही कहना चाहिए । विशेष यह है कि जब धन्य सार्थवाह ने उनसे पाँच दाने माँगे तो उसने कहा-'तात ! आप मुझे बहत-से गाडे-गाडियाँ दो, जिससे मैं आपको वह पाँच शालि के दाने लौटाऊं।' तब रोहिणी ने धन्य सार्थवाह से कहा-'तात ! इससे पहले के पाँच वर्ष में इन्हीं मित्रों, ज्ञातिजनों आदि के समक्ष आपने पाँच दाने दिए थे । यावत् वे अब सैकड़ों कुम्भ प्रमाण हो गए हैं, इत्यादि पूर्वोक्त दानों की खेती करने, संभालने आदि का वृत्तान्त दोहरा लेना चाहिए । इस प्रकार हे तात ! मैं आपको वह पाँच शालि के दाने गाड़ागाड़ियों में भर कर देती हूँ।' धन्य सार्थवाह ने रोहिणी को बहत-से छकडा-छकडी दिए । रोहिणी अपने कुलगह आई। कोठार खोला। पल्य उघाड़े, छकड़ा-छकड़ी भरे । भरकर राजगृह नगर के मध्य भाग में होकर जहाँ अपना घर था और जहाँ धन्य सार्थवाह था, वहाँ आ पहुँची । तब राजगृह नगर में शृंगाटक आदि मार्गों में बहुत से लोग आपस में इस प्रकार प्रशंसा करने लगे-धन्य सार्थवाह धन्य है, जिसकी पुत्रवधू रोहिणी है, जिसने पाँच शालि के दाने छकड़ा-छकड़ियों में भर कर लौटाए । धन्य-सार्थवाह उन पाँच शालि के दानों को छकड़ा-छकड़ियों द्वारा लौटाए देखता है । हुष्ट-तुष्ट होकर उन्हें स्वीकार करके उसने उन्हीं मित्रों एवं ज्ञातिजनों, निजजनों, स्वजनों, सम्बन्धीजनों तथा परिजनों के सामने तथा चारों पुत्रवधूओं के कुलगृह वर्ग के समक्ष रोहिणी पुत्रवधू को उस कुलगृह वर्ग के अनेक कार्यों में यावत् रहस्यों में पूछने योग्य यावत् गृह का कार्य चलाने वाली और प्रमाणभूत नियुक्त किया। इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो साधु-साध्वी आचार्य या उपाध्याय के निकट दीक्षित होकर, अपने पाँच महाव्रतों में वृद्धि करते हैं उन्हें उत्तरोत्तर अधिक निर्मल बनाते हैं, वे इसी भव में बहुत-से श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों और श्राविकाओं के पूज्य होकर यावत् संसार से मुक्त हो जाते हैं जैसे वह रोहिणी बहुजनों की प्रशंसापात्र । हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने सातवे ज्ञातअध्ययन का यह अर्थ कहा है। वही मैंने तुमसे कहा है। अध्ययन-७ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 66 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक अध्ययन-८ - मल्ली सूत्र - ७६ 'भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने सातवे ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है, तो आठवे अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ?' 'हे जम्बू ! उस काल और उस समय में, इसी जम्बूद्वीप में महाविदेह नामक वर्ष में, मेरु पर्वत से पश्चिम में, निषध नामक वर्षधर पर्वत से उत्तर में, शीतोदा महानदी से दक्षिण में, सुखावह नामक वक्षार पर्वत से पश्चिम में और पश्चिम लवणसमुद्र से पूर्व में इस स्थान पर, सलिलावती नामक विजय है । उसमें वीतशोका नामक राजधानी है । वह नौ योजन चौड़ी, यावत् साक्षात देवलोक के समान थी । उस वीतशोका राजधानी के ईशान दिशा के भाग में इन्द्रकुम्भ उद्यान था । बल नामक राजा था । बल राजा के अन्तःपुर में धारिणी प्रभृति एक हजार देवियाँ थीं। वह धारिणी देवी किसी समय स्वप्न में सिंह को देखकर जागृत हुई । यावत् यथासमय महाबल नामक पुत्र का जन्म हुआ । वह बालक क्रमशः बाल्यावस्था को पार कर भोग भोगने में समर्थ हो गया । तब माता-पिता ने समान रूप एवं वय वाली कमलश्री आदि पाँच सौ श्रेष्ठ राजकुमारियों के साथ, एक ही दिन में महाबल का पाणिग्रहण कराया । पाँच सौ प्रासाद आदि पाँच-पाँच सौ का दहेज दिया । यावत् महाबल कुमार मनुष्य सम्बन्धी कामभोग भोगता हआ रहने लगा । उस काल और उस समय में धर्मघोष नामक स्थविर पाँच सौ शिष्यों से परिवृत्त होकर अनुक्रम से विचरते हुए, एक ग्राम से दूसरे ग्राम गमन करते हुए, सुखे-सुखे विहार करते हुए, इन्द्रकुम्भ उद्यान पधारे और संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए वहाँ ठहरे । स्थविर मुनिराज को वन्दना करने के लिए जनसमूह नीकला । बल राजा भी नीकला । धर्म सूनकर राजा को वैराग्य उत्पन्न हुआ । विशेष यह कि उनसे महाबल कुमार को राज्य पर प्रतिष्ठित किया । प्रतिष्ठित करके स्वयं ही बल राजा ने आकर स्थविर के निकट प्रव्रज्या अंगीकार की। वह ग्यारह अंगो के वेत्ता हए । बहत वर्षों तक संयम पालकर चारुपर्वत गए । एक मास का निर्जल अनशन करके केवलज्ञान प्राप्त करके यावत् सिद्ध हुए। तत्पश्चात् अन्यदा कदाचित् कमलश्री स्वप्न में सिंह को देखकर जागृत हुआ । बलभद्र कुमार का जन्म हुआ। वह युवराज भी हो गया । उस महाबल राजा के छह राजा बालमित्र थे । अचल, धरण, पूरण, वसु, वैश्रमण, अभिचन्द्र । वे साथ ही जन्मे थे, साथ ही वृद्धि को प्राप्त हुए थे, साथ ही धूल में खेले थे, साथ ही विवाहित हुए थे, एक दूसरे पर अनगार रखते थे, अनुसरण करते थे, अभिप्राय का आदर करते थे, हृदय की अभिलाषा के अनुसार कार्य करते थे, एक-दूसरे के राज्यों में काम-काज करते हुए रह रहे थे । एक बार किसी समय वे सब राजा इकट्ठे हुए, एक जगह मिले, एक स्थान पर आसीन हुए । तब उनमें इस प्रकार का वार्तालाप हुआ-'देवानुप्रिय ! जब कभी हमारे लिए सुख का, दुःख का, दीक्षा का अथवा विदेशगमन का प्रसंग उपस्थित हो तो हमें सभी अवसरों पर साथ ही रहना चाहिए । साथ ही आत्मा का निस्तार करना-आत्मा को संसार सागर से तारना चाहिए, ऐसा निर्णय करके परस्पर में इस अर्थ को अंगीकार किया था । वे सुखपूर्वक रह रहे थे। उस काल और उस समय में धर्मघोष नामक स्थविर जहाँ इन्द्रकुम्भ उद्यान था, वहाँ पधारे । परीषद् वंदना करने के लिए नीकली । महाबल राजा भी नीकला । स्थविर महाराज ने धर्म कहा-महाबल राजा को धर्म श्रवण करके वैराग्य उत्पन्न हुआ । विशेष यह कि राजा ने कहा-'हे देवानुप्रिय ! मैं अपने छहों बालमित्रों से पूछ लेता हूँ और बलभद्र कुमार को राज्य पर स्थापित कर देता हूँ, फिर दीक्षा अंगीकार करूँगा ।' यावत् इस प्रकार कहकर उसने छहों बालमित्रों से पूछा । तब वे छहों बालमित्र महाबल के राजा से कहने लगे-देवानुप्रिय ! यदि तुम प्रव्रजित होते हो तो हमारे लिए अन्य कौन-सा आधार है ? यावत् अथवा आलंबन है, हम भी दीक्षित होते हैं । तत्पश्चात् महाबल राजा ने उन छहों बालमित्रों से कहा-देवानप्रियो ! यदि तम मेरे साथ प्रव्रजित होते हो तो तम जाओ और अपने-अपने ज्येष्ठ पुत्रों को अपने-अपने राज्य पर प्रतिष्ठित करो और फिर हजार पुरुषों द्वारा वहन करने योग्य शिबिकाओं पर आरूढ़ होकर यहाँ प्रकट होओ।' तब छहों बालमित्र गये और अपने-अपने ज्येष्ठ पुत्रों को मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 67 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक राज्यासीन करके यावत् महाबल राजा के समीप आ गए। तब महाबल राजा ने छहों बालमित्रों को आया देखा । वह हर्षित और संतुष्ट हुआ । उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा-'देवानुप्रियो ! जाओ और बलभद्र कुमार का महान् राज्याभिषेक से अभिषेक करो ।' यह आदेश सूनकर उन्होंने उसी प्रकार किया यावत् बलभद्रकुमार का अभिषेक किया । महाबल राजा ने बलभद्र कुमार से, जो अब राजा हो गया था, दीक्षा की आज्ञा ली । फिर महाबल अचल आदि छहों बालमित्रों के साथ हजार पुरुषों द्वारा वहन करने योग्य शिबिका पर आरूढ़ होकर, वीतशोका नगरी के बीचोंबीच होकर इन्द्रकुम्भ उद्यान था और जहाँ स्थविर भगवंत थे, वहाँ आए । उन्होंने भी स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच किया । यावत् दीक्षित हुए। ग्यारह अंगों का अध्ययन करके, बहुत से उपवास, बेला, तेला आदि तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। तत्पश्चात वे महाबल आदि सातों अनगार किसी समय इकटे हए । उस समय उनमें परस्पर इस प्रकार बातचीत हुई-हे देवानुप्रियो ! हम लोगों में से एक जिस तप को अंगीकार करके विचरे हम सब को एक साथ वही तपःक्रिया ग्रहण करके विचरना उचित है । सबने यह बात अंगीकार की । अंगीकार करके अनेक चतुर्थभक्त, यावत् तपस्या करते हुए विचरने लगे । तत्पश्चात् उन महाबल अनगार ने इस कारण से स्त्रीनामगोत्र कर्म का उपार्जन किया-यदि वे महाबल को छोड़कर शेष छह अनगार चतुर्थभक्त ग्रहण करके विचरते, तो महाबल अनगार षष्ठभक्त ग्रहण करके विचरते । अगर महाबल के सिवाय छह अनगार षष्ठभक्त अंगीकार करके विचरते तो महाबल अनगार अष्टभक्त ग्रहण करके विचरते । इस प्रकार अपने साथी मुनियों से छिपाकर-कपट करके महाबल अधिक तप करते थे। सूत्र - ७७-७९ अरिहंत, सिद्ध, प्रवचन, गुरु, स्थविर, बहुश्रुत, तपस्वी-इन सातों के प्रति वत्सलता धारण करना, बारंबार ज्ञान का उपयोग करना, तथा-दर्शन, विनय, आवश्यक शीलव्रत का निरतिचार पालन करना, क्षणलव अर्थात् ध्यान सेवन, तप करना, त्याग, तथा-नया-नया ज्ञान ग्रहण करना, समाधि, वैयावृत्य, श्रुतभक्ति और प्रवचन प्रभावना इस बीस कारणों से जीव तीर्थकरत्व की प्राप्ति करता है। सूत्र-८० तत्पश्चात् वे महाबल आदि सातों अनगार एक मास की पहली भिक्षु-प्रतिमा अंगीकार करके विचरने लगे। यावत् बारहवी एकरात्रि की भिक्षु-प्रतिमा अंगीकार करके विचरने लगे । तत्पश्चात् वे महाबल प्रभृति सातों अनगार क्षुल्लक सिंहनिष्क्रीडित नामक तपश्चरण अंगीकार करके विचरने लगे । वह तप इस प्रकार किया जाता हैसर्वप्रथम एक उपवास करे, उपवास करके सर्वकामगुणित पारणा करे, पारणा करके दो उपवास करे, फिर एक उपवास करे, करके तीन उपवास करे, करके दो उपवास करे, करके चार उपवास करे, करके तीन उपवास करे, करके पाँच उपवास करे, करके चार उपवास करे, करके छह उपवास करे, करके पाँच उपवास करे, करके सात उपवास करे, करके छह उपवास करे, करके आठ उपवास करे, करके सात उपवास करे, करके नौ उपवास करे, करके आठ उपवास करे, करके नौ उपवास करे, करके सात उपवास करे, करके आठ उपवास करे, करके छह उपवास करे, करके सात उपवास करे, करके पाँच उपवास करे, करके छह उपवास करे, करके चार उपवास करे, करके पाँच उपवास करे, करके तीन उपवास करे, करके चार उपवास करे, करके दो उपवास करे, करके तीन उपवास करे, करके एक उपवास करे, करके दो उपवास करे, करके एक उपवास करे । सब जगह पारणा के दिन सर्वकामगुणित पारणा करके उपवासों का पारणा समझना चाहिए। कार इस क्षुल्लक सिंहनिष्क्रिडित तप की पहली परिपाटी छह मास और सात अहोरात्रों में सूत्र के अनुसार यावत् आराधित होती है । तत्पश्चात् दूसरी परिपाटी में एक उपवास करते हैं, इत्यादि विशेषता यह है कि इसमें विकृति रहित पारणा करते हैं, इसी प्रकार तीसरी परिपाटी । विशेषता यह है कि अलेपकृत से पारणा करते मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 68 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक हैं। चौथी परिपाटी में भी ऐसा ही करते हैं किन्तु उसमें आयंबिल से पारणा की जाती है। तत्पश्चात् महाबल आदि सातों अनगार क्षुल्लक सिंहनिष्क्रिडित तप को दो वर्ष और अट्ठाईस अहोरात्र में, सूत्र के कथनानुसार यावत् तीर्थंकर की आज्ञा से आराधन करके, जहाँ स्थविर भगवान थे, वहाँ आए । आकर उन्होंने वन्दना की, नमस्कार किया । वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार बोले-भगवन् ! हम महत् सिंहनिष्क्रिडित नामक तपःकर्म करना चाहते हैं आदि । यह तप क्षुल्लक सिंहनिष्क्रिडित तप के समान जानना । विशेषता यह कि इसमें सोलह उपवास तक पहुँचकर वापिस लौटा जाता है | एक परिपाटी एक वर्ष, छह मास और अठारह अहोरात्र में समाप्त होती है । सम्पूर्ण महासिंहनिष्क्रिडित तप छह वर्ष, दो मास और बारह अहोरात्र में पूर्ण होता है। तत्पश्चात वे महाबल प्रभति सातों मनि महासिंहनिष्क्रिडित तपःकर्म का सत्र के अनसार यावत आराधन करके जहाँ स्थविर भगवान थे वहाँ आते हैं । स्थविर भगवान को वन्दना और नमस्कार करते हैं । बहत से उपवास, तेला आदि करते हुए विचरते हैं। तत्पश्चात् वे महाबल प्रभृति अनगार उस प्रधान तप के कारण शुष्क रूक्ष हो गए, स्कन्दक मुनि समानजानना । विशेषता यह कि इन सात मुनियों ने स्थविर भगवान से आज्ञा ली । आज्ञा लेकर चारु पर्वत पर आरूढ़ होकर यावत दो मास की संलेखना करके-१२० भक्त का अनशन करके, चौरासी लाख वर्षों तक संयम का पालन करके, चौरासी लाख पूर्व का कुल आयुष्य भोगकर जयंत नामक तीसरे अनुत्तर विमान में देव-पर्याय से उत्पन्न हुए सूत्र-८१ उस जयन्त विमान में कितनेक देवों की बत्तीस सागरोपम की स्थिति कही गई है । उनमें से महाबल को छोडकर दसरे छह देवों की कछ कम बत्तीस सागरोपम की स्थिति और महाबल देव की पर बत्तीस सागरोपम की स्थिति हुई । तत्पश्चात् महाबल देव के सिवाय छहों देव जयन्त देवलोक से, देव सम्बन्धी आयु का क्षय होने से, स्थिति का क्षय होने से और भव का क्षय होने से, अन्तर रहित, शरीर का त्याग करके इसी जम्बूद्वीप में, भरत वर्ष में विशुद्ध माता-पिता के वंश वाले राजकुलों में, अलग-अलग कुमार के रूप में उत्पन्न हुए । प्रतिबुद्धि इक्ष्वाकु देश का राजा हुआ । चंद्रच्छाय अंगदेश का राजा हुआ, शंख कासीदेव का राजा हुआ, रुक्मि कुणालदेश का राजा हुआ, अदीनशत्रु कुरुदेश का राजा हुआ, जितशत्रु पंचाल देश का राजा हुआ। वह महाबल देव तीन ज्ञानों से युक्त होकर, जब समस्त ग्रह उच्च स्थान पर रहे थे, सभी दिशाएं सौम्य, वितिमिर और विशुद्ध थीं, शकुन विजयकारक थे, वायु दक्षिण की ओर चल रहा था और वायु अनुकूल था, पृथ्वी का धान्य निष्पन्न हो गया था, लोग अत्यन्त हर्षयुक्त होकर क्रीड़ा कर रहे थे, ऐसे समय में अर्द्ध रात्रि के अवसर पर अश्विनी नक्षत्र का चन्द्रमा के साथ योग होने पर, हेमन्त ऋतु के चौथे मास, आठवें पक्ष, फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष में, चतुर्थी तिथि के पश्चात् भाग में बत्तीस सागरोपम की स्थिति वाले जयन्त नामक विमान से, अनन्तर शरीर त्याग कर, इसी जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र में, मिथिला राजधानी में, कुंभ राजा की प्रभावती देवी की कूख में देवगति सम्बन्धी आहार का त्याग करके, वैक्रिय शरीर का त्याग करके एवं देवभव का त्याग करके गर्भ के रूप में उत्पन्न हुआ । उस रात्रि में प्रभावती देवी वास भवन में, शय्या पर यावत् अर्द्ध रात्रि के समय जब न गहरी सोई थी न जाग रही थी, तब प्रधान, कल्याणरूप, उपद्रवरहित, धन्य, मांगलिक और सश्रीक चौदह महास्वप्न देख कर जागी । वे चौदह स्वप्न इस प्रकार है-गज, वृषभ, सिंह, अभिषेक, पुष्पमाला, चन्द्रमा, सूर्य, ध्वजा, कुम्भ, पद्मयुक्त सरोवर, सागर, विमान, रत्नों की राशि और धूमरहित अग्नि । पश्चात् प्रभावती रानी जहाँ राजा कुम्भ थे, वहाँ आई। पति से स्वप्नों का वृत्तान्त कहा । कुम्भ राजा ने स्वप्नपाठकों को बुलाकर स्वप्नों का फल पूछा । यावत् प्रभावती देवी हर्षित एवं संतुष्ट होकर विचरने लगी। तत्पश्चात् प्रभावती देवी को तीन मास बराबर पूर्ण हुए तो इस प्रकार का दोहद उत्पन्न हुआ-वे माताएं धन्य हैं जो जल और थल मैं उत्पन्न हुए देदीप्यमान, अनेक पंचरंगे पुष्पों से आच्छादित और पुनः पुनः आच्छादित की हुई शय्या पर सुखपूर्वक बैठी हुई और सुख से सोई हुई विचरती हैं तथा पाटला, मालती, चम्पा, अशोक, पुंनाग के मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 69 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र - ६, 'ज्ञाताधर्मकथा ' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक फूलों, मरुवा के पत्तों, दमनक के फूलों, निर्दोष शतपत्रिका के फूलों एवं कोरंट के उत्तम पत्तों से गूंथे हुए, परमसुखदायक स्पर्श वाले, देखने में सुन्दर तथा अत्यन्त सौरभ छोड़ने वाले श्रीदामकण्ड के समूह को सूँघती हुई अपना दोहद पूर्ण करती हैं । तत्पश्चात् प्रभावती देवी को इस प्रकार का दोहद उत्पन्न हुआ देखकर जानकर समीपवर्ती वाणव्यन्तर देवों ने शीघ्र ही जल और थल में उत्पन्न हुए यावत् पाँच वर्ण वाले पुष्प, कुम्भों और भारों के प्रमाण में अर्थात् बहुत से पुष्प कुम्भ राजा के भवन में लाकर पहुँचा दिए। इसके अतिरिक्त सुखप्रद एवं सुगन्ध फैलाता हुआ एक श्रीदामकण्ड भी लाकर पहुँचा दिया। तत्पश्चात् प्रभावती देवी ने जल और थल में उत्पन्न देदीप्यमान पंचवर्ण के फूलों की माला से अपना दोहला पूर्ण किया। तब प्रभावती देवी प्रशस्तदोहला होकर विचरने लगी । प्रभावती देवी ने नौ मास और साढ़े सात दिवस पूर्ण होने पर, हेमन्त ऋतु के प्रथम मास में, दूसरे पक्ष में अर्थात् मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष में, एकादशी के दिन, मध्य रात्रि में, अश्विनी नक्षत्र का चन्द्रमा के साथ योग होने पर, सभी ग्रहों के उच्च स्थान पर स्थित होने पर, ऐसे समय में, आरोग्य- आरोग्यपूर्वक उन्नीसवें तीर्थंकर को जन्म दिया। सूत्र ८२ T उस काल और उस समय में अधोलोक में बसने वाली महत्तरिका दिशा- कुमारिकाएं आई इत्यादि जन्म का वर्णन जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति अनुसार समझ लेना । विशेषता यह है कि मिथिला नगरी में, कुम्भ राजा के भवन में, प्रभावती देवों को आलापक कहना । यावत् देवों ने जन्माभिषेक करके नन्दीश्वर द्वीप में जाकर महोत्सव किया । तत्पश्चात् कुम्भ राजा ने एवं बहुत से भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों ने तीर्थंकर का जन्माभिषेक किया, फिर जातकर्म आदि संस्कार किये, यावत् नामकरण किया- क्योंकि जब हमारी यह पुत्री माता के गर्भ में आई थी, तब माल्य की शय्या में सोने का दोहद उत्पन्न हुआ था, अत एव इसका नाम मल्ली हो महाबल के वर्णन समान जानना यावत् मल्ली कुमारी क्रमशः वृद्धि को प्राप्त हुई । सूत्र - ८३ देवलोक से च्युत हुई वह भगवती मल्ली वृद्धि को प्राप्त हुई तो अनुपम शोभा से सम्पन्न हो गई, दासियों और दासों से परिवृत्त हुई और पीठमर्दों से घिरी रहने लगी । सूत्र - ८४ उनके मस्तक के केश काले थे, नयन सुन्दर थे, होठ बिम्बफल के समान थे, दाँतों की कतार श्वेत थी और शरीर श्रेष्ठ कमल के गर्भ के समान गौरवर्णवाला था। उसका श्वासोच्छ्वास विकस्वर कमल के समान गंधवाला था सूत्र ८५ तत्पश्चात् विदेहराज की वह श्रेष्ठ कन्या बाल्यावस्था से मुक्त हुई यावत् तथा रूप, यौवन और लावण्य से अतीव अतीव उत्कृष्ट और उत्कृष्ट शरीर वाली हो गई। तत्पश्चात् विदेहराज की वह उत्तम कन्या मल्ली कुछ कम सौ वर्ष की हो गई, तब वह उन छहों राजाओं को अपने विपुल अवधिज्ञान से जानती देखती हुई रहने लगी । वे इस प्रकार प्रतिबुद्धि यावत् जितशत्रु को बार-बार देखती हुई रहने लगी। तत्पश्चात् विदेहराज की उत्तम कन्या मल्ली ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया बुलाकर कहा देवानुप्रियो ! जाओ और अशोकवाटिका में एक बड़ा मोहनगृह बनाओ, जो अनेक सैकड़ों खम्भों से बना हुआ हो। उस मोहनगृह के एकदम मध्य भाग में छह गर्भगृह बनाओ। उन छहों गर्भगृहों के ठीक बीच में एक जालगृह बनाओ। उस जालगृह के मध्य में एक मणिमय पीठिका बनाओ। यह सूनकर कौटुम्बिक पुरुषों ने उसी प्रकार सर्व निर्माण कर आज्ञा वापिस सौंपी। तत्पश्चात् उस मल्ली कुमारी ने मणिपीठिका के ऊपर अपने जैसी, अपने जैसी त्वचा वाली, अपनी सरीखी उम्र की दिखाई देने वाली, समान लावण्य, यौवन और गुणों से युक्त एक सुवर्ण की प्रतिमा बनवाई । उस प्रतिमा के मस्तक पर छिद्र था और उस पर कमल का ढक्कन था । इस प्रकार की प्रतिमा बनवाकर जो विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य वह खाती थी, उस मनोज्ञ अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य में से प्रतिदिन एक-एक पिण्ड लेकर उस मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा )" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद” Page 70 - Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक स्वर्णमयी, मस्तक में छिद्र वाली यावत् प्रतिमा में, मस्तक में से डालती रहती थी। तत्पश्चात् उस स्वर्णमयी यावत् मस्तक में छिद्र वाली प्रतिमा में एक-एक पिण्ड डाल-डाल कर कमल का ढक्कन ढंक देती थी। इससे उसमें ऐसी दुर्गन्ध उत्पन्न होती थी जैसे सर्प के मृत कलेवर की हो, यावत् और वह भी मरने के पश्चात् सड़े-गले, दुर्वर्ण एवं दुर्गंधवाले, कीड़ों के समूह जिसमें बिलबिला रहे हों, जो अशुचिमय, विकृत तथा देखने में बीभत्स हों । क्या उस प्रतिमा में से ऐसी-मृत कलेवर की गन्ध समान दुर्गन्ध नीकलती थी ? नहीं, यह अर्थ समर्थ नहीं, उससे भी अधिक अनिष्ट, अधिक अकमनीय, अधिक अप्रिय, अधिक अमनोरम और उससे भी अधिक अनिष्ट गन्ध उत्पन्न होती थी सूत्र - ८६ उस काल और उस समय में कौशल नामक देश था । उसमें साकेत नामक नगर था । उस नगर में ईशान दिशा में एक नागगृह था । वह प्रधान था, सत्य था, उसकी सेवा सफल होती थी और वह देवाधिष्ठित था । उस साकेत नगर में प्रतिबुद्धि नामक इक्ष्वाकुवंश का राजा निवास करता था । पद्मावती उसकी पटरानी थी, सुबुद्धि अमात्य था, जो साम, दंड, भेद और उपप्रदान नीतियों में कुशल था यावत् राज्यधुरा की चिन्ता करने वाला था, राज्य का संचालन करता था । किसी समय एक बार पद्मावती देवी की नागपूजा का उत्सव आया । तब पद्मावती देवी नागपूजा का उत्सव आया जानकर प्रतिबुद्धि राजा के पास गई। दोनों हाथ जोड़कर दसों नखों को एकत्र करके, मस्तक पर अंजलि करके बोली-'स्वामिन् ! कल मुझे नागपूजा करनी है । अत एव आपकी अनुमति पाकर मैं नागपूजा करने के लिए जाना चाहती हूँ। स्वामिन् ! आप भी मेरी नागपूजा में पधारो।' तब प्रतिबुद्धि राजा ने पद्मावती देवी की यह बात स्वीकार की । पद्मावती देवी राजा की अनुमति पाकर हर्षित और सन्तुष्ट हुई । उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा–'देवानुप्रियो ! कल यहाँ मेरे नागपूजा होगी, सो तुम मालाकारों को बुलाओ और उन्हें इस प्रकार कहो- निश्चय ही पद्मावती देवी के यहाँ कल नागपूजा होगी। अत एव हे देवानुप्रियो ! तुम जल और स्थल में उत्पन्न हुए पांचों रंगों के ताजा फूल नागगृह में ले जाओ और एक श्रीदामकाण्ड बना कर लाओ । तत्पश्चात् जल और स्थल में उत्पन्न होने वाले पाँच वर्गों के फूलों से विविध प्रकार की रचना करके उसे सजाओ । उस रचना में हंस, मृग, मयूर, क्रौंच, सारस, चक्रवाक, मदनशाल और कोकिला के समूह से युक्त तथा ईहामृग, वृषभ, तुरग आदि की रचना वाले चित्र बनाकर महामूल्यवान, महान् जनों के योग्य और विस्तार वाला एक पुष्पमंडप बनाओ । उस पुष्पमंडप के मध्यभाग में एक महान जनों के योग्य और विस्तार वाला श्रीदामकण्ड उल्लोच पर लटकाओ । लटकाकर पद्मावती देवी की राह देखते-देखते ठहरो । तत्पश्चात् वे कौटुम्बिक पुरुष इसी प्रकार कार्य करके यावत् पद्मावती की राह देखते हुए नागगृह में ठहरते हैं। तत्पश्चात् पद्मावती देवी ने दूसरे दिन प्रातःकाल सूर्योदय होने पर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा-हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही साकेत नगर में भीतर और बाहर पानी सींचो, सफाई करो और लिपाई करो । यावत् वे कौटुम्बिक पुरुष उसी प्रकार कार्य करके आज्ञा वापिस लौटाते हैं । तत्पश्चात् पद्मावती देवी ने दूसरी बार कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा-'देवानुप्रियो ! शीघ्र ही लघुकरण से युक्त यावत् रथ को जोड़कर उपस्थित करो ।' तब वे भी उसी प्रकार रथ उपस्थित करते हैं । तत्पश्चात् पद्मावती देवी अन्तःपुर के अन्दर स्नान करके यावत् रथ पर आरूढ़ हुई । तत्पश्चात् पद्मावती देवी अपने परिवार से परिवृत्त होकर साकेत नगर के बीच में होकर नीकली । जहाँ पुष्करिणी थी वहाँ आई । पुष्करिणी में प्रवेश किया । यावत अत्यन्त शुचि होकर गीली साडी पहनकर वहाँ जो कमल आदि थे, उन्हें यावत् ग्रहण किया । जहाँ नागगृह था, वहाँ जाने के लिए प्रस्थान किया। तत्पश्चात् पद्मावती देवी की बहुत-सी दास-चेटियाँ फूलों की छबड़ियाँ तथा धूप की कुड़छियाँ हाथ में लेकर पीछे-पीछे चलने लगीं । पद्मावती देवी सर्व ऋद्धि के साथ-पूरे ठाठ के साथ-जहाँ नागगृह था, वहाँ आई । नागगृह में प्रविष्ट हुई । रोमहस्त लेकर प्रतिमा का प्रमार्जन किया, यावत् धूप खेई । प्रतिबुद्धि राजा की प्रतीक्षा करती हुई वहीं ठहरी । प्रतिबुद्धि राजा स्नान करके श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर आसीन हुआ । कोरंट के फूलों सहित अन्य पुष्पों की मालाएं जिसमें लपेटी हुई थीं, ऐसा छत्र उसके मस्तक पर धारण किया गया । यावत् उत्तम श्वेत चामर ढोरे मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 71 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक जाने लगे । उसके आगे-आगे विशाल घोड़े, हाथी, रथ और पैदल योद्धा, सुभटों के बड़े समूह के समूह चले । वह साकेत नगर से नीकला । जहाँ नागगृह था, वहाँ आकर हाथी के स्कंध से नीचे उतरा । प्रतिमा पर दृष्टि पड़ते ही उसने प्रणाम किया । पुष्प-मंडप में प्रवेश किया । वहाँ उसने एक महान श्रीदामकाण्ड देखा। तत्पश्चात् प्रतिबुद्धि राजा उस श्रीदामकाण्ड को बहुत देर तक देखकर उस श्रीदामकाण्ड के विषय में उसे आश्चर्य उत्पन्न हुआ । उसके सुबुद्धि अमात्य से इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! तुम मेरे दूत के रूप में बहुतेरे ग्रामों, आकरों, यावत् सन्निवेशों आदि में घूमते हो और बहुत से राजाओं एवं ईश्वरों आदि के गृहों में प्रवेश करते हो; तो क्या तुमने ऐसा सुन्दर श्रीदामकाण्ड पहले कहीं देखा है जैसा पद्मावती देवी का यह श्रीदामकाण्ड है ? तब सुबुद्धि अमात्य ने प्रतिबुद्धि राजा से कहा-स्वामिन् ! मैं एक बार किसी समय आपके दौत्यकार्य से मिथिला राजधानी गया था । वहाँ मैं कुम्भ राजा की पुत्री और प्रभावती देवी की आत्मजा, विदेह की उत्तम राजकुमारी मल्ली के संवत्सरप्रतिलेखन उत्सव के महोत्सव के समय दिव्य श्रीदामकाण्ड देखा था । उस श्रीदामकाण्ड के सामने पद्मावती देवी का यह श्रीदामकाण्ड शतसहस्र-लाखवां अंश भी नहीं पाता-लाखवें अंश की भी बराबरी नहीं कर सकता। तत्पश्चात् प्रतिबुद्धि राजा ने सुबुद्धि मंत्री से इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय ! विदेह की श्रेष्ठ राजकुमारी मल्ली कैसी है ? जिसकी जन्मगांठ के उत्सव में बनाये गये श्रीदामकाण्ड के सामने पद्मावती देवी का यह श्रीदामकाण्ड लाखवां अंश भी नहीं पाता ? तब सुबुद्धि मंत्री ने इक्ष्वाकुराज प्रतिबुद्धि से कहा-'स्वामिन् ! विदेह की श्रेष्ठ राजकुमारी मल्ली सुप्रतिष्ठित और कछुए के समान उन्नत एवं सुन्दर चरण वाली है, इत्यादि । तत्पश्चात् प्रतिबुद्धि राजा ने सुबुद्धि अमात्य से यह अर्थ सूनकर और हृदय में धारण करके और श्रीदामकाण्ड की बात से हर्षित होकर दूत को बुलाया । और कहा-देवानुप्रिय ! तुम मिथिला राजधानी जाओ । वहाँ कुम्भ राजा की पुत्री, पद्मावती देवी की आत्मजा और विदेह की प्रधान राजकुमारी मल्ली की मेरी पत्नी के रूप में मंगनी करो । फिर भले ही उसके लिए सारा राज्य शुल्क-मूल्य रूप में देना पड़े। तत्पश्चात् उस दूत ने प्रतिबुद्धि राजा के इस प्रकार कहने पर हर्षित और सन्तुष्ट होकर उसकी आज्ञा अंगीकार की । जहाँ अपना घर था और जहाँ चार घंटों वाला अश्वरथ था, वहाँ आया । आकर चार घंटोंवाले अश्वरथ को तैयार कराया । यावत् घोड़ों, हाथियों, बहुत से सुभटों के समूह के साथ साकेतनगर से नीकला । जहाँ विदेह जनपद था, जहाँ मिथिला राजधानी थी, वहाँ जाने के लिए प्रस्थान किया। सूत्र - ८७ उस काल और उस समय में अंग नामक जनपद था । चम्पा नगरी थी । चन्द्रच्छाय अंगराज-अंग देश का राजा था । उस चम्पा नगरी में अर्हन्नक प्रभृति बहुत-से सांयात्रिक नौवणिक रहते थे । वे ऋद्धिसम्पन्न थे और किसी से पराभूत होने वाले नहीं थे । उनके अर्हन्नक श्रमणोपासक भी था, वह जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता था । वे अर्हन्नक आदि सांयात्रिक नौवणिक किसी समय एक बार एक जगह इकटे हुए, तब उनमें आपस में इस प्रकार कथासंलाप हुआ-हमें गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य यह चार प्रकार का भांड लेकर, जहाज द्वारा लवणसमुद्र में प्रवेश करना चाहिए । इस प्रकार विचार करके उन्होंने परस्पर में यह बात अंगीकार करके गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य भांड को ग्रहण करके छकड़ी-छकड़े भरे । शुभ तिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त में अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार बनवाया । भोजन की वेला में मित्रों, ज्ञातिजनों, निजजनों, स्वजनों, सम्बन्धीजनों एवं परिजनों को जिमाया, यावत् उनकी अनुमति लेकर गाड़ी-गाड़े जोते | चम्पा नगरी से नीकलकर जहाँ गंभीर नामक पोतपट्टन था, वहाँ आए । गंभीर नामक पोतपट्टन में आकर उन्होंने गाड़ी-गाड़े छोड़ दिए । जहाज सज्जित करके गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य-चार प्रकार का भांड भरा । भरकर उसमें चावल, आटा, तेल, घी, गोरस, पानी, पानी के बरतन, औषध, भेषज, घास, लकड़ी, वस्त्र, शस्त्र तथा और भी जहाज में रखने योग्य अन्य वस्तुएं जहाज में भरीं । प्रशस्त तिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त में अशन, पान, खाद्य तैयार करवा कर मित्रों, ज्ञातिजनों, निजजनों, स्वजनों, सम्बन्धीयों एवं परिजनों को जिमा कर उनसे अनुमति ली । जहाँ नौका का स्थान था, वहाँ आए । तत्पश्चात् उन मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 72 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक अर्हन्नक आदि यावत् नौका-वणिकों के परिजन यावत् वचनों से अभिनन्दन करते हुए और उनकी प्रशंसा करते हुए इस प्रकार बोले-'हे आर्य ! हे तात ! हे भ्रात ! हे मामा ! हे भागिनेय ! आप इस भगवान समुद्र द्वारा पुनः पुनः रक्षण किये जाते हुए चिरंजीवी हों । आपका मंगल हो । हम आपको अर्थ का लाभ करके, इष्ट कार्य सम्पन्न करके, निर्दोष-बिना किसी विघ्न के और ज्यों का त्यों घर पर आया शीघ्र देखें ।' इस प्रकार कहकर सोम, स्नेहमय, दीर्घ, पिपासावाली-सतृष्ण और अश्रुप्लावित दृष्टि से देखते-देखते वे लोग मुहूर्त्तमात्र अर्थात् थोड़ी देर तक वहीं खड़े रहे। तत्पश्चात् नौका में पुष्पबलि समाप्त होने पर, सरस रक्तचंदन का पाँचों उंगलियों का थापा लगाने पर, धूप खेई जाने पर, समुद्र की वायु की पूजा हो जाने पर, बलयवाहा यथास्थान संभाल कर रख लेने पर, श्वेत पताकाएं ऊपर फहरा देने पर, वाद्यों की मधुर ध्वनि होने पर, विजयकारक सब शकुन होने पर, यात्रा के लिए राजा का आदेशपत्र प्राप्त हो जाने पर, महान् और उत्कृष्ट सिंहनाद यावत् ध्वनि से, अत्यन्त क्षुब्ध हुए महासमुद्र की गर्जना के समान पृथ्वी को शब्दमय करते हुए एक तरफ से नौका पर चढ़े । तत्पश्चात् बन्दीजन ने इस प्रकार वचन कहा'हे व्यापारियों ! तुम सब को अर्थ की सिद्धि हो, तुम्हें कल्याण प्राप्त हुए हैं, तुम्हारे समस्त पाप नष्ट हुए हैं । इस समय पुष्य नक्षत्र चन्द्रमा से युक्त है और विजय नामक मुहर्त है, अतः यह देश और काल यात्रा के लिए उत्तम है। तत्पश्चात् बन्दीजन के द्वारा इस प्रकार वाक्य कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुए कुक्षिधार-नौका की बगल में रहकर बल्ले चलाने वाले, कर्णधार गर्भज-नौका के मध्य में रहकर छोटे-मोटे कार्य करने वाले और वे सांयात्रिक नौकावणिक अपने-अपने कार्य में लग गए । फिर भांडों से परिपूर्ण मध्यभाग वाली और मंगल से परिपूर्ण अग्रभाग वाली उस नौका को बन्धनों से मुक्त किया। तत्पश्चात् वह नौका बन्धनों से मुक्त हुई एवं पवन के बल से प्रेरित हुई । उस पर सफेद कपड़े का पाल चढ़ा हुआ था, अत एव ऐसी जान पड़ती थी जैसे पंख फैलाए कोई गरुड़-युवती हो ! वह गंगा के जल के तीव्र प्रवाह के वेग से क्षुब्ध होती-होती, हजारों मोटी तरंगों और छोटी तरंगों के समूह को उल्लंघन करती हुई कुछ अहोरात्रों में लवणसमुद्र में कईं सौ योजन दूर तक चली गई । तत्पश्चात् कईं सौ योजन लवण-समुद्र में पहुँचे हुए उन अर्हन्नक आदि सांयात्रिक नौका-वणिकों को बहुत से सैकड़ों उत्पात प्रादुर्भूत होने लगे । वे उत्पात इस प्रकार थे। अकाल में गर्जना होने लगी, अकाल में बिजली चमकने लगी, अकाल में मेघों की गंभीर गड़गड़ाहट होने लगी । बार-बार आकाश में देवता (मेघ) नृत्य करने लगे। इसके अतिरिक्त एक ताड़ जैसे पिशाच का रूप दिखाई दिया । वह पिशाच ताड़ के समान लम्बी जाँघों वाला था और उसकी बाहुएं आकाश तक पहुँची हुई थीं । वह कज्जल, काले चहे और भैंसे के समान काला था । उसका वर्ण जलभरे मेघ के समान था । होठ लम्बे थे और दाँतों के अग्रभाग मुख से बाहर नीकले थे । दो जीभे मुँह से बाहर नीकाल रखी थीं । गाल मुँह में धंसे हुए थे । नाक छोटी और चपटी थी । भृकुटि डरावनी और अत्यन्त वक्र थी । नेत्रों का वर्ण जुगनू के समान चमकता हुआ लाला था । देखने वाले को घोर त्रास पहुँचाने वाला था । उसकी छाती चौड़ी थी, कुक्षि विशाल और लम्बी थी । हँसते और चलते समय उसके अवयव ढीले दिखाई देते थे । वह नाच रहा था, आकाश को मानो फोड़ रहा था, सामने आ रहा था, गर्जना कर रहा था, बहुत-बहुत ठहाके मार रहा था । ऐसे काले कमल, भैंस के सींग, नील, अलसी के फूल समान काली तथा छूरे की धार की तरह तीक्ष्ण तलवार लेकर आते हुए पिशाच को उन वर्णिकोंने देखा। अर्हन्नक को छोड़कर शेष नौकावणिक तालपिशाच के रूप को नौका की ओर आता देखकर डर गये, अत्यन्त भयभीत हुए, एक दूसरे के शरीर से चिपट गए और बहुत से इन्द्रों की, स्कन्दों की तथा रुद्र, शिव, वैश्रमण और नागदेवों की, भूतों की, यक्षों की, दुर्गा की तथा कोट्टक्रिया देवी की बहुत-बहुत सैकड़ों मनौतियाँ मनाने लगे। अर्हन्नक श्रमणोपासक ने उस दिव्य पिशाचरूप को आता देखा । उसे देखकर वह तनिक भी भयभीत नहीं हुआ, त्रास को प्राप्त नहीं हुआ, चलायमान नहीं हुआ, संभ्रान्त नहीं हुआ, व्याकुल नहीं हुआ, उद्विग्न नहीं हुआ । उसके मुख का राग और नेत्रों का वर्ण नहीं बदला | मन में दीनता या खिन्नता उत्पन्न नहीं हुई | पोतवहन के एक भाग में जाकर वस्त्र के छोर से भूमि का प्रमार्जन करके उस स्थान पर बैठ गया और दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार बोला मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 73 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक 'अरिहन्त भगवंत्' यावत् सिद्धि को प्राप्त प्रभु को नमस्कार हो । फिर कहा-'यदि मैं इस उपसर्ग से मुक्त हो जाऊं तो मुझे यह कायोत्सर्ग पारना कल्पता है और यदि इस उपसर्ग से मुक्त न होऊं तो यही प्रत्याख्यान कल्पता है, इस प्रकार कहकर उसने सागारी अनशन ग्रहण कर लिया। वह पिशाचरूप वहाँ आया, जहाँ अर्हन्नक श्रमणोपासक था । आकर अर्हन्नक से कहने लगा-'अरे अप्रार्थित'-मौत की प्रार्थना करने वाले ! यावत् परिवर्जित ! तुझे शीलव्रत-अणुव्रत, गुणव्रत, विरमण-रागादि की विरति, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास से चलायमान होना, खण्डित करना, भंग करना नहीं है, परन्तु तू शीलव्रत आदि का परित्याग नहीं करता तो मैं तेरे इस पोतवहन को दो उंगलियों पर उठा लेता हूँ और सात-आठ तल की ऊंचाई तक आकाश में उछाल कर इसे जल के अन्दर डूबा देता हूँ, जिससे तू आर्तध्यान के वशीभूत होकर, असमाधि को प्राप्त होकर जीवन से रहित हो जाएगा। तब अर्हन्नक श्रमणोपासक ने उस देव को मन ही मन इस प्रकार कहा-'देवानप्रिय ! मैं अर्हन्नक नामक श्रावक हूँ और जड़-चेतन के स्वरूप का ज्ञाता हूँ। निश्चय ही मुझे कोई देव, दानव, निर्ग्रन्थ प्रवचन से चलायमान नहीं कर सकता, क्षुब्ध नहीं कर सकता और विपरीत भाव उत्पन्न नहीं कर सकता । तुम्हारी जो श्रद्धा हो सो करो।' इस प्रकार कहकर अर्हन्नक निर्भय, अपरिवर्तित मुख के रंग और नेत्रों के वर्ण वाला, दैत्य और मानसिक खेद से रहित, निश्चल, निस्पन्द, मौन और धर्म-ध्यान में लीन बना रहा। तत्पश्चात् उस दिव्य पिशाचरूप ने अर्हन्नक को धर्मध्यान में लीन देखा । उसने और अधिक कुपित होकर उस पोतवहन को दो उंगलियों से ग्रहण किया । सात-आठ मंजिल की या ताड़ के वृक्षों की ऊंचाई तक ऊपर उठाकर कहा-' अरे अर्हन्नक ! मौत की ईच्छा करने वाले ! तुझे शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान तथा पौषध आदि का त्याग करना नहीं कल्पता है यावत् फिर भी वो धर्मध्यान में ही लीन बना रहा । वह पिशाचरूप जब अर्हन्नक को निर्ग्रन्थ-प्रवचन से चलायमान, क्षुभित एवं विपरिणत करने में समर्थ नहीं हुआ, तब वह उपशान्त हो गया, यावत् मन में खेद को प्राप्त हुआ । फिर उसने उस पोतवहन को धीरे-धीरे उतार कर जल के ऊपर रखकर पिशाच के दिव्य रूप का संहरण किया-उसे समेट लिया और दिव्य देव के रूप की विक्रिया करके, अधर स्थिर होकर घुघरुओं की छम्छम् की ध्वनि से युक्त पंचवर्ण के उत्तम वस्त्र धारण करके अर्हन्नक श्रमणोपासक से कहा हे अर्हन्नक ! तुम धन्य हो । देवानुप्रिय ! तुम्हारा जन्म और तुम्हारा जीवन सफल है कि जिसको निर्ग्रन्थप्रवचन में इस प्रकार की प्रतिपत्ति लब्ध हुई है, प्राप्त हुई है और आचरण में लाने के कारण सम्यक् प्रकार से सन्मख आई है। हे देवानप्रिय ! देवों के इन्द्र और देवों के राजा शक्र ने सौधर्म कल्प में, सौधर्मावतंसक नामक विमान में और सुधर्मासभा में, बहत-से देवों के मध्य में स्थित होकर महान शब्दों से इस प्रकार कहा था-'निस्संदेह जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भरत क्षेत्र में, चम्पानगरी में अर्हन्नक नामक श्रमणोपासक जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता है । उसे निश्चय ही कोई देव या दानव निर्ग्रन्थ प्रवचन से चलायमान करने में यावत् सम्यक्त्व से च्युत करने में समर्थ नहीं है । तब हे देवानुप्रिय ! देवेन्द्र शक्र की इस बात पर मुझे श्रद्धा नहीं हुई । यह बात रुची नहीं । तब मुझे इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ कि 'मैं जाऊं और अर्हन्नक के समक्ष प्रकट होऊं । उनका परित्याग करता है अथवा नहीं? मैंने इस प्रकार का विचार किया । विचार करके अवधिज्ञान का उपयोग लगाया । उपयोग लगाकर हे देवानुप्रिय ! मैंने जाना । जानकर ईशानकोण में जाकर उत्तर वैक्रियशरीर बनाने के लिए वैक्रियसमुद्घात किया । तत्पश्चात् उत्कृष्ट यावत् शीघ्रता वाली देवगति से जहाँ लवणसमुद्र था और जहाँ देवानुप्रिय थे, वहाँ मैं आया । उपसर्ग किया । मगर देवानुप्रिय भयभीत न हए, त्रास को प्राप्त न हए । अतः देवेन्द्र देवराज ने जो कहा था, वह अर्थ सत्य सिद्ध हआ। मैंने देखा कि देवानुप्रिय को ऋद्धि-गुण रूप समृद्धि, द्युति-तेजस्विता, यश, शारीरिक वह यावत् पुरुषकार, पराक्रम लब्ध हुआ है, प्राप्त हुआ और उसका आपने भली-भाँति सेवन किया है । तो हे देवानुप्रिय ! मैं आपको खमाता हूँ । अब फिर कभी मैं ऐसा नहीं करूँगा । इस प्रकार कहकर दोनो हाथ जोड़कर देव अर्हन्नक के पाँवों में गिर गया मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 74 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक और इस घटना के लिए बार-बार विनयपूर्वक क्षमायाचना करके अर्हन्नक को दो कुंडल-युगल भेंट किये । भेंट करके जिस दिशा से प्रकट हआ था, उसी दिशा में लौट गया। सूत्र-८८ तत्पश्चात् अर्हन्नक ने उपसर्ग टल गया जानकर प्रतिमा पारी तदनन्तकर वे अर्हन्नक आदि यावत् नौकावणिक् दक्षिण दिशा के अनुकूल पवन के कारण जहाँ गम्भीर नामक पोतपट्टन था, वहाँ आए । आकर उस पोत को रोका । गाडी-गाडे तैयार करके वह गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य भांड को गाडी-गाडों में भरा । जहाँ मिथिला नगरी थी, वहाँ आकर मिथिला नगरी के बाहर उत्तम उद्यान में गाड़ी-गाड़े छोड़कर मिथिला नगरी में जाने के लिए वह महान् अर्थ वाली, महामूल्य वाली, महान् जनों के योग्य, विपुल और राजा के योग्य भेंट और कुंडलों की जोड़ी ली । लेकर मिथिला नगरी में प्रवेश किया । जहाँ कुम्भ राजा था, वहाँ आए । आकर दोनों हाथ जोड़कर, मस्तक पर अंजलि करके वह महान अर्थ वाली भेंट और वह दिव्य कुंडलयुगल राजा के समीप ले गये, यावत् राजा के सामने रख दिया । तत्पश्चात् कुंभ राजा ने उन नौकावणिकों की वह बहुमूल्य भेंट यावत् अंगीकार की। अंगीकार करके विदेह की उत्तम राजकुमारी मल्ली को बुलाया । बुलाकर वह दिव्य कुंडलयुगल विदेह की श्रेष्ठ राजकुमारी मल्ली को पहनाया और उसे बिदा कर दिया । तत्पश्चात् कुंभ राजा ने उन अर्हन्नक आदि नौकावणिकों का विपुल अशन आदि से तथा वस्त्र, गन्ध, माला और अलंकार से सत्कार किया । उनका शुल्क माफ कर दिया। राजमार्ग पर उनको उत्तरा-आवास दिया और फिर उन्हें बिदा किया। तत्पश्चात् वे अर्हन्नक आदि सांयात्रिक वणिक्, जहाँ राजमार्ग पर आवास था, वहाँ आए । आकर भाण्ड का व्यापार करने लगे। उन्होंने प्रतिभांड खरीद कर उससे गाड़ी-गाड़े भरे । जहाँ गंभीर पोतपट्टन था, वहाँ आए । आकर के पोतवहन सजाया-तैयार किया । तैयार करके उसमें सब भांड भरा । भरकर दक्षिण दिशा के अनुकूल वायु के कारण जहाँ चम्पा नगरी का पोतस्थान था, वहाँ आए । पोत को रोककर गाड़ी-गाड़े ठीक करके गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य-चार प्रकार का भांड उनमें भरा । भरकर यावत् बहुमूल्य भेंट और दिव्य कुण्डलयुगल ग्रहण किया । ग्रहण करके जहाँ अंगराज चन्द्रच्छाय था, वहाँ आए | आकर वह बहमूल्य भेंट राज रखी। तत्पश्चात् चन्द्रच्छाय अंगराज ने उस दिव्य एवं महामूल्यवान कुण्डलयुगल का स्वीकार किया । स्वीकार करके उन अर्हन्नक आदि से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रियों ! आप बहुत से ग्रामों, आकरों आदि में भ्रमण करते हो तथा बार-बार लवणसमुद्रमें जहाज द्वारा प्रवेश करते हो तो आपने पहले किसी जगह कोई भी आश्चर्य देखा है? तब उन अर्हन्नक आदि वणिकों ने चन्द्रच्छाय नामक अङ्गदेश के राजा से इस प्रकार कहा-हे स्वामिन् ! हम अर्हन्नक आदि बहुत-से सांयात्रिक नौकावणिक इसी चम्पानगरी में निवास करते हैं । एक बार किसी समय हम गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य भांड भर कर यावत् कुम्भ राजा के पास पहुंचे और भेंट उसके सामने रखी । उस समय कुम्भ ने मल्ली नामक विदेह राजा की श्रेष्ठ कन्या को वह दिव्य कुंडलयुगल पहनाकर उसे बिदा कर दिया । तो हे स्वामिन् ! हमने कुम्भ राजा के भवन में विदेह राजा की श्रेष्ठ कन्या मल्ली आश्चर्य रूप में देखी है । मल्ली नामक विदेह राजा की श्रेष्ठ कन्या जैसी सुन्दर है, वैसी दूसरी कोई देवकन्या, असुरकन्या, नागकन्या, यक्षकन्या, धर्वकन्या या राजकन्या नहीं है । तत्पश्चात् चन्द्रच्छाय राजा ने अर्हन्नक आदि का सत्कार-सम्मान करके बिदा किया । तदनन्तर वणिकों के कथन से चन्द्रच्छाय को अत्यन्त हर्ष हुआ । उसने दूत को बुलाकर कहा-इत्यादि कथन सब पहले के समान ही कहना । भले ही वह कन्या मेरे सारे राज्य के मूल्य की हो, तो भी स्वीकार करना । दूत हर्षित होकर मल्ली कुमारी की मंगनी के लिए चल दिया। सूत्र - ८९ उस काल और उस समय में कुणाल नामक जनपद था । उस जनपद में श्रावस्ती नामक नगरी थी। उसमें कुणाल देश का अधिपति रुक्मि नामक राजा था । रुक्मि राजा की पुत्री और धारिणी-देवी की कुंख से जन्मी सुबाहु नामक कन्या थी । उसके हाथ-पैर आदि सब अवयव सुन्दर थे । वय, रूप, यौवन में और लावण्य में उत्कृष्ट मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 75 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक थी और उत्कृष्ट शरीर वाली थी। उस सुबाहु बालिका का किसी समय चातुर्मासिक स्नान का उत्सव आया । तब कुणालाधिपति रुक्मि राजा ने सुबाहु बालिका के चातुर्मासिक स्नान का उत्सव आया जाना । कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा-'हे देवानुप्रियो ! कल सुबाहु बालिका के चातुर्मासिक स्नान का उत्सव होगा । अत एव तुम राजमार्ग के मध्य में, चौक में जल और थल में उत्पन्न होने वाले पाँच वर्गों के फूल लाओ और एक सुगंध छोड़ने वाली श्रीदामकाण्ड छत में लटकाओ।' यह आज्ञा सूनकर उन कौटुम्बिक पुरुषों ने उसी प्रकार कार्य किया। तत्पश्चात् कुणाल देश के अधिपति रुक्मि राजा ने सुवर्णकारों की श्रेणी को बुलाकर कहा-'हे देवानुप्रियो! शीघ्र ही राजमार्ग के मध्य में, पुष्पमंडप में विविध प्रकार के पंचरंगे चावलों से नगर का अवलोकन करो-नगर का चित्रण करो । उसके ठीक मध्य भाग में एक पाट रखो।' यह सूनकर उन्होंने इसी प्रकार कार्य करके आज्ञा वापिस लौटाई । तत्पश्चात कणालाधिपति रुक्मि हाथी के श्रेष्ठ स्कन्ध पर आरूढ हआ । चतरंगी सेना, बडे-बडे योद्धाओं और अंतःपुर के परिवार आदि से परिवृत्त होकर सुबाहु कुमारी को आगे करके, जहाँ राजमार्ग था और जहाँ पुष्प मंडप था, वहाँ आया । हाथी के स्कन्ध से नीचे उतरकर पुष्पमंडप में प्रवेश किया । पूर्व दिशा की ओर मुख करके उत्तम सिंहासन पर आसीन हुआ। तत्पश्चात् अन्तःपुर की स्त्रियों ने सुबाहु कुमारी को उस पाठ कर बिठा कर चाँदी और सोने आदि के कलशों से उसे स्नान कराया । सब अलंकारों से विभूषित किया । फिर पिता के चरणों में प्रणाम करने के लिए लाई। तब सुबाहु कुमारी रुक्मि राजा के पास आई । आकर उसने पिता के चरणों का स्पर्श किया । उस समय रुक्मि राजा ने सुबाह कुमारी को अपनी गोद में बिठा लिया । बिठाकर सुबाह कुमारी के रूप, यौवन और लावण्य को देखने से उसे विस्मय हुआ । उसने वर्षधर को बुलाया । इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिय ! तुम मेरे दौत्य कार्य से बहुत-से ग्रामों, आकरों, नगरों यावत् सन्निवेशों में भ्रमण करते हो और अनेक राजाओं, राजकुमारों यावत् सार्थवाहों आदि के गृह में प्रवेश करते हो, तो तुमने कहीं भी किसी राजा या ईश्वर के यहाँ ऐसा मज्जनक पहले देखा है, जैसा इस सुबाह कुमारी का मज्जन-महोत्सव है ?' वर्षधर ने रुक्मि राजा से हाथ जोड़कर मस्तक पर हाथ घूमाकर अंजलिबद्ध होकर कहा-'हे स्वामिन् ! एक बार मैं आपके दूत के रूप में मिथिला गया था । मैंने वहाँ कुंभ राजा की पुत्री और प्रभावती देवी की आत्मजा विदेहराज की उत्तम कन्या मल्ली का स्नान-महोत्सव देखा था। सुबाहु कुमारी का यह मज्जन-उत्सव उस मज्जन-महोत्सव के लाखवें अंश को भी नहीं पा सकता । वर्षधर से यह बात सुनकर और हृदय में धारण करके, मज्जन-महोत्सव का वृत्तांत सूनने से जनित हर्ष वाले रुक्मि राजा ने दूत को बुलाया । शेष पूर्ववत् । दूत को बुलाकर कहा-दूत मिथिला नगरी जाने को रवाना हुआ। सूत्र-९० उस काल और उस समय में काशी नामक जनपद था । उस जनपद में वाराणसी नामक नगरी थी । उसमें काशीराज शंख नामक राजा था । एक बार किसी समय विदेहराज की उत्तम कन्या मल्ली के उस दिव्य कुण्डलयुगल का जोड़ खुल गया । तब कुम्भ राजा ने सुवर्णकार की श्रेणी को बुलाया और कहा-'देवानुप्रियो ! इस दिव्य कुण्डलयुगल के जोड़ को साँध दो। तत्पश्चात् सुवर्णकारों की श्रेणी ने 'तथा-ठीक है', इस प्रकार कहकर इस अर्थ को स्वीकार किया । उस दिव्य कुण्डलयुगल को ग्रहण किया । जहाँ सुवर्णकारों के स्थान थे, वहाँ आए । उन स्थानों पर कुण्डलयुगल रखा । उस कुण्डलयुगल को परिणत करते हुए उसका जोड़ साँधना चाहा, परन्तु साँधने में समर्थ न हो सके। तत्पश्चात् वह सुवर्णकार श्रेणी, कुम्भ राजा के पास आई । आकर दोनो हाथ जोड़कर और जय-विजय शब्दों से बधाकर इस प्रकार निवेदन किया-'स्वामिन् ! आज आपने हम लोगों को बुलाकर यह आदेश दिया था कि कुण्डलयुगल की संधि जोड़कर मेरी आज्ञा वापिस लौटाओ । हम अपने स्थानों पर गए, बहुत उपाय किये, परन्तु इस संधि को जोड़ने के लिए शक्तिमान न हो सके । अत एव हे स्वामिन् ! हम दिव्य कुण्डलयुगल सरीखा दूसरा कुण्डल युगल बना दें ।' सुवर्णकारों का कथन सूनकर और हृदयंगम करके कुम्भ राजा ऋद्ध हो गया । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 76 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक ललाट पर तीन सलवट डालकर इस प्रकार कहने लगा-' अरे ! तुम कैसे सुनार हो, इस कुण्डलयुगल का जोड़ भी साँध नहीं सकते ?' ऐसा कहकर उन्हें देशनिर्वासन की आज्ञा दे दी। तत्पश्चात् कुम्भ राजा द्वारा देशनिर्वासन की आज्ञा पाए हुए वे सुवर्णकार अपने-अपने घर आकर अपने भांड, पात्र और उपकरण आदि लेकर मिथिला नगरी के बीचोंबीच होकर नीकले । विदेह जनपद के मध्य में होकर जहाँ काशी जनपद था और जहाँ वाराणसी नगरी थी, वहाँ आए । उत्तम उद्यान में गाड़ी-गाड़े छोड़कर महान अर्थ वाले राजा के योग्य बहुमूल्य उपहार लेकर, वाराणसी नगरी के बीचोंबीच होकर जहाँ काशीराज शंख था वहाँ आए । दोनों हाथ जोड़कर यावत् जय-विजय शब्दों से बधाकर वह उपहार राजा के सामने रखकर शंख राजा से इस प्रकार निवेदन किया। हे स्वामिन् ! राजा कुम्भ के द्वारा मिथिला नगरी से निर्वासित हुए हम सीधे यहाँ आए हैं । हे स्वामिन् ! हम आपकी भजाओं की छाया ग्रहण किये हए निर्भय और उद्धेगरहित होकर सुख-शान्तिपूर्वक निवास करना चाहते हैं। तब काशीराज शंख ने उन सुवर्णकारों से कहा- देवानप्रियो ! कुम्भ राजा ने तुम्हें देश-नीकाले की आज्ञा क्यों दी ?' तब सुवर्णकारों ने शंख राजा से कहा-'स्वामिन् ! कुम्भ राजा की पुत्री और प्रभावती देवी की आत्मजा मल्ली कुमारी के कुण्डलयुगल का जोड़ खुल गया था । तब कुम्भ राजा ने सुवर्णकारों की श्रेणी को बुलाया । यावत् देशनिर्वासन की आज्ञा दे दी ।' शंख राजा ने सुवर्णकारों से कहा-'देवानुप्रियो ! कुम्भ राजा की पुत्री और प्रभावती की आत्मजा विदेहराज की श्रेष्ठ कन्या मल्ली कैसी है ?' तब सुवर्णकारों ने शंख राजा से कहा-'स्वामिन्! जैसी विदेहराज की श्रेष्ठ कन्या मल्ली है, वैसी कोई देवकन्या यावत् कोई राजकुमारी भी नहीं है । कुण्डल की जोड़ी से जनित हर्ष वाले शंख राजा ने दूत को बुलाया यावत् मिथिला जाने को रवाना हो गया । सूत्र - ९१ उस काल और उस समय में कुरु नामक जनपद था । उसमें हस्तिनापुर नगर था । अदीनशत्रु नामक वहाँ राजा था । यावत् वह विचरता था । उस मिथिला नगरी में कुम्भ राजा का पुत्र, प्रभावती महारानी का आत्मज और कुमारी का अनुज मल्लदिन्न नामक कुमार था । वह युवराज था । किसी समय एक बार मल्लदिन्न कुमार ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया । बुलाकर इस प्रकार कहा-'तुम जाओ और मेरे घर के उद्यान में एक बड़ी चित्रसभा का निर्माण करो, जो सैकड़ों स्तम्भों से युक्त हो, इत्यादि।' यावत् उन्होंने ऐसा ही करके, चित्रसभा का निर्माण कर के आज्ञा वापिस लौटा दी। तत्पश्चात् मल्लदिन्न कुमार ने चित्रकारों की श्रेणी को बुलाकर कहा- देवानुप्रियो ! तुम लोग चित्रसभा को हाव, भाव, विलास, बिब्बोक से युक्त रूपों से चित्रित करो । चित्रित करके यावत् मेरी आज्ञा वापिस लौटाओ ।' तत्पश्चात् चित्रकारों की श्रेणी ने कुमार की आज्ञा शिरोधार्य की । फिर वे अपने-अपने घर जाकर उन्होंने तूलिकाएं लीं और रंग लिए । लेकर जहाँ चित्रसभा थी वहाँ आए । चित्रसभा में प्रवेश करके भूमि भागों का विभाजन किया। विभाजन करके अपनी-अपनी भूमि को सज्जित किया तैयार किया-चित्रों के योग्य बनाया । सज्जित करके चित्रसभा में हाव-भाव आदि से युक्त चित्र अंकित करने में लग गए । उन चित्रकारों में से एक चित्रकार की ऐसी चित्रकारलब्धि लब्ध थी, प्राप्त थी और बार-बार उपयोग में आ चूकी थी कि वह जिस किसी द्विपद, चतुष्पद और अपद का एक अवयव भी देख ले तो उस अवयव के अनुसार उसका पूरा चित्र बना सकता था । उस समय एक बार उस लब्धि-सम्पन्न चित्रकारदारक ने यवनिका-पर्दे की ओट में रही हुई मल्ली कुमारी के पैर का अंगूठा जाली में से देखा-तत्पश्चात् उस चित्रकारदार को ऐसा विचार उत्पन्न हआ, यावत मल्ली कमारी के पैर के अंगठे के अनुसार उसका हूबहू यावत् गुणयुक्त-सुन्दर पूरा चित्र बनाना चाहिए । उसने भूमि के हिस्से को ठीक करके मल्ली के पैर के अंगूठे का अनुसरण करके यावत् उसका पूर्ण चित्र बना दिया। तत्पश्चात् चित्रकारों की उस मण्डली ने चित्रसभा को यावत् हाव, भाव, विलास और बिब्बोक से चित्रित किया । चित्रित करके जहाँ मल्लूदिन्न कुमार था, वहाँ गई । जाकर यावत् कुमार की आज्ञा वापिस लौटाई मल्लदिन्न कुमार ने चित्रकारों की मण्डली का सत्कार किया, सम्मान किया, सत्कार-सम्मान करके जीविका के मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 77 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक योग्य विपुल प्रीतिदान दिया, दे करके बिदा कर दिया । ततपश्चात् किसी समय मल्लदिन्न कुमार स्नान करके, वस्त्राभूषण धारण करके अन्तःपुर एवं परिवार सहित, धायमाता को साथ लेकर, जहाँ चित्रसभा थी, वहाँ आया । आकर चित्रसभा के भीतर प्रवेश किया । हाव, भाव, विलास और बिब्बोक से युक्त रूपों को देखता-देखता जहाँ विदेह की श्रेष्ठ राजकन्या मल्ली का उसी के अनुरूप चित्र बना था, उसी ओर जाने लगा । उस समय मल्लदिन्न कुमार ने विदेह की उत्तम राजकुमारी मल्ली का, उसके अनुरूप बना हुआ चित्र देखा । उसे विचार उत्पन्न हुआ'अरे, यह तो विदेहवह राजकन्या मल्ली है !' यह विचार आते ही वह लज्जित हो गया, वीडित हो गया और व्यर्दित हो गया, अत एव वह पीछे लौट गया। तत्पश्चात् रटते हुए मल्लमदिन्न को देखकर धाय माता ने कहा- हे पुत्र ! तुम लज्जित, व्रीडित और व्यर्दित होकर धीरे-धीरे हट क्यों रहे हो ?' तब मल्लदिन्न ने धाय माता से इस प्रकार कहा-'माता ! मेरी गुरु और देवता के समान ज्येष्ठ भगिनी के, जिससे मुझे लज्जित होना चाहिए, सामने, चित्रकारों की बनाई इस सभा में प्रवेश करना क्या योग्य है ?' धाय माता ने मल्लदिन्न कुमार से इस प्रकार कहा-'हे पुत्र ! निश्चय ही यह साक्षात् विदेह की उत्तम कुमारी मल्ली नहीं है किन्तु चित्रकार ने उसके अनुरूप चित्रित की है तब मल्लदिन्न कुमार धाय माता के इस कथन को सूनकर और हृदय में धारण करके एकदम क्रुद्ध हो उठा और बोला- कौन है वह चित्रकार मौत की ईच्छा करने वाला, यावत् जिसने गुरु और देवता के समान मेरी ज्येष्ठ भगिनी का यावत् यह चित्र बनाया है ?' इस प्रकार कहकर उसने चित्रकार का वध करने की आज्ञा दे दी। तत्पश्चात् चित्रकारों की वह श्रेणी इस कथा-वृत्तान्त को सूनकर और समझकर जहाँ मल्लदिन्न कुमार था, वहाँ आई । आकर दोनों हाथ जोड़कर यावत् मस्तक पर अंजलि करके कुमार को बधाया । बधाकर इस प्रकार कहा-'स्वामिन् ! निश्चय ही उस चित्रकार को इस प्रकार की चित्रकारलब्धि लब्ध हई, प्राप्त हुई और अभ्यास में आई है कि वह किसी द्विपद आदि के एक अवयव को देखता है, यावत् वह उसका वैसा ही पूरा रूप बना देता है। अत एव हे स्वामिन् ! आप उस चित्रकार के वध की आज्ञा मत दीजिए । हे स्वामिन् ! आप उस चित्रकार को कोई दूसरा योग्य दण्ड दे दीजिए । तत्पश्चात् मल्लदिन्न ने उस चित्रकार के संडासक छेदन करवा दिया और उसे देशनिर्वासन की आज्ञा दे दी । तब मल्लदिन्न के द्वारा देशनिर्वासन की आज्ञा पाया हुआ वह चित्रकार अपने भांड, पात्र और उपकरण आदि लेकर मिथिला नगरी से नीकला । विदेह जनपद के मध्य में होकर जहाँ हस्तिनापुर नगर था, जहाँ कुरु नामक जनपद था और जहाँ अदीनशत्रु नामक राजा था, वहाँ आया । उसने अपना भांड आदि रखा । रखकर चित्रफलक ठीक किया । विदेह की श्रेष्ठ राजकुमारी मल्ली के पैर के अंगूठे के आधार पर उसका समग्र रूप चित्रित किया । चित्रफलक अपनी काँख में दबा लिया। फिर महान् अर्थ वाला यावत् राजा के योग्य बहुमूल्य उपहार ग्रहण किया । ग्रहण करके हस्तिनापुर नगर के मध्य में होकर अदीनशत्रु राजा के पास आया । दोनों हाथ जोड़कर उसे बधाया और उपहार उसके सामने रख दिया । फिर चित्रकार ने कहा-'स्वामिन् ! मिथिला राजधानी में कुम्भ राजा के पुत्र और प्रभावती देवी के आत्मज मल्लदिन्न कुमार ने मुझे देश-नीकाले की आज्ञा दी, इस कारण मैं सीधा यहाँ आया हूँ । हे स्वामिन् ! आपकी बाहुओं की छाया से परिगृहीत होकर यावत् मैं यहाँ बसना चाहता हूँ।' तत्पश्चात् अदीनशत्रु राजा ने चित्रकारपुत्र से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! मल्लदिन्न कुमार ने तुम्हें किस कारण देश-निर्वासन की आज्ञा दी ?' चित्रकारपुत्र ने अदीनशत्रु राजा से कहा-'हे स्वामिन् ! मल्लदिन्न कुमार ने एक बार किसी समय चित्रकारों की श्रेणी को बुलाकर इस प्रकार कहा था-'हे देवानुप्रियो ! तुम मेरी चित्रसभा को चित्रित करो;' यावत् कुमार ने मेरा संडासक कटवा कर देश-निर्वासन की आज्ञा दे दी। तत्पश्चात् अदीनशत्रु राजा ने उस चित्रकार से कहा-देवानुप्रिय ! तुमने मल्ली कुमारी का उसके अनुरूप चित्र कैसा बनाया था ? तब चित्रकार ने अपनी काँख में से चित्रफलक नीकालकर अदीनशत्रु राजा के पास रख दिया और कहा-'हे स्वामिन् ! विदेहराज की श्रेष्ठ कन्या मल्ली का उसी के अनुरूप यह चित्र मैंने कुछ आकार, भाव और प्रतिबिम्ब के रूप में चित्रित किया है । विदेहराज की श्रेष्ठ कुमारी मल्ली का हूबहू रूप तो कोई देव भी मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 78 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र - ६, 'ज्ञाताधर्मकथा ' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक चित्रित नहीं कर सकता । चित्र को देखकर हर्ष उत्पन्न होने के कारण अदीनशत्रु राजा ने दूत को बुलाकर कहायावत् दूत मिथिला जाने के लिए रवाना हो गया। सूत्र - ९२ उस काल और उस समय में पंचाल नामक जनपद में काम्पिल्यपुर नामक नगर था । वहाँ जितशत्रु नामक राजा था, वही पंचाल देश का अधिपति था । उस जितशत्रु राजा के अन्तःपुर में एक हजार रानियाँ थीं । मिथिला नगरी में चोक्खा नामक परिव्राजिका रहती थी। मिथिला नगरी में बहुत-से राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि के सामने दानधर्म, शौचधर्म, और तीर्थस्नान का कथन करती, प्रज्ञापना करती, प्ररूपणा करती और उपदेश करती रही थी । एक बार किसी समय वह चोक्खा परिव्राजिका त्रिदण्ड, कुण्डिका यावत् धातु से रंगे वस्त्र लेकर परिव्राजिकाओं के मठ से बाहर नीकली। थोड़ी परिव्राजिकाओं से घिरी हुई मिथिला राजधानी के मध्य में होकर कुम्भ राजा का भवन था, जहाँ कन्याओं का अन्तःपुर था और जहाँ विदेह की उत्तम राजकन्या मल्ली थी, वहाँ आई। भूमि पर पानी छिड़का, उस पर डाभ बिछाया और उस पर आसन रखकर बैठी विदेहवर राजकन्या मल्ली के सामने दानधर्म, शौचधर्म, तीर्थस्नान का उपदेश देती हुई विचरने लगी- उपदेश देने लगी । तब विदेहवर राजकन्या मल्ली ने चोक्खा परिव्राजिका से पूछा- चोक्खा ! तुम्हारे धर्म का मूल क्या कहा गया है ?' तब चोक्खा परिव्राजिका ने उत्तर दिया- 'देवानुप्रिय ! मैं शौचमूलक धर्म का उपदेश करती हूँ । हमारे मत कोई भी वस्तु अशुचि होती है, उसे जल से और मिट्टी से शुद्ध किया जाता है यावत् इस धर्म का पालन करने से हम निर्विघ्न स्वर्ग जाते हैं । तत्पश्चात् विदेहराजवरकन्या मल्ली ने चोक्खा परिव्राजिका से कहा- ' चोक्खा ! जैसे कोई अमुक नामधारी पुरुष रुधिर से लिप्त वस्त्र को रुधिर से ही धोवे, तो हे चोक्खा ! उस रुधिरलिप्त और रुधिर से ही धोए जाने वाले वस्त्र की कुछ शुद्धि होती है ?' परिव्राजिका ने उत्तर दिया- नहीं, यह अर्थ समर्थ नहीं ।' मल्ली ने कहा-' इसी प्रकार चोक्खा ! तुम्हारे मत में प्राणातिपात से यावत् मिथ्यादर्शनशल्य से कोई शुद्धि नहीं है, जैसे रुधिर से लिप्त और रुधिर से ही धोये जाने वाले वस्त्र की कोई शुद्धि नहीं होती। तत्पश्चात् विदेहराजवरकन्या मल्ली के ऐसा कहने पर उस चोक्खा परिव्राजिका को शंका उत्पन्न हुई, कांक्षा हुई और विचिकित्सा हुई और वह भेद को प्राप्त हुई अर्थात् उसने मन में तर्क-वितर्क होने लगा। वह मल्ली को कुछ भी उत्तर देने में समर्थ नहीं हो सकी, अत एव मौन रह गई। तत्पश्चात् मल्ली की बहुत-सी दासियाँ चोक्खा परिव्राजिका की हीलना करने लगीं, मन से निन्दा करने लगीं, खिंसा करने लगीं, गर्हा कितनीक दासियाँ उसे क्रोधित करने लगीं, कोई कोई मुँह मटकाने लगीं, उपहास तर्जना ताड़ना करके उसे बाहर कर दिया । तत्पश्चात् विदेहराज की उत्तम कन्या मल्ली की दासियों द्वारा यावत् गर्हा की गई और अवहेलना की गई वह चोक्खा एकदम क्रुद्ध हो गई और क्रोध से मिसमिसाती हुई विदेहराजवरकन्या मल्ली के प्रति द्वेष को प्राप्त हुई । उसने अपना उपकरण उठाया, कन्याओंके अन्तःपुरसे नीकल गई। वहाँ से नीकलकर परिव्राजिकाओंके साथ जहाँ पंल जनपद था, जहाँ कम्पिल्यपुर नगर था वहाँ आई और बहुत से राजाओं एवं ईश्वरों- राजकुमारों-ऐश्वर्यशाली जनों आदि के सामने यावत् अपने धर्म की दानधर्म, शौचधर्म, तीर्थाभिषेक आदि की प्ररूपणा करने लगी । तत्पश्चात् जितशत्रु राजा एक बार किसी समय अपने अन्तःपुर और परिवार से परिवृत्त होकर सिंहासन पर बैठा था । परिव्राजिकाओं से परिवृत्ता वह चोक्खा जहाँ जितशत्रु राजा का भवन था और जहाँ जितशत्रु राजा था, वहाँ आई । आकर भीतर प्रवेश किया । जय-विजय के शब्दों से जितशत्रु का अभिनन्दन किया । उस समय जितशत्रु राजा ने चोक्खा परिव्राजिका को आते देखकर सिंहासन से उठा । चोक्खा परिव्राजिका का सत्कार किया सम्मान किया। आसन के लिए निमंत्रण किया। तत्पश्चात् वह चोक्खा परिव्राजिका जल छिड़ककर यावत् डाभ पर बिछाए अपने आसन पर बैठी। फिर उसने जितशत्रु राजा, यावत् अन्तःपुर के कुशल- समाचार पूछे । उसके बाद चोक्खा ने जितशत्रु राजा को दानधर्म आदि का उपदेश दिया। तत्पश्चात् वह जितशत्रु राजा अपनी रानियों के सौन्दर्य आदि में विस्मययुक्त था, अतः उसने चोक्खा परिव्राजिका से पूछा-'हे देवानुप्रिय ! तुम बहुत-से मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा )" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद" Page 79 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक गाँवों, आकरों आदि में यावत् पर्यटन करती हो और बहुत-से राजाओं एवं ईश्वरों के घरों में प्रवेश करती हो तो कहीं किसी भी राजा आदि का ऐसा अन्तःपुर तेमने कभी पहले देखा है, जैसा मेरा यह अन्तःपुर है ?' तब चोक्खा परिव्राजिका जितशत्रु राजा के उस प्रकार कहने पर थोड़ी मुस्करा कर बोली-देवानुप्रिय ! तुम उस कूप-मंडूक के समान जान पड़ते हो ।' जितशत्रु ने पूछा-'देवानुप्रिय ! कौन-सा वह कूपमंडूक ?' चोक्खा बोली-'जितशत्रु ! एक कुएं का मेंढक था । वह मेंढक उसी कूप में उत्पन्न हुआ था, उसी में बढ़ा था । उसने दूसरा कूप, तालाब, ह्रद, सर अथवा समुद्र देखा नहीं था । अत एव वह मानता था कि यही कूप है और यही सागर है, किसी समय उस कूप में एक समुद्री मेंढक अचानक आ गया । तब कूप के मेंढक ने कहा-'देवानुप्रिय ! तुम कौन हो ? कहाँ से अचानक यहाँ आए हो ?' तब समुद्र के मेंढक ने कूप के मेंढक से कहा- देवानुप्रिय ! मैं समुद्र का मेंढक हँ । तब कपमंड्रक ने समुद्रमंडूक से कहा-'देवानुप्रिय ! वह समुद्र कितना बड़ा है कूपमडूक से कहा-'देवानुप्रिय ! समुद्र बहुत बड़ा है ।' तब कूपमंडूक ने अपने पैर से एक लकीर खींची और कहा -देवानुप्रिय ! क्या इतना बड़ा है ?' समुद्रीमंडूक ने कहा इस से भी बड़ा है, कूपमण्डूक पूर्व दिशा के किनारे से उछल कर दूर गया और फिर बोला-देवानुप्रिय ! वह समुद्र क्या इतना बड़ा है ? समुद्री मेंढक ने कहा-'यह अर्थ समर्थ नहीं । इसी प्रकार उत्तर देता गया। इसी प्रकार हे जितशत्रु ! दूसरे बहुत से राजाओं एवं ईश्वरों यावत् सार्थवाह आदि की पत्नी, भगिनी, पुत्री अथवा पुत्रवधू तुमने देखी नहीं । इसी कारण समझते हो कि जैसा मेरा अन्तःपुर है, वैसा दूसरे का नहीं है । हे जितशत्रु ! मिथिला नगरी में कुम्भ राजा की पुत्री और प्रभावती की आत्मजा मल्लीकुमारी रूप और यौवन में तथा लावण्य में जैसी उत्कृष्ट एवं उत्कृष्ट शरीर वाली है, वैसी दूसरी कोई देवकन्या भी नहीं है । विदेहराज की श्रेष्ठ कन्या के काटे हुए पैर के अंगुल के लाखवें अंश के बराबर भी तुम्हारा यह अन्तःपुर नहीं है। इस प्रकार कहकर वह परिव्राजिका जिस दिशा से प्रकट हुई थी उसी दिशा में लौट गई। परिव्राजिका के द्वारा उत्पन्न किये गये हर्ष वाले राजा जितशत्रु ने दूत को बुलाया । पहले के समान सब कहा । यावत् वह दूत मिथिला जाने के लिए रवाना हुआ। सूत्र-९३ इस प्रकार उन जितशत्रु प्रभृति छहों राजाओं के दूत, जहाँ मिथिला नगरी थी वहाँ जाने के लिए रवाना हो गए । छहों दूत जहाँ मिथिला थी, वहाँ आए । मिथिला के प्रधान उद्यान में सब ने अलग-अलग पड़ाव डाले । फिर मिथिला राजधानी में प्रवेश करके कुम्भ राजा के पास आए । प्रत्येक-प्रत्येक ने दोनों हाथ जोड़े और अपने-अपने राजाओं के वचन निवेदन किए । कुम्भ राजा उन दूतों से यह बात सूनकर एकदम क्रुद्ध हो गया । यावत् ललाट पर तीन सल डालकर उसने कहा- मैं तुम्हें विदेहराज की उत्तम कन्या मल्ली नहीं देता ।' छहों का सत्कार-सम्मान न करके उन्हें पीछे के द्वार से नीकाल दिया। कुम्भ राजा के द्वारा असत्कारित, असम्मानित और अपद्वार से निष्कासित वे छहों राजाओं के दूत जहाँ अपने-अपने जनपद थे, जहाँ अपने-अपने नगर थे और जहाँ अपने-अपने राजा थे, वहाँ पहुँचकर हाथ जोड़कर एवं मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार कहने लगे-'इस प्रकार हे स्वामिन् ! हम जितशत्रु वगैरह छह राजाओं के दूत एक साथ ही जहाँ मिथिला नगरी थी, वहाँ पहुँचे । मगर यावत् राजा कुम्भ ने सत्कार-सम्मान न करके हमें अपद्वार से नीकाल दिया । सो हे स्वामिन् ! कुम्भ राजा विदेहराजवरकन्या मल्ली आप को नहीं देता ।' दूतों ने अपने-अपने राजाओं से यह अर्थ-वृत्तान्त निवेदन किया । तत्पश्चात् वे जितशत्रु वगैरह छहों राजा उन दूतों से इस अर्थ को सूनकर कुपित हुए । उन्होंने एक दूसरे के पास दूत भेजे और इस प्रकार कहलवाया-'हे देवानुप्रिय ! हम छहों राजाओं के दूत एक साथ ही यावत् नीकाल दिये गए । अत एव हे देवानुप्रिय ! हम लोगों को कुम्भ राजा की और प्रयाण करना चाहिए । इस प्रकार कहकर उन्होंने एक दूसरे की बात स्वीकार की । स्वीकार करके स्नान किया सन्नद्ध हुए । हाथी के स्कन्ध पर आरूढ़ हुए । कोरंट वृक्ष के फूलों की माला वाला छत्र धारण किया । श्वेत चामर उन पर ढोरे जाने लगे । बड़े-बड़े घोड़ों, हाथियों, रथों और उत्तम योद्धाओं सहित चतुरंगिणी सेना से परिवृत्त मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 80 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक होकर, सर्व ऋद्धि के साथ, यावत् दुंदुभि की ध्वनि के साथ अपने-अपने नगरों से नीकले । एक जगह इकट्ठे होकर जहाँ मिथिला नगरी थी, वहाँ जाने के लिए तैयार हुए। तत्पश्चात् कुम्भ राजा ने इस कथा का अर्थ जानकर अपने सेनापति को बुलाकर कहा-'हे देवानुप्रिय ! शीघ्र ही घोड़ों, हाथियों, रथों और उत्तम योद्धाओं से युक्त चतुरंगी सेना तैयार करो ।' यावत् सेनापति ने सेना को तैयार करके आज्ञा वापिस लौटाई । तत्पश्चात् कुम्भ राजा ने स्नान किया । कवच धारण करके सन्नद्ध हुआ । श्रेष्ठ हाथी के स्कन्ध पर आरूढ़ हुआ । कोरंट के फूलों की माला वाला छत्र धारण किया । उसके ऊपर श्रेष्ठ और श्वेत चामर ढोरे जाने लगे । यावत् मिथिला राजधानी के मध्य में होकर नीकला । विदेह जनपद के मध्य में होकर जहाँ अपने देश का अन्त था, वहाँ आया । वहाँ पड़ाव डाला । जितशत्रु प्रभृति छहों राजाओं की प्रतीक्षा करता हुआ युद्ध के लिए सज्ज होकर ठहर गया । तत्पश्चात् वे जितशत्रु प्रभृति छहों राजा, जहाँ कुम्भ राजा था, वहाँ आकर कुम्भ राजा के साथ युद्ध करने में प्रवृत्त हो गए। तत्पश्चात् उन जितशत्रु प्रभृति छहों राजाओं ने कुम्भ राजा के सेन्य का हनन किया, मंथन किया, उसके अत्युत्तम योद्धाओं का घात किया, उसकी चिह्न रूप ध्वजा और पताका को छिन्न-भिन्न करके नीचे गिरा दिया । उसके प्राण संकट में पड़ गए । उसकी सेना चारों दिशाओं में भाग नीकली । तब वह कुम्भ राजा जितशत्रु आदि छह राजाओं के द्वारा हत, मानमर्दित यावत् जिसकी सेना चारों ओर भाग खड़ी हुई है ऐसा होकर, सामर्थ्यहीन, बलहीन, पुरुषार्थ-पराक्रमहीन, त्वरा के साथ, यावत् वेग के साथ जहाँ मिथिला नगरी थी, वहाँ आया । मिथिला नगरी में प्रविष्ट होकर उसने मिथिला के द्वार बन्द कर लिए। किले का रोध करने में सज्ज होकर ठहरा । जितशत्रु प्रभृति छहों नरेश जहाँ मिथिला नगरी थी, वहाँ आए । मिथिला राजधानी को मनुष्यों के गमनागमन से रहित कर दिया, यहाँ तक कि कोट के ऊपर से भी आवागमन रोक दिया अथवा मल त्यागने के लिए भी आना-जाना रोक दिया । उन्होंने नगरी को चारों ओर से घेर लिया । कुम्भ राजा मिथिला राजधानी को घिरी जानकर आभ्यन्तर उपस्थानशाला में श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठा । वह जितशत्रु आदि छहों राजाओं के छिद्रों को, विवरों को और मर्म को पा नहीं सका । अत एव बहुत से आयों से, उपायों से तथा औत्पत्तिकी आदि चारों प्रकार की बुद्धि से विचार करतेकरते कोई भी आय या उपाय न पा सका । तब उसके मन का संकल्प क्षीण हो गया, यावत् वह हथेली पर मुख रखकर आर्त्तध्यान करने लगा-चिन्ता में डूब गया। इधर विदेहराजवरकन्या मल्ली ने स्नान किया, यावत् बहुत-सी कुब्जा आदि दासियों से परिवृत्त होकर जहाँ कुम्भ राजा था, वहाँ आई । आकर उसने कुम्भ राजा का चरण ग्रहण किया-पैर छुए । तब कुम्भ राजा ने विदेहराजवरकन्या मल्ली का आदर नहीं किया, अत्यन्त गहरी चिन्ता में व्यग्र होने के कारण उसे उसका आना भी मालूम नहीं हुआ, अत एव वह मौन ही रहा । तत्पश्चात् विदेहराजवरकन्या मल्ली ने राजा कुंभ से इस प्रकार कहा 'हे तात ! दूसरे समय मुझे आती देखकर आप यावत् मेरा आदर करते थे, प्रसन्न होते थे, गोद में बिठाते थे, परन्तु क्या कारण है कि आज आप अवहत मानसिक संकल्प वाले होकर चिन्ता कर रहे हैं ?' तब राजा कुम्भ ने विदेहराजवरकन्या मल्ली से इस प्रकार कहा-'हे पुत्री ! इस प्रकार तुम्हारे लिए जितशत्रु प्रभृति छह राजाओं ने दूत भेजे थे । मैंने उन दूतों को अपमानित करके यावत् नीकलवा दिया । तब वे कुपित हो गए। उन्होंने मिथिला राजधानी को गमनागमनहीन बना दिया है, यावत् चारों ओर घेरा डालकर बैठे हैं । अत एव हे पुत्री ! मैं उन जितशत्रु प्रभृति नरेशों के अन्तर-छिद्र आदि न पाता हुआ यावत् चिन्ता में डूबा हूँ।' तत्पश्चात् विदेहराजवरकन्या मल्ली ने राजा कुम्भ से इस प्रकार कहा-तात ! आप अवहत मानसिक संकल्प वाले होकर चिन्ता न कीजिए । हे तात ! आप उन जितशत्रु आदि छहों राजाओं में से प्रत्येक के पास गुप्त रूप से दूत भेज दीजिए और प्रत्येक को यह कहला दीजिए कि 'मैं विदेहराजवरकन्या तुम्हें देता हूँ।' ऐसा कहकर अवसर पर जब बिरले मनुष्य गमनागमन करते हों और विश्राम के लिए अपने-अपने घरों में मनुष्य बैठे हों; उस समय अलग-अलग राजा का मिथिला राजधानी के भीतर प्रवेश कराइए । उन्हें गर्भगह के अन्दर ले मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 81 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक जाइए । फिर मिथिला राजधानी के द्वार बन्द करा दीजिए और नगरों के रोध में सज्ज होकर ठहरीए । तत्पश्चात् राजा कुम्भ ने इसी प्रकार किया । यावत् छहों राजाओं को प्रवेश कराया । वह नगरी के रोध में सज्ज होकर ठहरा। तत्पश्चात् जितशत्रु आदि छहों राजा दूसरे दिन प्रातःकाल जालियों में से स्वर्णमयी, मस्तक पर छिद्र वाली और कमल के ढक्कन वाली मल्ली की प्रतिमा को देखने लगे । यही विदेहराज की श्रेष्ठ कन्या मल्ली है। ऐसा जानकर विदेहराजवरकन्या मल्ली के रूप यौवन और लावण्य में मूर्छित, गृद्ध यावत् अत्यन्त लालायित होकर अनिमेष दृष्टि से बार-बार उसे देखने लगे। तत्पश्चात् विदेह राजवरकन्या मल्ली ने स्नान किया, यावत् कौतुक, मंगल, प्रायश्चित्त किया । वह समस्त अलंकारों से विभूषित होकर बहुत-सी कुब्जा आदि दासियों से यावत् परिवृत्त होकर जहाँ जालगृह था और जहाँ स्वर्ण की वह प्रतिमा थी, वहाँ आई । आकर उस स्वर्णप्रतिमा के मस्तक से वह कमल का ढक्कन ढक्कन हटाते ही उसमें से ऐसी दुर्गन्ध छूटी कि जैसे मरे साँप की दुर्गन्ध हो, यावत् उससे भी अधिक अशुभ । तत्पश्चात् जितशत्रु वगैरह ने उस अशुभ गंध से अभिभूत होकर-घबराकर अपने-अपने उत्तरीय वस्त्रों से मुँह ढंक लिया । मुँह ढंक कर वे मुख फेर कर खड़े हो गए । तब विदेहराजवरकन्या मल्ली ने उन जितशत्रु आदि से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रियो ! किस कारण आप अपने-अपने उत्तरीय वस्त्र से मुँह ढंक कर यावत् मुँह फेर कर खड़े हो गए। तब जितशत्रु आदि ने विदेहराजवरकन्या मल्ली से कहा-'देवानुप्रिये ! हम इस अशुभ गंध से घबराकर अपने -अपने यावत् उत्तरीय वस्त्र से मुख ढंक कर विमुख हुए हैं । तत्पश्चात् विदेहराजवरकन्या मल्ली ने उन जितशत्रु आदि राजाओं से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रियो ! इस स्वर्णमयी प्रतिमा में प्रतिदिन मनोज्ञ अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार में से एक-एक पिण्ड डालते-डालते यह ऐसा अशुभ पुद्गल का परिणमन हुआ, तो यह औदारिक शरीर को कफ को झराने वाला है, खराब उच्छ्वास और निःश्वास नीकालने वाला है, अमनोज्ञ मूत्र एवं दुर्गन्धित मल से परिपूर्ण है, सड़ना, पड़ना, नष्ट होना और विध्वस्त होना इसका स्वभाव है, तो इसका परिणमन कैसा होगा? अत एव हे देवानुप्रियो ! आप मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों में राग मत करो, गद्धि मत करो, मोह मत करो और अतीव आसक्त मत होओ।' मल्ली कुमारी ने पूर्वभव का स्मरण कराते हुए आगे कहा-'इस प्रकार हे देवानुप्रियो ! तुम और हम इससे पहले के तीसरे भव में, पश्चिम महाविदेहवर्ष में, सलिलावती विजय में, वीतशोका नामक राजधानी में महाबल आदि सातों-मित्र राजा थे । हम सातों साथ जन्मे थे, यावत् साथ ही दीक्षित हुए थे । हे देवानुप्रियो ! उस समय इस कारण से मैंने स्त्रीनामगोत्र कर्म का उपार्जन किया था-अगर तुम लोग एक उपवास करके विचरते थे, तो मैं तुम से छिपकर बेला करती थी, इत्यादि पूर्ववत् । तत्पश्चात हे देवानप्रियो ! तुम कालमास में काल करके-यथासमय देह त्याग कर जयन्त विमान में उत्पन्न हुए । वहाँ तुम्हारी कुछ कम बत्तीस सागरोपम की स्थिति हुई । तत्पश्चात् तुम उस देवलोक से अनन्तर शरीर त्याग करके-चय करके-इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में उत्पन्न हुए, यावत् अपनेअपने राज्य प्राप्त करके विचर करके-इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में उत्पन्न हुए, यावत् अपने-अपने राज्य प्राप्त करके विचर रहे हो । मैं उस देवलोक से आयु का क्षय होने पर कन्या के रूप में आई हूँ-जन्मी हूँ। सूत्र - ९४ 'क्या तुम वह भूल गए? जिस समय हे देवानुप्रिय ! तुम जयन्त नामक अनुत्तर विमान में वास करते थे ? वहाँ रहते हुए 'हमें एक दूसरे को प्रतिबोध देना चाहिए। ऐसा परस्पर में संकेत किया था । तो तुम देवभव का स्मरण करो।' सूत्र - ९५ तत्पश्चात् विदेहराज की उत्तम कन्या मल्ली से पूर्वभव का यह वृत्तान्त सूनने और हृदय में धारण करने से, शुभ परिणामों, प्रशस्त अध्यवसायों, विशुद्ध होती हुई लेश्याओं और जातिस्मरण को आच्छादित करने वाले कर्मों के क्षयोपशम के कारण, ईहा-अपोह तथा मार्गणा और गवेषणा-विशेष विचार करने से जितशत्रु प्रभृति छहों मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 82 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक राजाओं की ऐसा जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ कि जिससे वे संज्ञी अवस्था के अपने पूर्वभव को उन्होंने सम्यक् प्रकार उसे जान लिया । तत्पश्चात् मल्ली अरिहंत ने जितशत्रु प्रभृति छहों राजाओं को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया जानकर गर्भगृहों के द्वार खुलवा दिए । तब जितशत्रु वगैरह छहों राजा मल्ली अरिहंत के पास आए । उस समय महाबल आदि सातों बालमित्रों का परस्पर मिलन हुआ । तत्पश्चात् अरिहंत मल्ली ने जितशत्रु वगैरह छहों राजाओं से कहा-हे देवानुप्रियो ! निश्चित रूप से मै संसार के भय से उद्विग्न हुई हूँ, यावत् प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहती हूँ। तो आप क्या करेंगे? कैसे रहेंगे? आपके हृदय का सामर्थ्य कैसा है ? तत्पश्चात् जितशत्रु आदि छहों राजाओं ने मल्ली अरिहंत से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिये ! अगर आप संसार के भय से उद्विग्न होकर यावत दीक्षा लेती हो, तो! हमारे लिए दसरा क्या आलंबन, आधार या प्रतिबन्ध है? जैसे आप इस भव से पूर्व के तीसरे भव में, बहत कार्यों में हमारे लिए मेढीभत, प्रमाणभत और धर्म की धरा के रूप में थी, उसी प्रकार अब भी होओ। हम भी संसार के भय से उद्विग्न हैं यावत् जन्म-मरण से भयभीत हैं; अत एव देवानुप्रिया के साथ मुण्डित होकर यावत् दीक्षा ग्रहण करने को तैयार हैं ।' तत्पश्चात् अरिहंत मल्ली ने उन जितशत्रु प्रभृति राजाओं से कहा-'अगर तुम संसार के भय से उद्विग्न हुए हो, यावत् मेरे साथ दीक्षित होना चाहते हो, तो जाओ अपने-अपने राज्य में और अपने-अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज्य पर प्रतिष्ठित करके हजार पुरुषों द्वारा वहन करने योग्य शिबिकाओं पर आरूढ होओ। आरूढ होकर मेरे समीप आओ। उन जितशत्र प्रभृति राजाओं ने मल्ली अरिहंत के इस अर्थ को अंगीकार किया। तत्पश्चात् मल्ली अरिहंत उन जितशत्रु वगैरह को साथ लेकर जहाँ कुम्भ राजा था, वहाँ आकर उन्हें कुम्भ राजा के चरणों में नमस्कार कराया । तब कुम्भ राजा ने उस जितशत्रु वगैरह का विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम से तथा पुष्प, वस्त्र, गंध, माल्य और अलंकारों से सत्कार किया, सम्मान किया । सत्कार-सम्मान करके उन्हें बिदा किया । तत्पश्चात् कुम्भ राजा द्वारा बिदा किये हुए जितशत्रु आदि राजा जहाँ अपने-अपने राज्य थे, नगर थे, वहाँ अपने-अपने राज्यों का उपभोग करते हुए विचरने लगे । तत्पश्चात् अरिहंत मल्ली ने अपने मन में ऐसी धारणा कि कि एक वर्ष के अन्त में मैं दीक्षा ग्रहण करूँगी।' सूत्र-९६,९७ उस काल और उस समय में शक्रेन्द्र का आसन चलायमान हुआ । तब देवेन्द्र देवराज शक्र ने अपना आसन चलायमान हुआ देख कर अवधिज्ञान का प्रयोग किया । तब इन्द्र को मन में ऐसा विचार, चिन्तन, एवं खयाल हआ कि जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, मिथिला राजधानी में कुम्भ राजा की पुत्री मल्ली अरिहंत में एक वर्ष के पश्चात् दीक्षा लूँगी' ऐसा विचार किया है । अतीत काल, वर्तमान काल और भविष्यत् काल के शक्र देवेन्द्र देवराजों का यह परम्परागत आचार है कि-तीर्थंकर भगवंत जब दीक्षा अंगीकार करने को हों, तो उन्हें इतनी अर्थ-सम्पदा देनी चाहिए। वह इस प्रकार- '३०० करोड़, ८८ करोड़ और ८० लाख द्रव्य इन्द्र अरिहंतों को देते हैं।' सूत्र-९८ शक्रेन्द्र ने ऐसा विचार किया । विचार करके उसने वैश्रमण देव को बुलाकर कहा-'देवानुप्रिय ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, यावत् तीन सौ अट्रासी करोड़ और अस्सी लाख स्वर्ण मोहरें देना उचित है । सो हे देवानुप्रिय ! तुम जाओ और जम्बूद्वीप में, भारतवर्ष में कुम्भ राजा के भवन में इतने द्रव्य का संहरण करो-इतना धन लेकर पहुंचा दो । पहुँचा कर शीघ्र ही मेरी यह आज्ञा वापिस सौंपो ।' तत्पश्चात् वैश्रमण देव, शक्र देवेन्द्र देवराज के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुआ । हाथ जोड़कर उसने यावत् मस्तक पर अंजलि घूमाकर आज्ञा स्वीकार की । स्वीकार करके जंभक देवों को बुलाकर कहा-'देवानुप्रियो ! तुम जम्बूद्वीप में, भारतवर्ष में और मिथिला राजधानी में जाओ और कुम्भ राजा के भवन में तीन सौ अट्ठासी करोड़ अस्सी लाख अर्थ सम्प्रदान का संहरण करो, अर्थात् इतनी सम्पत्ति वहाँ पहुँचा दो । संहरण करके यह आज्ञा मुझे वापिस लौटाओ।' तत्पश्चात् वे मुंभक देव, वैश्रमण देव की आज्ञा सूनकर उत्तरपूर्व दिशा में गए । जाकर उत्तर वैक्रिय रूपों मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 83 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक की विकुर्वणा की । देव सम्बन्धी उत्कृष्ट गति से जाते हुए जहाँ जम्बूद्वीप था, भरतक्षेत्र था, जहाँ मिथिला राजधानी थी और जहाँ कुम्भ राजा का भवन था, वहाँ पहुँचे । कुम्भ राजा के भवन में आदि पूर्वोक्त द्रव्य सम्पत्ति पहुँचा दी। पहुँचा कर वे मुंभक देव, वैश्रमण देव के पास आए और उसकी आज्ञा वापिस लौटाई । वह वैश्रमण देव जहाँ शक्र देवेन्द्र देवराज थे, वहाँ आया । आकर दोनों हाथ जोड़कर यावत् उसने इन्द्र की आज्ञा वापिस सौंपी । मल्ली अरिहंत ने प्रतिदिन प्रातःकाल से प्रारम्भ करके मगध देश के प्रातराश समय तक बहुत-से सनाथों, अनाथों, पांथिको-पथिकों-करोटिक, कार्पटिक पूरी एक करोड़ और आठ लाख स्वर्णमोहरें दान में देना आरम्भ किया। तत्पश्चात् कुम्भ राजा ने भी मिथिला राजधानी में तत्र तत्र अर्थात् विभिन्न मुहल्लों या उपनगरों में, तहिं तहिं अर्थात् महामार्गों में तथा अन्य अनेक स्थानों में, देश देश अर्थात् त्रिक, चतुष्क आदि स्थानों-स्थानों में बहुत-सी भोजनशालाएं बनवाईं। उन भोजनशालाओं में बहुत-से मनुष्य, जिन्हें धन, भोजन और वेतन-मूल्य दिया जाता था, विपल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन बनाते थे। जो लोग जैसे-जैसे आते-जाते थे जैसे किपांथिक, करोटिक, कार्पटिक, पाखण्डी अथवा गृहस्थ, उन्हें आश्वासन देकर, विश्राम देकर और सुखद आसन पर बिठला कर विपुल अशन, पान, स्वाद्य और खाद्य दिया जाता था, परोसा जाता था । वे मनुष्य जहाँ भोजन आदि देते रहते थे । तत्पश्चात् मिथिला राजधानी में शृंगाटक, त्रिक, चौक आदि मार्गों में बहुत-से लोग परस्पर इस प्रकार कहने लगे-'हे देवानुप्रियो ! कुम्भ राजा के भवन में सर्वकामगुणित तथा ईच्छानुसार दिया जाने वाला विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार बहत-से श्रमणों आदि को यावत परोसा जाता है। सूत्र - ९९ वैमानिक, भवनपति, ज्योतिष्क और व्यन्तर देवों तथा नरेन्द्रों अर्थात् चक्रवर्ती आदि राजाओं द्वारा पूजित तीर्थंकरों की दीक्षा के अवसर पर वरवरिका की घोषणा कराई जाती है, और याचकों को यथेष्ट दान दिया जाता है। सूत्र-१०० उस समय अरिहंत मल्ली ने तीन सौ अट्ठासी करोड़ अस्सी लाख जितनी अर्थसम्पदा दान देकर मैं दीक्षा ग्रहण करूँगा' ऐसा मन में निश्चय किया। सूत्र - १०१, १०२ उस काल और उस समय में लौकान्तिक देव ब्रह्मलोक नामक पाँचवे देवलोक में, अरिष्ट नामक विमान के प्रस्तट में, अपने-अपने विमान से, अपने-अपने उत्तम प्रासादों से, प्रत्येक-प्रत्येक चार-चार हजार सामानिक देवों से, तीन-तीन परिषदों से सात-सात अनीकों से, सात-सात अनीकाधिपतियों से, सोलह-सोलह हजार आत्मरक्षक देवों से तथा अन्य अनेक लौकान्तिक देवों से युक्त-परिवृत्त होकर, खूब जोर से बजाये जाते हुए नृत्यों-गीतों के शब्दों के साथ दिव्य भोग भोगते हुए विचर रहे थे । उन लौकान्तिक देवों के नाम इस प्रकार हैं । सारस्वत वह्नि आदित्य वरुण गर्दतोय तुषित अव्याबाध आग्नेय रिष्ट । सूत्र - १०३ तत्पश्चात् उन लौकान्तिक देवों में से प्रत्येक के आसन चलायमान हए-इत्यादि उसी प्रकार जानना दीक्षा लेने की ईच्छा करने वाले तीर्थंकरो को सम्बोधन करना हमारा आचार है; अतः हम जाएं और अरहन्त मल्ली को सम्बोधन करें, ऐसा लौकान्तिक देवों ने विचार किया । उन्होंने ईशान दिशा में जाकर वैक्रियसमुद्घात से विक्रिया की । समुद्घात करके संख्यात योजन उल्लंघन करके, मुंभक देवों की तरह जहाँ मिथिला राजधानी थी, जहाँ कुम्भ राजा का भवन था और जहाँ मल्ली नामक अर्हत् थे, वहाँ आकर के-अधर में स्थित रहकर घुघरूओं के शब्द सहित यावत् श्रेष्ठ वस्त्र धारण करके, दोनों हाथ जोड़कर, इष्ट, यावत् वाणी से बोले-'हे लोक के नाथ ! हे भगवन् ! बूझो-बोध पाओ । धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति करो । वह धर्मतीर्थ जीवों के लिए हितकारी, सुखकारी और निःश्रेयसकारी होगा। इस प्रकार कहकर दूसरी बार और तीसरी बार भी कहा । अरहंत मल्ली को वन्दना की, नमस्कार किया । वन्दना और नमस्कार करके जिस दिशा से आए थे उसी दिशा में लौट गए। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 84 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक तत्पश्चात् लौकान्तिक देवों द्वारा सम्बोधित मल्ली अरहंत माता-पिता के पास आए । आकर दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि करके कहा-'हे माता-पिता ! आपकी आज्ञा प्राप्त करके मुण्डित होकर गृहत्याग करके अनगार-प्रव्रज्या ग्रहण करने की मेरी ईच्छा है । तब माता-पिता ने कहा-'हे देवानुप्रिये ! जैसे सुख उपजे वैसा करो । प्रतिबन्ध-विलम्ब मत करो । तत्पश्चात् कुम्भ राजा न कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया । बुलाकर कहा'शीघ्र ही एक हजार आठ सुवर्णकलश यावत् एक हजार आठ मिट्टी के कलश लाओ। उसके अतिरिक्त महान् अर्थ वाली यावत् तीर्थंकर के अभिषेक की सब सामग्री उपस्थित करो ।' यह सूनकर कौटुम्बिक पुरुषों ने वैसा ही किया, अर्थात् अभिषेक की समस्त सामग्री तैयार कर दी। उस काल और उस समय चामर नामक असुरेन्द्र से लेकर अच्युत स्वर्ग तक के सभी इन्द्र आ पहुँचे । तब देवेन्द्र देवराज शक्र ने आभियोगिक देवों को बुलाकर इस प्रकार कहा- 'शीघ्र ही एक हजार आठ स्वर्णकलश आदि यावत दूसरी अभिषेक के योग्य सामग्री उपस्थित करो ।' यह सुनकर आभियोगिक देवों ने भी सब सामग्री उपस्थित की । वे देवों के कलश उन्हीं मनुष्य गों के कलशों में समा गए । तत्पश्चात देवेन्द्र देवराज शक्र और कुम्भ राजा ने मल्ली अरहंत को सिंहासन के ऊपर पूर्वाभिमुख आसीन किया । फिर सुवर्ण आदि के एक हजार आठ पूर्वोक्त कलशों से यावत् उनका अभिषेक किया। तत्पश्चात् जब मल्ली भगवान् का अभिषेक हो रहा था, उस समय कोई-कोई देव मिथिला नगरी के भीतर और बाहर यावत् सब दिशाओं-विदिशाओं में दौड़ने लगे इधर-उधर फिरने लगे । तत्पश्चात् कुम्भ राजा ने दूसरी बार उत्तर दिशा में सिंहासन रखवाया यावत् भगवान् मल्ली को सर्व अलंकारों से विभूषित किया । कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार कहा-' शीघ्र ही मनोरमा नामकी शिबिका लाओ।' कौटुम्बिक पुरुष मनोरमा शिबिका ले आए । तत्पश्चात् देवेन्द्र देवराज शक्र ने आभियोगिक देवों को बुलाया । बुलाकर उनसे कहा-शीघ्र ही अनेक खम्भों वाली यावत मनोरमा नामक शिबिका उपस्थित करो । तब वे देव भी मनोरमा शिबिका लाये और वह शिबिका भी उसी मनुष्यों की शिबिका में समा गई। तत्पश्चात् मल्ली अरहंत सिंहासन से उठे । जहाँ मनोरमा शिबिका थी, उधर आकर मनोरमा शिबिका की प्रदक्षिणा करके मनोरमा शिबिका पर आरूढ़ हुए । पूर्व दिशा की ओर मुख करके सिंहासन पर बिराजमान हुए। कुम्भ राजा ने अठारह जातियों-उपजातियों को बुलवाकर कहा-'हे देवानुप्रियो ! तुम लोग स्नान करके यावत् सर्व अलंकारों से विभूषित होकर मल्ली कुमारी की शिबिका वहन करो ।' यावत् उन्होंने शिबिका वहन की । शक्र देवेन्द्र देवराज ने मनोरमा शिबिका की दक्षिण तरफ की ऊपरी बाहा ग्रहण की, ईशान इन्द्र ने उत्तर तरफ की ऊपरी बाहा ग्रहण की, चमरेन्द्र ने दक्षिण तरफ की और बली ने उत्तर तरफ की नीचली बाहा ग्रहण की । शेष देवों ने यथायोग्य उस मनोरमा शिबिका को वहन किया। सूत्र-१०४ मनुष्यों ने सर्वप्रथम वह शिबिका उठाई । उनके रोमकूप हर्ष के कारण विकस्वर हो रहे थे । उसके बाद असुरेन्द्रों, सुरेन्द्रों और नागेन्द्रों ने उसे वहन किया। सूत्र - १०५ चलायमान चपल कुण्डलों को धारण करनेवाले तथा अपनी ईच्छा अनुसार विक्रिया से बनाये हुए आभरणों को धारण करने वाले देवेन्द्रों और दानवेन्द्रों ने जिनेन्द्र देव की शिबिका वहन की। सूत्र-१०६, १०७ तत्पश्चात् मल्ली अरहंत जब मनोरमा शिबिका पर आरूढ़ हुए, उस समय उनके आगे आठ-आठ मंगल अनक्रम से चले । जमालि के निर्गमन की तरह यहाँ मल्ली अरहंत का वर्णन समझ लेना । तत्पश्चात मल्ली अरहंत जब दीक्षा धारण करने के लिए नीकले तो किन्हीं-किन्हीं देवों ने मिथिला राजधानी में पानी सींच दिया, उसे साफ कर दिया और भीतर तथा बाहर की विधि करके यावत् चारों ओर दौड़धूप करने लगे । तत्पश्चात् मल्ली अरहंत मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 85 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र- ६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक जहाँ सहस्राम्रवन नामक उद्यान था और जहाँ श्रेष्ठ अशोकवृक्ष था, वहाँ आकर शिबिका से नीचे ऊतरे । समस्त आभरणों का त्याग किया। समस्त आभरणों का त्याग किया। प्रभावती देवी ने हंस के चिह्न वाली अपनी साड़ी में आभरण ग्रहण किये। तत्पश्चात् मल्ली अरहंत ने स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच किया तब शक्र देवेन्द्र देवराज ने मल्ली के केशों को ग्रहण करके उन केशों को क्षीरोदक समुद्र में प्रक्षेप कर दिया । तत्पश्चात् मल्ली अरिहंत ने 'सिद्धों को नमस्कार हो' इस प्रकार कहकर सामायिक चारित्र अंगीकार किया । जिस समय अरहंत मल्ली ने चारित्र अंगीकार किया, उस समय देवों और मनुष्यों के निर्घोष, वाद्यों की ध्वनि और गाने-बजाने का शब्द शक्रेन्द्र के आदेश से बिल्कुल बन्द हो गया । जिस समय मल्ली अरहंत ने सामायिक चारित्र अंगीकार किया, उसी समय मल्ली अरहंत को मनुष्यधर्म से ऊपर का उत्तम मनः पर्यवज्ञान उत्पन्न हो गया । मल्ली अरहंत ने हेमन्त ऋतु के दूसरे मास में, चौथे पखवाड़े में अर्थात् पौष मास के शुद्ध पक्ष में पौष मास के शुद्ध पक्ष की एकादशी के पक्ष में पूर्वाह्न काल के समय में, निर्जल अष्टम भक्त तप करके, अश्विनी नक्षत्र के साथ चन्द्र का योग प्राप्त होने पर तीन सौ आभ्यन्तर परिषद् की स्त्रियों के साथ और तीन सौ बाह्य परिषद् के पुरुषों के साथ मुण्डित होकर दीक्षा अंगीकार की। मल्ली अरहंत का अनुसरण करके इक्ष्वाकुवंश में जन्मे तथा राज्य भोगने योग्य हुए आठ ज्ञातकुमार दीक्षित हुए। उनके नाम इस प्रकार हैं- नन्द, नन्दिमित्र, सुमित्र, बलमित्र, भानुमित्र, अमरपति, अमरसेन और आठवें महासेन। इन आठ ज्ञात-कुमारों ने दीक्षा अंगीकार की। । सूत्र - १०८ तत्पश्चात् भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक-इन चार निकाय के देवों ने मल्ली अरहंत का दीक्षामहोत्सव किया । महोत्सव करके जहाँ नन्दीश्वर द्वीप था, वहाँ गए । जाकर अष्टाह्निका महोत्सव किया । महोत्सव करके यावत् अपने-अपने स्थान पर लौट गए। तत्पश्चात् मल्ली अरहंत ने, जिस दिन दीक्षा अंगीकार की, उसी दिन के अन्तिम भाग में, श्रेष्ठ अशोकवृक्ष के नीचे, पृथ्वीशिलापट्टक के ऊपर बिराजमान थे उस समय शुभ परिणामों के कारण, प्रशस्त अध्यवसाय के कारण तथा विशुद्ध एवं प्रशस्त लेश्याओं के कारण, तदावरण कर्म की रज को दूर करने वाले लेश्याओं के कारण, तदावरण कर्म की रज को दूर करने वाले अपूर्वकरण को प्राप्त हुए । तत्पश्चात् अरहंत मल्लीको अनन्त सब आवरणों से रहित, सम्पूर्ण और प्रतिपूर्ण केवलज्ञान और केवलदर्शन की उत्पत्ति हुई। , सूत्र - १०९ उस काल और उस समय में सब देवों के आसन चलायमान हुए । तब वे सब देव वहाँ आए, सबने धर्मोपदेश श्रवण किया । नन्दीश्वर द्वीप में जाकर अष्टाह्निका महोत्सव किया । फिर जिस दिशा में प्रकट हुए थे, उसी दिशा में लौट गए। कुम्भ राजा भी वन्दना करने के लिए नीकला । तत्पश्चात् वे जितशत्रु वगैरह छहों राजा अपने-अपने ज्येष्ठ पुत्रों को राज्य पर स्थापित करके, हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिबिकाओं पर आरूढ़ होकर समस्त ऋद्धि के साथ यावत् गीत-वादित्र के शब्दों के साथ जहाँ मल्ली अरहंत थे, यावत् वहाँ आकर उनकी उपासना करने लगे । तत्पश्चात् मल्ली अरहंत ने उस बड़ी भारी परीषद् को, कुम्भ राजा को और उन जितशत्रु प्रभृति छहों राजाओं को धर्म का उपदेश दिया। परीषद् जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा में लौट गई। कुम्भ राजा श्रमणोपासक हुआ। वह भी लौट गया। रानी प्रभावती श्रमणोपासिका हुई। वह भी वापिस चली गई। तत्पश्चात् जितशत्रु आदि छहों राजाओं ने धर्म को श्रवण करके कहा- भगवन्! यह संसार जरा और मरण से आदीप्त है, प्रदीप्त है और आदीप्त प्रदीप्त है, इत्यादि कहकर यावत् वे दीक्षित हो गए। चौदह पूर्वो के ज्ञानी हुए, फिर अनन्त केवल दर्शन प्राप्त करके यावत् सिद्ध हुए । तत्पश्चात् मल्ली अरहंत समस्राम्रवन उद्यान से बाहर नीकले। नीकलकर जनपदों में विहार करने लगे। मल्ली अरहंत के भिषक आदि अट्ठाईस गण और अट्ठाईस गणधर थे । मल्ली अरहंत की चालीस हजार साधुओं की उत्कृष्ट सम्पदा थी बंधुमती आदि पचपन हजार आर्यिकाओं की सम्पदा थी । मल्ली अरहंत की एक लाख चौरासी हजार श्रावकों की उत्कृष्ट सम्पदा थी । मल्ली अरहंत की तीन लाख पैंसठ हजार श्राविकाओं की उत्कृष्ट सम्पदा थी । मल्ली अरहंत की छह सौ चौदह पूर्वी मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा )" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद" Page 86 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक साधुओं की, दो हजार अवधिज्ञानी, बत्तीस सौ केवलज्ञानी, पैंतीस सौ वैक्रियलब्धिधारों, आठ सौ मनःपर्यवज्ञानी, चौदह सौ वादी और बीस सौ अनुत्तरौपपातिक साधुओं की सम्पदा थी। मल्ली अरहंत के तीर्थ में दो प्रकार की अन्तकर भूमि हुई । युगान्तकर भूमि और पर्यायान्तकर भूमि । इनमें से शिष्य-प्रशिष्य आदि बीस पुरुषों रूप युगों तक युगान्तकर भूमि हुई, और दो वर्ष का पर्याय होने पर पर्यायान्त-कर भूमि हुई । मल्ली अरहंत पच्चीस धनुष ऊंचे थे । उनके शरीर का वर्ण प्रियंगु के समान था । समचतुरस्र संस्थान और वज्रऋषभनाराच संहनन था । वह मध्यदेश में सुखे-सुखे विचरकर जहाँ सम्मेद पर्वत था, वहाँ आकर उन्होंने सम्मेदशैल के शिखर पर पादोपगमन अनशन अंगीकार कर लिया । मल्ली अरहंत एक सौ वर्ष गृहवास में रहे । सौ वर्ष कम पचपन हजार वर्ष केवली-पर्याय पालकर, कुल पचपन हजार वर्ष की आयु भोगकर ग्रीष्म ऋतु के प्रथम मास, दूसरे पक्ष चैत्र मास के शुक्लपक्ष की चौथ तिथि में, भरणी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर, अर्द्धरात्रि के समय, आभ्यन्तर परीषद की पाँच सौ साध्वीयों और बाहा परीषद के पाँच सौ साधओं के साथ, निर्जल एक मास के अनशनपूर्वक दोनों हाथ लम्बे रखकर, वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र इन चार कर्मों के क्षीण होने पर सिद्ध हए । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में वर्णित निर्वाण महोत्सव कहना । फिर देवों नन्दीश्वरद्वीप में जाकर अष्टाह्निक महोत्सव करके वापस लौटे । इस प्रकार ही, हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने आठवे ज्ञाताध्ययन का यह अर्थ प्ररूपण किया है। मैंने जो सूना, वही कहता हूँ। अध्ययन-८ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 87 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-९ - माकन्दी सूत्र - ११० भगवन् ! यदि श्रमण यावत् निर्वाण को प्राप्त भगवान महावीर ने नौवें ज्ञातअध्ययन का क्या अर्थ प्ररूपण किया है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में चम्पा नगरी थी । कोणिक राजा था । चम्पानगरी के बाहर ईशान-दिक्कोण में पूर्णभद्र चैत्य था । चम्पानगरी में माकन्दी सार्थवाह निवास करता था । वह समृद्धिशाली था । भद्रा उसकी भार्या थी । उसे दो सार्थवाहपुत्र थे । जिनपालित और जितरक्षित । वे दोनों माकन्दीपत्र में एक बार किसी समय इस प्रकार कथासमुल्लाप हुआ 'हम लोगों ने पोतवहन से लवणसमुद्र को ग्यारह बार अवगाहन किया है । सभी बार हम लोगों ने अर्थ की प्राप्ति की, करने योग्य कार्य सम्पन्न किए और फिर शीघ्र बिना विघ्न के अपने घर आए । हे देवानुप्रिय ! बारहवीं बार भी पोतवहन से लवण समुद्र में अवगाहन करना हमारे लिए अच्छा रहेगा । इस प्रकार परस्पर विचार करके अपने मातापिता के पास आकर वे बोले-'हे माता-पिता ! आपकी अनुमति प्राप्त करके हम बारहवीं बार लवणसमुद्र की यात्रा करना चाहते हैं । हम लोग ग्यारह बार पहले यात्रा कर चुके हैं और सकुशल सफलता प्राप्त करके लौटे हैं ।' तब माता-पिता ने उन माकन्दीपुत्रों से कहा-'हे पुत्रो ! यह तुम्हारे बाप-दादा से प्राप्त संपत्ति यावत् बँटवारा करने के लिए पर्याप्त है । अत एव पुत्रों ! मनुष्य सम्बन्धी विपुल ऋद्धि सत्कार के समुदाय वाले भोगों को भोगो । विघ्न-बाधाओं से युक्त और जिसमें कोई आलम्बन नहीं ऐसे लवण समुद्र में उतरने से क्या लाभ है ? हे पुत्रो! बारहवीं यात्रा सोपसर्ग भी होती है । अत एव तुम दोनों बारहवीं बार लवणसमुद्र में प्रवेश मत करो, जिससे तुम्हारे शरीर को व्यापत्ति न हो ।' तत्पश्चात् माकन्दीपुत्रों ने माता-पिता से दूसरी बार और तीसरी बार भी यहीं बात की । तब माता-पिता जब उन माकन्दीपुत्रों को सामान्य कथन और विशेष कथन के द्वारा समझाने में समर्थ न हुए, तब ईच्छा न होने पर भी उन्होंने अनुमति दे दी । वे माता-पिता की अनुमति पाये हुए माकन्दीपुत्र गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य-चार प्रकार का माल जहाज में भरकर अर्हन्नक की भाँति लवणसमुद्र में अनेक सैकड़ों योजन तक गए। सूत्र - १११ तत्पश्चात् उन माकन्दीपुत्रों के अनेक सैकड़ों योजन तक अवगाहन कर जाने पर सैकड़ों उत्पात उत्पन्न हुए। वे उत्पात इस प्रकार थे-अकाल में गर्जना बिजली चमकना स्तनित शब्द होने लगे । प्रतिकूल तेज हवा चलने लगी । तत्पश्चात् वह नौका प्रतिकूल तूफानी वायु से बार-बार काँपने लगी, बार-बार एक जगह से दूसरी जगह चलायमान होने लगी, बार-बार संक्षुब्ध होने लगी-नीचे डूबने लगी, जल के तीक्ष्ण वेग से बार-बार टकराने लगी, हाथ से भूतल पर पछाड़ी हुई गेंद के समान जगह-जगह नीची-ऊंची होने लगी। विद्याधर-कन्या जैसे पृथ्वीतल के ऊपर उछलती है, उसी प्रकार उछलने लगी और विद्याभ्रष्ट विद्याधरकन्या जैसे आकाशतल से नीचे गिरती है, उसी प्रकार वह नौका भी नीचे गिरने लगी । जैसे महान गरुड़ के वेग से त्रास पाई नाग की उत्तम कन्या भय की मारी भागती है, उसी प्रकार वह इधर-उधर दौड़ने लगी। जैसे अपने स्थानसे बिछड़ी हुई बछेरी बहुत लोगोंके कोलाहलसे त्रस्त होकर इधर-उधर भागती है, उसी प्रकार वह भी इधर-उधर दौड़ने लगी । माता-पिता द्वारा जिसका अपराध जान लिया गया है, ऐसी सज्जन पुरुष के कुल की कन्या के समान नीचे नमने लगी । तरंगों के सैकड़ों प्रहारों से ताड़ित होकर वह थरथराने लगी । जैसे बिना आलंबन की वस्ती आकाश से नीचे गिरती है, उसी प्रकार वह नौका भी नीचे गिरने लगी । जिसका पति मर गया हो ऐसी नव-विवाहिता वधू जैसे आँसू बहाती है, उसी प्रकार पानी से भीगी ग्रंथियों में से झरने वाली जलधारा के कारण वह नौका भी अश्रुपात-सा करती प्रतीत होने लगी। परचक्री राजा के द्वारा अवरुद्ध हुई और इस कारण घोर महाभय से पीड़ित किसी उत्तम महानगरी के समान वह नौका विलाप करती हुई-सी प्रतीत होने लगी । कपट से किये प्रयोग से युक्त, योग साधने वाली परिव्राजिका जैसे ध्यान करती है, उसी प्रकार वह भी कभी-कभी स्थिर हो जाने के कारण ध्यान करती-सी जान मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 88 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक पड़ती थी । किसी बड़े जंगल में से चलकर नीकली हई और थकी हुई बड़ी उम्र वाली माता जैसे हांफती है, उसी प्रकार वह नौका भी निःश्वास-सा छोड़ने लगी, तपश्चरण के फलस्वरूप प्राप्त स्वर्ग के भोग क्षीण होने पर जैसे श्रेष्ठ देवी अपने च्यवन के समय शोक करती है, उसी प्रकार वह नौका भी शोक-सा करने लगी, उसके काष्ठ और मुखभाग चूर-चूर हो गये । मेढ़ी भंग भंग हो गई और माल सहसा मुड़ गई । वह नौका पर्वत के शिखर पर चढ़ जाने के कारण ऐसी मालूम होने लगी मानो शूली पर चढ़ गई हो । उसे जल का स्पर्श वक्र होने लगा । एक दूसरे के साथ जुड़े पटियों में तड़-तड़ शब्द होने लगा, लोहे की कीलें नीकल गईं । उसके पटियों के साथ बँधी रस्सियाँ गीली होकर टूट गई वह कच्चे सिकोरे जैसी हो गई । अभागे मनुष्य के मनोरथ के समान वह अत्यन्त चिन्तनीय नौका पर आरूढ़ कर्णधार, मल्लाह, वणिक और कर्मचारी हाय-हाय करके विलाप करने लगे । वह नाना प्रकार के रत्नों और मालों से भरी हई थी । इस विपदा के समय सैकडों मनुष्य रुदन करने लगे। अश्रपात, आक्रन्दन और शोक करने लगे, विलाप करने लगे, उसी समय जल के भीतर विद्यमान एक बड़े पर्वत के शिखर के नौका का मस्तूल और तोरण भग्न हो गया और ध्वजदंड मुड़ गया । नौका के वलय जैसे सैकड़ों टुकड़े हो गए । वह नौका कड़ाक' का शब्द करके उसी जगह नष्ट हो गई, अर्थात् डूब गई। तत्पश्चात् उस नौका के भग्न होकर डूब जाने पर बहुत-से लोग बहुत-से रत्नों, भांडों और माल के साथ जल में डूब गए । सूत्र - ११२ परन्तु दोनों माकन्दीपुत्र चतुर, दक्ष, अर्थ को प्राप्त, कुशल, बुद्धिमान्, निपुण, शिल्प को प्राप्त, बहुत-से पोतवहन के युद्ध जैसे खतरनाक कार्यों में कृतार्थ, विजयी, मूढ़ता-रहित और फूर्तीले थे । अत एव उन्होंने एक बड़ा -सा पटा का टुकड़ा पा लिया । जिस प्रदेश में वह पोतवहन नष्ट हुआ था, उसी प्रदेश में-उसके पास ही, एक रत्न-द्वीप नामक बड़ा द्वीप था । वह अनेक योजन लम्बा-चौड़ा और अनेक योजन के घेरे वाला था । उसके प्रदेश अनेक प्रकार के वृक्षों के वनों से मंडित थे । वह द्वीप सुन्दर सुषमा वाला, प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला, दर्शनीय, मनोहर और प्रतिरूप था अर्थात् दर्शकों को नए-नए रूप में दिखाई देता था । उसी द्वीप के एकदम मध्यभाग में एक उत्तम प्रासाद था । उसकी ऊंचाई प्रकट थी, वह बहुत ऊंचा था । वह भी सश्रीक, प्रसन्नताप्रदायी, दर्शनीय, मनोहर रूप वाला और प्रतिरूप था । उस उत्तम प्रासाद में रत्नद्वीपदेवता नाम की एक देवी रहती थी । वह पापिनी, चंडा-अति पापिनी, भयंकर, तुच्छ स्वभाव वाली और साहसिक थी । उस उत्तम प्रासाद की चारों दिशाओं में चार वनखण्ड थे। वे श्याम वर्ण वाले और श्याम कान्ति वाले थे। तत्पश्चात् वे दोनों माकन्दीपुत्र पटिया के सहारे तिरते-तिरते रत्नद्वीप के समीप आ पहुँचे । उन माकन्दीपुत्रों को छाह मिली । उन्होंने घड़ी भर विश्राम किया । पटिया के टुकड़े को छोड़ दिया । रत्नद्वीप में ऊतरे । उतरकर फलों की मार्गणा की । ग्रहण करके फल खाए । फिर उनके तेल से दोनों ने आपस में मालिस की । बावड़ी में प्रवेश किया । स्नान किया । बाहर नीकले । एक पृथ्वीशिला रूपी पाट पर बैठकर शान्त हुए, विश्राम लिया और श्रेष्ठ सुखासन पर आसन हुए । वहाँ बैठे-बैठे चम्पा नगरी, माता-पिता से आज्ञा लेना, लवणसमुद्र में ऊतरना, तूफानी वायु का उत्पन्न होना, नौका का भग्न होकर डूब जाना, पटिया का टुकड़ा मिल जाना और अन्त में रत्नद्वीप में आना, इन सब बातों पर बार-बार विचार करते हुए भग्नमनः संकल्प होकर हथेली पर मुख रखकर आर्त्तध्यान में-चिन्ता में डूब गए। सूत्र-११३ तत्पश्चात् उस रत्नद्वीप की देवी ने उस माकन्दीपुत्रों को अवधिज्ञान से देखा । उसने हाथ में ढाल और तलवार ली । सात-आठ ताड़ जितनी ऊंचाई पर आकाश में उड़ी । उत्कृष्ट यावत् देवगति से चलती-चलती जहाँ माकन्दीपुत्र थे, वहाँ आई । आकर एकदम कुपित हुई और माकन्दीपुत्रों को तीखे, कठोर और निष्ठुर वचनों से कहने लगी- अरे माकन्दी के पुत्रों ! अप्रार्थित की ईच्छा करने वालों ! यदि तुम मेरे साथ विपुल कामभोग भोगते हुए रहोगे तो तुम्हारा जीवन है, और यदि तुम नहीं रहोगे तो इस नील कमल, भैंस के सींग, नील द्रव्य की गुटिका मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 89 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र - ६, 'ज्ञाताधर्मकथा ' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक और अलसी के फूल के समान काली और छूरे की धार के समान तीखी तलवार से तुम्हारे इन मस्तकों को चाड़फल की तरह काट कर एकान्त में डाल दूँगी, जो गंडस्थलों को और दाढ़ी-मूँछों को लाल करनेवाले हैं, मूँछों से सुशोभित हैं, अथवा जो माता-पिता आदि के द्वारा सँवार कर सुशोभित किए हुए केशों से शोभायममान हैं।' तत्पश्चात् वे माकन्दीपुत्र रत्नद्वीप की देवी से यह अर्थ सूनकर और हृदय में धारण करके भयभीत हो उठे । उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार कहा - 'देवानुप्रिये ! जो कहेंगी, हम आपकी आज्ञा, उपपात, वचन और निर्देश में तत्पर रहेंगे । तत्पश्चात् रत्नद्वीप की देवी ने उन माकन्दी के पुत्रों को ग्रहण किया साथ लिया। लेकर जहाँ अपना उत्तम प्रासाद था, वहाँ आई । आकर अशुभ पुद्गलों को दूर किया और शुभ पुद्गलों का प्रक्षेपण किया और फिर उनके साथ विपुल कामभोगों का सेवन करने लगी। प्रतिदिन उनके लिए अमृत जैसे मधुर फल लाने लगी । तत्पश्चात् रत्नद्वीप की उस देवी को शक्रेन्द्र के वचन से सुस्थित नामक लवणसमुद्र के अधिपति देव ने कहा 'तुम्हें इक्कीस बार लवणसमुद्र का चक्कर काटना है । वह इसलिए कि वहाँ जो भी तृण, पत्ता, कचरा, अशुचि सरी-गली वस्तु या दुर्गन्धित वस्तु आदि गन्दी चीज हो, वह सब इक्कीस बार हिला-हिला कर, समुद्र से नीकालकर एक तरफ डाल देना। ऐसा कहकर उस देवी को समुद्र की सफाई के कार्य में नियुक्त किया। तत्पश्चात् उस रत्नद्वीप की देवी ने उन माकन्दीपुत्रों से कहा हे देवानुप्रियो मैं शक्रेन्द्र के वचनादेश से, सुस्थित नामक लवणसमुद्र के अधिपति देव द्वारा यावत् नियुक्त की गई हूँ । सो हे देवानुप्रियो ! मैं जब तक लवणसमुद्र में से यावत् कचरा आदि दूर करने जाऊं, तब तक तुम इसी उत्तम प्रासाद में आनन्द के साथ रमण करते हुए रहना । यदि तुम इस बीच में ऊब जाओ, उत्सुक होओ या कोई उपद्रव हो, तुम पूर्व दिशा के वनखण्ड में चले जाना। उस पूर्व दिशा के वनखण्ड में दो ऋतुएं सदा स्वाधीन हैं- प्रावृष् ऋतु तथा वर्षाऋतु उनमें से ( उस वनखण्ड में सदैव) प्रावृष् ऋतु रूपी हाथी स्वाधीन है । सूत्र - ११४, ११५ कंदल - नवीन लताएं और सिलिंध्र-भूमिफोड़ा उस प्रावृष हाथी के दाँत हैं। निउर नामक वृक्ष के उत्तम पुष्प ही उसकी उत्तम सूँड़ हैं। कुटज, अर्जुन और नीप वृक्षों के पुष्प ही उसका सुगन्धित मदजल हैं। और उस वनखण्ड में वर्षाऋतु रूपी पर्वत भी सदा स्वाधीन विद्यमान रहता है, क्योंकि वह इन्द्रगोप रूपी पद्मराग आदि मणियों से विचित्र वर्ण वाला रहता है, और उसमें मेंढ़कों के समूह के शब्द रूपी झरने की ध्वनि होती रहती है। वहाँ मयूरों के समूह सदैव शिखरों पर विचरते हैं। सूत्र - ११६-१२० I हे देवानुप्रियो ! उस पूर्व दिशा के उद्यान में तुम बहुत-सी बावड़ियों में, यावत् बहुत-से सरोवरों की श्रेणियों में, बहुत-से लतामण्डपों में, वल्लियों के मंडपों में यावत् बहुत-से पुष्पमंडपों में सुखे-सुखे रमण करते हुए समय व्यतीत करना । अगर तुम वहाँ भी ऊब जाओ, उत्सुक हो जाओ या कोई उपद्रव हो जाए भय हो जाए, तो तुम उत्तर दिशा के वनखण्ड में चले जाना । वहाँ भी दो ऋतुएं सदा स्वाधीन हैं । वे यह हैं - शरद और हेमन्त । उनमें से शरद इस प्रकार है- शरद ऋतु रूपी गोपति वृषभ सदा स्वाधीन है। सन और सप्तच्छद वृक्षों के पुष्प उसका ककुद है, नीलोत्पल, पद्म और नलिन उसके सींग है, सारस और चक्रवाक पक्षियों का कूजन ही उसकी घोष है । हेमन्त ऋतु रूपी चन्द्रमा उस वन में सदा स्वाधीन है । श्वेत कुन्द के फूल उसकी धवल ज्योत्सना है । प्रफुल्लित लोन वाला वनप्रदेश उसका मंडलतल है और तुषार के जलबिन्दु की धाराएं उसकी स्थूल किरणें हैं। हे देवानुप्रियो ! तुम उत्तर दिशा के उस वनखण्ड में यावत् क्रीड़ा करना । यदि तुम उत्तर दिशा के वनखण्ड में भी उद्विग्न हो जाओ, यावत् मुझसे मिलने के लिए उत्सुक हो जाओ, तो तुम पश्चिम दिशा के वनखण्ड में चले जाना । उस वनखण्ड में भी दो ऋतुएं सदा स्वाधीन हैं। वे यह हैं- वसन्त और ग्रीष्म । उसमें वसन्त रूपी ऋतुराजा सदा विद्यमान रहता है। वसन्त राजा के आम्र के पुष्पों का हार है, किंशुक कर्णिकार और अशोक के पुष्पों का मुकुट है तथा ऊंचे-ऊंचे तिलक और बकुल वृक्षों के फूलों का छत्र है । और उसमें मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा )" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद" Page 90 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक सूत्र-१२१ उस वनखण्ड में ग्रीष्म ऋतु रूपी सागर सदा विद्यमान रहता है । वह ग्रीष्म-सागर पाटल और शिरीष के पुष्पों रूपी जल से परिपूर्ण रहता है । मल्लिका और वासन्तिकी लताओं के कुसुम ही उसकी उज्ज्वल वेला-ज्वार है। उसमें जो शीतल और सुरभित पवन है, वही मगरों का विचरण है। सूत्र - १२२ देवानुप्रियो ! यदि तुम वहाँ भी ऊब जाओ या उत्सुक हो जाओ तो उस उत्तम प्रासाद में ही आ जाना। मेरी प्रतीक्षा करते-करते यहीं ठहरना । दक्षिण दिशा के वनखण्ड की तरफ मत चले जाना । दक्षिण दिशा के वनखण्ड में एक बड़ा सर्प रहता है । उसका विष उग्र है, प्रचंड है, घोर है, अन्य सब सों से उसका शरीर बड़ा है। इस सर्प के अन्य विशेषण गोशालक के वर्णन में कहे अनुसार जान लेना । वे इस प्रकार हैं-वह काजल, भैंस और कसौटी-पाषाण के समान काला है, नेत्र के विष से और क्रोध से परिपूर्ण है । उसकी आभा काजल के ढेर के समान काली है । उसकी आँखें लाल है। उसकी दोनों जीभे चपल एवं लपलपाती रहती है । वह पृथ्वी रूपी स्त्री की वेणी के समान है । वह सर्प उत्कट, स्फुट, कुटिल, जटिल, कर्कश और विकट फटाटोप करने में दक्ष है । लोहार की भट्ठी में धौका जाने वाला लोहा समान है, वह सर्प भी धम-धम' करता रहता है। उसके प्रचंड एवं तीव्र रोष को कोई नहीं रोक सकता । कुत्ती के भौंकने के समान शीघ्रता एवं चपलता से वह धम्-धम् शब्द करता रहता है । उसकी दृष्टि में विष है, अत एव कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे शरीर का विनाश हो जाए । रत्नद्वीप की देवी ने यह बात दो तीन बार उन माकन्दीपुत्रों से कहकर उसने वैक्रिय समुद्घात से विक्रिया की । विक्रिया करके उत्कृष्टउतावली देवगति से इक्कीस बार लवणसमुद्र का चक्कर काटने में प्रवृत्त हो गई। सूत्र - १२३ वे माकन्दीपुत्र देवी के चले जाने पर एक मुहूर्त में ही उस उत्तम प्रासाद में सुखद स्मृति, रति और धृति नहीं पाते हुए आपस में कहने लगे-'देवानुप्रिय ! रत्नद्वीप की देवी ने हमसे कहा है कि-शक्रेन्द्र के वचनादेश से लवणसमुद्र के अधिपति देव सुस्थित ने मुझे यह कार्य सौंपा है, यावत् तुम दक्षिण दिशा के वनखण्ड में मत जाना, हमें पूर्व दिशा के वनखण्ड में चलना चाहिए । वे पूर्व दिशा के वनखण्ड में आए । आकर उस वन के बावड़ी आदि में यावत् क्रीड़ा करते हुए वल्लीमंडप आदि में यावत् विहार करने लगे । तत्पश्चात् वे माकन्दीपुत्र वहाँ भी सुखद स्मृति यावत् शान्ति न पाते हुए अनुक्रम से उत्तर दिशा और पश्चिम दिशा के वनखण्ड में गए । वहाँ जाकर बावड़ियों में यावत् वल्लीमंडपों में विहार करने लगे । तब वे माकन्दीपुत्र वहाँ भी सुख रूप स्मृति यावत् शान्ति न पाते हुए आपस में कहने लगे-'हे देवानुप्रिय ! रत्नद्वीप की देवी ने हमसे ऐसा कहा है कि-यावत् तुम दक्षिण दिशा के वनखण्ड में मत जाना । तो इसमें कोई कारण होना चाहिए । अत एव हमें दक्षिण दिशा के वनखण्ड में भी जाना चाहिए । इस प्रकार कहकर उन्होंने एक दूसरे के इस विचार को स्वीकार करके उन्होंने दक्षिण दिशा के वनखण्ड में जाने का संकल्प किया-रवाना हुए। दक्षिणदिशा से दुर्गंध फूटने लगी, जैसे कोई साँप का मृत कलेवर हो, यावत् उससे भी अधिक अनिष्ट दुर्गंध आने लगी । उन माकन्दीपुत्रोंने उस अशुभ दुर्गंध से घबराकर अपने-अपने उत्तरीय वस्त्रों से मुँह ढंक लिए । मुँह ढंक कर दक्षिणदिशा के वनखण्डमें पहुंचे। वहाँ उन्होंने एक बड़ा वधस्थान देखा । देखकर सैकड़ों हाड़ों के समूह से व्याप्त, देखने में भयंकर उस स्थान पर शूली चढ़ाये हुए एक पुरुष को करुण, वीरस, कष्टमय शब्द करते देखा । उसे देखकर वे डर गए । उन्हें बड़ा भय उत्पन्न हुआ । फिर वे शूली पर चढ़ाया पुरुष के पास पहुंचे और बोले-'हे देवानुप्रिय! यह वधस्थान किसका है? तुम कौन हो? किस लिए यहाँ आए थे? किसने तुम्हें इस विपत्ति में डाला?' तब शूली पर चढ़े उस पुरुष ने माकन्दीपुत्रों से इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! यह रत्नद्वीप की देवी का वधस्थान है । देवानुप्रियो ! मैं जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में स्थित काकंदी नगरी का निवासी अश्वों का व्यापारी हूँ । मैं बहुत-से अश्व और भाण्डोपकरण पोतवहन में भरकर लवणसमुद्र में चला । तत्पश्चात् पोतवहन के भग्न हो जाने से मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 91 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक मेरा सब उत्तम भाण्डोपकरण डूब गया । मुझे पटिया का एक टुकड़ा मिल गया । उसी के सहारे तिरता-तिरता मैं रत्नद्वीप के समीप आ पहुँचा । उसी समय रत्नद्वीप की देवी ने मुझे अवधिज्ञान से देखा । देखकर उसने मुझे ग्रहण कर लिया-अपने कब्जे में कर लिया, वह मेरे साथ विपुल कामभोग भोगने लगी । तत्पश्चात् रत्नद्वीप की वह देवी एक बार, किसी समय, एक छोटे-से अपराध पर अत्यन्त कुपित हो गई और उसीने मुझे इस विपदा में पहुँचाया है। देवानुप्रियो ! नहीं मालूम तुम्हारे इस शरीर को भी कौन-सी आपत्ति प्राप्त होगी?' सूत्र - १२४ तत्पश्चात् वे माकन्दीपुत्र शूली पर चढ़े उस पुरुष से यह अर्थ सूनकर और हृदय में धारण करके और अधिक भयभीत हो गए । तब उन्होंने शूली पर चढ़े पुरुष से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! हम लोग रत्नद्वीप के देवता के हाथ से छूटकारा पा सकते हैं ?' तब शूली पर चढ़े पुरुष ने उन माकन्दीपुत्रों से कहा-'देवानुप्रियो ! इस पूर्व दिशा के वनखण्ड में शैलक यक्ष का यक्षायतन है। उसमें अश्व का रूप धारण किये शैलक नामक यक्ष निवास करता है । वह शैलक्ष यक्ष चौदस, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन आगत समय और प्राप्त समय होकर खूब ऊंचे स्वर में इस प्रकार बोलता है-'किसको तारूँ ? किसको पालूँ ?' तो हे देवानुप्रियो ! तुम लोग पूर्व दिशा के वनखण्ड में जाना और शैलक यक्ष की महान् जनों के योग्य पुष्पों से पूजा करना । पूजा करके घुटने और पैर नमा कर, दोनों हाथ जोड़कर, विनय के साथ उसकी सेवा करते हुए ठहरना । जब शैलक यक्ष नियत समय आने पर कहे कि-'किसको तारूँ, किसे पालूँ तब तुम कहना-'हमें तारो, हमें पालो ।' इस प्रकार शैलक यक्ष ही केवल रत्नद्वीप की देवी के हाथ से, अपने हाथ से स्वयं तुम्हारा निस्ताकर करेगा । अन्यथा मैं नहीं जानता कि तुम्हारे शरीर को क्या आपत्ति हो जाएगी | तत्पश्चात् वे माकन्दीपुत्र शूली पर चढ़े पुरुष से इस अर्थ को सूनकर और मन में धारण करके शीघ्र, प्रचण्ड, चपल, त्वरा वाली और वेग वाली गति से जहाँ पूर्व दिशा का वनखण्ड था, और उसमें पुष्करिणी थी, वहाँ करिणी में प्रवेश किया । स्नान किया । वहाँ जो कमल, उत्पल, नलिन, सुभग आदि कमल की जातियों के पुष्प थे, उन्हें ग्रहण किया । शैलक यक्ष के यक्षायतन में आए । यक्ष पर दृष्टि पड़ते ही उसे प्रणाम किया । फिर महान् जनों के योग्य पुष्प-पूजा की । वे घुटने और पैर नमा कर यक्ष की सेवा करते हुए, नमस्कार करते हुए उपासना करने लगे । जिसका समय समीप आया है और साक्षात् प्राप्त हुआ है ऐसे शैलक यक्ष ने कहा-'किसे तारूँ, किसे पालूँ ?' तब माकन्दीपुत्रों ने खड़े होकर और हाथ जोड़कर कहा-'हमें तारिए, हमें पालिए । तब शैलक यक्ष ने माकन्दीपुत्रों से कहा-'देवानुप्रियो ! तुम मेरे साथ लवणसमुद्र के बीचोंबीच गमन करोगे, तब वह पापिनी, चण्डा रुद्रा और साहसिका रत्नद्वीप की देवी तुम्हें कठोर, कोमल, अनुकूल, प्रतिकूल, शृंगारमय और मोहजनक उपसर्गों से उपसर्ग करेगी । हे देवानुप्रियो ! अगर तुम रत्नद्वीप की देवी के उस अर्थ का आदर करोगे, उसे अंगीकार करोगे या अपेक्षा करोगे, तो मैं तुम्हें अपनी पीठ से नीचे गिरा दूंगा । और यदि तुम रत्नद्वीप की देवी के उस अर्थ का आदर न करोगे, अंगीकार न करोगे और अपेक्षा न करोगे तो मैं अपने हाथ से, रत्नद्वीप के देवी से तुम्हारा निस्तार कर दूंगा। तब माकन्दीपुत्रों ने शैलक यक्ष से कहा-'देवानुप्रिय ! आप जो कहेंगे, हम उसके उपपात, वचन-आदेश और निर्देश में रहेंगे । तत्पश्चात् शैलक यक्ष उत्तर-पूर्व दिशा में गया । वहाँ जाकर उसने वैक्रिय समुद्घात करके संख्यात योजन का दंड किया । दूसरी बार और तीसरी बार भी वैक्रिय समुद्घात से विक्रिया की, समुदघात करके एक बड़े अश्व के रूप की विक्रिया की और फिर माकन्दीपुत्रों से इस प्रकार कहा-'हे माकन्दीपुत्रों ! देवानुप्रियो ! मेरी पीठ पर चढ़ जाओ।' तब माकन्दीपुत्रों ने हर्षित और सन्तुष्ट होकर शैलक यक्ष को प्रणाम करके वे शैलक की पीठ पर आरूढ़ हो गए । तत्पश्चात् अश्वरूप धारी शैलक यक्ष माकन्दीपुत्रों को पीठ पर आरूढ़ हुआ जानकर सात-आठ ताड़ के बराबर ऊंचा आकाश में उड़ा । उड़कर उत्कृष्ट, शीघ्रता वाली देव सम्बन्धी दिव्या गति से लवणसमुद्र के बीचोंबीच होकर जिधर जम्बूद्वीप था, भरतक्षेत्र था और जहां चम्पानगरी थी, उसी ओर रवाना हुए मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 92 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक सूत्र - १२५ तत्पश्चात् रत्नद्वीप की देवी ने लवणसमुद्र के चारों तरफ इक्कीस चक्कर लगाकर, उसमें जो कुछ भी तृण आदि कचरा था, वह सब यावत् दूर किया । दूर करके अपने उत्तम प्रासाद में आई । आकर माकन्दीपुत्रों को उत्तम प्रासाद में न देखकर पूर्व दिशा के वनखण्ड में गई । वहाँ सब जगह उसने मार्गणा की । पर उन माकन्दीपुत्रों की कहीं भी श्रुति आदि आवाज, छींक एवं प्रवृत्ति न पाती हुई उत्तर दिशा के वनखण्ड में गई । इसी प्रकार पश्चिम में गई, पर वे कहीं दिखाई न दिए । तब उसने अवधिज्ञान का प्रयोग करके उसने माकन्दीपुत्रों को शैलक के साथ लवणसमुद्र के बीचोंबीच होकर चले जाते देखा । वह तत्काल क्रुद्ध हुई । उसने ढाल-तलवार ली और सात-आठ ताड़ जितनी ऊंचाई पर आकाश में उड़कर उत्कृष्ट एवं शीघ्र गति करके जहाँ माकन्दीपुत्र थे वहाँ आई । आकर इस प्रकार कहने लगी-'अरे माकन्दी के पुत्रों ! अरे मौत की कामना करने वालों ! क्या तुम समझते हो कि मेरा त्याग करके, शैलकयक्ष के सात, लवणसमुद्र के मध्य में होकर तुम चले जाओगे? इतने चले जाने पर भी अगर तुम मेरी अपेक्षा रखते हो तो तुम जीवित रहोगे, अन्यथा इस नील कमल एवं भैंस के सींग जैसी काली तलवार से यावत् तुम्हारा मस्तक काट कर फैंक दूंगी। उस समय वे माकन्दीपुत्र रत्नद्वीप की देवी के इस कथन को सूनकर और हृदय में धारण करके भयभीत नहीं हुए, त्रास को प्राप्त नहीं हुए, उद्विग्न नहीं हुए, संभ्रान्त नहीं हुए । अत एव उन्होंने रत्नद्वीप की देवी के इस अर्थ का आदर नहीं किया, उसे अंगीकार नहीं किया, उसकी परवाह नहीं की। वे आदर न करते हुए शैलक यक्ष के साथ लवणसमुद्र के मध्य में होकर चले जाने लगे । तत्पश्चात् वह रत्नद्वीप की देवी जब उन माकन्दीपुत्रों को बहुतसे प्रतिकूल उपसर्गों द्वारा चलित करने, क्षुब्ध करने, पलटने और लुभाने में समर्थ न हुई, तब अपने मधुर शृंगारमय और अनुराग-जनक अनुकूल उपसर्गों से उन पर उपसर्ग करने में प्रवृत्त हुई ।' 'हे माकन्दीपुत्रों ! हे देवानुप्रियो ! तुमने मेरे साथ हास्य किया, चौपड़ आदि खेल खेले, मनोवांछित क्रीड़ा की, झूला आदि झुले हैं, भ्रमण और रतिक्रीड़ा की है । इन सबको कुछ भी न गिनते हुए, मुझे छोड़कर तुम शैलक यक्ष के साथ लवणसमुद्र के मध्य में होकर जा रहे हो ?' तत्पश्चात् रत्नद्वीप की देवी ने जिनरक्षित का मन अवधिज्ञान से देखा । फिर इस प्रकार कहने लगी-मैं सदैव जिनपालित के लिए अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमणाम थी और जिनपालित मेरे लिए, परन्तु जिनरक्षित को तो मैं सदैव इष्ट, कान्त, प्रिय आदि थी और जिनरक्षित मुझे भी, अत एव जिनपालित यदि रोती, आक्रन्दन करती, शोक करती, अनुताप करती और विलाप करती हुई मेरी परवाह नहीं करता, तो हे जिनरक्षित ! तुम भी मुझ रोती हुई की यावत् परवाह नहीं करते ?' सूत्र - १२६ तत्पश्चात्-उत्तम रत्नद्वीप की वह देवी अवधिज्ञान द्वारा जिनरक्षित का मन जानकर दोनों माकन्दीपुत्रों के प्रति, उनका वध करने के निमित्त बोली । सूत्र - १२७ द्वेष से युक्त वह देवी लीला सहित, विविध प्रकार के चूर्णवास से मिश्रित, दिव्य, नासिका और मन को तृप्ति देने वाले और सर्व ऋतुओं सम्बन्धी सुगन्धित फूलों की वृष्टि करती हुई। सूत्र - १२८ नाना प्रकार के मणि, सुवर्ण और रत्नों की घंटियों, घुघरूओं, नूपुरों और मेखला-इन सब आभूषणों के शब्दों से समस्त दिशाओं और विदिशाओं को व्याप्त करती हुई, वह पापिन देवी इस प्रकार कहने लगी। सूत्र - १२९ हे होल ! वसुल, गोल हे नाथ ! हे दयित हे प्रिय ! हे रमण ! हे कान्त ! हे स्वामिन् ! हे निर्गुण ! हे नित्थक्क ! हे कठोर हृदय ! हे दयाहीन ! हे अकृतज्ञ ! शिथिल भाव ! हे निर्लज्ज ! हे रूक्ष ! हे अकरूण ! जिनरक्षित ! हे मेरे हृदय के रक्षक । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 93 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक सूत्र - १३० 'मुझ अकेली, अनाथ, बान्धव हीन, तुम्हारे चरणों की सेवा करने वाली और अधन्या का त्याग देना तुम्हारे लिए योग्य नहीं है । हे गुणों के समूह ! तुम्हारे बिना मैं क्षण भर भी जीवित रहने में समर्थ नहीं हूँ।' सूत्र - १३१-१३३ 'अनेक सैकड़ों मत्स्य, मगर और विविध क्षुद्र जलचर प्राणियों से व्याप्त गृहरूप या मत्स्य आदि के घरस्वरूप इस रत्नाकर के मध्य में तुम्हारे सामने मैं अपना वध करती हूँ । आओ, वापिस लौट चलो । अगर तुम कुपित हो तो मेरा एक अपराध क्षमा करो ।' 'तुम्हारा मुख मेघ-विहीन विमल चन्द्रमा के समान है । तुम्हारे नेत्र शरदऋतु के सद्यः विकसित कमल, कुमुद और कुवलय के पत्तों के समान है । ऐसे नेत्र वाले तुम्हारे मुख के दर्शन की प्यास से मैं यहाँ आई हूँ। तुम्हारे मुख को देखने की मेरी अभिलाषा है । हे नाथ ! तुम इस ओर मुझे देखो, जिससे मैं तुम्हारा मुख-कमल देख लूँ । इस प्रकार प्रेमपूर्ण, सरल और मधुर वचन बार-बार बोलती हुई वह पापिनी और पापपूर्ण हृदय वाली देवी मार्ग में पीछे-पीछे चलने लगी। सूत्र - १३४ कानों को सुख देने वाले और मन को हरण करने वाले आभूषणों के शब्द से तथा उन पूर्वोक्त प्रणययुक्त, सरल और मधुर वचनों से जिनरक्षित का मन चलायमान हो गया । उसे उस पर दुगुना राग उत्पन्न हो गया । वह रत्नद्वीप की देवी के सुन्दर स्तन, जघन मुख, हाथ, पैर और नेत्र के लावण्य की, रूप की और यौवन की लक्ष्मी को स्मरण करने लगा । उसके द्वारा हर्ष साथ किये गए आलिंगनों को, बिब्बकों को, विलासों को, विहसित को, कटाक्षों को, कामक्रीड़ाजनित निःश्वासों को, स्त्री के ईच्छित अंग के मर्दन को, उपललित को, स्थित को, गति को, प्रणय-कोप को तथा प्रसादित को स्मरण करते हुए जिनरक्षित की मति राग से मोहित हो गई । वह विवश हो गयाकर्म के अधीन हो गया और वह उसके मुख की तरफ देखने लगा । जिनरक्षित को देवी पर अनुराग उत्पन्न हुआ, अत एव मृत्यु रूपी राक्षस ने उसके गले में हाथ डालकर उसकी मति फेर दी, यह बात शैलक यक्ष ने अवधिज्ञान से जान ली और स्वस्थता से रहित उसकी धीरे-धीरे अपनी पीठ से गिरा दिया। उस निर्दय और पापिनी रत्नद्वीप की देवी ने दयनीय जिनरक्षित को शैलक की पीठ से गिरता देखकर कहा -'रे दास ! तू मरा ।' इस प्रकार कहकर, समुद्र के जल तक पहुँचने से पहले ही, दोनों हाथों से पकड़ कर, चिल्लाते हुए जिनरक्षित को ऊपर उछाला । जब वह नीचे की ओर आने लगा तो उसे तलवार की नोक पर झेल लिया । उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले । अभिमान रस से वध किये हुए जिनरक्षित के रुधिर से व्याप्त अंगोपांगों को ग्रहण करके, दोनों हाथों की अंजलि करके, उसने उत्क्षिप्त-बलि की तरह, चारों दिशाओं में फेंका। सूत्र-१३५ इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आचार्य-उपाध्याय के समीप प्रव्रजित होकर, फिर से मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों का आश्रय लेता है, याचना करता है, स्पृहा करता है, या दृष्ट अथवा अदृष्ट शब्दादिक के भोग की ईच्छा करता है, वह मनुष्य इसी भव में बहुत-से साधुओं, बहुत-सी साध्वीयों, बहुत-से श्रावकों और बहुत-सी श्राविकाओं द्वारा निन्दनीय होता है, यावत् अनन्त संसार में परिभ्रमण करता है । उसकी दशा जिनरक्षित जैसी होती है। सूत्र-१३६ पीछे देखने वाला जिनरक्षित छला गया और पीछे नहीं देखने वाला जिनपालित निर्विघ्न अपने स्थान पर पहुँच गया । अत एव प्रवचन सार में आसक्ति रहित होना चाहिए । सूत्र - १३७ चारित्र ग्रहण करके भी जो भोगों की ईच्छा करते हैं, वे घोर संसार-सागर में गिरते हैं और जो भोगों की ईच्छा नहीं करते, वे संसार रूपी कान्तार पार कर जाते हैं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 94 Page 94 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक सूत्र-१३८ तत्पश्चात् वह रत्नद्वीप की देवी जिनपालित के पास आई । आकर बहुत-से अनुकूल, प्रतिकूल, कठोर, मधुर, शृंगार वाले और करुणाजनक उपसर्गों द्वारा जब उसे चलायमान करने, क्षुब्ध करने एवं मन को पलटने में असमर्थ रही, तब वह मन से थक गई, शरीर से थक गई, पूरी तरह ग्लानि को प्राप्त हुई और अतिशय खिन्न हो गई। तब वह जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा में लौट गई । वह शैलक यक्ष, जिनपालित के साथ लवणसमुद्र के बीचों बीच होकर चलता रहा । चम्पा नगरी के बाहर श्रेष्ठ उद्यान में जिनपालित को अपनी पीठ से नीचे उतारा । इस प्रकार कहा- 'हे देवानुप्रिय ! देखो, यह चम्पा नगरी दिखाई देती है ।' यह कहकर उसने जिनपालित से छुट्टी लेकर वापिस लौट गया। सूत्र-१३९ तदनन्तर जिनपालित ने चम्पा में प्रवेश किया और जहाँ अपना घर तथा माता-पिता थे वहाँ पहुँचा । उसने रोते-रोते और विलाप करते-करते जिनरक्षित की मृत्यु का समाचार सूनाया । तत्पश्चात् जिनपालित ने और उसके माता-पिता ने मित्र, ज्ञाति, स्वजन यावत् परिवार के साथ रोते-रोते बहुत-से लौकिक मृतककृत्य करके वे कुछ समय बाद शोक रहित हुए । तत्पश्चात् एक बार किसी समय सुखासन पर बैठे जिनपालित से उसके माता-पिता ने इस प्रकार प्रश्न किया-'हे पुत्र ! जिनरक्षित किस प्रकार कालधर्म को प्राप्त हुआ ?' तब जिनपालित ने माता-पिता से अपना लवणसमुद्र में प्रवेश करना, तूफानी हवा का उठना, पोतवहन का नष्ट होना, रत्नद्वीप में जाना, देवी के घर जाना, वहाँ के भोगों का वैभव, रत्नद्वीप की देवी के वधस्थान, शूली पर चढ़े पुरुष, शैलक वृक्ष की पीठ पर आरूढ़ होना, रत्नद्वीप की देवी द्वारा उपसर्ग, जिनरक्षित का मरण, लवणसमुद्र पार करना, चम्पा में आना और शैलक यक्ष द्वारा छुट्टी लेना, आदि सर्व वृत्तान्त ज्यों का त्यों, सच्चा और असंदिग्ध कह सूनाया । तब जिनपालित यावत् शोकरहित होकर यावत् विपुल कामभोग भोगता हुआ रहने लगा। सूत्र-१४० उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर, जहाँ चम्पा नगरी थी और जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ पधारे । भगवान को वन्दना करने के लिए परीषद् नीकली । कूणिक राजा भी नीकला । जिनपालित ने धर्मोपदेश श्रवण करके दीक्षा अंगीकार की । क्रमशः ग्यारह अंगों का ज्ञाता होकर, अन्त में एक मास का अनशन करके यावत् सौधर्म कल्प में देव के रूप में उत्पन्न हुआ । वहाँ दो सागरोपम की उसकी स्थिति कही गई है । वहाँ से च्यवन करके यावत् महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्धि प्राप्त करेगा । इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! आचार्य-उपाध्याय के समीप दीक्षित होकर जो साधु या साध्वी मनुष्य-सम्बन्धी कामभोगों की पुनः अभिलाषा नहीं करता, वह जिनपालित की भाँति यावत् संसार-समुद्र को पार करेगा । इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने नौवें ज्ञातअध्ययन का यह अर्थ प्ररूपण किया है । जैसा मैंने सूना है, उसी प्रकार तुमसे कहता हूँ अध्ययन-९ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 95 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक अध्ययन-१०-चन्द्र सूत्र - १४१ भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने नौवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है तो दसवें ज्ञात-अध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। उस राजगृह नगर में श्रेणिक नामक राजा था । उस के बाहर ईशानकोण में गुणशील नामक चैत्य था । उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी अनुक्रम से विचरते, एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाते सुखे-सुखे विहार करते हुए, गुणशील चैत्य पधारे । भगवान की वन्दना-उपासना करने के लिए परीषद् नीकली । श्रेणिक राजा भी नीकला । धर्मोपदेश सून कर परीषद् लौट गई । तत्पश्चात् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर से इस प्रकार कहा-'भगवन् ! जीव किस प्रकार वृद्धि को प्राप्त होते हैं और किस प्रकार हानि को प्राप्त करते हैं ?' हे गौतम ! जैसे कृष्णपक्ष की प्रतिपदा का चन्द्र, पूर्णिमा के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण से हीन होता है, सौम्यता से, स्निग्धता से, कान्ति से, दीप्ति से, युक्ति से, छाया से, प्रभा से, ओजस् से, लेश्या से और मण्डल से हीन होता है, इसी प्रकार कृष्णपक्ष की द्वीतिया का चन्द्रमा, प्रतिपदा के चन्द्रमा की अपेक्षा वर्ण से हीन होता है यावत् मण्डल से भी हीन होता है । तत्पश्चात् तृतीया का चन्द्र द्वीतिया के चन्द्र की अपेक्षा भी वर्ण से हीन यावत् मंडल से भी हीन होता है । इस प्रकार यावत् अमावस्या का चन्द्र, चतुर्दशी के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण आदि से सर्वथा नष्ट होता है, यावत् मण्डल से नष्ट होता है, इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो साधु या साध्वी प्रव्रजित होकर क्षान्ति-क्षमा से हीन होता है, इसी प्रकार मुक्ति से, आर्जव से, मार्दव से, लाघव से, सत्य से, तप से, त्याग से, आकिंचन्य से और ब्रह्मचर्य से हीन होता है, वह उसके पश्चात् क्षान्ति से हीन और अधिक हीन, यावत् ब्रह्मचर्य से भी हीन अतिहीन होता जाता है । इस प्रकार इसी क्रम से हीन-हीनतर होते हुए उसके क्षमा आदि गुण, यावत् उसका ब्रह्मचर्य नष्ट हो जाता है। जैसे शुक्लपक्ष की प्रतिपक्ष का चन्द्र अमावस्या के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण यावत् मंडल से अधिक होता है। तदनन्तर द्वीतिया का चन्द्र प्रतिपक्ष के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण यावत् मंडल से अधिकतर होता है और इसी क्रम से वृद्धिगत होता हुआ पूर्णिमा का चन्द्र चतुर्दशी के चन्द्र की अपेक्षा परिपूर्ण वर्ण यावत् परिपूर्ण मंडल वाला होता है। इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो हमारा साधु या साध्वी यावत् आचार्य-उपाध्याय के निकट दीक्षित होकर क्षमा से अधिक वृद्धि प्राप्त होता है, यावत् ब्रह्मचर्य से अधिक होता है, तत्पश्चात् वह क्षमा से यावत् ब्रह्मचर्य से और अधिक-अधिक होता जाता है । निश्चय ही इस क्रम से बढ़ते-बढ़ते यावत् वह क्षमा आदि एवं ब्रह्मचर्य से परिपूर्ण हो जाता है । इस प्रकार जीव वृद्धि को और हानि को प्राप्त होते हैं । इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने दसवे ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है । वैसा ही मैं कहता हूँ। अध्ययन-१० का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 96 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र -६, 'ज्ञाताधर्मकथा ' अध्ययन-११- दावद्रव श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक सूत्र - १४२ 'भगवन् ! ग्यारहवे अध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था । उस राजगृह नगर में श्रेणिक राजा था । उसके बाहर उत्तरपूर्व दिशा में गुणशील नामक चैत्य था। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर अनुक्रम से विचरते हुए, यावत् गुणशील नामक उद्यान में समवसृत हुए । वन्दना करने के लिए राजा श्रेणिक और जनसमूह नीकला । भगवान् ने धर्म का उपदेश किया । जनसमूह वापिस लौट गया। तत्पश्चात् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर से कहा'भगवन्! जीव किस प्रकार आराधक और किस प्रकार विराधक है ?' हे गौतम! जैसे एक समुद्र के किनारे दावद्रव नामक वृक्ष कहे गये हैं वे कृष्ण वर्ण वाले यावत् निकुरंब रूप हैं। पत्तों वाले, फलों वाले, अपनी हरियाली के कारण मनोहर और श्री से अत्यन्त शोभित शोभित होते हुए स्थित । जब द्वीप सम्बन्धी ईषत् पुरोवात पथ्यवात, मन्द वात और महावात चलती है, तब बहुत-से दावद्रव नामक वृक्ष पत्र आदि से युक्त होकर खड़े रहते हैं । उनमें से कोई-कोई दावद्रव वृक्ष जीर्ण जैसे हो जाते हैं, झोड़ हो जाते हैं, अत एव वे खिले हुए पीले पत्तों, पुष्पों और फलों वाले हो जाते हैं और सूखे पेड़ की तरह मुरझाते हुए खड़े रहते हैं। इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो साधु या साध्वी यावत् दीक्षित होकर बहुत-से साधुओं, साध्वीओं, श्रावकों और श्राविकाओं के प्रतिकूल वचनों को सम्यक् प्रकार से सहन करता है, यावत् विशेष रूप से सहन करता है, किन्तु बहुत से अन्य तीर्थिकों के तथा गृहस्थों के दुर्वचन को सम्यक् प्रकार से सहन नहीं करता है, यावत् विशेष रूप से सहन नहीं करता है, ऐसे पुरुष को मैंने देश- विराधक कहा है । - आयुष्मन् श्रमणों! जब समुद्र सम्बन्धी ईषत् पुरोवात, पथ्य या पश्चात् वात, मंदवात और महावात बहती हैं, तब बहुत-से दावद्रव वृक्ष जीर्ण-से हो जाते हैं, झोड़ हो जाते हैं, यावत् मुरझाते - मुरझाते खड़े रहते हैं। किन्तु कोई-कोई दावद्रव वृक्ष पत्रित, पुष्पित यावत् अत्यन्त शोभायमान होते हुए रहते हैं इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों! जो साधु अथवा साध्वी दीक्षित होकर बहुत-से अन्यतीर्थिकों के और बहुत-से गृहस्थों के दुर्वचन सम्यक् प्रकार से सहन करता है और बहुत-से साधुओं, साध्वीओं, श्रावकों तथा श्राविकाओं के दुर्वचन सम्यक् प्रकार से सहन नहीं करता, उस पुरुष को मैंने देशाराधक कहा है । आयुष्मन् श्रमणों ! जब द्वीप सम्बन्धी और समुद्र सम्बन्धी एक भी ईषत् पुरोवात, पथ्य या पश्चात् वात, यावत् महावात नहीं बहती, तब सब दावद्रव वृक्ष जीर्ण सरीखे हो जाते हैं, यावत् मुरझाए रहते हैं । इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो साधु या साध्वी, यावत् प्रव्रजित होकर बहुत-से साधुओं, साध्वीयों, श्रावकों, श्राविकाओं, अन्यतीर्थिकों एवं गृहस्थों के दुर्वचन शब्दों को सम्यक् प्रकार से सहन नही करता, उस को मैंने सर्वविराधक कहा । जब द्वीप सम्बन्धी और समुद्र सम्बन्धी भी ईषत् पुरोवात, पथ्य या पश्चात् वात, यावत् बहती हैं, तब तभी दावद्रव वृक्ष पत्रित, पुष्पित, फलित यावत् सुशोभित रहते हैं । हे आयुष्मन् श्रमणों ! इसी प्रकार जो साधु या साध्वी बहुत-से श्रमणों के, श्रमणियों के, श्रावकों के, श्राविकाओं के, अन्यतीर्थिकों के और गृहस्थों के दुर्वचन सम्यक् प्रकार से सहन करता है, उस पुरुष को मैंने सर्वाधिक कहा है। इस प्रकार हे गौतम! जीव आराधक और विराधक होते हैं । हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने ग्यारहवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है । वैसा ही मैं कहता हूँ I अध्ययन- ११ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा )" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद” Page 97 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक अध्ययन-१२- उदक सूत्र-१४३ "भगवन् ! यदि यावत् सिद्धि प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने ग्यारहवे ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है, तो बारहवें ज्ञात-अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में चम्पा नामक नगरी थी। उसके बाहर पूर्णभद्र नामक चैत्य था । उस चम्पा नगरी में जितशत्रु नामक राजा था । धारिणी नामक रानी थी, वह परिपूर्ण पाँचों इन्द्रियों वाली यावत सुन्दर रूप वाली थी। जितशत्र राजा का पत्र और धारिणी देवी का आत्मज अदीनशत्रु नामक कुमार था । सुबुद्धि नामक मन्त्री था । वह (यावत्) राज्य की धूरा का चिन्तक श्रमणोपासक और जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता था। चम्पा नगरी के बाहर ईशान दिशा में एक खाई में पानी था । वह मेद, चर्बी, मांस, रुधिर और पीब के समूह से युक्त था । मृतक शरीरों से व्याप्त था, यावत् वर्ण से अमनोज्ञ था । वह जैसे कोई सर्प का मृत कलेवर हो, गाय का कलेवर हो, यावत् मरे हुए, सड़े हुए, गले हुए, कीड़ों से व्याप्त और जानवरों के खाये हुए किसी मृत कलेवर के समान दुर्गन्ध वाला था । कृमियों के समूह से परिपूर्ण था । जीवों से भरा हुआ था । अशुचि, विकृत और बीभत्स-डरावना दिखाई देता था । क्या वह (वस्तुतः) ऐसे स्वरूप वाला था ? नहीं, यह अर्थ समर्थ नहीं है । वह जल इससे भी अधिक अनिष्ट यावत् गन्ध आदि वाला था। सूत्र-१४४ वह जितशत्रु राजा एक बार-किसी समय स्नान करके, बलिकर्म करके, यावत् अल्प किन्तु बहुमूल्य आभरणों से शरीर को अलंकृत करके, अनेक राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि के साथ भोजन के समय पर सुखद आसन पर बैठ कर, विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन जीम रहा था । यावत् जीमने के अनन्तर, हाथ-मुँह धोकर, परम शुचि होकर उस विपुल अशन, पान आदि भोजन के विषय में वह विस्मय को प्राप्त हुआ । अत एव उन बहुत-से ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि से कहने लगा-'अहो देवानुप्रियो ! यह मनोज्ञ अशन, पान, खादिम और स्वादिम उत्तम वर्ण से यावत् उत्तम स्पर्श से युक्त है, वह आस्वादन करने योग्य है, विशेष रूप से आस्वादन करने योग्य है । पुष्टिकारक है, बल को दीप्त करने वाला है, दर्प उत्पन्न करने वाला है, काम-मद का जनक है और बलवर्धक तथा समस्त इन्द्रियों को और गात्र को विशिष्ट आह्लादक उत्पन्न करने वाला है । तत्पश्चात् बहुत-से ईश्वर यावत् सार्थवाह प्रभृति जितशत्रु से कहने लगे-'स्वामिन् ! आप जो कहते हैं, बात वैसी ही है । अहा, यह मनोज्ञ अशन, पान, खादिम और स्वादिम उत्तम वर्ण से युक्त हैं, यावत् विशिष्ट आह्लादजनक हैं।' तत्पश्चात् जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य से कहा-'अहो सुबुद्धि ! यह मनोज्ञ अशन, पान, खादिम और स्वादिम उत्तम वर्णादि से युक्त और यावत् समस्त इन्द्रियों को एवं गात्र को विशिष्ट आह्लादजनक है ।' तब सुबुद्धि अमात्य ने जितशत्रु के इस अर्थ का आदर नहीं किया । समर्थन नहीं किया, वह चूप रहा । जितशत्रु राजा के द्वारा दूसरी बार और तीसरी बार भी इस प्रकार कहने पर सुबुद्धि अमात्य ने जितशत्रु राजा से कहा-मैं इस मनोज्ञ अशन, पान, खादिम और स्वादिम में तनिक भी विस्मित नहीं हूँ । हे स्वामिन् ! सुरभि शब्द वाले पुद्गल दुरभि शब्द के रूप में परिणत हो जाते हैं और दुरभि शब्द वाले पुद्गल भी सुरभि शब्द के रूप में परिणत हो जाते हैं । उत्तम रूप वाले पुद्गल खराब रूप में और खराब रूप वाले पुद्गल उत्तम रूप में परिणत हो जाते हैं । सुरभि गन्ध वाले पुद्गल दुरभिगन्ध में और दुरभिगन्ध वाले पुद्गल भी सुरभिगन्ध में परिणत हो जाते हैं । सुन्दर रस वाले पुद् गल खराब रस में और खराब रस वाले पुद्गल सुन्दर रस वाले पुद्गल में परिणत हो जाते हैं । शुभ स्पर्श वाले पुद् गल अशुभ स्पर्श वाले और अशुभ स्पर्श वाले पुद्गल शुभ स्पर्श वाले बन जाते हैं । हे स्वामिन् ! सब पुद्गलों में प्रयोग और विस्रसा परिणमन होता ही रहता है । उस समय जितशत्रु ने ऐसा कहने वाले सुबुद्धि अमात्य के इस कथन का आदर नहीं किया, अनुमोदन नहीं किया और वह चूपचाप रहा । एक बार किसी समय जितशत्रु स्नान करके, उत्तम अश्व की पीठ पर सवार होकर, बहुत-से भटों-सुभटों के मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 98 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक साथ, घुड़सवारी के लिए नीकला और उसी खाई के पानी के पास पहुँचा । तब जितशत्रु राजा ने खाई के पानी की अशुभ गन्ध से घबराकर अपने उत्तरीय वस्त्र से मुँह ढंक लिया । वह एक तरफ चला गया और साथी राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह वगैरह से इस प्रकार कहने लगा-'अहो देवानुप्रियो ! यह खाई का पानी वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से अमनोज्ञ-अत्यन्त अशुभ है । जैसे किसी सर्प का मृत कलेवर हो, यावत् उससे भी अधिक अमनोज्ञ है, अमनोज्ञ गन्ध वाला है । तत्पश्चात् वे राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि उस प्रकार बोले-स्वामिन् ! आप जो ऐसा कहते हैं सो सत्य ही है कि-अहो ! यह खाई का पानी वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से अमनोज्ञ है। यह ऐसा अमनोज्ञ है, जैसे साँप आदि का मृतक कलेवर हो, यावत् उससे भी अधिक अतीव अमनोज्ञ गन्ध वाला है। तब राजा जितशत्रु ने सुबुद्धि अमात्य से कहा-'अहो सुबुद्धि ! यह खाई का पानी वर्ण आद से अमनोज्ञ है, जैसे किसी सर्प आदि का मत कलेवर हो, यावत उससे भी अधिक अत्यन्त अमनोज्ञ गंध वाला है । तब सबद्धि अमात्य इस कथन का समर्थन न करता हआ मौन रहा। तब जितशत्र राजा ने सबद्धि अमात्य से दूसरी बार और तीसरी बार इसी प्रकार कहा-'अहो सुबुद्धि ! यह खाई का पानी अमनोज्ञ है इत्यादि पूर्ववत् ।' तब सुबुद्धि अमात ने जितशत्रु के दूसरी बार और तीसरी बार ऐसा कहने पर इस प्रकार कहा-'स्वामिन् ! मुझे इस खाई के पानी के विषय में कोई विस्मय नहीं है । क्योंकि शुभ शब्द के पुद्गल भी अशुभ रूप में परिणत हो जाते हैं, इत्यादि पूर्ववत् यावत् मनुष्य के प्रयत्न से और स्वाभाविक रूप से भी पुद्गलों में परिणमन होता रहता है; ऐसा कहा है। तत्पश्चात् जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य से इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय ! तुम अपने आपको, दूसरे को और स्व-पर दोनों को असत् वस्तु या वस्तुधर्म की उद्भावना करके और मिथ्या अभिनिवेश करके भ्रम में मत डालो, अज्ञानियों को ऐसी सीख न दो । जितशत्रु की बात सूनने के पश्चात् सुबुद्धि को इस प्रकार का अध्यवसायविचार उत्पन्न हुआ-अहो ! जितशत्रु राजा सत्, तत्त्वरूप, तथ्य, अवितथ और सद्भूत जिन भगवान द्वारा प्ररूपित भावों को नहीं जानता-नहीं अंगीकार करता । अत एव मेरे लिए यह श्रेयस्कर होगा कि मैं जितशत्रु राजा को सत् तत्त्वरूप, तथ्य, अवितथ और सद्भूत जिनेन्द्र प्ररूपित भावों को समझाऊं और इस बात को अंगीकार कराऊं। सुबुद्धि अमात्य ने इस प्रकार विचार किया । विचार करके विश्वासपात्र पुरुषों से खाई के मार्ग के बीच की कुंभार की दुकान से नये घड़े और वस्त्र लिए । घड़े लेकर जब कोई विरले मनुष्य चल रहे थे और जब लोग अपनेअपने घरों में विश्राम लेने लगे थे, ऐसे संध्याकाल के अवसर पर जहाँ खाई का पानी था, वहाँ आकर पानी ग्रहण करवाया । उसे नये घड़ों में गलवाया, नये घड़ों में डलवाकर उन घड़ों को लांछित-मुद्रित करवाया । फिर सात रात्रि -दिन उन्हें रहने दिया। सात रात्रि-दिन के बाद उस पानी को दूसरी बार कोरे घडे में छनवाया और नये घडों में डलवाया । उनमें ताजा राख डलवाई और फिर उन्हें लांछित-मुद्रित करवा दिया। सात रात-दिन रखने के बाद तीसरी बार नवीन घड़ों में वह पानी डलवाया, यावत् सात रात-दिन उसे रहने दिया । इस तरह से, इस उपाय से, बीच-बीच में गलवाया, बीच-बीच में कोरे घड़ों में डलवाया और बीच-बीच में रखवाया जाता हआ वह पानी सातसात रात्रि-दिन तक रख छोड़ा जाता था। तत्पश्चात् वह खाई का पानी सात सप्ताह में परिणत होता हुआ उदकरत्न बन गया । वह स्वच्छ, पथ्यआरोग्यकारी, जात्य, हल्का हो गया; स्फटिक मणि के सदृश मनोज्ञ वर्ण से युक्त, मनोज्ञ गंध से युक्त, रस से युक्त और स्पर्श से युक्त, आस्वादन करने योग्य यावत् सब इन्द्रियों को मति आह्लाद उत्पन्न करने वाला हो गया । तत्पश्चात् सुबुद्धि अमात्य उस उदकरत्न के पास पहुँचकर हथेली में लेकर उसका आस्वादन किया । उसे मनोज्ञ वर्ण से युक्त, गंध से युक्त, रस से युक्त, स्पर्श से युक्त, आस्वादन करने योग्य यावत् सब इन्द्रियों को और गात्र को अतिशय आह्लादजनक जानकर हृष्ट-तुष्ट हुआ । फिर उसने जल को सँवारने वाले द्रव्यों से सँवारा-जितशत्रु राजा के जलगृह के कर्मचारी को बुलवाकर कहा- देवानुप्रिय ! तुम यह उदकरत्न ले जाओ । इसे ले जाकर राजा जितशत्रु के भोजन की वेला में उन्हें पीने के लिए देना ।' तत्पश्चात् जलगृह के उस कर्मचारी ने सुबुद्धि के इस अर्थ को अंगीकार किया । अंगीकार करके वह उदकरत्न ग्रहण किया और ग्रहण करके जितशत्रु राजा के भोजन की मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 99 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक वेला में उपस्थित किया। तत्पश्चात् जितशत्रु राजा उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम का आस्वादन करता हुआ विचर रहा था । जीम चूकने के अनन्तर अत्यन्त शुचि-स्वच्छ होकर जलरत्न का पान करने से राजा को विस्मय हुआ। उसने बहुत-से राजा, ईश्वर आदि से यावत् कहा-'अहो देवानुप्रियो ! यह उदकरत्न स्वच्छ है यावत् समस्त इन्द्रियों को और गात्र को आह्लाद उत्पन्न करने वाला है ।' तब वे बहुत-से राजा, ईश्वर आदि यावत् इस प्रकार कहने लगे'स्वामिन् ! जैसा आप कहते हैं, बात ऐसी रही है । यह जलरत्न यावत् आह्लादजनक है। तत्पश्चात् राजा जितशत्रु ने जलगृह के कर्मचारी को बुलवाया और बुलवाकर पूछा-'देवानुप्रिय ! तुमने यह जलरत्न कहाँ से प्राप्त किया ?' तब जलगृह के कर्मचारी ने जितशत्रु से कहा-'स्वामिन् ! यह जलरत्न मैंने सुबुद्धि अमात्य के पास से प्राप्त किया है। तत्पश्चात राजा जितशत्र ने सुबुद्धि अमात्य को बुलाया और उससे कहा-'अहो बद्धि ! किस कारण से तुम्हें मैं अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमणाम हैं, जिससे तुम मेरे लिए प्रतिदिन भोजन के समय यह उदकरत्न नहीं भेजते ? देवानुप्रिय ! तुमने वह उदकरत्न कहाँ से पाया है ?' तब सुबुद्धि अमात्य ने जितशत्रु से कहा-'स्वामिन् ! यह वही खाई का पानी है ।' तब जितशत्रु ने सुबुद्धि से कहा-किस प्रकार यह वही खाई का पानी है ? तब सुबुद्धि ने जितशत्रु से कहा-'स्वामिन् ! उस समय अर्थात खाई के पानी का वर्णन करते समय मैंने आपको पुद्गलों का परिणमन कहा था, परन्तु आपने उस पर श्रद्धा नहीं की थी। तब मेरे मन में इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तन, विचार या मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-अहो ! जितशत्रु राजा सत् यावत् भावों पर श्रद्धा नहीं करते, प्रतीति नहीं करते, रुचि नहीं रखते, अत एव मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि जितशत्रु राजा को सत् यावत् सद्भूत जिनभाषित भावों को समझाकर पुद्गलों के परिणमन रूप अर्थ को अंगीकार कराऊं । विचार करके पहले कहे अनुसार पानी को सँवार कर तैयार किया । यावत् वही खाई का पानी है । तत्पश्चात् जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य के पूर्वोक्त अर्थ पर श्रद्धा न की, प्रतीति न की और रुचि न की । उसने अपनी अभ्यन्तर परीषद् के पुरुषों को बुलाया । उन्हें बुलाकर कहा-'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और खाई के जल के रास्ते वाली कुंभार की दुकान से नये घड़े तथा वस्त्र लाओ और यावत् जल को सँवारने-सुन्दर बनाने वाले द्रव्यों से उस जल को सँवारो।' उन पुरुषों ने राजा के कथनानुसार पूर्वोक्त विधि से जल को सँवारा और सँवार कर वे जितशत्रु के समीप लाए। तब जितशत्रु राजा ने उस उदकरत्न को हथेली में लेकर आस्वादन किया । उसे आस्वादन करने योग्य यावत् सब इन्द्रियों को और गात्र को आह्लादकारी जानकर सुबुद्धि अमात्य को बुलाया । बुलाकर इस प्रकार कहा-'सुबुद्धि ! तुमने ये सत्, तथ्य, अवितथ तथा सद्भूत भाव कहाँ से जाने ?' तब सुबुद्धि ने जितशत्रु से कहा-'स्वामिन् ! मैंने यह सत् यावत् सद्भूत भाव जिन भगवान के वचन से जाने हैं।' तत्पश्चात् जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि से कहा-'देवानुप्रिय ! तो मैं तुमसे जिनवचन सूनना चाहता हूँ ।' तब सुबुद्धि मंत्री ने जितशत्रु राजा को केवली-भाषित चातुर्याम रूप अद्भूत धर्म कहा । जिस प्रकार जीव कर्मबंध करता है, यावत् पाँच अणुव्रत हैं, इत्यादि धर्म का कथन किया । तत्पश्चात् जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य से धर्म सूनकर और मन में धारण करके, हर्षित और संतुष्ट होकर सुबुद्धि अमात्य से कहा- देवानुप्रिय ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ। जैसा तुम कहते हो वह वैसा ही है । सौ मैं तुमसे पाँच अणुव्रतों और सात शिक्षाव्रतों को यावत् ग्रहण करके विचरने की अभिलाषा करता हूँ।' तब सुबुद्धि ने कहा-जैसे सुख उपजे वैसा करो, प्रतिबंध मत करो। जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य से पाँच अणुव्रत वाला यावत् बारह प्रकार का श्रावकधर्म अंगीकार किया। जितशत्रु श्रावक हो गया, जीव-अजीव का ज्ञाता हो गया यावत् दान करता हुआ रहने लगा । उस काल और उस समय में जहाँ चम्पा नगरी और पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ स्थविर मुनि पधारे । जितशत्रु राजा और सुबुद्धि उनको वन्दना करने के लिए नीकले । सुबुद्धि ने धर्मोपदेश सूनकर (निवेदन किया-) मैं जितशत्रु राजा से पूछ लूँउनकी आज्ञा ले लूँ, और फिर दीक्षा अंगीकार करूँगा । 'देवानुप्रिय ! जैसे सुख उपजे वैसा करो ।' तत्पश्चात् मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 100 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक सुबुद्धि अमात्य जितशत्रु राजा के पास गया और बोला-'स्वामिन् ! मैंने स्थविर मुनि से धर्मोपदेश श्रवण किया है और उस धर्म की मैंने पुनः पुनः ईच्छा की है । इस कारण हे स्वामिन ! मैं संसार के भय से उद्विग्न हआ हँ तथा जरा-मरण से भयभीत हुआ हूँ । अतः आपकी आज्ञा पाकर स्थविरों के निकट प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता हूँ।' तब जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य से इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय ! अभी कुछ वर्षों तक यावत् भोग भोगते हुए ठहरो, उसके अनन्तर हम दोनों साथ-साथ स्थविर मुनियों के निकट मुण्डित होकर प्रव्रज्या अंगीकार करेंगे। तब सुबुद्धि अमात्य ने राजा जितशत्रु के इस अर्थ को स्वीकार कर लिया । तत्पश्चात् सुबुद्धि प्रधान के साथ जितशत्रु राजा को मनुष्य सम्बन्धी कामभोग भोगते हुए बारह वर्ष व्यतीत हो गए । तत्पश्चात् उस काल और उस समय में स्थविर मुनि का आगमन हुआ । तब जितशत्रु ने धर्मोपदेश सूनकर प्रतिबोध पाया, किन्तु उसन कहादेवानप्रिय ! मैं सुबद्धि अमात्य को दीक्षा के लिए आमंत्रित करता हूँ और ज्येष्ठ पुत्र को राजसिंहासन पर स्थापित करता हूँ। तदनन्तर आपके निकट दीक्षा अंगीकार करूँगा। तब स्थविर मनि ने कहा-'देवानप्रिय ! जैसे तम्हें सुख उपजे वही करो।' तब जितशत्रु राजा अपने घर आया । आकर सुबुद्धि को बुलवाया और कहा-मैंने स्थविर भगवान् से धर्मोपदेश श्रवण किया है यावत् मैं प्रव्रज्या ग्रहण करने की ईच्छा करता हूँ | तुम क्या करोगे-तुम्हारी क्या ईच्छा है ? तब सुबुद्धि ने जितशत्रु से कहा-'यावत् आपके सिवाय मेरा दूसरा कौन आधार है ? यावत् मैं भी संसार-भय उद्विग्न हूँ, मैं भी प्रव्रज्या अंगीकार करूँगा।' राजा जितशत्रु ने कहा-देवानुप्रिय ! यदि तुम्हें प्रव्रज्या अंगीकार करनी है तो जाओ और अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित करो और शिबिका पर आरूढ़ होकर मेरे समीप प्रकट होओ । तब सुबुद्धि अमात्य शिबिका पर आरूढ़ होकर यावत् राजा के समीप आ गया । तत्पश्चात् जितशत्रु ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर उनसे कहा -'जाओ देवानुप्रियो ! अदीनशत्रु कुमार के राज्याभिषेक की सामग्री उपस्थित-तैयार करो ।' कौटुम्बिक पुरुषों ने सामग्री तैयार की, यावत् कुमार का अभिषेक किया, यावत् जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य के साथ प्रव्रज्या अंगीकार कर ली । दीक्षा अंगीकार करने के पश्चात् जितशत्रु मुनि ने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया । बहुत वर्षों तक दीक्षापर्याय पालकर अन्त में एक मास की संलेखना करके सिद्धि प्राप्त की । दीक्षा अंगीकार करने के अनन्तर सुबुद्धि मुनि ने भी ग्यारह अंगों का अध्ययन किया । बहत वर्षों तक दीक्षापर्याप्त पाली और अंत में एक मास की संलेखना करके सिद्धि पाई । हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने बारहवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है । मैंने जैसा सूना वैसा कहा। अध्ययन-१२ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 101 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक अध्ययन-१३-मण्डुक सूत्र - १४५ भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने बारहवें ज्ञात-अध्ययन का अर्थ यह कहा है तो तेरहवे ज्ञातअध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था । उस राजगृह नगर में श्रेणिक नामक राजा था । राजगृह के बाहर उत्तरपूर्व दिशा में गुणशील नामक चैत्य था । उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर चौदह हजार साधुओं के साथ यावत् अनुक्रम से विचरते हुए, एक गाँव से दूसरे गाँव सुखे-सुखे विहार करते हुए राजगृह नगर और गुणशील उद्यान में पधारे । यथायोग्य अवग्रह की याचना करके संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे । भगवान को वन्दना करने के लिए परीषद् नीकली और धर्मोपदेश सूनकर वापिस लौट गई। उस काल और उस समय सौधर्मकल्प में, दर्दरावतंसक नामक विमान में, सुधर्मा नामक सभा में, दर्दर नामक सिंहासन पर, दर्दुर नामक देव चार हजार सामानिक देवों, चार अग्रमहिषियों और तीन प्रकार की परीषदों के साथ यावत् सूर्याभ देव के समान दिव्य भोग योग्य भोगों को भोगता हुआ विचर रहा था । उस समय उसने इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को अपने विपुल अवधिज्ञान से देखते-देखते राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में भगवान महावीर को देखा । तब वह परिवार के साथ भगवान के पास आया और सूर्याभ देव के समान नाट्यविधि दिखलाकर वापिस लौट गया । भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार कहा-भगवन्! दर्दुर देव महान् ऋद्धिमान्, महाद्युतिमान्, महाबलवान्, महायशस्वी, महासुखवान् तथा महान् प्रभाववान् है, तो हे भगवन् ! दर्दुर देव की वह व्यि देवऋद्धि कहाँ चली गई ? कहाँ समा गई ? भगवान् ने उत्तर दिया-'गौतम ! वह देव -ऋद्धि शरीर में गई, शरीर में समा गई । इस विषय में कूटागार का दृष्टान्त समझना ।। गौतमस्वामी ने पुनः प्रश्न किया-'भगवन् ! दर्दुरदेव ने वह दिव्य देव-ऋद्धि किस प्रकार लब्ध की, किस प्रकार प्राप्त की? किस प्रकार वह उसके समक्ष आई? गौतम ! इसी जम्बूद्वीप में, भरतक्षेत्र में, राजगृह नगर था। गुणशील चैत्य था । श्रेणिक राजा था । उस नगर में नन्द नामक मणिकार सेठ रहता था । वह समृद्ध था, तेजस्वी था और किसी से पराभूत होने वाला नहीं था । हे गौतम ! उस काल और उस समय में मैं गुणशील उ परीषद् वन्दना करने के लिए नीकली और श्रेणिक राजा भी नीकला । तब नन्द मणिकार सेठ इस कथा का अर्थ जानकर स्नान करके विभूषित होकर पैदल चलता हुआ आया, यावत् मेरी उपासना करने लगा। फिर वह नन्द धर्म सूनकर श्रमणोपासक हो गया। तत्पश्चात् मैं राजगृह से बाहर नीकलकर बाहर जनपदों में विचरण करने लगा। तत्पश्चात् नन्द मणिकार श्रेष्ठी साधुओं का दर्शन न होने से, उनकी उपासना न करने से, उनका उपदेश न मिलने से और वीतराग के वचन न सूनने से, क्रमशः सम्यक्त्व के पर्यायों की धीरे-धीरे हीनता होती चली जाने से और मिथ्यात्व के पर्यायों की क्रमशः वृद्धि होते रहने से, एक बार किसी समय मिथ्यात्वी हो गया । नन्द मणिकार श्रेष्ठी ने किसी समय ग्रीष्मऋतु के अवसर पर, ज्येष्ठ मास में अष्टम भक्त अंगीकार किया । वह पौषधशाला में यावत् विचरने लगा । तत्पश्चात् नन्द श्रेष्ठी का अष्टमभक्त जब परिणत हो रहा था-तब प्यास और भूख से पीड़ित हुए उसके मन में विचार उत्पन्न हुआ-'वे यावत् ईश्वर सार्थवाह आदि धन्य हैं, जिनकी राजगृह नगर से बाहर बहुतसी बावड़ियाँ हैं, पुष्करिणियाँ हैं, यावत् सरोवरों की पंक्तियाँ हैं, जिनमें बहुतेरे लोग स्नान करते हैं, पानी पीते हैं और जिनसे पानी भर ले जाते हैं । तो मैं भी कल प्रभात होने पर श्रेणिक राजा की आज्ञा लेकर राजगृह नगर से बाहर, उत्तरपूर्व दिशा में, वैभारपर्वत के कुछ समीप में, वास्तुशास्त्र के पाठकों से पसंद किये हुए भूमिभाग में नन्दा पुष्करिणी खुदवाऊं, यह मेरे लिए उचित होगा ।' नन्द श्रेष्ठी ने इस प्रकार विचार करके, दूसरे दिन प्रभात होने पर पोषध पारा, स्नान किया, बलिकर्म किया, फिर मित्र, ज्ञाति आदि से यावत् परिवृत्त होकर बहुमूल्य उपहार लेकर राजा के समक्ष रखा और इस प्रकार कहा-'स्वामिन् ! आपकी अनुमति पाकर राजगृह नगर के बाहर यावत् पुष्करिणी खुदवाना चाहता हूँ ।' राजा ने उत्तर दिया-'जैसे सुख उपजे, वैसा करो। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 102 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक तत्पश्चात् नन्द मणिकार सेठ श्रेणिक राजा से आज्ञा प्राप्त करके हृष्ट-तुष्ट हुआ । वह राजगृह नगर के बीचों बीच होकर नीकला । वास्तुशास्त्र के पाठकों द्वारा पसंद किए हुए भूमिभाग में नन्दा नामक पुष्करिणी खुदवाने में प्रवृत्त हो गया-उसने पुष्करिणी का खनन कार्य आरम्भ करवा दिया । तत्पश्चात् नन्दा पुष्करिणी अनुक्रम से खुदती-खुदती चतुष्कोण और समान किनारों वाली पूरी पुष्करिणी हो गई । अनुक्रम से उसके चारों ओर घूमा हुआ परकोटा बन गया, उसका जल शीतल हुआ । जल पत्तों, बिसतंतुओं और मृणालों से आच्छादित हो गया । वह वापी बहुत-से खिले हुए उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिनी, सुभग जातिय कमल, सौगंधिक कमल, पुण्डरीक महापु-ण्डरीक, शतपत्र कमल, सहस्रपत्र कमल की केसर से युक्त हुई । परिहत्थ नामक जल-जन्तुओं, भ्रमण करते हुए मदोन्मत्त भ्रमरों और अनेक पक्षियों के युगलों द्वारा किये हुए शब्दों से उन्नत और मधुर स्वर से वह पुष्करिणी गूंजने लगी । वह सबके मन को प्रसन्न करने वाली दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हो गई । तत्पश्चात् नन्द मणिकार श्रेष्ठी ने नन्दा पुष्करिणी की चारों दिशाओं में चार वनखण्ड रूपवाये-लगवाए । उन वनखण्डों की क्रमशः अच्छी रखवाली की गई, संगोपन-सार-सँभाल की गई, अच्छी तरह उन्हें बढ़ाया गया, अत एव वे वनखण्ड कृष्ण वर्ण वाले तथा गुच्छा रूप हो गए-खूब घने हो गए । वे पत्तों वाले, पुष्पों वाले यावत् शोभायमान हो गए। तत्पश्चात् नन्द मणियार सेठ ने पूर्व दिशा के वनखण्ड में एक विशाल चित्रसभा बनवाई । वह कई सौ खम्भों की बनी हुई थी, प्रसन्नताजनक, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप थी । उस चित्रसभा में बहुत-से कृष्ण वर्ण वाले यावत् शुक्ल वर्ण वाले काष्ठकर्म, पुस्तकर्म, चित्रकर्म, लेप्यकर्म-ग्रंथिक कर्म, वेष्टितकर्म, पूरिमकर्म और संघातिमकर्म थीं । वे कलाकृतियाँ इतनी सुन्दर थीं कि दर्शकगण उन्हें एक दूसरे को दिखा-दिखा कर वर्ण करते थे। उस चित्रसभा में बहुत-से आसन और शयन निरन्तर बिछे रहते थे । वहाँ बहुत-से नाटक करने वाले और नृत्य करने वाले, यावत् वेतन देकर रखे हुए थे । वे तालाचर कर्म किया करते थे । राजगृह से बाहर सैर के लिए नीकले हुए बहुत लोग उस जगह आकर पहले से ही बिछे हुए आसनों और शयनों पर बैठकर, लेटकर कथा-वार्ता सूनते थे और नाटक आदि देखते थे और वहाँ की शोभा अनुभव करते हुए सुखपूर्वक विचरण करते थे । नन्दी मणिकार सेठ ने दक्षिण तरफ के वनखण्ड में एक बड़ी महानसशाला बनवाई । वह भी अनेक सैकड़ों खम्भों वाली यावत् प्रतिरूप थी। वहाँ भी बहुत-से लोग जीविका, भोजन और वेतन देकर रखे गए थे। वे विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार पकाते थे और बहुत-से श्रमणों, ब्राह्मणों, अतिथियों, दरिद्रों और भिखारियों को देते रहते थे। नन्द मणिकार सेठ ने पश्चिम दिशा के वनखण्ड में एक विशाल चिकित्सा शाला बनवाई। वह भी अनेक सौ खम्भों वाली यावत मनोहर थी । उसमें बहत-से वैद्य, वैद्यपत्र, ज्ञायक, ज्ञायकपत्र, कुशल और कुशलपत्र आजीविका, भोजन और वेतन पर नियुक्त किये हुए थे । वे बहुत-से व्याधितों की, ग्लानों की, रोगियों की और दुर्बलों की चिकित्सा करते रहते थे । उस चिकित्साशाला में दूसरे भी बहुत-से लोग आजीविका, भोजन और वेतन देकर रखे गए थे । वे उन व्याधितों, रोगियों, ग्लानों और दुर्बलों की औषध भेषज भोजन और पानी से सेवा-शुश्रूषा करते थे । तत्पश्चात् नन्द मणियार सेठ ने उत्तर दिशा वनखण्ड में एक बड़ी अलंकारसभा बनवाई । वह भी अनेक सैकड़ों स्तंभों वाली यावत् मनोहर थी। उसमें बहुत-से आलंकारिक पुरुष जीविका, भोजन और वेतन देकर रखे गए थे । वे बहुत-से श्रमणों, अनाथों, ग्लानों, रोगियों और दुर्बलों का अलंकारकर्म करते थे । उस नन्दा पुष्करिणी में बहुत-से सनाथ, अनाथ, पथिक, पांथिक, करोटिका, घसियारे, पत्तों के भार वाले, लकड़हारे आदि आते थे । उनमें से कोई-कोई स्नान करते थे, पानी पीते थे और पानी भर ले जाते थे । कोई-कोई पसीने, जल्ल, मल, परिश्रम, निद्रा, क्षुधा और पीपासा का निवारण करके सुखपूर्वक करते थे । नन्दा पुष्करिणी में राजगृह नगर में भी नीकले-आये हुए बहुत-से लोग क्या करते थे ? वे लोग जल में रमण करते थे, विविध प्रकार से स्नान करते थे, कदलीगृहों, लतागृहों, पुष्पशय्या और अनेक पक्षियों के समूह के मनोहर शब्दों से युक्त नन्दा पुष्करिणी और चारों वनखण्डों में क्रीड़ा करते-करते विचरते थे। नन्दा पुष्करिणी में स्नान करते हुए, पानी पीते हुए और पानी भरकर ले जाते हुए बहुत-से लोग आपस में मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 103 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक कहते थे-हे देवानुप्रिय ! नन्द मणिकार सेठ धन्य है, उसका जन्म और जीवन सफल है, जिसकी इस प्रकार की चौकोर यावत् मनोहर यह नन्दा पुष्करिणी है; जिसकी पूर्व दिशा में वनखण्ड है-यावत् राजगृह नगर से भी बाहर नीकलकर बहुत-से लोग आसनों पर बैठते हैं, शयनीयों पर लेटते हैं, नाटक आदि देखते हैं और कथा-वार्ता कहते हैं और सुख-पूर्वक विहार करते हैं । अत एव नन्द मणिकार का मनुष्यभव सुलब्ध-सराहनीय है और उसका जीवन तथा जन्म भी सुलब्ध है ।' उस समय राजगृह नगर में भी शृंगाटक आदि मार्गों में बहुतेरे लोग परस्पर कहते थेदेवानुप्रिय ! नन्द मणिकार धन्य है, यावत् जहाँ आकर लोग सुखपूर्वक विचरते हैं । तब नन्द मणिकार बहुत-से लोगों से यह अर्थ सूनकर हृष्ट-तुष्ट हुआ । मेघ की धारा से आहत कदम्बवृक्ष के समान उसके रोमकूप विकसित हो गए-उसकी कली-कली खिल उठी । वह साताजनित परमसुख का अनुभव करने लगा। सूत्र-१४६ कुछ समय पश्चात् एक बार नन्द मणिकार सेठ के शरीर में सोलह रोगांतक उत्पन्न हए । वे इस प्रकार थे - श्वास, कास, ज्वर, दाह, कुक्षि-शूल, भगंदर, अर्श, अजीर्ण, नेत्रशूल, मस्तकशूल, भोजनविषयक अरुचि, नेत्रवेदना कर्णवेदना, कंडू-खाज, दकोदर और कोढ़ । सूत्र-१४७ नन्द मणिकार इन सोलह रोगांतकों से पीड़ित हुआ । तब उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहादेवानुप्रियो ! तुम जाओ और राजगृह नगर में शृंगाटक यावत् छोटे-छोटे मार्गों में ऊंची आवाज से घोषणा करते हुए कहो-'हे देवानुप्रियो ! नन्द मणिकार श्रेष्ठी के शरीरमें सोलह रोगांतक उत्पन्न हुए हैं, यथा-श्वास से कोढ़ । तो हे देवानुप्रियो ! जो कोई वैद्य या वैद्यपुत्र, जानकार या जानकार का पुत्र, कुशल या कुशल का पुत्र, नन्द मणिकार के उन सोलह रोगांतकोंमें से एक भी रोगंतक को उपशान्त करना चाहे-मिटा देगा, देवानुप्रियो ! नन्द मणिकार उसे विपुल धन-सम्पत्ति प्रदान करेगा। इस प्रकार दूसरी बार, तीसरी बार घोषणा करो । घोषणा करके मेरी यह आज्ञा वापिस लौटाओ ।' कौटुम्बिक पुरुषों ने आज्ञानुसार राजगृह की गली-गली में घोषणा करके आज्ञा वापिस सौंपी। राजगृह नगर में इस प्रकार की घोषणा सूनकर और हृदय में धारण करके वैद्य, वैद्यपुत्र, यावत् कुशलपुत्र हाथ में शस्त्रकोश लेकर, शिबिका, गोलियाँ और औषध तथा भेषज हाथ में लेकर अपने-अपने घरों से नीकले । राजगृह नगर के बीचोंबीच होकर नन्द मणिकार के घर आए । उन्होंने नन्द मणिकार के शरीर को देखा और नन्द मणिकार से रोग उत्पन्न होने का कारण पूछा । फिर उद्वलन, उद्वर्त्तन, स्नेह पान, वमन, विरेचन, स्वेदन, अवदहन, अपस्नान, अनुवासना, वस्तिकर्म से, निरूह द्वारा, शिरोवेध से, तक्षण से, प्रक्षण से, शिरावेष्ट से, तर्पण से, पुटपाक से, पत्तों से, छालों से, वेलों से, मूलों से, कंदों से, पुष्पों से, फलों से, बीजों से, शिलिका से, गोलियों से, औषधों से, भेषजों से, उन सोलह रोगांतकों में से एक-एक रोगांतक को उन्होंने शान्त करना चाहा, परन्तु वे एक भी रोगांतक को शान्त करने में समर्थ न हो सके । बहुत-से वैद्य, वैद्यपुत्र, जानकार, जानकारों के पुत्र, कुशल और जब एक भी रोग को उपशान्त करने में समर्थ न हुए तो थक गए, खिन्न हुए, यावत् अपने-अपने घर लौट गए । नन्द मणिकार उस सोलह रोगांतकों से अभिभूत हुआ और नन्दा पुष्करिणी में अतीव मूर्छित हुआ । इस कारण उसने तिर्यंचयोनि सम्बन्धी आयु का बन्ध किया, प्रदेशों का बन्ध किया । आर्तध्यान के वशीभूत होकर मृत्यु के समय में काल करके उसी नन्दा पुष्करिणी में एक मेंढकी की कुंख में मेंढ़क के रूप में उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् नन्द मण्डूक गर्भ से बाहर नीकला, अनुक्रम से बाल्यावस्था से मुक्त हुआ । उसका ज्ञान परिणत हुआ-वह समझदार हो गया और यौवनावस्था को प्राप्त हुआ । तब नन्दा पुष्करिणी में रमण करता हुआ विचरने लगा | नन्दा पुष्करिणी में बहुत-से लोग स्नान करते हुए, पानी पीते हुए और पानी भरकर ले जाते हुए आपस में इस प्रकार कहते थे-'देवानुप्रिय ! नन्द मणिकार धन्य है, जिसकी यह चतुष्कोण यावत् मनोहर पुष्कीरणी है, जिसके पूर्व के वनखण्ड में अनेक सैकड़ों खम्भों की बनी चित्रसभा है । यावत् नन्द मणिकार का जन्म और जीवन सफल है ।' तत्पश्चात् बार-बार बहुत लोगों के पास से यह बात सुनकर और मन में समझ कर उस मेंढ़क को इस मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 104 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र - ६, 'ज्ञाताधर्मकथा ' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ जान पड़ता है कि मैंने इस प्रकार के शब्द पहले भी सूने हैं। इस तरह विचार करने से, शुभ परिणाम के कारण, यावत् जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हो गया। उसे अपना पूर्वजन्म अच्छी तरह याद हो गया तत्पश्चात् उस मेंढ़क को इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ- मैं इसी तरह राजगृह नगर में नन्द नामक मणिकार सेठ था-धन-धान्य आदि से समृद्ध था । उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर का आगमन हुआ । तब मैंने श्रमण भगवान महावीर के निकट पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप श्रावधर्म अंगीकार किया था । कुछ समय बाद साधुओं के दर्शन न होने आदि से मैं किसी समय मिथ्यात्व को प्राप्त हो गया । तत्पश्चात् एक बार किसी समय ग्रीष्मकाल के अवसर पर में तेले की तपस्या करके विचर रहा था। तब मुझे पुष्करिणी खुदवाने का विचार हुआ, श्रेणिक राजा से आज्ञा ली, नन्दी पुष्करिणी खुदवाई, वनखण्ड लगवाये, चार सभाएं बनवाई, यावत् पुष्करिणी के प्रति आसक्ति होने के कारण में नन्दा पुष्करिणी में मेंढ़क पर्याय में उत्पन्न हुआ। अत एव में अधन्य , अपुण्य हूँ, मैंने पुण्य नहीं किया, अतः मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन से नष्ट हुआ, भ्रष्ट हुआ और एकदम भ्रष्ट हो गया । तो अब मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि पहले अंगीकार किये पाँच अणुव्रतों को और सात शिक्षाव्रतों को मैं स्वयं ही पुनः अंगीकार करके रहूँ । नन्द मणिकार के जीव उस मेंढ़क ने इस प्रकार विचार करके पहले अंगीकार किये हुए पाँच अणुव्रतों और सात शिक्षाव्रतों को पुनः अंगीकार किया। इस प्रकार का अभिग्रह धारण किया आज से जीवन पर्यन्त मुझे बेले-बेले की तपस्या से आत्मा को भावित करते हुए विचरना कल्पता है। पारणा में भी नन्दा पुष्करिणी के पर्यन्त भागों में, प्रासुक हुए स्नान के जल से और मनुष्यों के उन्मर्दन आदि द्वारा ऊतारे मैल से अपनी आजीविका चलाना कल्पता है।' अभिग्रह धारण करके निरन्तर बेले- बेले की तपस्या से आत्मा को भावित करता हुआ विचरने लगा । हे गौतम! उस काल और उस समय में मैं गुणशील चैत्य में आया । वन्दन करने के लिए परीषद् नीकली । उस समय नन्दा पुष्करिणी में बहुत से जन नहाते, पानी पीते और पानी ले जाते हुए आपस में इस प्रकार बातें करने लगे-श्रमण भगवान महावीर यहीं गुणशील चैत्य उद्यान में समवसृत हुए हैं। सो हे देवानुप्रिय ! हम चलें और श्रमण भगवान महावीर को वन्दना करें, यावत् उपासना करें। यह हमारे लिए इहभव में और परभव में हित के लिए एवं सुख के लिए होगा, क्षमा और निःश्रेयस के लिए तथा अनुगामीपन के लिए होगा । बहुत जनों से यह वृत्तान्त सून कर और हृदय में धारण करके उस मेंढ़क को ऐसा विचार, चिन्तन, अभिलाषा एवं मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ- निश्चय ही श्रमण भगवान महावीर यहाँ पधारे हैं, तो मैं जाऊं और भगवान की वन्दना करूँ । ऐसा विचार करके वह धीरे-धीरे नन्दा पुष्करिणी से बाहर नीकला जहाँ राजमार्ग था, वहाँ आया। उत्कृष्ट दर्दुरगति से चलता हुआ मेरे पास आने के लिए कृत संकल्प हुआ। इधर भंभसार अपरमाना श्रेणिक राजा ने स्नान किया एवं कौतुक-मंगल-प्रायश्चित्त किया । यावत् वह सब अलंकारों से विभूषित हुआ और श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर आरूढ़ हुआ । कोरंट वृक्ष के फूलों की माला वाले छत्र से, श्वेत चामरों से शोभित होता हुआ, अश्व, हाथी, रथ और बड़े-बड़े सुभटों के समूह रूप चतुरंगिणी सेना से परिवृत्त होकर मेरे चरणों की वन्दना करने के लिए शीघ्रतापूर्वक आ रहा था । तब वह मेंढ़क श्रेणिक राजा के एक अश्वकिशोर के बाएं पैक से कुचल गया । उसकी आँतें बाहर नीकल गई घोड़े के पैर से कुचले जाने के बाद वह मेंढ़क शक्तिहीन, बलहीन, वीर्यहीन और पुरुषकार-पराक्रम से हीन हो गया । 'अब इस जीवन को धारण करना शक्य नहीं है ।' ऐसा जानकर वह एक तरफ चला गया । वहाँ दोनों हाथ जोड़कर, तीन बार मस्तक पर आवर्तन करके, अंजलि करके इस प्रकार बोला- अरहंत यावत् निर्वाण को प्राप्त समस्त तीर्थंकर भगवंतों को नमस्कार हो। पहले भी मैंने श्रमण भगवान महावीर के समीप स्थूल प्राणातिपात, यावत् स्थूल परिग्रह का समस्त परिग्रह किया था; तो अब भी मैं उन्हीं भगवान के निकट समस्त प्राणातिपात यावत् समस्त परिग्रह का प्रत्याख्यान करता हूँ; जीवन पर्यन्त के लिए सर्व अशन, पान, खादिम और स्वादिम-चारों प्रकार के आहार का प्रत्याख्यान करता हूँ । यह जो मेरा इष्ट और कान्त शरीर है, जिसके विषय में चाहा था कि इसे रोग आदि स्पर्श न करें, इसे भी अन्तिम श्वासोच्छ्वास तक त्यागता हूँ।' इस प्रकार कहकर दर्दुर ने पूर्ण प्रत्याख्यान किया । तत्पश्चात् वह मेंढ़क मृत्यु के समय काल करके, यावत् सौधर्म कल्प में, दर्दुरावतंसक नामक विमान में, उपपातसभा में, दर्दुरदेव के रूप में उत्पन्न हुआ । हे गौतम ! दर्दुरदेव ने इस प्रकार वह दिव्य देवर्द्धि मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा )" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद” Page 105 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक लब्ध की है, प्राप्त की है और पूर्णरूपेण प्राप्त की है। भगवन् ! दर्दुर देव की उस देवलोक में कितनी स्थिति है ? गौतम ! चार पल्योपम की स्थिति कही गई है। तत्पश्चात् वह दर्दुर देव आयु के क्षय से, भव के क्षय से और स्थिति के क्षय से तुरंत वहाँ से च्यवन करके महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होगा, बुद्ध होगा, यावत् अन्त करेगा । इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने तेरहवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है । जैसा मैंने सूना वैसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-१३ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 106 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक अध्ययन-१४ - तेतलिपुत्र सूत्र-१४८ "भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने तेरहवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है, तो चौदहवें ज्ञातअध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ कहा है ?' हे जम्बू ! उस काल और उस समय में तेतलिपुर नगर था । उस से बाहर ईशान-दिशा में प्रमदवन उद्यान था । उस नगर में कनकरथ राजा था । कनकरथ राजा की पद्मावती देवी थी । कथकरथ राजा का अमात्य तेतलिपुत्र था । जो साम, दाम, भेद और दण्ड-इन चारों नीति का प्रयोग करने में निष्णात था । तेतलिपुर नगर में मूषिकारदारक कलाद था । वह धनाढ्य था और किसी से पराभूत होने वाला नहीं था । उसकी पत्नी का नाम भद्रा था । उस कलाद मूषिकारदारक की पुत्री और भद्रा की आत्मजा पोट्टिला थी। वह रूप, यौवन और लावण्य से उत्कृष्ट और शरीर से भी उत्कृष्ट थी। एक बार किसी समय पोट्टिला दारका स्नान करके और सब अलंकारों से विभूषित होकर, दासियों के समूह से परिवृत्त होकर, प्रासाद के ऊपर रही हुई अगासी की भूमि में सोने की गेंद से क्रीड़ा कर रही थी । इधर तेतलिपुत्र अमात्य स्नान करके, उत्तम अश्व के स्कंध पर आरूढ़ होकर, बहुत-से सुभटों के समूह के साथ घुड़सवारी के लिए नीकला । वह कलाद मूषिकदारक के घर के कुछ समीप होकर जा रहा था । उस समय तेतलिपुत्र ने मूषिकदारक के घर के कुछ पास से जाते हुए प्रासाद की ऊपर की भूमि पर अगासी में सोने की गेंद से क्रीड़ा करती पोट्टिला दारिका को देखा । देखकर पोट्टिला दारिका के रूप, यौवन और लावण्य में यावत् अतीव मोहीत होकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनसे पूछा-देवानुप्रियो ! यह किसकी लड़की है ? इसका नाम क्या है ? तब कौटुम्बिक पुरुषों ने तेतलिपुत्र से कहा-'स्वामिन् ! यह कलाद मूषकारदारक की पुत्री, भद्रा की आत्मजा पोट्टिला नामक लड़की है । रूप, लावण्य और यौवन से उत्तम है और उत्कृष्ट शरीर वाली है।' तत्पश्चात् तेतलिपुत्र घुड़सवारी से पीछे लौटा तो उसने अभ्यन्तर-स्थानीय पुरुषों को बुलाकर कहा‘देवानुप्रियो ! तुम जाओ और कलाद मूषिकारदारक की पुत्री, भद्रा की आत्मजा पोट्टिला दारिका की मेरी पत्नी के रूप में मंगनी करो । तब वे अभ्यन्तर-स्थानीय पुरुष तेतलिपुत्र के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुए । दसों नखों को मिलाकर, दोनों हाथ जोड़कर और मस्तक पर अंजलि करके विनयपूर्वक आदेश स्वीकार किया और मूर्षिकारदारक कलाद के घर आए । मूषिकारदारक कलाद ने उन पुरुषों को आते देखा तो वह हुष्ट-तुष्ट हुआ, आसन से उठ खड़ा हुआ, सात-आठ कदम आगे गया; बैठने के लिए आमन्त्रण किया । जब वे आसन पर बैठे, स्वस्थ हुए और विश्राम ले चूके तो मूषिकारदारक ने पूछा-'देवानुप्रियो ! आज्ञा दीजिए । आपके आने का क्या प्रयोजन है ?' तब उन अभ्यन्तर-स्थानीय पुरुषों ने कलाद मूषिकारदारक से कहा-'देवानुप्रिय ! हम तुम्हारी पुत्री, पोट्टिला दारिका की तेतलिपुत्र की पत्नी के रूप में मंगनी करते हैं । देवानुप्रिय ! अगर तुम समझते हो कि यह सम्बन्ध उचित है, प्राप्त या पात्र है, प्रशंसनीय है, दोनों का संयोग सदृश है, तो तेतलिपुत्र को पोटिला दारिका प्रदान करो । कहो, इसके बदले क्या शुल्क दिया जाए ? तत्पश्चात् कलाद मूषिकारदारक ने उन अभ्यन्तर-स्थानीय पुरुषों से कहा-'देवानुप्रियो ! यही मेरे लिए शुल्क है जो तेतलिपुत्र दारिका के निमित्त से मुझ पर अनुग्रह कर रहे हैं । उस प्रकार कहकर उसने उनका विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम से तथा पुष्प, वस्त्र, गंध एवं माला और अलंकार से सत्कार-सम्मान करके उन्हें बिदा किया । तत्पश्चात् वे अभ्यन्तर-स्थानीय पुरुष कलाद मूषिकारदारक के घर से नीकले । तेतलिपुत्र अमात्य के पास पहुँचे । तेतलिपुत्र को यह पूर्वोक्त अर्थ निवेदन किया । तत्पश्चात् कलाद मूषिकारदारक ने अन्यदा शुभ तिथि, नक्षत्र और मुहूर्त में पोट्टिला दारिका को स्नान करा कर और समस्त अलंकारों से विभूषित करके शिबिका में आरूढ़ किया । वह मित्रों और ज्ञातिजनों से परिवृत्त होकर अपने घर से नीकलकर, पूरे ठाठ के साथ, तेतारपुर के बीचोंबीच होकर तेतलिपुत्र अमात्य के पास पहुँचा । पहुँच कर पोट्टिला दारिका को स्वयमेव तेतलिपुत्र की पत्नी के रूप में प्रदान किया। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 107 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र - ६, 'ज्ञाताधर्मकथा ' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने पोट्टिला दारिका को भार्या के रूप में आई हुई देखी । देखकर वह पोट्टिला के साथ पट्ट पर बैठा । चाँदी-सोने के कलशों से उसने स्वयं स्नान किया। स्नान करके अग्नि में होम किया । तत्पश्चात् पोट्टिला भार्या के मित्रजनों, ज्ञातिजनों, निजजनों, स्वजनों, सम्बन्धियों एवं परिजनों का अशन, पान, खादिम, स्वादिम से तथा पुष्प, वस्त्र, गंध माला और अलंकार आदि से सत्कार-सम्मान करके उन्हें बिदा किया । तत्पश्चात् तेतलिपुत्र अमात्य पोट्टिला भार्या में अनुरक्त होकर, अविरक्त आसक्त होकर उदार यावत् रहने लगा । सूत्र - १४९ कनकरथ राजा राज्य में, राष्ट्र में, बल में, वाहनों में, कोष में, कोठार में तथा अन्तःपुर में अत्यन्त आसक्त था, लोलुप गृद्ध और लालसामय था। अत एव वह जो-जो पुत्र उत्पन्न होते उन्हें विकलांग कर देता था। किन्हीं के हाथ की अंगुलियाँ काट देता, किन्हीं के हाथ का अंगूठा काट देता, इसी प्रकार किसी के पैर की अंगुलियाँ, पैर का अंगूठा, कर्णशष्कुली और किसी का नासिकापुट काट देता था । इस प्रकार उसने सभी पुत्रों को अवयवविकल कर दिया था । तत्पश्चात् पद्मावती देवी को एक बार मध्यरात्रि के समय इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ कनकरथ राजा राज्य आदि में आसक्त होकर यावत् उनके अंग-अंग काट लेता है, तो यदि मेरे अब पुत्र उत्पन्न हो तो मेरे लिए यह श्रेयस्कर होगा कि उस पुत्र को में कनकरथ से छिपा कर पालू-पोसूँ। पद्मावती देवी ने ऐसा विचार किया और विचार करके तेतलिपुत्र अमात्य को बुलवा कर उससे कहा 'हे देवानुप्रिय ! कनकरथ राजा राज्य और राष्ट्र आदि में अत्यन्त आसक्त होकर सब पुत्रों को अपंग कर देता है, अतः मैं यदि अब पुत्र को जन्म दूँ तो कनकरथ से छिपाकर ही अनुक्रम से उसका संरक्षण, संगोपन एवं संवर्धन करना । ऐसा करने से बालक बाल्यावस्था पार करके यौवन को प्राप्त होकर तुम्हारे लिए भी और मेरे लिए भी भिक्षा का भाजन बनेगा ।' तब तेतलिपुत्र अमात्य ने पद्मावती के इस अर्थ को अंगीकार किया । वह वापिस लौट गया । तत्पश्चात् पद्मावती देवी ने और पोट्टिला नामक अमात्यी ने एक ही साथ गर्भ धारण किया, एक ही साथ गर्भ वहन किया और साथ-साथ ही गर्भ की वृद्धि की। तत्पश्चात् पद्मावती देवी ने नौ मास पूर्ण हो जाने पर देखने में प्रिय और सुन्दर रूप वाले पुत्र को जन्म दिया। जिस रात्रि में पद्मावती देवी ने पुत्र को जन्म दिया, उसी रात्रि में पोट्टिला अमात्यपत्नी ने भी नौ मास व्यतीत होने पर मरी हुई बालिका का प्रसव किया। उस समय पद्मावती देवी ने अपनी धायमाता को बुलाया और कहा - 'तुम तेतलिपुत्र के घर जाओ और गुप्त रूप से बुला लाओ ।' तब धायमाता ने पद्मावती का आदेश स्वीकार किया । वह अन्तःपुर के पीछले द्वार से नीकल कर तेतलिपुत्र के घर पहुँची। वहाँ पहुँचकर दोनों हाथ जोड़कर उसने यावत् कहा- हे देवानुप्रिय ! आप को पद्मावती देवी ने बुलाया है ।' तेतलिपुत्र धायमाता से यह अर्थ सूनकर और हृदय में धारण करके हृदय-तुष्ट होकर धायमाता के साथ अपने घर से नीकला । अन्तःपुर के पीछले द्वार से गुप्त रूप से उसने प्रवेश किया । जहाँ पद्मावती देवी थी, वहाँ आया। दोनों हाथ जोड़कर देवानुप्रिये! मुझे जो करना है, उसके लिए आज्ञा दीजिए।' तत्पश्चात् पद्मावती देवी ने तेतलिपुत्र से इस प्रकार कहा- तुम्हें विदित ही है कि कथकरथ राजा यावत् सब पुत्रों को विकलांग कर देता है। हे देवानुप्रिय ! मैंने बालक का प्रसव किया है। अतः तुम इस बालक को ग्रहण करो - संभालो । यावत् वह बालक तुम्हारे लिए और मेरे लिए भिक्षा का भाजन सिद्ध होगा। ऐसा कहकर उसने वह बालक तेतलिपुत्र के हाथों में सौंप दिया । तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने पद्मावती के हाथ से उस बालक को ग्रहण किया और अपने उत्तरीय वस्त्र से ढँक लिया । ढँक कर गुप्त रूप से अन्तःपुर के पीछले द्वार से बाहर नीकला । नीकलकर जहाँ अपना घर था और पोट्टिला भार्या थी, वहाँ आया । आकर पोट्टिला से इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय ! कनकरथ राजा राज्य आदि में यावत् अतीव आसक्त होकर अपने पुत्रों को यावत् अपंग कर देता है और यह बालक कनकरथ का पुत्र और पद्मावती का आत्मज है, अत एव देवानुप्रिय ! इस बालक का कनकरथ से गुप्त रख कर अनुक्रम से संरक्षण, संगोपन और संवर्धन करना । इस प्रकार कहकर उस बालक को पोट्टिला के पास रख दिया और पोट्टिला के पास से मरी हुई लड़की उठा ली । उठा कर उसे उत्तरीय वस्त्र से ढँक कर अन्तःपुर के 1 मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा )" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद" Page 108 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक पीछले छोटे द्वार से प्रविष्ट हुआ और पद्मावती देवी के पास पहुँचा । मरी लड़की पद्मावती देवी के पास रख दी और वापिस चला गया। तत्पश्चात् पद्मावती की अंगपरिचारिकाओं ने पद्मावती देवी को और विनिघात को प्राप्त जन्मी हुई बालिका को देखा । कनकरथ राजा के पास पहुँच के दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार कहने लगीं-स्वामिन् ! पद्मावती देवी ने मृत बालिका का प्रसव किया है ।' तत्पश्चात् कनकरथ राजा ने मरी हुई लड़की का नीहरण किया । बहुत-से मृतक-सम्बन्धी लौकिक कार्य किये । कुछ समय के पश्चात् राजा शोक-रहित हो गया । तत्पश्चात् दूसरे दिन तेतलिपुत्र ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया । बुलाकर कहा-'हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही चारक शोधन करो । यावत् दस दिनों की स्थितिपतिका करो-पुत्रजन्म का उत्सव करो । यह सब करके मेरी आज्ञा मुझे वापिस सौंपो । हमारा यह बालक राजा कनकरथ के राज्य में उत्पन्न हआ है, अत एव इस बालक का नाम कनकध्वज हो, धीरे-धीरे वह बालक बडा हआ, कलाओं में कशल हआ, यौवन को प्राप्त होकर भोग भोगने में समर्थ हो गया। सूत्र - १५० किसी समय पोट्टिला, तेतलिपुत्र को अप्रिय हो गई । तेतलिपुत्र उसका नाम-गोत्र भी सूनना पसंद नहीं करता था, तो दर्शन और परिभोग की तो बात ही क्या ! तब एक बार मध्यरात्रि के समय पोट्टिला के मन में यह विचार आया- तेतलिपुत्र को मैं पहले प्रिय थी, किन्तु आजकल अप्रिय हो गई हूँ । अत एव तेतलिपुत्र मेरा नाम भी नहीं सूनना चाहते, तो यावत् परिभोग तो चाहेंगे ही क्या ?' इस प्रकार जिसके मन के संकल्प नष्ट हो गए हैं ऐसी वह पोट्टिला चिन्ता में डूब गई । तेतलिपुत्र ने भग्नमनोरथा पोट्टिला को चिन्ता में डूबी देखकर कहा-'देवानुप्रिये ! भग्नमनोरथ मत होओ। तुम मेरी भोजनशाला में विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार तैयार करवाओ और बहुत-से श्रमणों, ब्राह्मणों, अतिथियों और भिखारियों को दान देती-दिलाती हुई रहा करो । तेतलिपुत्र के ऐसा कहने पर पोट्टिला हर्षित और संतुष्ट हुई । तेतलिपुत्र के इस अर्थ को अंगीकार करके प्रतिदिन भोजनशाला में वह विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करवा कर श्रमणों, ब्राह्मणों, अतिथियों और भिखारियों को दान देती और दिलाती रहती थी-अपना काल यापन करती थी। सूत्र - १५१ उस काल और उस समय में ईर्या-समिति से युक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी, बहुश्रुत, बहुत परिवार वाली सुव्रता नामक आर्या अनुक्रम से विहार करती-करती तेतलिपुर नगर में आई । आकर यथोचित उपाश्रय ग्रहण करके संयम और तप से आत्मा को भावित करती हुई विचरने लगी । तत्पश्चात् उन सुव्रता आर्या के एक संघाड़े ने प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया और दूसरे प्रहर में ध्यान किया । तीसरे प्रहर में भिक्षा के लिए यावत् अटन करती हुई वे साध्वीयाँ तेतलिपुत्र के घर में प्रविष्ट हुई । पोट्टिला उन आर्याओं को आती देखकर हृष्ट-तुष्ट हुई, अपने आसन से उठ खड़ी हुई, वन्दना की, नमस्कार किया और विपुल अशन पान खाद्य और स्वाद्य-आहार वहराया । आहार वहरा कर उसने कहा- हे आर्याओं ! मैं पहले तेतलिपुत्र की इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मणाम-मनगमती थी, किन्तु अब अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ, अमणाम हो गई हूँ। तेतलिपुत्र मेरा नाम-गोत्र भी सूनना नहीं चाहते, दर्शन और परिभोग की तो बात ही दूर ! हे आर्याओं ! तुम शिक्षित हो, बहुत जानकार हो, बहुत पढ़ी हो, बहुत-से नगरों और ग्रामों में यावत् भ्रमण करती हो, राजाओं और ईश्वरों-युवराजों आदि के घरों में प्रवेश करती हो तो हे आर्याओं! तुम्हारे पास कोई चूर्ण-योग, मंत्रयोग, कामणयोग, हृदयोड्डायन, काया का आकर्षण करने वाला, आभियोगिक, वशीकरण, कौतुककर्म, भूतिकर्म अथवा कोई सेल, कंद, छाल, बेल, शिलिका, गोली, औषध या भेषज ऐसी हैं, जो पहले जानी हो ? जिससे मैं फिर तेतलिपुत्र की इष्ट हो सकूँ ?' पोट्टिला द्वारा इस प्रकार कहने पर उन आर्याओंने अपने दोनों कान बन्द कर लिए । उन्होंने पोट्टिला से कहा-'देवानुप्रिये ! हम निर्ग्रन्थ श्रमणियाँ हैं, यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणियाँ हैं । अत एव ऐसे वचन हमें कानों से श्रवण करना भी नहीं कल्पता तो इस विषय का उपदेश देना या आचरण करना तो कल्पे ही कैसे? हाँ, देवानुप्रिये ! हम मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 109 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक तुम्हें अद्भुत या अनेक प्रकार के केवलिप्ररूपित धर्म का भलीभाँति उपदेश दे सकती हैं। तत्पश्चात् पोटिला ने उन आर्याओं से कहा-हे आर्याओ ! मैं आपके पास से केवलिप्ररूपित धर्म सूनना चाहती हूँ । तब उन आर्याओं ने पोट्टिला को अद्भुत या अनेक प्रकार के धर्म का उपदेश दिया । पोट्टिला धर्म का उपदेश सूनकर और हृदय में धारण करके हृष्ट-तुष्ट होकर इस प्रकार बोली-'आर्याओं ! मैं निर्ग्रन्थप्रवचन पर श्रद्धा करती हूँ । जैसा आपने कहा, वह वैसा ही है । अत एव मैं आपके पास से पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत वाले श्रावक के धर्म को अंगीकार करना चाहती हूँ।' तब आर्याओं ने कहा-'देवानुप्रिये ! जैसे सुख उपजे, वैसा करो ।' तत्पश्चात उस पोट्रिलाने उन आर्याओं से पाँच अणव्रत, सात शिक्षाव्रतवाला केवलिप्ररूपित धर्म अंगीकार किया । उन आर्याओंको वन्दना की, नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार करके उन्हें बिदा किया । तत्पश्चात् पोट्टिला श्रमणोपासिका हो गई, यावत् साधु-साध्वीयों को प्रासुक-अचित्त, एषणीय-आधाकर्मादि दोषों से रहित-कल्पनीय अशन, पान, खादिम, स्वादिम तथा वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछन, औषध, भेषज एवं प्रातिहारिक-वापिस लौटा देने के योग्य पीढा, पाट, शय्या-उपाश्रय और संस्तारक-बिछाने के लिए घास आदि प्रदान करती हई विचरने लगी। सूत्र - १५२ एक बार किसी समय, मध्य रात्रि में जब वह कुटुम्ब के विषय में चिन्ता करती जाग रही थी, तब उसे विचार उत्पन्न हुआ-'मैं पहले तेतलिपुत्र को इष्ट थी, अब अनिष्ट हो गई हूँ; यावत् दर्शन और परिभोग का तो कहना ही क्या है ? अत एव मेरे लिए सुव्रता आर्या के निकट दीक्षा ग्रहण करना ही श्रेयस्कर है ।' पोट्टिला दूसरे दिन प्रभात होने पर वह तेतलिपुत्र के पास गई । जाकर दोनों हाथ जोड़कर बोली-देवानुप्रिय ! मैंने सुव्रता आर्या से धर्म सूना है, वह धर्म मुझे इष्ट, अतीव इष्ट है और रुचिकर लगा है, अतः आपकी आज्ञा पाकर मैं प्रव्रज्या अंगीक करना चाहती हूँ। तब तेतलिपुत्र ने पोट्टिला से कहा-'देवानुप्रिये ! तुम मुण्डित और प्रव्रजित होकर मृत्यु के समय काल किसी भी देवलोक में देव रूप से उत्पन्न होओगी, सो यदि तुम उस देवलोक से आकर मुझे केवलिप्ररूपित धर्म का प्रतिबोध प्रदान करो तो मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ। अगर मुझे प्रतिबोध न दो तो मैं आज्ञा नहीं देता । तब पोट्टिला ने तेतलिपुत्र के अर्थ-कथन का स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार बनवाया । मित्रों, ज्ञातिजनों आदि को आमंत्रित किया । उनका यथोचित सत्कार-सम्मान किया । पोटिला को स्नान कराया और हजार पुरुषों द्वारा वहन करने योग्य शिबिका पर आरूढ़ करा कर मित्रों तथा ज्ञातिजनों आदि से परिवृत्त होकर, समस्त ऋद्धि-लवाजमें के साथ यावत् वाद्यों की ध्वनि के साथ तेतलिपुत्र के मध्य में होकर सुव्रता साध्वी के उपाश्रय में आया । वहाँ आकर सुव्रता आर्या को वन्दना की, नमस्कार किया । इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिये ! यह मेरी पोट्टिला भार्या मुझे इष्ट है । यह संसार के भय से उद्वेग को प्राप्त हुई है, यावत् दीक्षा अंगीकार करना चाहती है । सो देवानुप्रिये ! मैं आपको शिष्यारूप भिक्षा देता हूँ। इसे आप अंगीकार कीजिए।' आर्या ने कहा-'जैसे सुख उपजे, वैसा करो; प्रतिबन्ध मत करो-विलम्ब न करो |' तत्पश्चात् सुव्रता आर्या के इस प्रकार कहने पर पोट्टिला हृष्ट-तुष्ट हुई । उसने ईशान दिशा में जाकर अपने आप आभरण, माला और अलंकार उतार डाले । स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच किया । जहाँ सुव्रता आर्या थी, वहाँ आई । उन्हें वन्दन-नमस्कार किया । इस प्रकार कहा-'हे भगवती ! यह संसार चारों ओर से जल रहा है, इत्यादि यावत् पोट्टिला ने दीक्षा अंगीकार करने के पश्चात् ग्यारह अंगों का अध्ययन किया । बहुत वर्षों तक चारित्र का पालन किया । एक मास की संलेखना करके, अपने शरीर को कृश करके, साठ भक्त का अनशन करके, पापकर्म की आलोचना और प्रतिक्रमण करके, समाधिपूर्वक मृत्यु के अवसर पर काल करके वह किसी देवलोक में देवता के रूप में उत्पन्न हुई। सूत्र - १५३ तत्पश्चात् किसी समय कनकरथ राजा मर गया । तब राजा, ईश्वर, यावत् अन्तिम संस्कार करके वे परस्पर इस प्रकार कहने लगे-देवानुप्रियो ! कनकरथ राजा ने राज्य आदि में आसक्त होने के कारण अपने पुत्रों को विकलांग कर दिया है । देवानुप्रियो ! हम लोग तो राजा के अधीन हैं, राजा से अधिष्ठित होकर रहने वाले हैं और राजा के अधीन रहकर कार्य करने वाले हैं, तेतलिपुत्र अमात्य राजा कनकरथ का सब स्थानों में और सब मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 110 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक भूमिकाओं में विश्वासपात्र रहा है, परामर्श-विचार देने वाला विचारक है, और सब काम चलाने वाला है । अत एव हमें तेतलिपुत्र अमात्य से कुमार की याचना करनी चाहिए। तेतलिपुत्र अमात्य के पास आए । तेतलिपुत्र से कहने लगे-'देवानुप्रिय ! बात ऐसी है-कनकरथ राजा राज्य में तथा राष्ट्र में आसक्त था । अत एव उसने अपने सभी पुत्रों को विकलांग कर दिया है और हम लोग तो देवानुप्रिय ! राजा के अधीन रहने वाले यावत् राजा के अधीन रहकर कार्य करने वाले हैं । हे देवानुप्रिय ! तुम कनकरथ राजा के सभी स्थानों में विश्वासपात्र रहे हो, यावत् राज्यधूरा के चिन्तक हो । यदि कोई कुमार राजलक्षणों से युक्त और अभिषेक के योग्य हो तो हमें दो, जिससे महान-महान् राज्याभिषेक से हम उसका अभिषेक करें। तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने उन ईश्वर आदि के इस कथन को अंगीकार किया । कनकध्वज कुमार को स्नान कराया और विभूषित किया । फिर उसे उन ईश्वर आदि के पास लाया । लाकर कहा-'देवानुप्रियो ! यह कनकरथ राजा का पुत्र और पद्मावती देवी का आत्मज कनकध्वज कुमार अभिषेक के योग्य है और राजलक्षणों से सम्पन्न है। मैंने कनकरथ राजा से छिपाकर उसका संवर्धन किया है । तुम लोग महान-महान राज्याभिषेक से इसका अभिषेक करो।' इस प्रकार कहकर उसने कुमार के जन्म का और पालन-पोषण आदि का समग्र वृत्तान्त उन्हें कह सूनाया । तत्पश्चात् उन ईश्वर आदि ने कनकध्वज कुमार का महान्-महान् राज्याभिषेक किया । अब कनकध्वज कुमार राजा हो गया, महाहिमवान् और मलय पर्वत के समान इत्यादि यावत् वह राज्य का पालन करता हुआ विचरने लगा । उस समय पद्मावती देवी ने कनकध्वज राजा को बुलाया और बुलाकर कहा-पुत्र ! तुम्हारा यह राज्य यावत् अन्तःपुर तुम्हें तेतलिपुत्रकी कृपा से प्राप्त हुए हैं । यहाँ तक कि स्वयं तू भी तेतलिपुत्र के ही प्रभाव से राजा बना है। अत एव तू तेतलिपुत्र अमात्य का आदर करना, उन्हें अपना हितैषी जानना, उनका सत्कार करना, सम्मान करना, उन्हें आते देख कर खड़े होना, उनकी उपासना करना, उनके जाने पर पीछे-पीछे जाना, बोलने पर वचनों की प्रशंसा करना, उन्हें आधे आसन पर बिठाना और उनके भोद की वृद्धि करना । तत्पश्चात् कनकध्वज ने पद्मावती देवी के कथन को अंगीकार किया । यावत् वह पद्मावती के आदेशानुसार तेतलिपुत्र का सत्कार-सम्मान करने लगा । उसने उसके भोग की वृद्धि कर दी। सूत्र-१५४ उधर पोट्टिल देव ने तेतलिपुत्र को बार-बार केवलिप्ररूपित धर्म का प्रतिबोध दिया परन्तु तेतलिपुत्र को प्रतिबोध हुआ ही नहीं । तब पोट्टिल देव को इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ- कनकध्वज राजा तेतलिपुत्र का आदर करता है, यावत् उसका भोग बढ़ा दिया है, इस कारण तेतलिपुत्र बार-बार प्रतिबोध देने पर भी धर्म में प्रतिबुद्ध नहीं होता । अत एव यह उचित होगा कि कनकध्वज को तेतलिपुत्र से विरुद्ध कर दिया जाए ।' देव ने ऐसा विचार किया और कनकध्वज को तेतलिपुत्र से विरुद्ध कर दिया । तदनन्तर तेतलिपुत्र दूसरे दिन स्नान करके, यावत् श्रेष्ठ अश्व की पीठ पर सवार होकर और बहुत-से पुरुषों से परिवृत्त होकर अपने घर से नीकला । जहाँ कनकध्वज राजा था, उसी ओर रवाना हुआ । तत्पश्चात् तेतलिपुत्र अमात्य को जो-जो बहुत-से राजा, ईश्वर, तलवर, आदि देखते वे इसी तरह उसका आदर करते, उसे हितकारक जानते और खड़े होते । हाथ जोड़ते और इष्ट, कान्त, यावत् वाणी से बोलते वे सब उसके आगे, पीछे और अगल-बगल में अनुसरण करके चलते थे। वह तेतलिपुत्र जहाँ कनकध्वज राजा था, वहाँ आया । कनकध्वज ने तेतलिपुत्र को आते देखा, मगर देख कर उसका आदर नहीं किया, उसे हितैषी नहीं जाना, खड़ा नहीं हुआ, बल्कि पराङ्मुख बैठा रहा । तब तेतलिपुत्र ने कनकध्वज राजा को हाथ जोड़े । तब भी वह उसका आदर नहीं करता हुआ विमुख होकर बैठा ही रहा । तब तेतलिपुत्र कनकध्वज को अपने से विपरीत हआ जानकर भयभीत हो गया । वह बोला-'कनकध्वज राजा मुझसे रुष्ट हो गया है, मुझ पर हीन हो गया है, मेरा बूरा सोचा है । सो न मालूम यह मुझे किस बूरी मौत से मारेगा।' इस प्रकार विचार करके वह डर गया, त्रास को प्राप्त हुआ, घबराया और धीरे-धीरे वहाँ से खिसक गया । उसी अश्व की पीठ पर सवार होकर तेतलिपुत्र के मध्यभाग में होकर अपने घर की तरफ रवाना हुआ । तेतलिपुत्र को वे ईश्वर मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 111 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र - ६, 'ज्ञाताधर्मकथा ' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक आदि देखते हैं, किन्तु वे पहले की तरह उसका आदर नहीं करते, उसे नहीं जानते, सामने नहीं खड़े होते, हाथ नहीं जोड़ते और इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर वाणी से बात नहीं करते। आगे पीछे और अगल-बगल में उसके साथ नहीं चलते। तब तेतलिपत्र अपने घर आया बाहर की जो परीषद् होती है, जैसे कि दास, प्रेष्य तथा भागीदार आदि उस बाहर की परीषद् ने भी उसका आदर नहीं किया, उसे नहीं जाना और न खड़ी हुई और जो आभ्यन्तर परीषद् होती है, जैसे कि माता, पिता, भाई, बहिन, पत्नी, पुत्र, पुत्रवधू आदि; उसने भी उसका आदर नहीं किया उसे नहीं जाना और न उठ कर खड़ी हुई । I - तत्पश्चात् तेतलिपुत्र जहाँ उसका अपना वासगृह था और जहाँ शय्या थी, वहाँ आया। बैठकर इस प्रकार कहने लगा- 'मैं अपने घर से नीकला और राजा के पास गया । मगर राजा ने आदर-सत्कार नहीं किया । लौटते समय मार्ग में भी किसी ने आदर नहीं किया । घर आया तो बाह्य परीषद् ने भी आदर नहीं किया, यावत् आभ्यन्तर परीषद् ने भी आदर नहीं किया, मानो मुझे पहचाना ही नहीं, कोई खड़ा नहीं हुआ। ऐसी दशा में मुझे अपने को जीवन से रहित कर लेना ही श्रेयस्कर है। इस प्रकार तेतलिपुत्र ने विचार किया विचार करके तालपुट विष अपने मुख में डाला। परन्तु उस विष ने संक्रमण नहीं किया तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने नीलकमल के समान श्याम वर्ण की तलवार अपने कन्धे पर वहन की; मगर उसकी धार कुंठित हो गई। तत्पश्चात् तेतलिपुत्र अशोकवाटिका में गया । वहाँ जाकर उसने अपने गले में पाश बाँधा फिर वृक्ष पर चढ़कर वह पाश वृक्ष से बाँधा । फिर अपने शरीर को छोड़ा किन्तु रस्सी टूट गई । तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने बहुत बड़ी शीला गरदन में बाँधी । अथाह और अपौरुष जल में अपना शरीर छोड़ दिया। पर वहाँ पर वह जल छिछला हो गया। तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने सूखे घास के ढेर में आग लगाई और अपने शरीर को उसमें डाल दिया । मगर वह अग्नि भी बुझ गई । I तत्पश्चात् तेतलिपुत्र मन ही मन इस प्रकार बोला- श्रमण श्रद्धा करने योग्य वचन बोलते हैं, माहण श्रद्धा करने योग्य वचन बोलते हैं, मैं ही एक हूँ जो अश्रद्धेय वचन कहता हूँ । मैं पुत्रों सहित होने पर भी पुत्रहीन हूँ, कौन मेरे इस कथन पर श्रद्धा करेगा ? मैं मित्रों सहित होने पर भी मित्रहीन हूँ, कौन मेरी इस बात पर विश्वास करेगा ? इसी प्रकार धन, स्त्री, दास और परिवार से सहित होने पर भी मैं इनसे रहित हूँ, कौन मेरी इस बात पर श्रद्धा करेगा? इस प्रकार राजा कनकध्वज के द्वारा जिसका बूरा विचारा गया है, ऐसे तेतलिपुत्र अमात्य ने अपने मुख में विष डाला, मगर विष ने कुछ भी प्रभाव न दिखलाया, मेरे इस कथन पर कौन विश्वास करेगा ? तेतलिपुत्र ने अपने गले में नीलकमल जैसी तलवार का प्रहार किया, मगर उसकी धार कुंठित हो गई, कौन मेरी इस बात पर श्रद्धा करेगा ? तेतलिपुत्र ने अपने गले में फाँसी लगाई, मगर रस्सी टूट गई, मेरी इस बात पर कौन भरोसा करेगा ? तेतलिपुत्र ने गले में भारी शीला बाँधकर अथाह जल में अपने आपको छोड़ दिया, मगर वह पानी छिछला हो गया, मेरी यह बात कौन मानेगा ? तेतलिपुत्र सूखे घास में आग लगाकर उसमें कूद गया, मगर आग बुझ गई, कौन इस बात पर विश्वास करेगा ? इस प्रकार तेतलिपुत्र भग्नमनोरथ होकर हथेली पर मुख रखकर आर्त्तध्यान करने लगा । तब पोट्टिल देव ने पोट्टिला के रूप की विक्रिया की । विक्रिया करके तेतलिपुत्र से न बहुत दूर न बहुत पास स्थित होकर इस प्रकार कहा- हे तेतलिपुत्र ! आगे प्रपात है और पीछे हाथी का भय है। दोनों बगलों में ऐसा अंधकार है कि आँखों से दिखाई नहीं देता । मध्य भाग में बाणों की वर्षा हो रही है । गाँव में आग लगी है और वन धधक रहा है । वन में आग लगी है और गाँव धधक रहा है, तो आयुष्मन् तेतलिपुत्र ! हम कहाँ जाएं ? कहाँ शरण लें ? अभिप्राय यह है कि जिसके चारों ओर घोर भय का वायुमण्डल हो और जिसे कहीं भी क्षेम-कुशल न दिखाई दे, उसे क्या करना चाहिए ? उसके लिए हितकर मार्ग क्या है ? तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने पोट्टिल देव से इस प्रकार कहा-अहो ! इस प्रकार सर्वत्र भयभीत पुरुष के लिए दीक्षा ही शरणभूत है । जैसे उत्कंठित हुए पुरुष के लिए स्वदेश शरणभूत है, भूखे को अन्न, प्यासे को पानी, बीमार को औषध, मायावी को गुप्तता, अभियुक्त को विश्वास उपजाना, थके-मांदे को वाहन पर चढ़कर गमन कराना, तिरने के ईच्छुक को जहाज और शत्रु का पराभव करने वाले को सहायकृत्य शरणभूत है । क्षमाशील, इन्द्रियदमन करने वाले, जितेन्द्रिय को इनमें से कोई भय नहीं होता । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा )" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद" Page 112 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक तत्पश्चात् पोट्टिल देव ने तेतलिपुत्र अमात्य से इस प्रकार कहा-'हे तेतलिपुत्र ! तुम ठीक कहते हो । मगर इस अर्थ को तुम भलीभाँति जानो, दीक्षा ग्रहण करो । इस प्रकार कहकर देव ने दूसरी बार और तीसरी बार भी ऐसा ही कहा। कहकर देव जिस दिशा से प्रकट हआ था, उसी दिशा में वापिस लौट गया। सूत्र - १५५ तत्पश्चात् तेतलिपुत्र को शुभ परिणाम उत्पन्न होने से, जातिस्मरण ज्ञान प्राप्ति हुई । तब तेतलिपुत्र के मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ-निश्चय ही मैं इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, महाविदेह क्षेत्र में पुश्कलावती विजय में पुण्डरीकिणी राजधानी में महापद्म नामक राजा था । फिर मैंने स्थविर मुनि के निकट मुण्डित होकर यावत् चौदह पूर्वो का अध्ययन करके, बहुत वर्षों तक श्रमणपर्याय का पालन करके, अन्त में एक मास की संलेखना करके, महाशुक्र कल्प में देव रूप से जन्म लिया । तत्पश्चात् आयु का क्षय होने पर मैं उस देवलोक से यहाँ तेतलिपुर में तेतलिपुत्र अमात्य की भद्रा नामक भार्या के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ । अतः मेरे लिए, पहले स्वीकार किये हुए महाव्रतों को स्वयं ही अंगीकार करके विचरना श्रेयस्कर है । विचार करके स्वयं ही महाव्रतों को अंगीकार किया । प्रमदवन उद्यान आकर श्रेष्ठ अशोक वृक्ष के नीचे, पृथ्वीशिलापट्टक पर सुखपूर्वक बैठे हुए और विचारणा करते हुए उसे पहले अध्ययन किये हुए चौदह पूर्व स्वयं ही स्मरण हो आए । तत्पश्चात् तेतलिपुत्र अनगार ने शुभ परिणाम से यावत् तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से, कर्मरज का नाश करने वाले अपूर्वकरण में प्रवेश करके उत्तम केवलज्ञान तथा केवलदर्शन प्राप्त किया। सूत्र-१५६ उस समय तेतलिपुर नगर के निकट रहते हुए वाणव्यन्तर देवों और देवियों ने देवदुंदुभियाँ बजाईं । पाँच वर्ण के फूलों की वर्षा की और दिव्य गीत-गन्धर्व का निनाद किया । तत्पश्चात् कनकध्वज राजा इस कथा का अर्थ जानता हआ बोला-निस्सन्देह मेरे द्वारा अपमानित होकर तेतलिपुत्र ने मुण्डित होकर दीक्षा अंगीकार की है। अत एव मैं जाऊं और तेतलिपुत्र अनगार को वन्दना करूँ, नमस्कार करूँ, और इस बात के लिए विनयपूर्वक बार-बार क्षमायाचना करूँ | विचार करके स्नान किया । फिर चतुरंगिणी सेना के साथ जहाँ प्रमदवन उद्यान था और जहाँ तेतलिपुत्र अनगार थे, वहाँ पहुँचा । वन्दन-नमस्कार किया। इस बात के लिए विनय के साथ पुनः पुनः क्षमायाचना की । न अधिक दूर और न अधिक समीप-यथायोग्य स्थान पर बैठकर धर्म श्रवण की अभिलाषा करता हुआ हाथ जोड़कर नमस्कार करता हुआ सम्मुख होकर विनय के साथ वह उपासना करने लगा। तत्पश्चात् तेतलिपुत्र अनगार ने कनकध्वज राजा को और उपस्थित महती परीषद् को धर्म का उपदेश दिया। उस समय कनकध्वज राजा ने तेतलिपुत्र केवली से धर्मोपदेश श्रवण कर और उसे हृदय में धारण करके पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का श्रावकधर्म अंगीकार किया । श्रावकधर्म अंगीकार करके वह जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता श्रमणोपासक हो गया। तत्पश्चात तेतलिपत्र केवली बहत वर्षों तक केवलीअवस्था में रहकर यावत सिद्ध हए । हे जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने चौदहवे ज्ञात-अध्ययन का यह पूर्वोक्त अर्थ कहा है । जैसा मैंने सूना वैसा ही कहा है। अध्ययन-१४ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 113 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक अध्ययन-१५ - नंदिफल सूत्र - १५७ 'भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने चौदहवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है तो पन्द्रहवें ज्ञातअध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ कहा है ?' उस काल और उस समय में चम्पा नगरी थी। उसके बाहर पूर्णभद्र चैत्य था । जितशत्रु राजा था । धन्य सार्थवाह था, जो सम्पन्न था यावत् किसी से पराभूत होनेवाला नहीं था । उस चम्पानगरी से उत्तर-पूर्व दिशामें अहिच्छत्रा नगरी थी । वह धन-धान्य आदि से परिपूर्ण थी । उस अहिच्छत्रा नगरी में कनककेतु नामक राजा था । वह महाहिमवन्त पर्वत के समान आदि विशेषणों से युक्त था। किसी समय धन्य-सार्थवाह के मनमें मध्यरात्रि समय इस प्रकार अध्यवसाय, चिन्तित, प्रार्थित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-'विपुल माल लेकर मुझे अहिच्छत्रा नगरीमें व्यापार करने जाना श्रेयस्कर है। ऐसा विचार करके गणिम, धरिम, मेय, परिच्छेद्य माल ग्रहण किया । ग्रहण करके गाड़ी-गाड़े तैयार किए । तैयार करके गाड़ीगाड़े भरे । कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया । इस प्रकार कहा-'देवानुप्रियो ! तुम जाओ । चम्पा के शृंगाटक यावत् सब मार्गोंमें, गली-गली में घोषणा कर दो-'हे देवानुप्रियो ! धन्य-सार्थवाह विपुल माल भरकर अहिच्छत्रा नगरीमें वाणिज्य निमित्त जाना चाहता है । अत एव हे देवानुप्रियो! जो भी चरक चीरिक चर्मखंडिक भिक्षांड पांडुरंक गोतम गोव्रती गृहीधर्मा गृहस्थधर्म चिन्तन करनेवाला अविरुद्ध विरुद्ध वृद्ध-तापस श्रावक रक्तपट निर्ग्रन्थ आदि व्रतवान या गृहस्थ-जो भी कोई-धन्य सार्थवाह साथ अहिच्छत्रा नगरी जाना चाहे, उसे धन्य सार्थवाह अपने साथ ले जाएगा जिसके पास छतरी न होगी उसे छतरी दिलाएगा । वह बिना जूतेवाले को जूते दिलाएगा, जिसके पास कमंडलु नहीं होगा उसे कमंडलु दिलाएगा, जिसके पास पथ्यदन न होगा उसे पथ्यदन दिलाएगा, जिसके पास प्रक्षेप न होगा, उसे प्रक्षेप दिलाएगा, जो पड़ जाएगा, भग्न हो जाएगा, या रुग्ण हो जाएगा, उसकी सहायता करेगा और सुखपूर्वक अहिच्छत्रा नगरी पहुंचाएगा-दो बार और तीन बार ऐसी घोषणा कर दो । घोषणा करके मेरी यह आज्ञा वापिस लौटाओ-मुझे सूचित करो ।' तत्पश्चात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् इस प्रकार घोषणा की-'हे चम्पा नगरी के निवासी भगवंतो ! चरक आदि ! सूनो, इत्यादि कहकर उन्होंने धन्य सार्थवाह की आज्ञा उसे वापिस सौंपी कौटुम्बिक पुरुषों की पूर्वोक्त घोषणा सूनकर चम्पा नगरी के बहत-से चरक यावत् गृहस्थ धन्य सार्थवा समीप पहुँचे । तब उन चरक यावत् गृहस्थों में से जिनके पास जूते नहीं थे, उन्हें धन्य सार्थवाह ने जूते दिलवाए, यावत् पथ्यदन दिलवाया । फिर उनसे कहा-'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और चम्पा नगरी के बाहर उद्यान में मेरी प्रतीक्षा करते हुए ठहरो ।' तदनन्तर वे पूर्वोक्त चरक यावत् गृहस्थ प्रतीक्षा करते हुए ठहरे । तब धन्य सार्थवाह ने शुभ तिथि, करण और नक्षत्र में विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन बनवाया । मित्रों, ज्ञातिजनों आदि को आमन्त्रित करके उन्हें जिमाया । जिमाकर उनसे अनुमति ली । गाड़ी-गाड़े जुतवाये और फिर चम्पा नगरी से बाहर नीकला । बहुत दूर-दूर पर पड़ाव न करता हुआ अर्थात् थोड़ी-थोड़ी दूर पर मार्ग में बसता-बसता, सुखजनक बसति ओर प्रातराश करता हुआ अंग देश के बीचोंबीच होकर देश की सीमा पर जा पहुँचा । गाड़ी-गाड़े खोले । पड़ाव डाला । फिर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार कहा 'देवानुप्रियो ! तुम मेरे सार्थ के पड़ाव में ऊंचे-ऊंचे शब्दों से बार-बार उद्घोषणा करते हुए ऐसा कहो कि-हे देवानुप्रियो ! आगे आने वाली अटवी में मनुष्यों का आवागमन नहीं होता और वह बहत लम्बी है । उस भाग में 'नन्दीफल' नामक वृक्ष है । वे गहरे हरे वर्ण वाले यावत् पत्तों वाले, पुष्पों वाले, फलों वाले, हरे, शोभायमान और सौन्दर्य से अतीव-अतीव शोभित हैं । उनका रूप-रंग मनोज्ञ है यावत् स्पर्श मनोहर है और छाया भी मनोहर है। किन्तु हे देवानुप्रियो ! जो कोई भी मनुष्य उन नन्दीफल वृक्षों के मूल, कंद, छाल, पत्र, पुष्प, फल, बीज या हरित का भक्षण करेगा अथवा उनकी छाया में भी बैठेगा, उसे आपाततः तो अच्छा लगेगा, मगर बाद में उनका परिणमन होने पर अकाल में ही वह मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा । अत एव कोई उन नंदीफलों के मूल आदि का सेवन न करे यावत् उनकी छाया में विश्राम भी न करे, जिससे अकाल में ही जीवन का नाश न हो । हे देवानुप्रियो ! तुम दूसरे मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 114 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक वृक्षों के मूल यावत् हरित का भक्षण करना और उनकी छाया में विश्राम लेना । इस प्रकार की आघोषणा कर दो। मेरी आज्ञा वापिस लौटा दो। कौटुम्बिक पुरुषों ने आज्ञानुसार घोषणा करके आज्ञा वापिस लौटा दी। इसके बाद धन्य सार्थवाह ने गाड़ी-गाड़े जुतवाए । जहाँ नन्दीफल नामक वृक्ष थे, वहाँ आ पहुँचा । उन नन्दीफल वृक्षों से न बहुत दूर न समीप में पड़ाव डाला । फिर दूसरी बार और तीसरी बार कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनसे कहा-'देवानुप्रियो ! तुम लोग मेरे पड़ाव में ऊंची-ऊंची ध्वनि से पुनः पुनः घोषणा करते हुए कहा कि-'हे देवानुप्रियो ! वे नन्दीफल वृक्ष ये हैं, जो कृष्ण वर्ण वाले, मनोज्ञ वर्ण, गंध, रस, स्पर्श वाले और मनोहर छाया वाले हैं । वहाँ दूसरे वृक्षों के मूल आदि का सेवन करना और उनकी छाया में विश्राम करना ।' कौटुम्बिक पुरुषों ने इसी प्रकार घोषणा करके आज्ञा वापिस सौंपी। उनमें से किन्हीं-किन्हीं पुरुषोंने धन्य सार्थवाह की बात पर श्रद्धा की, प्रतीति की एवं रुचि की। वे धन्य सार्थवाह के कथन पर श्रद्धा करते, उन नन्दीफलों का दर ही दर से त्याग करते, दुसरे वक्षों के मूल करते थे, उन्हीं की छायामें विश्राम करते थे। उन्हें तात्कालिक भद्र तो प्राप्त न हुआ, किन्तु उसके पश्चात् ज्यों-ज्यों उनका परिणमन होता चला त्यों-त्यों वे बार-बार सुखरूप परिणत होते चले गए। इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों! जो निर्ग्रन्थी यावत् पाँच इन्द्रियों के कामभोगोंमें आसक्त नहीं होता और अनुरक्त नहीं होता, वह इसी भवमें बहुत-से श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों, श्राविकाओं का पूजनीय होता है और परलोकमें भी दुःख नहीं पाता है, जैसे-हाथ, कान, नाक आदि का छेदन, हृदय एवं वृषभों का उत्पाटन, फाँसी आदि । उसे अनादि अनन्त संसार-अटवी में ८४ योनियोंमें भ्रमण नहीं करना पड़ता । वह अनुक्रम से संसार कान्तार पार कर जाता है-सिद्धि प्राप्त कर लेता है। उनमें से जिन कितनेक पुरुषों ने धन्य सार्थवाह की इस बात पर श्रद्धा नहीं की, प्रतीति नहीं की, रुचि नहीं की, वे धन्य सार्थवाह की बात पर श्रद्धा न करते हुए जहाँ नन्दीफल वृक्ष थे, वहाँ गए । जाकर उन्होंने नन्दीफल वृक्षों के मूल आदि का भक्षण किया और उनकी छायामें विश्राम किया । उन्हें तात्कालिक सुख तो प्राप्त हुआ, किन्तु बादमें उनका परिणमन होने पर उन्हें जीवन से मुक्त होना पड़ा । इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो साधु -साध्वी प्रव्रजित होकर पाँच इन्द्रियों के विषयभोगोंमें आसक्त होता है, वह उन पुरुषों की तरह यावत् हस्तच्छेदन, कर्णच्छेदन, हृदयोत्पाटननादि पूर्वोक्त दुःखों का भागी होता है, चतुर्गतिरूप संसारमें पुनः पुनः परिभ्रमण करता है। इसके पश्चात् धन्य सार्थवाह ने गाड़ी-गाड़े जुतवाए । अहिच्छत्रा नगरी पहुँचा । अहिच्छत्रा नगरी के बाहर प्रधान उद्यानमें पड़ाव डाला, गाड़ी-गाड़े खुलवा दिए । फिर धन्य सार्थवाहने महामूल्यवान, राजा के योग्य उपहार लिया और बहत पुरुषों से परिवत्त होकर अहिच्छत्रा नगरीमें मध्यभागमें होकर प्रवेश किया। प्रवेश कर राजा के पास गया । वहाँ जाकर दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि करके राजा का अभिनन्दन किया । अभिनन्दन करने के पश्चात् वह बहुमूल्य उपहार उसके समीप रख दिया । उपहार प्राप्त करके राजा कनककेतु हर्षित और सन्तुष्ट हुआ । उसने धन्य सार्थवाह के उस मूल्यवान् उपहार को स्वीकार किया । धन्य सार्थवाह का सत्कार-सम्मान किया । माफ कर दिया और उसे बिदा कर दिया । फिर धन्य सार्थवाह ने अपने भाण्ड का विनिमय किया । अपने माल के बदले में दूसरा माल लिया । तत्पश्चात् सुखपूर्वक लौटकर चम्पा नगरी में आ पहुँचा । आकर अपने मित्रों एवं ज्ञातिजनों आदि से मिला और मनुष्य सम्बन्धी विपुल भोगने योग्य भोग भोगता हुआ रहने लगा। उस काल और उस समय में स्थविर भगवंत का आगमन हुआ । धन्य सार्थवाह उन्हें वन्दना करने के लिए नीकला । धर्मदेशना सूनकर और ज्येष्ठ पुत्र को अपने कुटुम्ब में स्थापित करके स्वयं दीक्षित हो गया । सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन करके और बहुत वर्षों तक संयम का पालन करके, एक मास की संलेखना करके, साठ भक्त का अनशन करके अन्यतर-देवलोक में देव पर्याय में उत्पन्न हुआ। देवलोक से आयु का क्षय होने पर महाविदेह क्षेत्र में सिद्धि प्राप्त करेगा, यावत् जन्म-मरण का अन्त करेगा । इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने पन्द्रहवे ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है । ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-१५ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 115 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक अध्ययन-१६- अपरकंका सूत्र - १५८ 'भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने पन्द्रहवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है, तो सोलहवे ज्ञातअध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ कहा है ?' जम्बू ! उस काल, उस समयमें चम्पा नगरी थी । उस चम्पा नगरी से बाहर ईशान दिशा भागमें सुभूमिभाग नामक उद्यान था। उस चम्पानगरीमें तीन ब्राह्मण-बन्धु निवास करते थे । सोम, सोमदत्त और सोमभूति । वे धनाढ्य थे यावत् ऋग्वेद, सामवेद, अथर्ववेद तथा अन्य ब्राह्मणशास्त्रों में अत्यन्त प्रवीण थे । उन तीन ब्राह्मणों की तीन पत्नीयाँ थीं; नागश्री, भूतश्री और यक्षश्री । वे सुकुमार हाथ-पैर आदि अवयवों वाली यावत् उन ब्राह्मणों की इष्ट थीं । वे मनुष्य सम्बन्धी विपुल कामभोग भोगती हुई रहती थीं। किसी समय, एक बार एक साथ मिले हुए उन तीनों ब्राह्मणों में इस प्रकार का समुल्लाप हुआ-'देवानुप्रियो ! हमारे पास यह प्रभूत धन यावत् स्वापतेय-द्रव्य आदि विद्यमान है । सात पीढ़ियों तक खूब दिया जाए, खूब भोगा जाए और खूब बाँटा जाए तो भी पर्याप्त है । अत एव हे देवानुप्रियो ! हम लोगों का एक-दूसरे के घरों में प्रतिदिन बारी-बारी से विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम बनवा-बनवा कर एक साथ बैठकर भोजन करना अच्छा रहेगा। तीनों ब्राह्मणबन्धुओं ने आपस की यह बात स्वीकार की । वे प्रतिदिन एक-दूसरे के घरों में प्रचुर अशन, पान, खादिम और स्वादिम बनवा कर साथ-साथ भोजन करने लगे । तत्पश्चात् एक बार नागश्री ब्राह्मणी के यहाँ भोजन की बारी आई । तब नागश्री ने विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन बनाया । सारयुक्त तूंबा बहुत-से मसाले जाल कर और तेल से व्याप्त कर तैयार किया उस शाक में से एक बूंद अपनी हथेली में लेकर चखा तो मालूम हुआ कि यह खारा, कड़वा, अखाद्य और विष जैसा है । यह जानकर वह मन ही मन कहने लगी'मुझ अधन्या, पुण्यहीना, अभागिनी, भाग्यहीन, अत्यन्त अभागिनी-निंबोली के समान अनादरणीय नागश्री को धिक्कार है, जिसने यह रसदार तूंबा बहुत-से मसालों से युक्त और तेल से छौंका हुआ तैयार किया । इसके लिए बहुत-सा द्रव्य बीगाड़ा और तेल का भी सत्यानाश किया। सो यदि मेरी देवरानियाँ यह वृत्तान्त जानेंगी तो मेरी निन्दा करेंगी । अत एव जब तक मेरी देवरानियाँ न जान पाएं तब तक मेरे लिए यही उचित होगा कि इस बहुत मसालेदार और स्नेह से युक्त कटुक तूंबे को किसी जगह छिपा दिया जाय और दूसरा सारयुक्त मीठा तूंबा मसाले डालकर और बहुत-सा तेल से छौंक कर तैयार किया जाए । विचार करके उस कटुक शरदऋतु सम्बन्धी तूंबे को यावत् छिपा दिया और मीठा तूंबा तैयार किया। वे ब्राह्मण स्नान करके यावत् सुखासन पर बैठे । उन्हें वह प्रचुर अशन, पान, खादिम और स्वादिम परोसा गया । भोजन कर चूकने के पश्चात् आचमन करके स्वच्छ होकर और परम शुचि होकर अपने-अपने काम में संलग्न हो गए । तत्पश्चात् स्नान की हुई और विभूषित हुई उन ब्राह्मणियों ने विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार जीमा । जीमकर वे अपने-अपने घर चली गईं। अपने-अपने काम में लग गईं। सूत्र - १५९ उस काल और उस समय में धर्मघोष नामक स्थविर यावत् बहुत बड़े परिवार के साथ चम्पा नामक नगरी के सुभूमिभाग उद्यान में पधारे । साधु के योग्य उपाश्रय की याचना करके, यावत् विचरने लगे। उन्हें वन्दना करने के लिए परीषद् नीकली । स्थविर मुनिराज ने धर्म का उपदेश दिया । परीषद् वापस चली गई। धर्मघोष स्थविर के शिष्य धर्मरुचि नामक अनगार थे । वह उदार-प्रधान अथवा उराल-उग्र तपश्चर्या करने के कारण पार्श्वस्थों के लिए अति भयानक लगते थे। वे धर्मरुचि अनगार मास-मास का तप करते हुए विचरते थे। किसी दिन धर्मरुचि अनगार के मासक्षमण के पारणा का दिन आया । उन्होंने पहली पौरुषी में स्वाध्याय किया, दूसरी में ध्यान किया इत्यादि सब गौतमस्वामी समान कहना, तीसरे प्रहर में पात्रों का प्रतिलेखन करके उन्हें ग्रहण किया । धर्मघोष स्थविर से भिक्षागोचरी लाने की आज्ञा प्राप्त की यावत् वे चम्पा नगरी में उच्च, नीच और मध्यम कुलों में भ्रमण करते हुए नागश्री ब्राह्मणी के घर में प्रविष्ट हुए । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 116 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक तब नागश्री ब्राह्मणी ने धर्मरुचि अनगार को आते देखा । वह उस बहुत-से मसालों वाले और तेल से युक्त तूंबे के शाक को नीकाल देने का योग्य अवसर जानकर हृष्ट-तुष्ट हुई और खड़ी हई। भोजनगृह में गई। उसने वह तिक्त और कडुवा बहुत तेल वाला सब-का-सब शाक धर्मरुचि अनगार के पात्र में डाल दिया । धर्मरुचि अनगार 'आहार पर्याप्त है। ऐसा जानकर नागश्री ब्राह्मणी के घर से बाहर नीकले । चम्पा नगरी के बीचोंबीच होकर सुभूमिभाग उद्यान में आए । उन्होंने धर्मघोष स्थविर के समीप ईयापथ का प्रतिक्रमण करके अन्न-पानी का प्रतिलेखन किया । हाथ में अन्न-पानी लेकर स्थविर गुरु को दिखलाया । उस समय धर्मघोष स्थविर ने, उस शरदऋतु सम्बन्धी तेल से व्याप्त शाक की गंध से उद्विग्न होकर-पराभव को प्राप्त होकर, उस तेल से व्याप्त खास में से एक बूंद तेल हाथ में ली, और चखा । तब उसे तिक्त, खारा, कड़वा, अखाद्य, अभोज्य और विष के समान जानकर धर्मरुचि अनगार से कहा- देवानुप्रिय ! यदि तुम यह तेल वाला तूंबे का खास खाओगे तो तुम असमय में ही जीवन से रहित हो जाओगे, अत एव हे देवानप्रिय ! तुम इसको मत खाना। ऐसा न हो कि असमय में ही जाएं । अत एव हे देवानुप्रिय ! तुम जाओ और यह तूंबे का शाक एकान्त, आवागमन से रहित, अचित्त भूमि में परठ दो। दूसरा प्रासुक और एषणीय अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ग्रहण करके उसका आहार करो। तत्पश्चात् धर्मघोष स्थविर ने ऐसा कहने पर धर्मरुचि अनगार धर्मघोष स्थविर के पास से नीकले । सुभूमिभाग उद्यान से न अधिक दूर न अधिक समीप उन्होंने स्थंडिल (भूभाग) की प्रतिलेखना करके उस तूंबे के शाक की बूंद ली और उस भूभाग में डाली । तत्पश्चात् उस शरदऋतु सम्बन्धी तिक्त, कटुक और तेल से व्याप्त शाक की गंध से बहुत-हजारों किड़ियाँ वहाँ आ गईं । उनमें से जिस कीड़ी ने जैसे ही शाक खाया, वैसे ही वह असमय में ही मृत्यु को प्राप्त हुई । तब धर्मरुचि अनगार के मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ-यदि इस शाक का एक बिन्दु डालने पर अनेक हजार कीड़ियाँ मर गईं, तो यदि मैं सबका सब यह शाक भूमि पर डाल दूंगा तो यह बहुत-से प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के वध का कारण होगा । अत एव इस शाक को स्वयं ही खा जाना मेरे लिए श्रेयस्कर होगा । यह शाक इसी शरीर से ही समाप्त हो जाए । अनगार ने ऐसा विचार करके मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना की । मस्तक सहित ऊपर शरीर का प्रमार्जन किया । प्रमार्जन करके वह शाक स्वयं ही, आस्वादन किए बिना अपने शरीर के कोठे में डाल लिया । जैसे सर्प सीधा ही बिल में प्रवेश करता है, उसी प्रकार वह आहार सीधा उनके उदर में चला गया। शरद सम्बन्धी तूंबे का यावत् तेलवाला शाक खाने पर धर्मरुचि अनगार के शरीरमें, एक मुहूर्तमें ही उसका शरीरमें वेदना उत्पन्न हो गई । वह वेदना उत्कट यावत् दुस्सह थी । शाक पेटमें डाल लेने के पश्चात धर्मरुचि अनगार स्थामरहित, बलहीन, वीर्यरहित तथा पुरुषकार पराक्रम से हीन हो गए । 'अब धारण नहीं किया जा सकता' ऐसा जानकर उन्होंने आचार के भाण्ड-पात्र एक जगह रख दिए । रखकर स्थंडील का प्रतिलेखन किया । प्रतिलेखन करके दर्भ संथारा बिछाया, उस पर आसीन हो गए । पूर्व दिशा की ओर मुख करके पर्यक आसन से बैठकर, दोनों हाथ जोड़कर, मस्तक पर आवर्तन करके, अंजलि करके इस प्रकार कहा अरिहंतों यावत् सिद्धिगति को प्राप्त भगवंतों को नमस्कार हो । मेरे धर्माचार्य और धर्मोपदेशक धर्मघोष स्थविर को नमस्कार हो । पहले भी मैंने धर्मघोष स्थविर के पास सम्पूर्ण प्राणातिपात का जीवन पर्यन्त के लिए प्रत्याख्यान किया था, यावत् परिग्रह का भी, इस समय भी मैं उन्हीं भगवंतों के समीप सम्पूर्ण प्राणातिपात यावत् सम्पूर्ण परिग्रह का प्रत्याख्यान करता हूँ, जीवन-पर्यन्त के लिए । स्कंदक मुनि समान यहाँ जानना । यावत् अन्तिम श्वासोच्छ्वास के साथ अपने इस शरीर का भी परित्याग करता हूँ । इस प्रकार कहकर आलोचना और प्रतिक्रमण करके, समाधि के साथ मृत्यु को प्राप्त हुए । धर्मघोष स्थविर ने धर्मरुचि अनगार को चिरकाल से गया जानकर निर्ग्रन्थ श्रमणों को बुलाया । उनसे कहा- देवानुप्रियो ! धर्मरुचि अनगार को मासखमण के पारणक में यावत् तेल वाला कटुक तूंबे का शाक मिला था । उसे परठने के लिए वह बाहर गए थे । बहुत समय हो चूका है । अत एव देवानुप्रिय ! तुम जाओ और धर्मरुचि अनगार की सब ओर मार्गणा-गवेषणा करो।' मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 117 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक । तत्पश्चात् श्रमण निर्ग्रथों ने अपने गुरु का आदेश अंगीकार किया । वे धर्मघोष स्थविर के पास से बाहर नीकले । सब ओर धर्मरुचि अनगार की मार्गणा करते हुए जहाँ स्थंडिलभूमि थी वहाँ आए । देखा-धर्मरुचि अनगार का शरीर निष्प्राण, निश्चेष्ट और निर्जीव पड़ा है । उनके मुख से सहसा नीकल पड़ा-'हा हा ! अहो ! यह अकार्य हुआ। इस प्रकार कहकर उन्होंने धर्मरुचि अनगार का परिनिर्वाण होने सम्बन्धी कायोत्सर्ग किया और आचारभांडक ग्रहण किये और धर्मघोष स्थविर के निकट पहुँचे । गमनागमन का प्रतिक्रमण किया । प्रतिक्रमण करके बोले-आपका आदेश पा करके हम आपके पास से नीकले थे । सुभूमिभाग उद्यान के चारों तरफ धर्मरुचि अनगार की यावत् सभी ओर मार्गणा करते हुए स्थंडिलभूमि में गए । यावत् जल्दी ही यहाँ लौट आए हैं । भगवन् ! धर्मरुचि अनगार कालधर्म को प्राप्त हो गए हैं । यह उनके आचार-भांड हैं।' स्थविर धर्मघोष ने पूर्वश्रत में उपयोग लगाया । उपयोग लगाकर श्रमण निर्ग्रन्थों को और निर्ग्रन्थियों को लाकर उनसे कहा-'हे आर्यो ! निश्चय ही मेरा अन्तेवासी धर्मरुचि नामक अनगार स्वभाव से भद्र यावत विनीत था। वह मासखमण की तपस्या कर रहा था । यावत वह नागश्री ब्राह्मणी के घर पारणक-भिक्षा के लिए गया । तब नागश्री ब्राह्मणी ने उसके पात्र में सब-का-सब कटक, विष-सदृश तूंबे का शाक उंडेल दिया । तब धर्मरुचि अनगार अपने लिए पर्याप्त आहार जानकर यावत् काल की आकांक्षा न करते हुए विचरने लगे । धर्मरुचि अनगार बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्याय पालकर, आलोचना-प्रतिक्रमण करके समाधि में लीन होकर माल-मास में काल करके, ऊपर सौधर्म आदि देवलोकों को लाँघकर, यावत् सर्वार्थसिद्ध नामक महाविमान में देवरूप से उत्पन्न हुए हैं । वहाँ जघन्य-उत्कृष्ट भेद से रहित एक ही समान सब देवों की तैंतीस सागरोपम की स्थिति कही गई है । धर्मरुचि देव की भी तैंतीस सागरोपम की स्थिति हुई । वह उस सर्वार्थसिद्ध देवलोक से आयु, स्थिति और भव का क्षय होने पर च्युत होकर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्धि प्राप्त करेगा। सूत्र-१६० तो हे आर्यो ! उस अधन्य अपुण्य, यावत् निंबोली समान कटुक नागश्री ब्राह्मणी को धिक्कार है, जिसने तथारूप साधु धर्मरुचि अनगार को मासखमण के पारणकमें यावत् तेल से व्याप्त कटुक, विषाक्त तूंबे का शाक देकर असमयमें ही मार डाला ।' तत्पश्चात् उस निर्ग्रन्थ श्रमणोंने धर्मघोष स्थविर के पास वह वृत्तान्त सूनकर और समझकर चम्पानगरी के शृंगाटक, त्रिक, चौक, चत्वर, चतुर्मुख राजमार्ग, गली आदि मार्गों में जाकर यावत् बहुत लोगों से इस प्रकार कहा- धिक्कार है उन यावत् निंबोली समान कटुक नागश्री ब्राह्मणी को; जिसने उस प्रकार के साधु और साधु रूपधारी मासखमण का तप करनेवाले धर्मरुचि अनगार को शरद सम्बन्धी यावत् विष सदृश कटुक शाक देकर मार डाला। तब उस श्रमणों से इस वृत्तान्त को सूनकर बहुत-से लोग आपस में इस प्रकार कहने लगे और बातचीत करने लगे- धिक्कार है उस नागश्री ब्राह्मणी को, जिसने यावत् मुनि को मार डाला ।' तत्पश्चात् वे सोम, सोमदत्त और सोमभूति ब्राह्मण, चम्पा नगरी में बहुत-से लोगों से यह वृत्तान्त सूनकर और समझकर, कुपित हुए यावत् और मिसमिसाने लगे । वे वहीं जा पहुँचे जहाँ नागश्री थी । उन्होंने वहाँ जाकर नागश्री से इस प्रकार कहा-'अरी नागश्री ! अप्रार्थित की प्रार्थना करने वाली ! दुष्ट और अशुभ लक्षणों वाली ! निकृष्ट कृष्णा चतुर्दशी में जन्मी हुई ! अधन्य, अपुण्य, भाग्यहीने ! अभागिनी ! अतीव दुर्भागिनी ! निंबोली के समान कटुक ! तुझे धिक्कार है; जिसने तथारूप साधु को मासखमण के पारणक में शरद सम्बन्धी यावत् विषैला शाक वहरा कर मार डाला!' इस प्रकार कहकर उन ब्राह्मणों ने ऊंचे-नीचे आक्रोश वचन कहकर आक्रोश किया, ऊंचे-नीचे उद्वंसता वचन कहकर उद्वंसता की, ऊंचे-नीचे भर्त्सना वचन कहकर भर्त्सना की तथा ऊंचे-नीचे निश्छोटन वचन कहकर निश्छोटना की, 'हे पापिनी ! तुझे पाप का फल भुगतना पड़ेगा' इत्यादि वचनों से तर्जना की और थप्पड़ आदि मार-मार कर ताड़ना की । तर्जना और ताड़ना करके उसे घर से नीकाल दिया। ___ तत्पश्चात् वह नागश्री अपने घर से नीकली हुई चम्पा नगरी में शृंगाटकों में, त्रिक में, चतुष्क में, चत्वरों तथा चतुर्मुख में, बहुत जनों द्वारा अवहेलना की पात्र होती हुई, कुत्सा की जाती हुई, निन्दा और गर्दा की जाती हुई, मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 118 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक उंगली दिखा-दिखा कर तर्जना की जाती हुई, डंडों आदि की मार से व्यथित की जाती हुई, धिक्कारी जाती हुई तथा थूकी जाती हई न कहीं भी ठहरने का ठिकाना पा सकी और न कहीं रहने का स्थान पा सकी । टुकड़े-टुकड़े साँधे हुए वस्त्र पहने, भोजन के लिए सिकोरे का टुकड़ा लिए, पानी पीने के लिए घड़े का टुकड़ा हाथ में लिए, मस्तक पर अत्यन्त बिखरे बालों को धारण किए, जिसके पीछे मक्खियों के झुंड भिन-भिना रहे थे, ऐसी वह नागश्री घर-घर देहबलि के द्वारा अपनी जीविका चलाती हुई भटकने लगी। तदनन्तर उस नागश्री ब्राह्मणी को उसी भव में सोलह रोगांतक उत्पन्न हुए । वे इस प्रकार-श्वास कास योनिशूल यावत् कोढ़ । तत्पश्चात् नागश्री ब्राह्मणी ह रोगांतकों से पीड़ित होकर अतीव दुःख के वशीभूत होकर, कालमास में काल करके छठी पृथ्वी में उत्कृष्ट बाईस सागरोपम की स्थिति वाले नारक के रूप में उत्पन्न हुई। तत्पश्चात् नरक से सीधी नीकल कर वह नागश्री मत्स्य योनि में उत्पन्न हुई । वहाँ वह शस्त्र से वध करने योग्य हई । अत एव दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल करके, नीचे सातवीं पथ्वी में उत्कष्ट तैंतीस सागरोपम की स्थिति वाले नारकों में नारक पर्याय में उत्पन्न हुई । तत्पश्चात् नागश्री सातवीं पृथ्वी से नीकल कर सीधी दूसरी बार मत्स्य योनि में उत्पन्न हुई । वहाँ भी उसका शस्त्री से वध किया गया और दाह की उत्पत्ति होने से मृत्यु को प्राप्त होकर पुनः नीचे सातवीं पृथ्वी में उत्कृष्ट तैंतीस सागरोपम की आयु वाले नारकों में उत्पन्न हुई । सातवीं पृथ्वी से नीकलकर तीसरी बार भी मत्स्य योनि में उत्पन्न हुई । वहाँ भी शस्त्र से वध करने के योग्य हुई । यावत् काल करके दूसरी बार छठी पृथ्वी में बाईस सागरोपम की उत्कृष्ट आयु वाले नारकों में नारक रूप में उत्पन्न हुई। वहाँ से नीकलकर वह उरगयोनि में उत्पन्न हुई । इस प्रकार गोशालक समान सब वृत्तान्त समझना, यावत् रत्नप्रभा आदि सातों नरक भूमियों में उत्पन्न हुई। वहाँ से नीकलकर यावत् खेचरों की विविध योनियों में उत्पन्न हुई। तत्पश्चात् खर बादर पृथ्वीकाय के रूप में अनेक लाख बार उत्पन्न हुई। सूत्र-१६१ तत्पश्चात् वह पृथ्वीकाय से नीकलकर इसी जम्बूद्वीप में, भारतवर्ष में, चम्पा नगरी में सागरदत्त सार्थवाह की भद्रा भार्या की कुंख में बालिका के रूप में उत्पन्न हुई । तब भद्रा सार्थवाही ने नौ मास पूर्ण होने पर बालिका का प्रसव किया । वह बालिका हाथी के तालु के समान अत्यन्त सुकुमार और कोमल थी । उस बालिका के बारह दिन व्यतीत हो जाने पर माता-पिता ने उसका यह गुण वाला नाम रखा-'क्योंकि हमारी यह बालिका हाथी के ताले के समान अत्यन्त कोमल है, अत एव हमारी इस पुत्री का नाम सुकुमालिका हो। तब उसका सुकुमालिका' नाम नियत कर दिया। तदनन्तर सुकुमालिका बालिका को पाँच धावोने ग्रहण किया अर्थात् पाँच धावे उसका पालन-पोषण करने लगीं । दूध पीलानेवाली धाव स्नान करानेवाली धाव आभूषण पहनानेवाली धाव गोदमें लेनेवाली धाव, खेलनेवाली धाव । यावत् एक गोद से दूसरी गोद में ले जाई जाती हुई वह बालिका, पर्वत की गुफा में रही हुई चंपकलता जैसे वायुविहीन प्रदेश में व्याघात रहित बढ़ती है, उसी प्रकार सुखपूर्वक बढ़ने लगी । तत्पश्चात् सुकुमालिका बाल्यावस्था से मुक्त हुई, यावत् रूप से, यौवन से और लावण्य से उत्कृष्ट और उत्कृष्ट शरीर वाली हो गई। सूत्र - १६२ चम्पा नगरी में जिनदत्त नामक एक धनिक सार्थवाह निवास करता था । उस जिनदत्त की भद्रा नामक पत्नी थी । वह सुकुमारी थी, जिनदत्त को प्रिय थी यावत् मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों का आस्वादन करती हुई रहती थी । उस जिनदत्त सार्थवाह का पुत्र और भद्रा भार्या का उदरजात सागर नामक लड़का था । वह भी सुकुमार एक सुन्दर रूप में सम्पन्न था । एक बार किसी समय जिनदत्त सार्थवाह अपने घर से नीकला । नीकलकर सागरदत्त के घर के कुछ पास से जा रहा था । उधर सुकुमालिका लड़की नहा-धोकर, दासियों के समूह से घिरी हुई, भवन के ऊपर छत पर सुवर्ण की गेंद से क्रीड़ा करती-करती विचर रही थी। उस समय जिनदत्त सार्थवाह ने सुकुमालिका लड़की को देखा । सुकुमालिका लड़की के रूप पर, यौवन पर और लावण्य पर उसे आश्चर्य हुआ । उसके मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 119 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और पूछा-देवानुप्रियो ! वह किसकी लड़की है ? उसका नाम क्या है ? जिनदत्त सार्थवाह के ऐसा कहने पर वे कौटुम्बिक पुरुष हर्षित और सन्तुष्ट हुए । उन्होंने हाथ जोड़कर इस प्रकार उत्तर दिया-'देवानुप्रिय ! यह सागरदत्त सार्थवाह की पुत्री, भद्रा की आत्मजा सुकुमालिका नामक लड़की है । सुकुमार हाथ-पैर आदि अवयवों वाली यावत् उत्कृष्ट शरीर वाली है।' जिनदत्त सार्थवाह उन कौटुम्बिक पुरुषों से इस अर्थ को सूनकर अपने घर चला गया । फिर नहा-धोकर तथा मित्रजनों एवं ज्ञातिजनों आदि से परिवृत्त होकर चम्पा नगरी के मध्यभाग में होकर सागरदत्त के घर था । तब सागरदत्त सार्थवाह ने जिनदत्त सार्थवाह को आता देखा । वह आसन से उठ खड़ा हुआ । उठकर उसने जिनदत्त को आसन ग्रहण करने के लिए निमंत्रित किया । विश्रान्त एवं विश्वस्त हुए तथा सुखद आसन पर आसीन हुए जिनदत्त से पूछा-'कहिए देवानुप्रिय ! आपके आगमन का क्या प्रयोजन है ?' तब जिनदत्त सार्थवाह ने सागरदत्त से कहा- देवानप्रिय ! मैं आपकी पत्री, भद्रा सार्थवाही की आत्मजा सकमालिका की सागरदत्त की पत्नी के रूप में मंगनी करता हूँ । देवानुप्रिय ! अगर आप यह युक्त समझें, पात्र समझें, श्लाघनीय समझें और यह समझें कि यह संयोग समान है, तो सुकुमालिका सागरदत्त को दीजिए । अगर आप यह संयोग इष्ट समझते हैं तो देवानुप्रिय ! सुकुमालिका के लिए क्या शुल्क दें ?' उत्तर में सागरदत्त ने जिनदत्त से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! सुकुमालिका पुत्री हमारी इकलौती सन्तती है, हमें प्रिय है। उसका नाम सूनने से भी हमें हर्ष होता है तो देखने की तो बात ही क्या है ? अत एव देवानुप्रिय ! मैं क्षणभर के लिए भी सुकुमालिका का वियोग नहीं चाहता । देवानुप्रिय ! यदि सागर हमारा गृह-जामाता बन जाए तो मैं सागरदारक को सुकुमालिका दे दूँ ।' तत्पश्चात् जिनदत्त सार्थवाह, सागरदत्त सार्थवाह के इस प्रकार कहने पर अपने घर गया । घर जाकर सागर नामक अपने पुत्र को बुलाया और उससे कहा-' हे पुत्र ! सागरदत्त सार्थवाह ने मुझसे ऐसा कहा है-' हे देवानुप्रिय ! सुकुमालिका लड़की मेरी प्रिय है, इत्यादि सो यदि सागर मेरा गृहजामाता बन जाए तो मैं अपनी लड़की हूँ।' जिनदत्त सार्थवाह के ऐसा कहने पर सागर पुत्र मौन रहा । तत्पश्चात् एक बार किसी समय शुभ तिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त में जिनदत्त सार्थवाह ने विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करवाया । तैयार कर मित्रों, निजजनों, स्वजनों, सम्बन्धीयों तथा परिजनों को आमंत्रित किया, यावत् जिमाने के पश्चात् सम्मानित किया। फिर सागर पुत्र को नहला-धूला कर यावत् सब अलंकारों से विभूषित किया । पुरुहसहस्त्रवाहिनी पालकी पर आरूढ़ किया, आरूढ़ करके मित्रों एवं ज्ञातिजनों आदि से परिवृत्त होकर यावत् पूरे ठाठ के साथ अपने घर से नीकला | चम्पा नगरी के मध्य भाग में होकर जहाँ सागरदत्त के घर पहुँच कर सागर पुत्र को पालकी से नीचे ऊतारा । फिर उसे सागरदत्त सार्थवाह के समीप ले गया। तत्पश्चात् सागरदत्त सार्थवाह ने विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य भोजन तैयार करवाया । यावत् उनका सम्मान करके सागरपुत्र को सुकुमालिका पुत्री के साथ पाट पर बिठा कर चाँदी और सोने के कलशों से स्नान करवाया । होम करवाया । होम के बाद सागर पुत्र को सुकुमालिका पुत्री का पाणिग्रहण करवाया । उस समय सागर पुत्र को सुकुमालिका पुत्री के हाथ का स्पर्श ऐसा प्रतीत हुआ मानो कोई तलवार हो अथवा यावत् मुर्मुर आग हो । इतना ही नहीं बल्कि इससे भी अधिक अनिष्ट हस्त-स्पर्श का वह अनुभव करने लगा। किन्तु उस समय वह सागर बिना ईच्छा के विवश होकर उस हस्तस्पर्श का अनुभव करता हआ मुहर्त्तमात्र बैठा रहा । सागरदत्त सार्थवाह ने सागरपुत्र के माता-पिता को तथा मित्रों, ज्ञातिजनों, आत्मीय जनों, स्वजनों, सम्बन्धीयों तथा परिजनों को विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन से तथा पुष्प, वस्त्र से सम्मानित करके बिदा किया। सागरपुत्र सुकुमालिका के साथ जहाँ वासगृह था, वहाँ आया । आकर सुकुमालिका के साथ शय्या पर सोया । सूत्र - १६३ उस समय सागरपुत्र ने सुकुमालिका के इस प्रकार के अंगस्पर्श को ऐसा अनुभव किया जैसे कोई तलवार हो, इत्यादि । वह अत्यन्त ही अमनोज्ञ अंगस्पर्श का अनुभव करता रहा । सागरपुत्र उस अंगस्पर्श को सहन न कर मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 120 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक सकता हुआ, विवश होकर, मुहूर्त्तमात्र-वहाँ रहा । फिर वह सागरपुत्र सुकुमालिका दारिका को सुखपूर्वक गाढ़ी नींद में सोई जानकर उसके पास से उठा और जहाँ अपनी शय्या थी, वहाँ आकर अपनी शय्या पर सो गया । तदनन्तर सुकुमालिका पुत्री एक मुहूर्त में जाग उठी । वह पतिव्रता थी और पति में अनुराग वाली थी, अत एव पति को अपने पार्श्व-पास में न देखती हुई शय्या से उठकर वहाँ गई जहाँ उसके पति की शय्या थी । वहाँ पहुँचकर वह सागर के पास सो गई। तत्पश्चात् सागरदारक ने दूसरी बार भी सुकुमालिका के पूर्वोक्त प्रकार के अंगस्पर्श का अनुभव किया । यावत् वह बिना ईच्छा के विवश होकर थोड़ी देर तक वहाँ रहा । फिर सागरदारक सुकुमालिका को सुखपूर्वक सोई जानकर शय्या से उठा । अपने वासगृह उघाड़ कर वह मरण से अथवा मारने वाले पुरुष से छुटकारा पाए काक पक्षी की तरह शीघ्रता के साथ जिस दिशा से आया था उसी दिशा में लौट गया। सूत्र-१६४ सुकुमालिका दारिका थोड़ी देर में जागी । वह पतिव्रता एवं पति में अनुरक्त थी, अतः पति को अपने पास न देखती हई शय्या से उठी । उसने सागरदारक की सब तरफ मार्गणा करते-करते शयनागार का द्वार खुला देखा तो कहा-'सागर तो चल दिया!' उसके मन का संकल्प मारा गया, अत एव वह हथेली पर मुख रखकर आर्त्तध्यानचिन्ता करने लगी । तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही ने कल प्रभात होने पर दासचेटी को बुलाया और उससे कहा'देवानुप्रिय ! तू जा और वर-वधू के लिए मुख-शोधनिका ले जा ।' तत्पश्चात् उस दासचेटी ने भद्रा सार्थवाही के इस प्रकार कहने पर इस अर्थ को अंगीकार किया । उसने मुखशोधनिका ग्रहण करके जहाँ वासगृह था, वहाँ पहुँची। सुकुमालिका दारिका को चिन्ता करती देखकर पूछा-देवानुप्रिय ! तुम भग्नमनोरथ होकर चिन्ता क्यों कर रही हो ? दासी का प्रश्न सूनकर सुकुमालिका दारिका ने दासचेटी से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिये ! सागरदारक मुझे सुख से सोया जानकर मेरे पास से उठा और वासगृह का द्वार उघाड़ कर यावत् वापिस चला गया । तदनन्तर मैं थोड़ी देर बाद उठी यावत् द्वार उघाड़ा देखा तो मैंने सोचा-'सागर चला गया। इसी कारण भग्नमनोरथ होकर मैं चिन्ता कर रही हूँ।' दासचेटी सुकुमालिका दारिका के इस अर्थ को सूनकर वहाँ गई जहाँ सागरदत्त था । वहाँ जाकर उसने सागरदत्त सार्थवाह से यह वृत्तान्त निवेदन किया । दासचेटी से यह वृत्तान्त सून-समझ कर सागरदत्त कुपित होकर जहाँ जिनदत्त सार्थवाह का घर था, वहाँ पहुँचा । उसने जिनदत्त सार्थवाह से इस प्रकार कहा'देवानुप्रिय ! क्या यह योग्य है ? उचित है ? यह कुल के अनुरूप और कुल के सदृश है कि सागरदारक सुकुमालिका दारिका को, जिसका कोई दोष नहीं देखा गया और जो पतिव्रता है, छोड़कर यहाँ आ गया है ?' यह कहकर बहुत-सी खेदयुक्त क्रियाएं करके तथा रुदन की चेष्टाएं करके उसने उलहना दिया। तब जिनदत्त, सागरदत्त के इस अर्थ को सूनकर जहाँ सागरदारक था, वहाँ आकर सागरदारक से बोला'हे पुत्र ! तुमने बूरा किया जो सागरदत्त के घर से यहाँ एकदम चले आए । अत एव हे पुत्र ! जो हुआ सो हुआ, अब तुम सागरदत्त के घर चले जाओ। तब सागरपुत्रने जिनदत्त से कहा-'हे तात ! मुझे पर्वत से गिरना स्वीकार है, वृक्ष से गिरना स्वीकार है, मरुप्रदेश में पड़ना स्वीकार है, जल में डूब जाना, आग में प्रवेश करना, विष-भक्षण करना, अपने शरीर को स्मशान में या जंगल में छोड़ देना कि जिससे जानवर या प्रेत खा जाएं, गृध्र-पृष्ठ मरण, इसी प्रकार दीक्षा ले लेना या परदेश में चला जाना स्वीकार है, परन्तु मैं निश्चय ही सागरदत्त के घर नहीं जाऊंगा।' उस समय सागरदत्त सार्थवाह ने दीवार के पीछे से सागरपुत्र के इस अर्थ को सून लिया । वह ऐसा लज्जित हुआ की धरती फट जाए तो मैं उसमें समा जाऊं । वह जिनदत्त के घर से बाहर नीकल आया । अपने घर आया । सुकुमालिका पुत्री को बुलाया और उसे अपनी गोद में बिठलाया । फिर उसे इस प्रकार कहा-'हे पुत्री ! सागरदारक ने तुझे त्याग दिया तो क्या हो गया ? अब तुझे मैं ऐसे पुरुष को दूँगा, जिसे तु इष्ट, कान्त, प्रिय और मनोज्ञ होगी ।' इस प्रकार कहकर सुकुमालिका पुत्री को इष्ट वाणी द्वारा आश्वासन देकर उसे बिदा किया । तत्पश्चात् सागरदत्त सार्थवाह किसी समय ऊपर भवन की छत पर सुखपूर्वक बैठा हुआ बार-बार राजमार्ग को देख मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 121 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक रहा था । उस समय सागरदत्त ने एक अत्यन्त दीन भिखारी पुरुष को देखा । वह साँधे हुए टुकड़ों का वस्त्र पहने था। उसके साथ में सिकोरे का टुकड़ा और पानी के घड़े का टुकड़ा था । उसके बाल बिखरे हुए-अस्तव्यस्त थे। हजारों मक्खियाँ उसके मार्ग का अनुसरण कर रही थीं। तत्पश्चात् सागरदत्त ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा-'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और उस द्रमक पुरुष को विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का लोभ देकर घर के भीतर लाओ । सिकोरे और घड़े के टुकड़े को एक तरफ फैंक दो । आलंकारिक कर्म कराओ । फिर स्नान करवाकर, बलिकर्म करवाकर, यावत् सर्व अलंकारों से विभूषित करो । फिर मनोज्ञ अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य भोजन जिमाओ । भोजन जिमाकर मेरे निकट ले आना।' तब उन कौटुम्बिक पुरुषों ने सागरदत्त की आज्ञा अंगीकार की । वे उस भिखारी पुरुष के पास गए । जाकर उस भिखारी को अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन का प्रलोभन देकर उसे अपने घर में ले आए। लाकर उसके सिकोरे के टकडे को तथा घडे के ठीकरे को एक तरफ डाल दिया। सिकोरे का टकडा और घडे का टुकड़ा एक जगह डाल देने पर वह भिखारी जोर-जोर से आवाज करके रोने-चिल्लाने लगा। तत्पश्चात् सागरदत्त ने उस भिखारी पुरुष के ऊंचे स्वर से चिल्लाने का शब्द सूनकर और समझकर कौटुम्बिक पुरुषों को कहा-'देवानुप्रियो ! यह भिखारी पुरुष क्यों जोर-जोर से चिल्ला रहा है ?' तब कौटुम्बिक पुरुषों ने कहा-'स्वामिन् ! उस सिकोरे के टुकड़े और घट के ठीकरे को एक ओर डाल देने के कारण ।' तब सागरदत्त सार्थवाह ने उन कौटुम्बिक पुरुषों से कहा-'देवानुप्रियो ! तुम उस भिखारी के उस सिकोरे और घड़े के खंड को एक ओर मत डालो, उसके पास रख दो, जिससे उसे प्रतीत हो ।' यह सूनकर उन्होंने वे टुकड़े उसके पास रख दिए । तत्पश्चात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने उस भिखारी का अलंकारकर्म करवाया । फिर शतपाक और सहस्रपाक तेल से अभ्यंगन किया । सुवासित गंधद्रव्य से उसके शरीर का उबटन किया । फिर उष्णोदक, गंधोदक और शीतोदक से स्नान कराया । बारीक और सुकोमल गंधकाषाय वस्त्र से शरीर पौंछा । फिर हंसलक्षण वस्त्र पहनाया। सर्व अलंकारों से विभूषित किया । विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन करवाया । भोजन के बाद उसे सागरदत्त के समीप ले गए । तत्पश्चात् सागरदत्त ने सुकुमालिका दारिका को स्नान कराकर यावत् समस्त अलंकारों से अलंकृत करके, उस भिखारी पुरुष से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिय ! यह मेरी पुत्री मुझे इष्ट है । इसे मैं तुम्हारी भार्या के रूप में देता हूँ। तुम इस कल्याणकारिणी के लिए कल्याणकारी होना । उस द्रमक पुरुष ने सागरदत्त की यह बात स्वीकार कर ली । सुकुमालिका दारिका के साथ वासगृह में प्रविष्ट हुआ और सुकुमालिका दारिका के साथ एक शय्या में सोया । उस समय उस द्रमक पुरुष ने सुकुमालिका के अंगस्पर्श को उसी प्रकार अनुभव किया । यावत् वह शय्या से उठकर शयनागार से बाहर नीकला । अपना वही सिकोरे का टुकड़ा और घड़े का टुकड़ा ले करके जिधर से आया था, उधर ही ऐसा चला गया मानो कसाईखाने से मुक्त हुआ हो या मरने वाले पुरुष से छूटकारा पाकर काक भागा हो । 'वह द्रमक पुरुष चल दिया ।' यह सोचकर सुकुमालिका भग्नमनोरथ होकर यावत् चिन्ता करने लगी। सूत्र - १६५ तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही ने दूसरे दिन प्रभात होने पर दासचेटी को बुलाया । पूर्ववत् कहा-तब सागरदत्त उसी प्रकार संभ्रान्त होकर वासगृह में आया । सुकुमालिका को गोद में बिठाकर कहने लगा-'हे पुत्री ! तू पूर्वजन्म में किए हिंसा आदि दुष्कृत्यों द्वारा उपार्जित पापकर्मों का फल भोग रही है । अत एव बेटी ! भग्नमनोरथ होकर यावत चिन्ता मत कर । हे पत्री ! मेरी भोजनशाला में तैयार हए विपल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य आहार को (पोट्टिला की तरह) यावत् श्रमणों आदि को देती हुई रह । तब सुकुमालिका दारिका ने यह बात स्वीकार की। स्वीकार करके भोजनशाला में विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य आहार देती-दिलाती हुई रहने लगी । उस काल और उस समय में गोपालिका नामक बहुश्रुत आर्या, जैसे तेतलिपुत्र नामक अध्ययन में सुव्रता साध्वी के विषय में कहा है, उसी प्रकार पधारी । उनके संघाड़े ने यावत् सुकुमालिका के घर में प्रवेश किया । सुकुमालिका ने मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 122 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक यावत् आहार वहरा कर इस प्रकार कहा-'हे आर्याओं ! मैं सागर के लिए अनिष्ट हूँ, यावत् अमनोज्ञ हूँ | जिसजिस को भी मैं दी गई, उसी-उसी को अनिष्ट यावत् अमनोज्ञ हुई हूँ | आर्याओ ! आप बहुत ज्ञान वाली हो । इस प्रकार पोट्टिला ने जो कहा था, वह सब जानना । आपने कोई मंत्र-तंत्र आदि प्राप्त किया है, जिससे मैं सागरदारक को इष्ट, कान्त यावत् प्रिय हो जाऊं ? आर्याओं ने उसी प्रकार-सुव्रता की आर्याओं के समान-उत्तर दिया। तब वह श्राविका हो गई । उसने दीक्षा अंगीकार करने का विचार किया और उसी प्रकार सागरदत्त सार्थवाह से दीक्षा की आज्ञा ली । यावत् वह गोपालिका आर्या के निकट दीक्षित हुई । तत्पश्चात् वह सुकुमालिका आर्या हो गई। ईर्यासमिति से सम्पन्न यावत् ब्रह्मचारिणी हुई और बहुत-से उपवास, बेला, तेला आदि की तपस्या करती हुई विचरने लगी । तत्पश्चात् सुकुमालिका आर्या किसी समय, एक बार गोपालिका आर्या के पास गई। जाकर उन्हें वन्दन किया, नमस्कार किया । इस प्रकार कहा- हे आर्या ! मैं आपकी आज्ञा पाकर चम्पा नगरी से बाहर, सुभूमिभाग उद्यान से न बहुत दूर और न बहुत समीप के भाग में बेले-बेले का निरन्तर तप करके, सूर्य के सम्मुख आतापना लेती हुई विचरना चाहती हूँ। तब उन गोपालिका आर्या ने सुकुमालिका आर्या से इस प्रकार कहा-'हे आर्ये ! हम निर्ग्रन्थ श्रमणियाँ हैं, ईर्यासमितिवाली यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी हैं। अत एव हमको गाँव यावत् सन्निवेश से बाहर जाकर बेले-बेले की तपस्या करके यावत् विचरना नहीं कल्पता। किन्तु वाड़से घिरे हुए उपाश्रय अन्दर ही, संघाटीसे शरीर आच्छादित करके या साध्वीयों के परिवार के साथ रहकर, पृथ्वी पर दोनों पदतल समान रखकर आतापना लेना कल्पता है।' तब सुकुमालिका को गोपालिका आर्या की इस बात पर श्रद्धा नहीं हुई, प्रतीति नहीं हुई, रुचि नहीं हुई । वह सुभूमिभाग उद्यान से कुछ समीपमें निरन्तर बेले-बेले का तप करती हुई यावत् आतापना लेती हुई विचरने लगी। सूत्र - १६६ ____ चम्पा नगरी में ललिता एक गोष्ठी निवास करती थी। राजाने उसे ईच्छानुसार विचरण करने की छूट दे रखी थी। वह टोली माता-पिता आदि स्वजनों की परवाह नहीं करती थी । वेश्या का घर ही उसका घर था । वह नाना प्रकार का अविनय करने में उद्धत थी, वह धनाढ्य लोगों की टोली थी और यावत् किसी से दबती नहीं थी। उस चम्पानगरीमें देवदत्ता गणिका रहती थी । वह सुकुमाल थी । अंडक अध्ययन अनुसार समझ लेना । एक बार उस ललिता गोष्ठी के पाँच गोष्ठिक पुरुष देवदत्ता गणिका के साथ, सुभूमिभाग उद्यान की लक्ष्मी का अनुभव कर रहे थे । उनमें से एक गोष्ठिक पुरुष ने देवदत्ता गणिका को अपनी गोद में बिठाया, एक ने पीछे से छत्र धारण किया, एक ने उसके मस्तक पर पुष्पों का शिखर रचा, एक उसके पैर रंगने लगा और एक उस पर चामर ढोने लगा उस सुकुमालिका आर्या ने देवदत्ता गणिका को पाँच गोष्ठिक पुरुषों के साथ उच्च कोटि के मनुष्य सम्बन्धी कामभोग भोगते देखा । उसे इस प्रकार का संकल्प उत्पन्न हुआ-'अहो ! यह स्त्री पूर्व में आचरण किये हुए शुभ कर्मों का फल अनुभव कर रही है । सो यदि अच्छी तरह से आचरण किये गये इस तप, नियम और ब्रह्मचर्य का कुछ भी कल्याणकारी फल-विशेष हो, तो मैं भी आगामी भव में इसी प्रकार के मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों को भोगती हई विचरूँ । उसने इस प्रकार निदान किया । निदान करके आतापनाभूमि से वापिस लौटी। सूत्र-१६७ तत्पश्चात् सुकुमालिका आर्या शरीरबकुश हो गई, अर्थात् शरीर को साफ-सुथरा-सुशोभन रखनेमें आसक्त हो गई। वह बार-बार हाथ धोती, पैर धोती, मस्तक धोती, मुँह धोती, स्तनान्तर धोती, बगलें धोती तथा गुप्त अंग धोती । जिस स्थान पर खड़ी होती या कायोत्सर्ग करती, सोती, स्वाध्याय करती, वहाँ भी पहले ही जमीन पर जल छिड़कती थी और फिर खड़ी होती, कायोत्सर्ग करती, सोती या स्वाध्याय करती थी । तब उन गोपालिका आर्या ने सुकुमालिका आर्या से कहा-हम निर्ग्रन्थ साध्वीयाँ हैं, ईर्यासमिति से सम्पन्न यावत् ब्रह्मचारिणी हैं । हमें शरीरबकुश होना नहीं कल्पता, किन्तु हे आर्ये ! तुम शरीरबकुश हो गई हो, बार-बार हाथ धोती हो, यावत् फिर स्वाध्याय आदि करती हो । अत एव तुम बकुशचारित्र रूप स्थान की आलोचना करो, यावत् प्रायश्चित्त अंगीकार करो ।' मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 123 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक तब सुकुमालिका आर्या ने गोपालिका आर्या के इस अर्थ का आदर नहीं किया, उसे अंगीकार नहीं किया। वचन अनादर करती हुई और अस्वीकार करती हुई उसी प्रकार रहने लगी । तत्पश्चात् दूसरी आर्याएं सुकुमालिका आर्या की बार-बार अवहेलना करने लगीं, यावत् अनादर करने लगीं और बार-बार इस अनाचार के लिए उसे रोकने लगी । निर्ग्रन्थ श्रमणियों द्वारा अवहेलना की गई और रोकी गई उस सुकुमालिका के मन में इस प्रकार का विचार यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-'जब मैं गृहस्थावास में वसती थी, तब मैं स्वाधीन थी । जब मैं मुण्डित होकर दीक्षित हुई तब मैं पराधीन हो गई । पहले ये श्रमणियाँ मेरा आदर करती थीं किन्तु अब आदर नहीं करती हैं। अत एव कल प्रभात होने पर गोपालिका के पास से नीकलकर, अलग उपाश्रय में जा करके रहना मेरे लिए श्रेयस्कर होगा।' उसने ऐसा विचार करके दूसरे दिन प्रभात होने पर गोपालिका आर्या के पास से नीकलकर अलग उपाश्रय में जाकर रहने लगी। तत्पश्चात कोई मना करने वाला न होने से एवं रोकने वाला न होने से सकमालिका स्वच्छंदबद्धि होकर बार-बार हाथ धोने लगी यावत् जल छिड़ककर कायोत्सर्ग आदि करने लगी। वह पार्श्वस्थ हो गई। पार्श्वस्थ की तरह विहार करने-रहने लगी । वह अवसन्न हो गई और आलस्यमय विहार वाली हो गई। कुशीला कुशीलों के समान व्यवहार करने वाली हो गई । संसक्ता और संसक्त-विहारिणी हो गई । इस प्रकार उसने बहुत वर्षों तक साध्वी-पर्याय का पालन किया । अन्त में अर्ध मास की संलेखना करके, अपने अनुचित आचरण की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही काल-मास में काल करके, ईशान कल्प में, किसी विमान में देवगणिका के रूप में उत्पन्न हुई । वहाँ सुकुमालिका देवी की भी नौ पल्योपम की स्थिति हुई। सूत्र - १६८ उस काल उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीपमें, भरतक्षेत्रमें पाँचाल देशमें काम्पिल्यपुर नामक नगर था । (वर्णन) वहाँ द्रपद राजा था । (वर्णन) द्रपद राजा की चलनी नामक पटरानी थी और धष्टद्यम्न नामक कमार युवराज था । सुकुमालिका देवी उस देवलोक से, आयु भव और स्थिति को समाप्त करके यावत् देवीशरीर का त्याग करके इसी जम्बूद्वीप में, भरतवर्ष में, पंचाल जनपद में, काम्पिल्यपुर नगर में द्रुपद राजा की चुलनी रानी की कुंख में लड़के के रूप में उत्पन्न हुई । तत्पश्चात् चुलनी देवी ने नौ मास पूर्ण होने पर यावत् पुत्री को जन्म दिया। तत्पश्चात् बारह दिन व्यतीत हो जाने पर उस बालिका का ऐसा नाम रखा गया-'क्योंकि यह बालिका द्रुपद राजा की पुत्री है और चुलनी रानी की आत्मजा है, अतः हमारी इस बालिका का नाम 'द्रौपदी' हो । तब उसका गुणनिष्पन्न नाम 'द्रौपदी' रखा । तत्पश्चात् पाँच धायों द्वारा ग्रहण की हुई वह द्रौपदी दारिका पर्वत की गुफा में स्थित वायु आदि के व्याघात से रहित चम्पकलता के समान सुखपूर्वक बढ़ने लगी । वह श्रेष्ठ राजकन्या बाल्यावस्था से मुक्त होकर यावत् उत्कृष्ट शरीर वाली भी हो गई। राजवरकन्या द्रौपदी को एक बार अन्तःपुर की रानियों ने स्नान कराय यावत् सर्व अलंकारों से विभूषित किया । फिर द्रुपद राजा के चरणों की वन्दना करने के लिए उसके पास भेजा । तब श्रेष्ठ राजकुमारी द्रौपदी द्रुपद राजा के पास गई। उसने द्रुपद राजा के चरणों का स्पर्श किया । तत्पश्चात् द्रुपद राजा ने द्रौपदी दारिका को अपनी गोद में बिठाया । फिर राजवरकन्या द्रौपदी के रूप, यौवन और लावण्य को देखकर उसे विस्मय हुआ । उसने राज-वरकन्या द्रौपदी से कहा- हे पुत्री ! मैं स्वयं किसी राजा अथवा युवराज की भार्या के रूप में तुझे दूंगा तो कौन जाने वहाँ तू सुखी हो या दुःखी ? मुझे ज़िन्दगीभर हृदय में दाह होगा । अत एव हे पुत्री ! मैं आज तेरा स्वयंवर रचता हूँ। अत एव तू अपनी ईच्छा से जिस किसी राजा या युवराज का वरण करेगी, वही तेरा भर्तार होगा। इस प्रकार कहकर इष्ट, प्रिय और मनोज्ञ वाणी से द्रौपदी को आश्वासन दिया । आश्वासन देकर बिदा कर दिया। सूत्र - १६९ तत्पश्चात् द्रुपद राजा ने दूत बुलवाकर उससे कहा-देवानुप्रिय ! तुम द्वारवती नगरी जाओ । वहाँ तुम कृष्ण वासुदेव को, समुद्रविजय आदि दस दसारों को, बलदेव आदि पाँच महावीरों को, उग्रसेन आदि सोलह हजार मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 124 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक राजाओं को, प्रद्युम्न आदि साढ़े तीन कोटि कुमारों को, शाम्ब आदि साठ हजार दुर्दान्तों को, वीरसेन आदि इक्कीस हजार वीर पुरुषों को, महासेन आदि छप्पन हजार बलवान वर्ग को तथा अन्य बहुत-से राजाओं, युवराजों, तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति और सार्थवाह प्रभृति को दोनों हाथ जोड़कर, दसों नख मिलाकर मस्तक पर आवर्त्तन करके, अंजलि करके और 'जय-विजय' शब्द कहकर बधाना । अभिनन्दन करके इस प्रकार कहना-'हे देवानुप्रियो ! काम्पिल्यपुर नगर में द्रुपद राजा की पुत्री, चुलनी देवी की आत्मजा और राजकुमार धृष्टद्युम्न की भगिनी श्रेष्ठ राजकुमारी द्रौपदी का स्वयंवर होने वाला है । अत एव हे देवानुप्रियो ! आप सब द्रुपद राजा पर अनुग्रह करत हुए, विलम्ब किए बिना काम्पिल्यपुर नगर में पधारना । । तत्पश्चात् दूत ने दोनों हाथ जोड़कर यावत् मस्तक पर अंजलि करके द्रुपद राजा का यह अर्थ विनय के साथ स्वीकार किया । अपने घर आकर कोटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा-'देवानुप्रियो ! शीघ्र ही चार घंटाओं वाला अश्वरथ जोतकर उपस्थित करो।' कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् रथ उपस्थित किया । तत्पश्चात् स्नान किये हुए और अलंकारों से विभूषित शरीर वाले उस दूत ने चार घंटाओं वाले अश्वरथ पर आहोरण किया । आरोहण करके तैयार हए अस्त्र-शस्त्रधारी बहुत-से पुरुषों के साथ काम्पिल्यपर नगर के मध्यभाग से होकर नीकला । पंचाल देश के मध्य भाग में होकर देश की सीमा पर आया । फिर सुराष्ट्र जनपद के बीच में होकर जिधर द्वारवती नगरी थी, उधर चला । द्वारवती नगरी के मध्य में प्रवेश करके जहाँ कृष्ण वासुदेव की बाहरी सभी थी, वहाँ आया । चार घंटाओं वाले अश्वरथ को रोका । फिर मनुष्यों के समूह से परिवृत्त होकर पैदल चलता हुआ कृष्ण वासुदेव के पास पहुँचा । कृष्ण वासुदेव को, समुद्रविजय आदि दस दसारों को यावत् महासेन आदि छप्पन हजार बलवान वर्ग को दोनों हाथ जोड़कर द्रुपद राजा के कथनानुसार अभिनन्दन करके यावत् स्वयंवर में पधारने का निमंत्रण दिया। तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव उस दूत से वह वृत्तान्त सूनकर और समझकर प्रसन्न हए, यावत् वे हर्षित एवं सन्तुष्ट हुए । उन्होंने उस दूत का सत्कार किया, सम्मान किया । पश्चात् उसे बिदा किया । तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुष को बुलाया । उससे कहा-'देवानुप्रिय ! जाओ और सुधर्मा सभा में रखी हुई सामुदानिक भेरी बजाओ ।' तब उस कौटुम्बिक पुरुष ने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि करके कृष्ण वासुदेव के इस अर्थ को अंगीकार किया । जहाँ सुधर्मा सभा में सामुदानिक भेरी थी, वहाँ आकर जोर-जोर के शब्द से उसे ताड़न किया । तत्पश्चात् उस सामुदानिक भेरी के ताड़न करने पर समुद्रविजय आदि दस दसार यावत् महासेन आदि छप्पन हजार बलवान नहा-धोकर यावत् विभूषित होकर अपने-अपने वैभव के अनुसार ऋद्धि एवं सत्कार के अनुसार कोई-कोई यावत् कोई-कोई पैदल चल कर जहाँ कृष्ण वासुदेव थे, वहाँ पहुँचे । दोनों हाथ जोड़कर सबने कृष्ण वासुदेव का जय-विजय के शब्दों से अभिनन्दन किया। ___ तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेवने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही पट्टाभिषेक किया हस्तीरत्न को तैयार करो तथा घोड़ों हाथियों यावत् यह आज्ञा सूनकर कौटुम्बिक पुरुषोंने तदनुसार कार्य करके आज्ञा वापिस सौंपी । तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव मज्जनगृह में गए । मोतियों के गुच्छों से मनोहर-यावत् अंजनगिरि के शिखर के समान गजपति पर वे नरपति आरूढ़ हुए । तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव समुद्र-विजय आदि दस दसारों के साथ यावत् अनंगसेना आदि कईं हजार गणिकाओं के साथ परिवृत्त होकर, पूरे ठाठ के साथ यावत् वाद्यों की ध्वनि के साथ द्वारवती नगरी के मध्य में होकर नीकले । सुराष्ट्र जनपद के मध्य में होकर देश की सीमा पर पहुँचे । पंचाल जनपद के मध्य में होकर जिस ओर काम्पिल्यपुर नगर था, उसी ओर जाने के लिए उद्यत हुए। सूत्र-१७० तत्पश्चात् द्रुपद राजा ने दूसरे दूत को बुलाकर उससे कहा- देवानुप्रिय ! तुम हस्तिनापुर नगर जाओ । वहाँ तुम पुत्रों सहित पाण्डु राजा को-उनके पुत्र युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव को, सो भाइयों समेत दुर्योधन को, गांगेय, विदुर, द्रोण, जयद्रथ, शकुनि, कर्ण और अश्वत्थामा को दोनों हाथ जोड़कर यावत् मस्तक पर अंजलि करके उसी प्रकार कहना, यावत्-समय पर स्वयंवर में पधारिए । तत्पश्चात् दूत ने हस्तिनापुर जाकर प्रथम मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 125 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक दूत के समान श्रीकृष्ण को कहा था । तब जैसा कृष्ण वासुदेव ने किया, वैसा ही पाण्डु राजा ने किया । विशेषता यह है कि हस्तिनापुर में भेरी नहीं थी । यावत् काम्पिल्यपुर नगर की ओर गमन करने को उद्यत हुए । इसी क्रम से तीसरे दूत को चम्पा नगरी भेजा और उससे कहा-तुम वहाँ जाकर अंगराज कृष्ण को, सेल्लक राजा को और नंदीराज को दोनों हाथ जोड़कर यावत् कहना कि स्वयंवर में पधारिए । चौथा दूत शुक्तिमती नगरी भेजा और उसे आदेश दिया-तुम दमघोष के पुत्र और पाँच सौ भाइयों से परिवृत्त शिशुपाल राजा को हाथ जोड़कर उसी प्रकार कहना, यावत् स्वयंवर में पधारिए । पाँचवा दूत हस्तिशीर्ष कहा-तुम दमदंत राजा को हाथ जोड़कर उसी प्रकार कहना यावत् स्वयंवर में पधारिए । छठा दूत मथुरा नगरी भेजा । उससे कहा-तुम धर नामक राजा को हाथ जोड़कर यावत् कहना-स्वयंवर में पधारिए। सातवाँ दूत राजगृह नगर भेजा । उससे कहा-तुम जरासिन्धु के पुत्र सहदेव राजा को हाथ जोड़कर उसी प्रकार कहना यावत् स्वयंवर में पधारिए । आठवाँ दूत कौण्डिन्य नगर भेजा । उससे कहा-तुम भीष्मक के पुत्र रुक्मी राजा को हाथ जोड़कर उसी प्रकार कहना, यावत् स्वयंवर में पधारिए ।नौवाँ दूत विराटनगर भेजा । उससे कहा-तुम सौ भाइयों सहित कीचक राजा को हाथ जोडकर उसी प्रकार कहना, यावत् स्वयंवर में पधारो । दसवाँ दूत शेष ग्राम, आकर, नगर आदि में भेजा । उससे कहा-तुम वहाँ के अनेक सहस्त्र राजाओं को उसी प्रकार कहना, यावत् स्वयंवर में पधारिए । तत्पश्चात् वह दूत उसी प्रकार नीकला और जहाँ ग्राम, आकर, नगर आदि थे वहाँ जाकर सब राजाओं को उसी प्रकार कहा-यावत् स्वयंवर में पधारिए । तत्पश्चात् अनेक हजार राजाओं ने उस दूत से यह अर्थ-संदेश सूनकर और समझकर हृष्ट-तुष्ट होकर उस दूत का सत्कार-सम्मान करके उसे बिदा किया। तत्पश्चात् आमंत्रित किये हुए वासुदेव आदि बहुसंख्यक हजारों राजाओंमें से प्रत्येक ने स्नान किया । वे कवच धारण करके तैयार हुए, सजाए हुए श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर आरूढ़ हुए । फिर घोड़ों, हाथियों, रथों और बड़ेबड़े भटों के समूह के समूह रूप चतुरंगिणीसेना साथ अपने-अपने नगरों से नीकले । पंचाल जनपद की ओर गमन करने के लिए उद्यत हुए । उस पर द्रुपद राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर उनसे कहा-'देवानुप्रियो! तुम जाओ और काम्पिल्यपुर नगर के बाहर गंगा नदी से न अधिक दूर और न अधिक समीप में, एक विशाल स्वयंवर-मंडप बनाओ, जो अनेक सैकड़ों स्तम्भों से बना हो और जिसमें लीला करती हुई पुतलियाँ बनी हों । जो प्रसन्नताजनक, सुन्दर, दर्शनीय एवं अतीव रमणीय हो ।' उन कौटुम्बिक पुरुषों ने मंडप तैयार करके आज्ञा वापिस सौंपी। तत्पश्चात द्रपदराजाने फिर कौटम्बिक पुरुषों को बुलाया । बलाकर कहा-'देवानप्रियो! शीघ्र ही वासदेव वगैरह बहुसंख्यक सहस्त्रों राजाओं के लिए आवास तैयार करो।' उन्होंने आवास तैयार करके आज्ञा वापिस लौटाई तत्पश्चात् द्रुपदराजा वासुदेव प्रभृति बहुत से राजाओं का आगमन जानकर, प्रत्येक राजा का स्वागत करने के लिए हाथी के स्कंध पर आरूढ़ होकर यावत् सुभटों के परिवार से परिवृत्त होकर अर्घ्य और पाद्य लेकर, सम्पूर्ण ऋद्धिके साथ काम्पिल्यपुर से बाहर नीकला। जिधर वासुदेव आदि बहुसंख्यक हजारों राजा थे, उधर गया। उन वासुदेव प्रभृति का अर्घ्य-पाद्य से सत्कार-सम्मान किया । उन वासुदेव आदि को अलग-अलग आवास प्रदान किए। तत्पश्चात् वे वासुदेव प्रभृति नृपति अपने-अपने आवासों में पहुँचे । हाथियों के स्कंध से नीचे ऊतरे । सबने अपने-अपने पड़ाव डाले और आवासों में प्रविष्ट हुए । अपने-अपने आवासों में आसनों पर बैठे और शय्याओं पर सोए । बहत-से गंधर्वो से गान कराने लगे और नट नाटक करने लगे । तत्पश्चात द्रपद राजा ने काम्पिल्यपुर नगर में प्रवेश किया । विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करवाया । फिर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा- 'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और वह विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम, सुरा, मद्य, मांस, सीधु और प्रसन्ना तथा प्रचुर पुष्प, वस्त्र, गंध, मालाएं एवं अलंकार वासुदेव आदि हजारों राजाओं के आवासों में ले जाओ।' यह सूनकर वे, सब वस्तुएं ले गए । तब वासुदेव आदि राजा उस विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम यावत् प्रसन्ना का पुनः पुनः आस्वादन करते हुए विचरने लगे। भोजन करने के पश्चात् आचमन करके यावत् सुखद आसनों पर आसीन होकर बहुत-से गंधर्वो से संगीत कराते हुए विचरने लगे। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 126 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक तत्पश्चात् द्रुपद राजा ने पूर्वापराह्न काल के समय कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार कहा'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और काम्पिल्यपुर नगर के शृंगाटक आदि मार्गों में तथा वासुदेव आदि हजारों राजाओं के आवासों में, हाथी के स्कंध पर आरूढ़ होकर बुलंद आवाज से यावत् बार-बार उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार कहो-'देवानुप्रियो ! कल प्रभात काल में द्रुपद राजा की पुत्री, चुलनी देवी की आत्मजा और धृष्टद्युम्न की भगिनी द्रौपदी राजवरकन्या का स्वयंवर होगा । अत एव हे देवानुप्रियो ! आप सब द्रुपद राजा पर अनुग्रह करते हुए, स्नान करके यावत् विभूषित होकर, हाथी के स्कंध पर आरूढ़ होकर, कोरंट वृक्ष की पुष्पमाला सहित छत्र को धारण करके, उत्तम श्वेत चामरों से बिंजाते हुए, घोड़ों, हाथियों, रथों, तथा बड़े-बड़े सुभटों के समूह से युक्त चतुरंगिणी सेना से परिवृत्त होकर जहाँ स्वयंवर मंडप है, वहाँ पहुँचे । अलग-अलग अपने नामांकित आसनों पर बैठे और राजवरकन्या द्रौपदी की प्रतीक्षा करें ।'' इस प्रकार की घोषणा करो और मेरी आज्ञा वापिस करो ।' तब वे कौटुम्बिक पुरुष इस प्रकार घोषणा करके यावत् राजा द्रुपद की आज्ञा वापिस करते हैं । तत्पश्चात् द्रुपद राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को पुनः बुलाकर कहा-'देवानुप्रियो ! तुम स्वयंवर-मंडप में जाओ और उसमें जल का छिड़काव करो, उसे झाड़ो, लीपो और श्रेष्ठ सुगंधित द्रव्यों से सुगंधित करो । पाँच वर्ण के फूलों के समूह से व्याप्त करो। कृष्ण अगर, श्रेष्ठ कुंदुरुक्क और तुरुष्क आदि की धूप से गंध की वर्ती जैसा कर दो । उसे मंचों और उनके ऊपर मंचों से युक्त करो । फिर वासुदेव आदि हजारों राजाओं के नामों से अंकित अलग-अलग आसन श्वेत वस्त्र से आच्छादित करके तैयार करो । यह सब करके मेरी आज्ञा वापिस लौटाओ। वे कौटुम्बिक पुरुष भी सब कार्य करके यावत् आज्ञा लौटाते हैं। तत्पश्चात् वासुदेव प्रभृति अनेक हजार राजा कल प्रभात होने पर स्नान करके यावत् विभूषित हुए । श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर आरूढ़ हुए। उन्होंने कोरंट वृक्ष के फूलों की माला वाले छत्र को धारण किया । उन पर चामर ढोरे जाने लगे। अश्व, हाथी, भटों आदि से परिवृत्त होकर सम्पूर्ण ऋद्धि के साथ यावत् वाद्यध्वनि के साथ जिधर स्वयंवरमंडप था, उधर पहुँचे । मंडप में प्रविष्ट होकर पृथक्-पृथक् अपने-अपने नामों से अंकित आसनों पर बैठ गए । राजवरकन्या द्रौपदी की प्रतीक्षा करने लगे । द्रुपद राजा प्रभात में स्नान करके यावत् विभूषित होकर, हाथी के स्कंध पर सवार होकर, कोरंट वृक्ष के फूलों की माला वाले छत्र को धारण करके अश्वों, गजों, रथों और उत्तम योद्धाओं वाली चतुरंगिणी सेना के साथ तथा अन्य भटों एवं रथों से परिवृत्त होकर काम्पिल्यपुर से बाहर नीकला। जहाँ स्वयंवरमंडप था, वासुदेव आदि बहुत-से हजारों राजा थे, वहाँ आकर वासुदेव वगैरह का हाथ जोड़कर अभिनन्दन किया और कृष्ण वासुदेव पर श्रेष्ठ श्वेत चामर ढोरने लगा। सूत्र-१७१ उधर वह राजवरकन्या द्रौपदी प्रभात काल होने पर स्नानगृह की ओर गई। वहाँ जाकर स्नानगृह में प्रविष्ट होकर उसने स्नान किया यावत् शुद्ध और सभा में प्रवेश करने योग्य उत्तम वस्त्र धारण किए । जिन प्रतिमाओं का पूजन किया । पूजन करके अन्तःपुर में चली गई। सूत्र - १७२ तत्पश्चात् अन्तःपुर की स्त्रियों ने राजवरकन्या द्रौपदी को सब अलंकारों से विभूषित किया । किस प्रकार ? पैरों में श्रेष्ठ नूपुर पहनाए यावत् वह दासियों के समूह से परिवृत्त होकर अन्तःपुर से बाहर नीकलकर जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी और जहाँ चार घंटाओं वाला अश्वरथ था, वहाँ आई | आकर क्रीड़ा करने वाली धाय और लेखिका दासी के साथ उस चार घंटा वाले रथ पर आरूढ़ हुई । उस समय धृष्टद्युम्न-कुमार ने द्रौपदी का सारथ्य किया, राजवरकन्या द्रौपदी काम्पिल्यपुर नगर के मध्य में होकर जिधर स्वयंवर-मंडप था, उधर पहुँची । रथ रोका गया और वह रथ से नीचे ऊतरी । क्रीड़ा कराने वाली धाय और लेखिका दासी के साथ उसने स्वयंवर मंडप में प्रवेश किया । दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि करके वासुदेव प्रभृति बहुसंख्यक हजारों राजाओं को प्रणाम किया। तत्पश्चात् राजवरकन्या द्रौपदी ने एक बड़ा श्रीदामकाण्ड ग्रहण किया । वह कैसा था ? पाटल, मल्लिका, मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 127 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक चम्पक आदि यावत् सप्तपर्ण आदि के फूलों से गूंथा हुआ था । अत्यन्त गंध को फैला रहा था । अत्यन्त सुखद स्पर्श वाला था और दर्शनीय था । तत्पश्चात् उस क्रीड़ा कराने वाली यावत् सुन्दर रूप वाली धाय ने बाएं हाथ में चिल-चिलाता हुआ दर्पण लिया । उस दर्पण में जिस-जिस राजा का प्रतिबिम्ब पड़ता था, उस प्रतिबिम्ब द्वारा दिखाई देने वाले श्रेष्ठ सिंह के समान राजा को अपने दाहिने हाथ से द्रौपदी को दिखलाती थी । वह धाय स्फुट विशद विशुद्ध रिभित मेघ की गर्जना के समान गंभीर और मधुर वचन बोलती हुई, उन सब राजाओं के माता-पिता के वंश, सत्त्व, सामर्थ्य गोत्र पराक्रम कान्ति नाना प्रकार के ज्ञान माहात्म्य रूप यौवन गुण लावण्य कुल और शील को जानने वाली होने के कारण उनका बखान करने लगी। उनमें से सर्व प्रथम वृष्णियों में प्रधान समुद्रविजय आदि दस दसारों के, जो तीनों लोको में बलवान थे, लाखों शत्रुओं का मान मर्दन करने वाले थे, भव्य जीवनों में श्रेष्ठ श्वेत कमल के समान प्रधान थे, तेज से देदीप्यमान थे, बल, वीर्य, रूप, यौवन, गुण और लावण्य का कीर्तन करने वाली उस धाय ने कीर्तन किया और फिर उग्रसेन आदि यादवों का वर्णन किया, तदनन्तर कहा-'ये यादव सौभाग्य और रूप से सुशोभित हैं और श्रेष्ठ पुरुषों में गंधहस्ती के समान हैं । इनमें से कोई तेरे हृदय को वल्लभ-प्रिय हो तो उसे वरण कर ।' तत्पश्चात् राजवरकन्या द्रौपदी अनेक सहस्त्र राजाओं के मध्य में होकर, उनका प्रतिक्रमण करती-करती, पूर्वकृत् निदान से प्रेरित होतीहोती, जहाँ पाँच पाण्डव थे, वहाँ आई । उसने उन पाँचों पाण्डवों को, पँचरंगे कुसुमदाम-फूलों की माला-श्रीदामकण्ड-से चारों तरफ से वेष्टित करके कहा- मैंने इन पाँचों पाण्डवों का वरण किया। तत्पश्चात् उन वासुदेव प्रभृति अनेक सहस्त्र राजाओं ने ऊंचे-ऊंचे शब्दों से बार-बार उद्घोषणा करते हुए कहा-'अहो ! राजवरकन्या द्रौपदी ने अच्छा वरण किया। इस प्रकार कहकर वे स्वयंवर मंडप से बाहर नीकले । अपने-अपने आवासों में चले गए। तत्पश्चात् धृष्टद्युम्न कुमार ने पाँचों पाण्डवों को और राजवरकन्या द्रौपदी को चार घंटाओं वाले अश्वरथ पर आरूढ़ किया और काम्पिल्यपुर के मध्य में होकर यावत् अपने भवन में प्रवेश किया। द्रुपद राजा ने पाँचों पाण्डवों को तथा राजवरकन्या द्रौपदी को पट्ट पर आसीन किया । चाँदी और सोने के कलशों से स्नान कराया । अग्निहोम करवाया । फिर पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ पाणिग्रहण कराया । तत्पश्चात् द्रुपद राजा ने राजवरकन्या द्रौपदी को इस प्रकार का प्रीतिदान किया-आठ करोड़ हिरण्य आदि यावत् आठ प्रेषणकारिणी दास-चेटियाँ । इनके अतिरिक्त अन्य भी बहुत-सा धन-कनक यावत् प्रदान किया । तत्पश्चात् द्रुपद राजा ने उन वासुदेव प्रभृति राजाओं को विपुल अशन, पान, खादिम तथा स्वादिम तथा पुष्प, वस्त्र, गंध, माला और अलंकार आदि से सत्कार करके बिदा किया । सूत्र - १७३ तत्पश्चात् पाण्डु राजा ने उन वासुदेव प्रभृति अनेक सहस्त्र राजाओं से हाथ जोड़कर यावत् इस प्रकार कहा -'देवानुप्रियो ! हस्तिनापुर नगर में पाँच पाण्डवों और द्रौपदी का कल्याणकरण महोत्सव होगा । अत एव देवानुप्रियो ! तुम सब मुझ पर अनुग्रह करके यथासमय विलम्ब किए बिना पधारना । तत्पश्चात् वे वासुदेव आदि नृपतिगण अलग-अलग यावत् हस्तिनापुर की ओर गमन करने के लिए उद्यत हुए । तत्पश्चात् पाण्डु राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार आदेश दिया-'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और हस्तिनापुर में पाँच पाण्डवों के लिए पाँच उत्तम प्रासाद बनवाओ, वे प्रासाद खूब ऊंचे हों और सात भूमी के हों इत्यादि पूर्ववत् यावत् वे अत्यन्त मनोहर हों । तब कौटुम्बिक पुरुषों ने यह आदेश अंगीकार किया, यावत् उसी प्रकार के प्रासाद बनवाए । तब पाण्डु राजा पाँचों पाण्डवों और द्रौपदी देवी के साथ अश्वसेना, गजसेना आदि से परिवृत्त होकर काम्पिल्यपुर नगर से नीकलकर जहाँ हस्तिनापुर था, वहाँ आ पहुँचा । तत्पश्चात् पाण्डु राजा ने उन वासुदेव आदि राजाओं का आगमन जानकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनसे कहा-'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और हस्तिनापुर नगर के बाहर वासुदेव आदि बहुत हजार राजाओं के लिए आवास तैयार कराओ जो अनेक सैकड़ों स्तम्भों आदि से युक्त हो इत्यादि पूर्ववत् ।' कौटुम्बिक पुरुष उसी प्रकार आज्ञा का पालन करके यावत् आज्ञा वापिस करते हैं । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 128 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक तत्पश्चात् वे वासुदेव वगैरह हजारों राजा हस्तिनापुर नगर में आए । तब पाण्डु राजा उन वासुदेव आदि राजाओं का आगमन जानकर हर्षित और संतुष्ट हआ । उसने स्नान किया, बलिकर्म किया और द्रुपद राजा के समान उनके सामने जाकर सत्कार किया, यावत् उन्हें यथायोग्य आवास प्रदान किए । तब वे वासुदेव आदि हजारों राजा जहाँ अपने-अपने आवास थे, वहाँ गए और उसी प्रकार यावत् विचरने लगे । तत्पश्चात् पाण्डु राजा ने हस्तिनापुर नगर में प्रवेश किया । कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा-'हे देवानुप्रियो ! तुम विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करवाओ।' उन कौटुम्बिक पुरुषों ने उसी प्रकार किया यावत् वे भोजन तैयार करवा कर ले गए । तब उन वासुदेव आदि बहुत-से राजाओं न स्नान एवं बलिकार्य करके उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम का आहार किया और उसी प्रकार विचरने लगे । तत्पश्चात् पाण्डु राजा ने पाँच पाण्डवों को तथा द्रौपदी को पाट पर बिठाया । श्वेत और पीत कलशों से उनका अभिषेक किया । फिर कल्याणकर उत्सव किया। उत्सव करके उन वासुदेव आदि बहुत हजार राजाओं का विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम से तथा पुष्पों और वस्त्रों से सत्कार किया, सम्मान किया । यावत् उन्हें बिदा किया । तब वे वासुदेव वगैरह बहुत से राजा यावत् अपने-अपने राज्यों एवं नगरों को लौट गए। सूत्र-१७४ तत्पश्चात् पाँच पाण्डव द्रौपदी देवी के साथ अन्तःपुर के परिवार सहित एक-एक दिन बारी-बारी के अनुसार उदार कामभोग भोगते हुए यावत् रहने लगे । पाण्डु राजा एक बार किसी समय पाँच पाण्डवों, कुन्ती देवी और द्रौपदी देवी के साथ तथा अन्तःपुर के अन्दर के परिवार के साथ परिवृत्त होकर श्रेष्ठ सिंहासन पर आसीन थे। इधर कच्छुल्ल नामक नारद वहाँ आ पहुँचे । वे देखने में अत्यन्त भद्र और विनीत जान पड़ते थे, परन्तु भीतर से कलहप्रिय होने के कारण उनका हृदय कलूषित था । ब्रह्मचर्यव्रत के धारक होने से वे मध्यस्थता को प्राप्त थे । आश्रित जनों को उनका दर्शन प्रिय लगता था । उनका रूप मनोहर था । उन्होंने उज्ज्वल एवं सकल पहन रखा था। काला मृगचर्म उत्तरासंग के रूप में वक्षःस्थल में धारण किया था। हाथ में दंड और कमण्डलु था । जटा रूपी मुकुट से उनका मस्तक शोभायमान था । उन्होंने यज्ञोपवित एवं रुद्राक्ष की माला के आभरण, मूंज की कटिमेखला और वल्कल वस्त्र धारण किए थे । उनके हाथ में कच्छपी नाम की वीणा थी । उन्हें संगीत से प्रीति थी । आकाश में गमन करने की शक्ति होने से वे पृथ्वी पर बहुत कम गमन करते थे । संचरणी, आवरणी, अवतरणी, उत्पतनी, श्लेषणी, संक्रामणी, अभियोगिनी, प्रज्ञप्ति, गमनी और स्तंभिनी आदि बहुत-सी विद्याधरों सम्बन्धी विद्याओं में प्रवीण होने से उनकी कीर्ति फैली हुई थी । वे बलदेव और वासुदेव के प्रेमपात्र थे । प्रद्युम्न, प्रदीप, साँब, अनिरुद्ध, निषध, उन्मुख, सारण, गजसुकुमाल, सुमुख और दुर्मुख आदि यादवों के साढ़े तीन कोटि कुमारों के हृदय के प्रिय थे और उनके द्वारा प्रशंसनीय थे । कलह, युद्ध और कोलाहल उन्हें प्रिय था । वे भांड के समान वचन बोलने के अभिलाषी थे। अनेक समर और सम्पराय देखने के रसिया थे । चारों ओर दक्षिणा देकर भी कलह की खोज किया करते थे, कलह कराकर दूसरों के चित्त में असमाधि उत्पन्न करते थे । ऐसे वह नारद तीन लोक में बलवान् श्रेष्ठ दसारवंश के वीर पुरुषों से वार्तालाप करके, उस भगवती प्राकाम्य नामक विद्या का, जिसके प्रभाव से आकाश में गमन किया जा सकता था, स्मरण करके उड़े और आकाश को लाँघते हुए हजारों ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, पट्टन और संबाध से शोभित और भरपूर देशों से व्याप्त पृथ्वी का अवलोकन करते-करते रमणीय हस्तिनापुर में आए और बड़े वेग के साथ पाण्डु राजा के महल में ऊतरे । उस समय पांडु राजा ने कच्छुल्ल नारद को आता देखा । देखकर पाँच पाण्डवों तथा कुन्ती देवी सहित वे आसन से उठ खडे हए । सात-आठ पैर कच्छल्ल नारद के सामने जाकर तीन बार दक्षिण दिशा से आरम्भ करके प्रदक्षिणा की । वन्दन किया, नमस्कार किया । महान पुरुष के योग्य आसन ग्रहण करने के लिए आमंत्रण किया। तत्पश्चात् उन कच्छुल्ल नारद ने जल छिड़ककर और दर्भ बिछाकर उस पर अपना आसन बिछाया और वे उस पर बैठकर पाण्डु राजा, राज्य यावत् अन्तःपुर के कुशल-समाचार पूछे । उस समय पाण्डु राजा ने, कुन्ती देवी ने और मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 129 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक पाँचों पाण्डवों ने कच्छुल्ल नारद का खड़े होकर आदर-सत्कार किया । उनकी पर्युपासना की। किन्तु द्रौपदी देवी ने कच्छुल्ल नारद को असंयमी, अविरत तथा पूर्वकृत पापकर्म का निन्दादि द्वारा नाश न करने वाला तथा आगे के पापों का प्रत्याख्यान न करने वाला जान कर उनका आदर नहीं किया, उनके आगमन का अनुमोदन नहीं किया, उनके आने पर वह खड़ी नहीं हुई । उसने उनकी उपासना भी नहीं की। सूत्र - १७५ तब कच्छुल्ल नारद को इस प्रकार का अध्यवसाय चिन्तित प्रार्थित मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि'अहो! यह द्रौपदी अपने रूप, यौवन, लावण्य और पाँच पाण्डवों के कारण अभिमानिनी हो गई है, अत एव मेरा आदर नहीं करती यावत् मेरी उपासना नहीं करती । अत एव द्रौपदी देवी का अनिष्ट करना मेरे लिए उचित है ।' इस प्रकार नारद ने विचार करके पाण्डु राजा से जाने की आज्ञा ली। फिर उत्पतनी विद्या का आह्वान किया । उस उत्कृष्ट यावत् विद्याधर योग्य गति से लवणसमुद्र के मध्यभाग में होकर, पूर्व दिशा के सम्मुख, चलने के लिए प्रयत्नशील हुए । उस काल और उस समय में धातकीखण्ड नामक द्वीपमें पूर्व दिशा की तरफ के दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र में अमरकंका नामक राजधानी थी। उसमें पद्मनाभ नामक राजा था । वह महान हिमवन्त पर्वत के समान सार वाला था, (वर्णन) उस पद्मनाभ राजा के अन्तःपुर में सौ रानियाँ थीं। उसके पुत्र का नाम सुनाभ था । वह युवराज भी था । उस समय पद्मनाभ राजा अन्तःपुर में रानियों के साथ उत्तम सिंहासन पर बैठा था। तत्पश्चात् कच्छुल्ल नादर जहाँ अमरकंका राजधानी थी और जहाँ राजा पद्मनाभ का भवन था, वहाँ आए। पद्मनाभ राजा के भवन में वेगपूर्वक शीघ्रता के साथ ऊतरे । उस समय पद्मनाभ राजा ने कच्छुल्ल नारद को आता देखा । देखकर वह आसन से उठा । उठकर अर्ध्य से उनकी पूजा की यावत् आसन पर बैठने के लिए उन्हें आमंत्रित किया । तत्पश्चात् कच्छुल्ल नारद ने जल से छिड़काव किया, फिर दर्भ बिछाकर उस पर आसन बिछाया और फिर वे उस आसन पर बैठे । यावत् कुशल-समाचार पूछे । इसके बाद पद्मनाभ राजा ने अपनी रानियों में विस्मित होकर कच्छल्ल नारद से प्रश्न किया-'देवानप्रिय ! आप बहत-से ग्रामों यावत गहों में प्रवेश करते हो, तो देवानुप्रिय ! जैसा मेरा अन्तःपुर है, वैसा अन्तःपुर आपने पहले कभी कहीं देखा है ? तत्पश्चात् राजा पद्मनाभ के इस प्रकार कहने पर कच्छुल्ल नारद थोड़ा मुस्कराए । मुस्करा कर बोले'पद्मनाभ! तुम कुएं के उस मेंढ़क सदृश हो ।' देवानुप्रिय ! कौन-सा वह कुएं का मेंढ़क ? मल्ली अध्ययन समान कहना । 'देवानुप्रिय ! जम्बूद्वीप में, भरतवर्ष में, हस्तिनापुर नगर में द्रुपद राजा की पुत्री, चुलनी देवी की आत्मजा, पाण्डु राजा की पुत्रवधू और पाँच पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी देवी रूप से यावत् लावण्य से उत्कृष्ट है, उत्कृष्ट शरीर वाली है । तुम्हारा यह सारा अन्तःपुर द्रौपदी के कटे हुए पैर के अंगूठे की सौंवी कला की भी बराबरी नहीं कर सकता ।' इस प्रकार कहकर नारद ने पद्मनाभ से जाने की अनुमति ली । यावत् चल दिए । तत्पश्चात् पद्मनाभ राजा, कच्छुल्ल नारद से यह अर्थ सूनकर और समझकर द्रौपदी देवी के रूप, यौवन और लावण्य में मुग्ध हो गया, गृद्ध हो गया, लुब्ध हो गया और (उसे पाने के लिए) आग्रहवान हो गया । वह पौषधशाला में पहुँचा । पौषधशाला को यावत् उस पहले के साथी देव से कहा-'देवानुप्रिय ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भरतवर्ष में, हस्तिनापुर नगर में, यावत् द्रौपदी देवी उत्कृष्ट शरीर वाली है । देवानुप्रिय ! मैं चाहता हूँ कि द्रौपदी देवी यहाँ ले आई जाए।' तत्पश्चात् पूर्वसंगतिक देव ने पद्मनाभ से कहा-'देवानुप्रिय ! यह कभी हुआ नहीं, होता नहीं और होगा भी नहीं कि द्रौपदी देवी पाँच पाण्डवों को छोड़कर दूसरे पुरुष के साथ मानवीय उदार कामभोग भोगती हुई विचरेगी। तथापि मैं तुम्हारा प्रिय करने के लिए द्रौपदी देवी को अभी यहाँ ले आता हूँ।' इस प्रकार कहकर देव ने पद्मनाभ से पूछा । पूछकर वह उत्कृष्ट देव-गति से लवणसमुद्र के मध्य में होकर जिधर हस्तिनापुर नगर था, उधर ही गमन करने के लिए उद्यत हुआ । उस काल और उस समय में, हस्तिनापुर नगर में युधिष्ठिर राजा द्रौपदी देवी के साथ महल की छत पर सुख से सोया हुआ था । उस समय वह पूर्वसंगतिक देव जहाँ युधिष्ठिर राजा था और जहाँ द्रौपदी देवी थी, वहाँ पहुँचकर उसने द्रौपदी देवी को अवस्वापिनी निद्रा दी-द्रौपदी देवी को ग्रहण करके, देवोचित उत्कृष्ट मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 130 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक गति से अमरकंका राजधानी में पद्मनाभ के भवन में आ पहुँचा । पद्मनाभ के भवन में, अशोकवाटिका में, द्रौपदी देवी को रख दिया । अवस्वापिनी विद्या का संहरण किया । जहाँ पद्मनाभ था, वहाँ आकर इस प्रकार बोला'देवानुप्रिय ! मैं हस्तिनापुर से द्रौपदी देवी को शीघ्र ही यहाँ ले आया हूँ । वह तुम्हारी अशोकवाटिका में है । इससे आगे तुम जानो । इतना कहकर वह देव जिस ओर से आया था उसी ओर लौट गया। थोड़ी देर में जब द्रौपदी देवी की निद्रा भंग हुई तो वह अशोकवाटिका को पहचान न सकी । तब मन ही मन कहने लगी- यह भवन मेरा अपना नहीं है, वह अशोकवाटिका मेरी अपनी नहीं है । न जाने किस देव ने, दानव ने, किंपुरुष ने, किन्नर ने, महोरग ने, या गन्धर्व ने किसी दूसरे राजा की अशोकवाटिका में मेरा संहरण किया है।' इस प्रकार विचार करके वह भग्न-मनोरथ होकर यावत् चिन्ता करने लगी । तदनन्तर राजा पद्मनाभ स्नान करके, यावत् सब अलंकारों से विभूषित होकर तथा अन्तःपुर के परिवार से परिवृत्त होकर, जहाँ अशोकवाटिका थी और जहाँ द्रौपदी देवी थी, वहाँ आया । उसने द्रौपदी देवी को भग्नमनोरथ एवं चिन्ता करती देखकर कहा-तुम भग्नमनोरथ होकर चिन्ता क्यों कर रही हो ? देवानुप्रिये ! मेरा पूर्वसांगतिक देव जम्बूद्वीप से, भारतवर्ष से, हस्तिनापुर नगर से और युधिष्ठिर राजा के भवन से संहरण करके तुम्हें यहाँ ले आया है । अत एव तुम हतमनःसंकल्प होकर चिन्ता मत करो । तुम मेरे साथ विपुल भोग भोगती हुई रहो। तब द्रौपदी ने पद्मनाभ से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! जम्बूद्वीप में, भारतवर्ष में द्वारवती नगरी में कृष्ण नामक वासुदेव मेरे स्वामी के भ्राता रहते हैं । सो यदि छह महीनों तक वे मुझे छुड़ाने के लिए यहाँ नहीं आएंगे तो मैं, हे देवानुप्रिय ! तुम्हारी आज्ञा, उपाय, वचन और निर्देश में रहूँगी ।' तब पद्मनाभ राजा ने द्रौपदी का कथन अंगीकार किया । द्रौपदी देवी को कन्याओं के अन्तःपुर में रख दिया । तत्पश्चात् द्रौपदी देवी निरन्तर षष्ठभक्त और पारणा में आयंबिल के तपःकर्म से आत्मा को भावित करती हुई विचरने लगी। सूत्र-१७६ इधर द्रौपदी का हरण हो जाने के पश्चात् थोड़ी देर में युधिष्ठिर राजा जागे । वे द्रौपदी देवी को अपने पास न देखते हुए शय्या से उठे । सब तरफ द्रौपदी देवी की मार्गणा करने लगे । किन्तु द्रौपदी देवी की कहीं भी श्रुति, क्षुति या प्रवृत्ति न पाकर जहाँ पाण्डु राजा थे वहाँ पहुँचे । वहाँ पहुँचकर पाण्डु राजा से इस प्रकार बोले-हे तात ! मैं आकाशतल पर सो रहा था । मेरे पास से द्रौपदीदेवी को न जाने कौन देव, दानव, किन्नर, महोरग अथवा गंधर्व हरण कर गया, ले गया या खींच गया । तो हे तात ! मैं चाहता हूँ कि द्रौपदी देवी की सब तरफ मार्गणा की जाए। तत्पश्चात् पाण्डु राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर यह आदेश दिया- देवानुप्रियो ! हस्तिनापुर नगर में शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, महापथ और पथ आदि में जोर-जोर के शब्दों से घोषणा करते-करते इस प्रकार कहो-हे देवानुप्रियो ! आकाशतल पर सुख से सोये हुए युधिष्ठिर राजा के पास से द्रौपदी देवी को न जाने किस देव, दानव, किंपुरुष, किन्नर, महोरग या गंधर्व देवता ने हरण किया है, या खींच ले गया है ? तो हे देवानुप्रियो ! जो कोई द्रौपदी देवी की श्रुति, क्षुति या प्रवृत्ति बताएगा, उस मनुष्य को पाण्डु राजा विपुल सम्पदा का दान देंगे-ईनाम देंगे। इस प्रकार की घोषणा करो । घोषणा करके मेरी यह आज्ञा वापिस लौटाओ। तब कौटुम्बिक पुरुषों ने उसी प्रकार घोषणा करके यावत् आज्ञा वापिस लौटाई । पूर्वोक्त घोषणा कराने के पश्चात् भी पाण्डु राजा द्रौपदी देवी की भी श्रुति यावत् समाचार न पा सके तो कुन्ती देवी को बुलाकर इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिये ! तुम द्वारवती नगरी जाओ और कष्ण वासदेव को यह अर्थ निवेदन करो। कष्ण वासदेव ही द्रौपदी देवी की मार्गणा करेंगे, अन्यथा द्रौपदी देवी की श्रुति, क्षुति या प्रवृत्ति अपने को ज्ञात हो, ऐसा नहीं जान पड़ता। पाण्डु राजा के द्वारका जाने के लिए कहने पर कुन्ती देवी ने उनकी बात यावत् स्वीकार की । वह नहाधोकर बलिकर्म करके, हाथी के स्कंध पर आरूढ़ होकर हस्तिनापुर नगर के मध्य में होकर नीकली । नीकलकर कुरु देश के बीचोंबीच होकर जहाँ सुराष्ट्र जनपद था, जहाँ द्वारवती नगरी थी और नगर के बाहर श्रेष्ठ उद्यान था, वहाँ आई । हाथी के स्कंध से नीचे ऊतरी । कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनसे इस प्रकार कहा-'देवानुप्रियो ! मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 131 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक तुम जहाँ द्वारका नगरी है वहाँ जाओ, द्वारका नगरी के भीतर प्रवेश करके कृष्ण वासुदेव को दोनो हाथ जोड़कर, मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार कहना-'हे स्वामिन् ! आपके पिता की बहन कुन्ती देवी हस्तिनापुर नगर से यहाँ आ पहुँची है और तुम्हारे दर्शन की ईच्छा करती है-तुमसे मिलना चाहती है ।' तब कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् कृष्ण वासुदेव के पास जाकर कुन्ती देवी के आगमन का समाचार कहा । कृष्ण वासुदेव कौटुम्बिक पुरुषों के पास से कुन्ती देवी के आगमन का समाचार सूनकर हर्षित और सन्तुष्ट हुए । हाथी के स्कंध पर आरूढ़ होकर द्वारवती नगरी के मध्यभाग में होकर जहाँ कुन्ती देवी थी, वहाँ आए, हाथी के स्कंध से नीचे ऊतरकर उन्होंने कुन्ती देवी के चरण ग्रहण किए । फिर कुन्ती देवी के साथ हाथी पर आरूढ़ होकर द्वारवती नगरी के मध्य भाग में होकर यावत् अपने महल में प्रवेश किया। कन्ती देवी जब स्नान करके, बलिकर्म करके और भोजन कर चुकने के पश्चात सुखासन पर बैठी, तब कष्ण वासदेव ने इस प्रकार कहा-'हे पितभगिनी ! कहिए, आपके यहाँ आने का क्या प्रयोजन है?' तब कन्ती देवी ने कृष्णवासुदेव से इस प्रकार कहा-'हे पुत्र! हस्तिनापुर नगर में युधिष्ठिर आकाशतल पर सुख से सो रहा था। उसके पास से द्रौपदीदेवी को न जाने कौन अपहरण कर ले गया, अथवा खींच ले गया। अत एव हे पुत्र ! मैं चाहती हूँ कि द्रौपदीदेवी की मार्गणा-गवेषणा करो।' तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने अपनी पितृभगिनी कुन्ती से कहा -अगर मैं कहीं भी द्रौपदी देवी की श्रुति यावत् पाऊं, तो मैं पाताल से, भवन में से या अर्धभरत में से, सभी जगह से, हाथों-हाथ ले आऊंगा।' इस प्रकार कहकर उन्होंने कुन्ती का सत्कार किया, सम्मान किया, यावत् बिदा किया। कृष्ण वासुदेव से यह आश्वासन पाने के पश्चात् कुन्ती देवी, उनसे बिदा होकर जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा में लौट गई । कुन्ती देवी के लौट जाने पर कृष्ण वासुदेव ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया । उनसे कहा- 'देवानुप्रियो ! तुम द्वारका में जाओ' इत्यादि कहकर द्रौपदी के विषय में घोषणा करने का आदेश दिया । जैसे पाण्डु राजा ने घोषणा करवाई थी, उसी प्रकार कृष्ण वासुदेव ने भी करवाई । यावत् उनकी आज्ञा कौटुम्बिक पुरुषों ने वापिस की। किसी समय कृष्ण वासुदेव अन्तःपुर के अन्दर रानियों के साथ रहे हए थे। उसी समय वह कच्छुल्ल नारद यावत् आकाश से नीचे ऊतरे । यावत् कृष्ण वासुदेव के निकट जाकर पूर्वोक्त रीति से आसन पर बैठकर कृष्ण वासुदेव से कुशल वृत्तान्त पूछने लगे। तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने कच्छुल्ल नारद से कहा-'देवानुप्रिय ! तुम बहुत-से ग्रामों, आकरों, नगरों आदि में प्रवेश करते हो, तो किसी जगह द्रौपदी की श्रुति आदि कुछ मिली है ? तब कच्छुल्ल नारद ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! एक बार मैं धातकीखण्ड द्वीप में, पूर्व दिशा के दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र में अमरकंका नामक राजधानी में गया था । वहाँ मैंने पद्मनाभ राजा के भवन में द्रौपदी देवी जैसी देखी थी ।' तब कृष्ण वासुदेव ने कच्छुल्ल नारद से कहा-'देवानुप्रिय ! यह तुम्हारी ही करतूत जान पड़ती है ।' कृष्ण वासुदेव के द्वारा इस प्रकार कहने पर कच्छुल्ल नारद ने उत्पतनी विद्या का स्मरण किया । स्मरण करके जिस दिशा से आए थे उसी दिशा में चल दिए । तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने दूत को बुलाकर उससे कहा-'देवानुप्रिय ! तुम जाओ और पाण्डु राजा को यह अर्थ निवेदन करो-'हे देवानुप्रिय ! धातकीखण्ड द्वीप में पूर्वार्ध भाग में, अमरकंका राजधानी में, पद्मनाभ राजा के भवन में द्रौपदी देवी का पता लगा है। अत एव पाँचों पाण्डव चतुरंगिणी सेना से परिवृत्त होकर रवाना हों और पूर्व दिशा के वेतालिक के किनारे मेरी प्रतीक्षा करें।' तत्पश्चात् दूत ने जाकर यावत् कृष्ण के कथनानुसार पाण्डवों से प्रतीक्षा करने को कहा । तब पाँचों पाण्डव वहाँ जाकर यावत् कृष्ण वासुदेव की प्रतीक्षा करने लगे । तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा-'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और सान्नाहिक भेरी बजाओ ।' यह सूनकर कौटुम्बिक पुरुषों ने सामरिक भेरी बजाई । सान्नाहिक भेरी की ध्वनि सूनकर समुद्रविजय आदि दस दसार यावत् छप्पन हजार बलवान् योद्धा कवच पहनकर, तैयार होकर, आयुध और प्रहरण ग्रहण करके कोई-कोई घोड़ों पर सवार होकर, कोई हाथी आदि पर सवार होकर, सुभटों के समूह के साथ जहाँ कृष्ण वासुदेव की सुधर्मा सभा थी और जहाँ कृष्ण वासुदेव थे वहाँ मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 132 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक आए । आकर हाथ जोड़कर यावत् उनका अभिनन्दन किया। तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर आरूढ़ हुए । कोरंट वृक्ष के फूलों की मालाओं से युक्त छत्र उनके मस्तक के ऊपर धारण किया गया । दोनों पार्यों में उत्तम श्वेत चामर ढोरे जाने लगे । वे बड़े-बड़े अश्वों, गजों, रथों और उत्तम पदाति-योद्धाओं की चतुरंगिणी सेना और अन्य सुभटों के समूहों से परिवृत्त होकर द्वारका नगरी के मध्य भाग में होकर नीकले । जहाँ पूर्व दिशा का वेतालिक था, वहाँ आए । वहाँ आकर पाँच पाण्डवों के साथ इकट्ठे हुए (मिले) फिर पड़ाव डालकर पौषधशाला में प्रवेश किया । प्रवेश करके सुस्थित देव का मन में पुनः पुनः चिन्तन करते हुए स्थित हुए । तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव का अष्टमभक्त पूरा होने पर सुस्थित देव यावत् उनके समीप आया । उसने कहा-'देवानुप्रिय ! कहिए मुझे क्या करना है ?' तब कृष्ण वासुदेव ने सुस्थित देव से कहा-'देवानुप्रिय ! द्रौपदी देवी यावत् पद्मनाभ राजा के भवन में हरण की गई है, अत एव तुम हे देवानुप्रिय ! पाँच पाण्डवों सहित छठे मेरे छ रथों को लवणसमुद्रमें मार्ग दो, जिससे मैं अमरकंका राजधानीमें द्रौपदीदेवी को वापस लाने के लिए जाऊं।' तत्पश्चात् सुस्थित देव ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! जैसे पद्मनाभ राजा के पूर्व सांगतिक देव ने द्रौपदी देवी का संहरण किया, उसी प्रकार क्या मैं द्रौपदी देवी को धातकीखण्ड द्वीप के भरत क्षेत्र से यावत् अमरकंका राजधानी में स्थित पद्मनाभ राजा के भवन से हस्तिनापुर ले जाऊं? अथवा पद्मनाभ राजा को उसके नगर, सैन्य और वाहनों के साथ लवणसमुद्र में फैंक दूं?' तब कृष्ण वासुदेव ने सुस्थित देव से कहा-'देवानुप्रिय ! तुम यावत् संहरण मत करो । देवानुप्रिय ! तुम तो पाँच पाण्डवों सहित छठे हमारे छह रथों को लवणसमुद्र में जाने का मार्ग दे दो । मैं स्वयं ही द्रौपदी देवी को वापिस लाने के लिए जाऊंगा ।' तब सुस्थित देव ने कृष्ण वासुदेव से कहा- ऐसा ही हो-तथास्तु ।' ऐसा कहकर उसने पाँच पाण्डवों सहित छह रथों को लवणसमुद्र में मार्ग प्रदान किया। तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने चतुरंगिणी सेना को बिदा करके पाँच पाण्डवों के साथ छठे आप स्वयं छह रथों में बैठ कर लवणसमुद्र के मध्यभाग में होकर जाने लगे । जाते-जाते जहाँ अमरकंका राजधानी थी और जहाँ अमरकंका का प्रधान उद्यान था, वहाँ पहुँचे । पहुँचने के बाद रथ रोका और दारुक नामक सारथि को बुलाया । उसे बुलाकर कहा- देवानप्रिय ! त जा और अमरकंका राजधानी में प्रवेश करके पद्मनाभ राजा के समीप जाकर उसके पादपीठ को अपने बाँये पैर से आक्रान्त करके-ठोकर मार करके भाले की नोंक द्वारा यह पत्र देना । फिर कपाल पर तीन बल वाली भकटि चढाकर, आँखें लाल करके, रुष्ट होकर, क्रोध करके, कुपित होकर और प्रचण्ड रूप धारण कर कहना-'अरे पद्मनाभ ! मौत की कामना करने वाले ! अनन्त कुलक्षणों वाले ! पुण्यहीन ! चतुर्दशी के दिन जन्मे हुए श्री, लज्जा और बुद्धि से हीन ! आज तू नहीं बचेगा । क्या तू नहीं जानता कि तू कृष्ण वासुदेव की भगिनी द्रौपदी देवी को यहाँ ले आया है ? खैर, जो हुआ सो हुआ, अब भी तू द्रौपदी देवी कृष्ण वासुदेव को लौटा दे अथवा युद्ध के लिए तैयार होकर बाहर नीकल । कृष्ण वासुदेव पाँच पाण्डवों के साथ छठे आप द्रौपदी देवी को वापिस छीनने के लिए अभी-अभी यहाँ आ पहुँचे हैं।' तत्पश्चात् वह दारुक सारथि कृष्ण वासुदेव के इस प्रकार कहने पर हर्षित और संतुष्ट हुआ । यावत् उसने यह आदेश अंगीकार किया । अमरकंका राजधानीमें प्रवेश किया । पद्मनाभ के पास गया । वहाँ जाकर दोनों हाथ जोड़कर यावत् अभिनन्दन किया और कहा-'स्वामिन् ! मेरी अपनी विनय-प्रतिपत्ति है। मेरे स्वामी के मुख से कही हुई आज्ञा दूसरी है । वह यह है । इस प्रकार कहकर उसने नेत्र लाल करके क्रुद्ध होकर अपने वाम पैर से उसके पादपीठ को आक्रान्त किया । भाले की नोंक से लेख दिया । फिर कृष्णवासुदेव का समस्त आदेश कह सूनाया, यावत् वे स्वयं द्रौपदी वापिस लेने के लिए आ पहुँचे हैं । तत्पश्चात् पद्मनाभने दारुक सारथि के इस प्रकार कहने पर नेत्र लाल करके क्रोध से कपाल पर तीन सलवाली भृकुटि चढ़ाकर कहा-'देवानुप्रिय ! मैं कृष्ण वासुदेव को द्रौपदी वापिस नहीं दूंगा। मैं स्वयं युद्ध के लिए सज्ज होकर नीकलता हूँ।' ऐसा कहकर फिर सारथि से कहा-'हे दूत ! राजनीति में दूत अवध्य है।' ऐसा कहकर सत्कार-सम्मान न करके अपमान करके, पीछले द्वार से नीकाल दिया। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 133 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक वह दारुक सारथि पद्मनाभ राजा के द्वारा असत्कृत हुआ, यावत् पीछले द्वार से नीकाल दिया गया, तब कृष्ण वासुदेव के पास पहुँचा । दोनों हाथ जोड़कर कृष्ण वासुदेव से यावत् बोला-'स्वामिन् ! मैं आपके वचन से राजा पद्मनाभ के पास गया था, इत्यादि पूर्ववत; यावत् उसने मुझे पीछले द्वार से नीकाल दिया ।' कृष्ण वासुदेव के दूत को नीकलवा देने के पश्चात् इधर पद्मनाभ राजा ने सेनापति को बुलाया और उससे कहा-'देवानुप्रिय ! अभिषेक किए हुए हस्तिरत्न को तैयार करके लाओ।' यह आदेश सूनकर कुशल आचार्य के उपदेश से उत्पन्न हुई बुद्धि की कल्पना के विकल्पों से निपुण पुरुषों ने अभिषेक किया हुआ हस्ति उपस्थित किया । वह उज्ज्वल वेष से परिवृत्त था, सुसज्जित था । पद्मनाभ राजा कवच आदि धारण करके सज्जित हुआ, यावत् अभिषेक किये पर सवार हआ । सवार होकर अश्नों. हाथियों आदि की चतरंगिणी सेना के साथ वहाँ जाने को उद्यत हआ जहाँ वासुदेव कृष्ण थे। तत्पश्चात् वासुदेव ने पद्मनाभ राजा को आता देखा । वह पाँचों पाण्डवों से बोले-'अरे बालकों ! तुम पद्मनाभ के साथ युद्ध करोगे या युद्ध देखोगे ?' तब पाँच पाण्डवों ने कृष्ण वासुदेव से कहा-'स्वामिन् ! हम युद्ध करेंगे और आप हमारा युद्ध देखिए । तत्पश्चात् पाँचों पाण्डव तैयार होकर यावत् शस्त्र लेकर रथ पर सवार हुए और जहाँ पद्मनाभ था, वहाँ पहुँचे । 'आज हम हैं या पद्मनाभ राजा है ।' ऐसा कहकर वे युद्ध करने में जुट गए । तत्पश्चात् पद्मनाभ राजा ने उन पाँचों पाण्डवों पर शीघ्र ही शस्त्र से प्रहार किया, उनके अहंकार को मथ डाला और उनकी उत्तम चिह्न से चिह्नित पताका गिरा दी । मुश्किल से उनके प्राणों की रक्षा हुई । उसने उन्हें इधर-उधर भगा दिया । तब वे पाँचों पाण्डव पद्मनाभ राजा द्वारा शस्त्र से आहत, मथित अहंकार वाले और पतित पताका वाले होकर यावत् पद्मनाभ के द्वारा भगाए हुए, शत्रुसेना का निराकरण करने में असमर्थ होकर, वासुदेव कृष्ण के पास आए । तब वासुदेव कृष्ण ने पाँचों पाण्डवों से कहा-'देवानुप्रियो ! तुम लोग पद्मनाभ राजा के साथ किस प्रकार से युद्ध में संलग्न हुए थे ?' तब पाँचों पाण्डवों ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! हम आपकी आज्ञा पाकर सुसज्जित होकर रथ पर आरूढ़ हुए | आरूढ़ होकर पद्मनाभ के सामने गये; इत्यादि सब पूर्ववत् यावत् उसने हमें भगा दिया। पाण्डवों का उत्तर सूनकर कृष्ण वासुदेव ने पाँचों पाण्डवों से कहा-देवानुप्रियो ! अगर तुम ऐसा बोले होते कि हम हैं, पद्मनाभ राजा नहीं और ऐसा कहकर पद्मनाभ के साथ युद्ध में जूटते तो पद्मनाभ राजा तुम्हारा हनन नहीं कर सकता था । हे देवानुप्रियो ! अब तुम देखना । 'मै हूँ, पद्मनाभ राजा नहीं इस प्रकार कहकर मैं पद्मनाभ के साथ युद्ध करता हूँ। इसके बाद कृष्ण वासुदेव रथ पर आरूढ़ हुए । पद्मनाभ राजा के पास पहुँचे । उन्होंने श्वेत, गाय के दूध और मोतियों के हार के समान उज्ज्वल, मल्लिका के फूल, मालती-कुसुम, सिन्दुवार-पुष्प, कुन्दपुष्प और चन्द्रमा के समान श्वेत, अपनी सेना को हर्ष उत्पन्न करने वाला पाञ्चजन्य शंख हाथ में लिया और मुख की वायु से उसे पूर्ण किया । उस शंख के शब्द से पद्मनाभ की सेना का तिहाई भाग हत हो गया, यावत् दिशा-दिशा में भाग गया । उसके बाद कृष्ण वासुदेव ने सारंग नामक धनुष हाथ में लिया । धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई। टंकार की । तब पद्मनाभ की सेना का दूसरा तिहाई भाग उस धनुष की टंकार से हत-मथित हो गया यावत् इधर-उधर भाग छूटा । तब पद्मनाभ की सेना का एक तिहाई भाग ही शेष रह गया । अत एव पद्मनाभ सामर्थ्यहीन, बलहीन, वीर्य हीन और पुरुषार्थ-पराक्रम से हीन हो गया । वह कृष्ण के प्रहार को सहन करने या निवारण करने में असमर्थ होकर शीघ्रतापूर्वक, त्वरा के साथ, अमरकंका राजधानी में जा घूसा । उसने अमरकंका राजधानी के द्वार बन्द करके वह नगररोध के लिए सज्ज होकर स्थित हो गया। तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव जहाँ अमरकंका राजधानी थी, वहाँ गए । रथ ठहराया । नीचे ऊतरे । वैक्रियसमुद्घात से समवहत हुए । समुद्घात करके उन्होंने एक महान् नरसिंह का रूप धारण किया । फिर जोर-जोर के शब्द करके पैरों का आस्फालन किया । कृष्ण वासुदेव के जोर-जोर की गर्जना के साथ पैर पछाड़ने से अमरकंका राजधानी के प्रकार गोपुर अट्टालिका चरिका और तोरण गिर गए और श्रेष्ठ महल तथा श्रीगृह चारों ओर से तहस मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 134 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक नहस होकर सरसराट करके धरती पर आ पड़े। तत्पश्चात् पद्मनाभ राजा अमरकंका राजधानी को पूर्वोक्त प्रकार से बूरी तरह भग्न हई जानकर भयभीत होकर द्रौपदी देवी की शरण में गया । तब द्रौपदी देवी ने पद्मनाभ राजा से कहा-देवानुप्रिय ! क्या तुम नहीं जानते कि पुरुषोत्तम कृष्ण वासुदेव का विप्रिय करते हुए तुम मुझे यहाँ लाए हो ? किन्तु जो हुआ सो हुआ । अब देवानुप्रिय ! तुम जाओ, स्नान करो । पहनने और ओढ़ने के वस्त्र धारण करो । पहने हुए वस्त्र का छोर नीचा रखो । अन्तःपुर की रानियों आदि परिवार को साथ में ले लो । प्रधान और श्रेष्ठ रत्न भेंट के लिए लो । मुझे आगे कर लो । इस प्रकार चलकर कृष्ण वासुदेव को दोनों हाथ जोड़कर उनके पैरों में गिरो और उनकी शरण ग्रहण करो । उत्तम पुरुष प्रणिपतित होते हैंउस समय पद्मनाभ ने द्रौपदी देवी के इस अर्थ को अंगीकार किया । द्रौपदी देवी के कथनानुसार स्नान ण वासदेव की शरण में गया। दोनों हाथ जोडकर इस प्रकार कहने लगा- मैंने आप देवानप्रिय की ऋद्धि देख ली, पराक्रम देख लिया । हे देवानुप्रिय ! मैं क्षमा की प्रार्थना करता हूँ, आप यावत् क्षमा करें । यावत् मैं पुनः ऐसा नहीं करूँगा।' इस प्रकार कहकर उसने हाथ जोड़े। पैरों में गिरा । उसने अपने हाथों द्रौपदी देवी सौंपी। तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने पद्मनाभ से इस प्रकार कहा-'अरे पद्मनाभ ! अप्रार्थित की प्रार्थना करने वाले ! क्या तू नहीं जानता था कि तू मेरी भगिनी द्रौपदी देवी को जल्दी से यहाँ ले आया है ? ऐसा होने पर भी, अब तुझे मुझसे भय नहीं है!' इस प्रकार कहकर पद्मनाभ को छुट्टी दी । द्रौपदी को ग्रहण किया और रथ पर आरूढ़ हए । पाँचों पाण्डवों के समीप आए । द्रौपदी देवी को हाथों-हाथ पाँचों पाण्डवों को सौंप दिया । तत्पश्चात् पाँचों पाण्डवों के साथ, छठे आप स्वयं कृष्ण वासुदेव छह रथों में बैठकर, लवणसमुद्र के बीचोंबीच होकर जिधर जम्बूद्वीप था और जिधर भारतवर्ष था उधर जाने को उद्यत हुए। सूत्र - १७७ उस काल उस समयमें, धातकीखण्ड द्वीप में, पूर्वार्ध भाग के भरतक्षेत्रमें, चम्पा नामक नगरी थी । पूर्णभद्र चैत्य था । उसमें कपिल वासुदेव राजा था । वह महान हिमवान पर्वत समान महान था । उस काल और उस समय में मुनिसुव्रत अरिहंत चम्पा नगरी के पूर्णभद्र चैत्य में पधारे । कपिल वासुदेव ने उनसे धर्मोपदेश श्रवण किया । उसी समय मुनिसुव्रत से धर्म श्रवण करते-करते कपिल वासुदेवने कृष्ण वासुदेव के पाँचजन्य शंख का शब्द सूना । तब कपिल वासुदेव के चित्त में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ- क्या धातकीखण्ड द्वीप में भारत वर्ष में दूसरा वासुदेव उत्पन्न हो गया है ? जिसके शंख का शब्द ऐसा फैल रहा है, जैसे मेरे मुख की वायु से पूरित हुआ हो कपिल वासुदेव' इस प्रकार से सम्बोधित करके मुनिसुव्रत अरिहंत ने कपिल वासुदेव से कहा-मेरे धर्म श्रवण करते हुए तुम्हें यह विचार आया है कि-'क्या इस भरतक्षेत्र में दूसरा वासुदेव उत्पन्न हो गया है, जिसके शंक का यह शब्द फैल रहा है आदि; हे कपिल वासुदेव ! मेरा यह अर्थ सत्य है ? 'हाँ, सत्य है !' मुनिसुव्रत अरिहंत ने पुनः कहा-'कपिल वासुदेव ! ऐसा कभी हुआ नहीं, होता नहीं और होगा नहीं कि एक क्षेत्र में एक ही युग में और एक ही समय में दो तीर्थंकर, दो चक्रवर्ती, दो बलदेव अथवा दो वासुदेव उत्पन्न हुए हों, उत्पन्न होते हों या उत्पन्न होंगे । हे वासुदेव ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप से, भरतक्षेत्र से, हस्तिनापुर नगर से पाण्डु राजा की पुत्रवधू और पाँच पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी देवी को तुम्हारे पद्मनाभ राजा का पहले का साथी देव हरण करके ले आया था । तब कृष्ण वासुदेव पाँच पाण्डवों समेत आप स्वयं छठे द्रौपदी देवी को वापिस छीनने के लिए शीघ्र आए हैं । वह पद्मनाभ राजा के साथ संग्राम कर रहे हैं । अतः कृष्ण वासुदेव के शंख का यह शब्द है, जो ऐसा जान पड़ता है कि तुम्हारे मुख की वायु से पूरित किया गया हो और जो इष्ट है, कान्त है, और यहाँ तुम्हें सुनाई दिया है।' त कपिल वासुदेव ने मुनिसुव्रत तीर्थंकर को वन्दना की, नमस्कार किया । 'भगवन ! मैं जाऊं और पुरुषोत्तम कृष्ण वासुदेव को देखू उनके दर्शन करूँ ।' तब मुनिसुव्रत अरिहंत ने कपिल वासुदेव से कहा-'देवानुप्रिय ! ऐसा हुआ नहीं, होता नहीं और होगा भी नहीं कि एक तीर्थंकर दूसरे तीर्थंकर को देखें, एक चक्रवर्ती दूसरे चक्रवर्ती को देखें, एक बलदेव दूसरे बलदेव को देखें और एक वासुदेव दूसरे वासुदेव को देखें । तब भी तुम लवण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 135 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक समुद्र के मध्यभाग में होकर जाते हुए कृष्ण वासुदेव के श्वेत एवं पीत ध्वजा के अग्रभाग को देख सकोगे ।' तत्पश्चात् कपिल वासुदेव ने मुनिसुव्रत तीर्थंकर को वन्दन और नमस्कार किया । वह हाथी के स्कंध पर आरूढ़ हुए। जल्दी-जल्दी जहाँ वेलाकूल था, वहाँ आए । वहाँ आकर लवणसमुद्र के मध्य में होकर जाते हुए कृष्ण वासुदेव की श्वेत-पीत ध्वजा का अग्रभाग देखा । 'यह मेरे समान पुरुष है, यह पुरुषोत्तम कृष्ण वासुदेव हैं, लवणसमुद्र के मध्य में होकर जा रहे हैं । ऐसा कहकर कपिल वासुदेव ने अपना पाञ्चजन्य शंख हाथ में लिया और उसे अपने मुख की वायु से पूरित किया-फूंका । तब कृष्ण वासुदेव ने कपिल वासुदेव के शंख का शब्द सूना । उन्होंने भी अपने पाञ्चजन्य को यावत् मुख की वायु से पूरित किया । उस समय दोनों वासुदेवों ने शंख की समाचारी की । तत्पश्चात् कपिल वासुदेव जहाँ अमरकंका राजधानी थी, वहाँ आए । आकर उन्होंने देखा कि अमरकंका के तोरण आदि टूट-फूट गए हैं । यह देखकर उन्होंने पद्मनाभ से पूछा-'देवानुप्रिय ! अमरकंका के तोरण आदि भग्न होकर क्यों पड़ गए हैं ?' तब पद्मनाभ ने कपिल वासुदेव से इस प्रकार कहा-'स्वामिन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप से, भारतवर्ष से, यहाँ एकदम आकर कृष्ण वासुदेव ने, आपका पराभव करके, आपका अपमान करके, अमरकंका को यावत गिरा दिया है। तत्पश्चात् कपिल वासुदेव, पद्मनाभ से उत्तर सूनकर पद्मनाभ से बोले-'अरे पद्मनाभ ! अप्रार्थित की प्रार्थना करने वाले ! क्या तू नहीं जानता कि तूने मेरे समान पुरुष कृष्ण वासुदेव का अनिष्ट किया है ?' इस प्रकार कहकर वह क्रुद्ध हए, यावत् पद्मनाभ को देश-निर्वासन की आज्ञा दे दी। पद्मनाभ के पत्र को अमरकंका राजधानी में महान राज्याभिषेक से अभिषिक्त किया । यावत् कपिल वासुदेव वापिस चले गए। सूत्र-१७८ इधर कृष्ण वासुदेव लवणसमुद्र के मध्य भाग से जाते हए गंगा नदी के पास आए । तब उन्होंने पाँच पाण्डवों से कहा- देवानप्रियो ! तम लोग जाओ । जब तक गंगा महानदी को उतरो, तब तक मैं ल अधिपति सुस्थित देव से मिल लेता हूँ। तब वे पाँचों पाण्डव, कृष्ण वासुदेव के ऐसा कहने पर जहाँ गंगा महानदी थी, वहाँ आए । आकर एक नौका की खोज की। खोज कर उस नौका से गंगा महानदी उतरे । परस्पर इस प्रकार कहने लगे-'देवानुप्रिय ! कृष्ण वासुदेव गंगा महानदी को अपनी भुजाओं से पार करने में समर्थ हैं अथवा नहीं हैं ? ऐसा कहकर उन्होंने वह नौका छिपा दी । छिपाकर कृष्ण वासुदेव की प्रतीक्षा करते हुए स्थित रहे । तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव लवणाधिपति सुस्थित देव से मिले । मिलकर जहाँ गंगा महानदी थी वहाँ आए । उन्होंने सब तरफ नौका की खोज की, पर खोज करने पर भी नौका दिखाई नहीं दी । तब उन्होंने अपनी एक भुजा से अश्व और सारथि सहित रथ ग्रहण किया और दूसरी भुजा से बासठ योजन और आधा योजन अर्थात् साढ़े बासठ योजन विस्तार वाली गंगा महानदी को पार करने के लिए उद्यत हए । कृष्ण वासुदेव जब गंगा महानदी के बीचोंबीच पहुँचे तो थक गए, नौका की ईच्छा करने लगे और बहुत खेदयुक्त हो गए। उन्हें पसीना आ गया। उस समय कृष्ण वासुदेव को इस प्रकार का विचार आया कि-' अहा ! पाँच पाण्डव बड़े बलवान् हैं, जिन्होंने साढ़े बासठ योजन विस्तार वाली गंगा महानदी अपने बाहुओं से पार कर ली ! पाँच पाण्डवों ने ईच्छा करके पद्मनाभ राजा को पराजित नहीं किया ।' तब गंगा देवी ने कृष्ण वासुदेव का ऐसा अध्यवसाय यावत् मनोगत संकल्प जानकर थाह दे दी। उस समय कृष्ण वासुदेव ने थोड़ी देर विश्राम किया । विश्राम लेने के बाद साढ़े बासठ योजन विस्तृत गंगा महानदी पार की । पार करके पाँच पाण्डवों के पास पहँचे । वहाँ पहँचकर पाँच पाण्डवों से बोले-'अहो देवानुप्रियो ! तुम लोग महाबलवान् हो, क्योंकि तुमने साढ़े बासठ योजन विस्तार वाली गंगा महानदी अपने बाहुबल से पार की है । तब तो तुम लोगोंने चाहकर ही पद्मनाभ को पराजित नहीं किया। तब कृष्ण वासुदेव के ऐसा कहने पर पाँच पाण्डवों ने कृष्ण वासुदेव से कहा-'देवानुप्रिय ! आपके द्वारा विसर्जित होकर हम लोग जहाँ गंगा महानदी थी, वहाँ आए । वहाँ आकर हमने नौका की खोज की । उस नौका से पार पहुंचकर आपके बल की परीक्षा करने के लिए हमने नौका छिपा दी। फिर आपकी प्रतीक्षा करते हुए हम यहाँ ठहरे हैं।' मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 136 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक पाँच पाण्डवों का यह अर्थ सूनकर और समझकर कृष्ण वासुदेव कुपित हो उठे । उनकी तीन सल वाली भृकुटि ललाट पर चढ़ गई । वह बोले-'ओह, जब मैंने दो लाख योजन विस्तीर्ण लवणसमुद्र को पार करके पद्मनाभ को हत और मथित करके, यावत् पराजित करके अमरकंका राजधानी को तहस-नहस किया और अपने हाथों से द्रौपदी लाकर तुम्हें सौंपी, तब तुम्हें मेरा माहात्म्य नहीं मालूम हुआ ! अब तुम मेरा माहात्म्य जान लोगे ! इस प्रकार कहकर उन्होंने हाथ में एक लोहदण्ड लिया और पाण्डवों के रथ को चूर-चूर कर दिया । उन्हें देशनिर्वासन की आज्ञा दी । फिर उस स्थान पर रथमर्दन नामक कोंट स्थापित किया-रथमर्दन तीर्थ की स्थापना कृष्ण वासुदेव अपनी सेना के पड़ाव में आए । आकर अपनी सेना के साथ मिल गए। उसके पश्चात् कृष्ण वासुदेव जहाँ द्वारका नगरी थी, वहाँ आकर द्वारका नगरी में प्रविष्ट हुए। सूत्र - १७९ तत्पश्चात् वे पाँचों पाण्डव हस्तिनापुर नगर आए । पाण्डु राजा के पास पहुंचे और हाथ जोड़कर बोले-'हे तात ! कृष्ण ने हमें देशनिर्वासन की आज्ञा दी है ।' तब पाण्डु राजा ने पाँच पाण्डवों से प्रश्न किया-'पुत्रों ! किस कारण वासुदेव ने तुम्हें देशनिर्वासन की आज्ञा दी ?' तब पाँच पाण्डवों ने पाण्डु राजा को उत्तर दिया-'तात ! हम लोग अमरकंका से लौटे और दो लाख योजन विस्तीर्ण लवणसमुद्र को पार कर चूके, तब कृष्ण वासुदेव ने हम से कहा-देवानुप्रियो ! तुम लोग चलो, गंगा महानदी पार करो यावत् मेरी प्रतीक्षा करते हुए ठहरना । तब तक मैं सुस्थित देव से मिलकर आता हूँ-इत्यादि पूर्ववत् कहना । हम लोग गंगा महानदी पार करके नौका छिपाकर उनकी राह देखत ठहरे । तदनन्तर कृष्ण वासुदेव लवणसमुद्र के अधिपति सुस्थित देव से मिलकर आए । इत्यादि पूर्ववत्केवल कृष्ण के मन में जो विचार उत्पन्न हुआ था, वह नहीं कहना । यावत् कुपित होकर उन्होंने हमें देशनिर्वासन की आज्ञा दे दी । तब पाण्डु राजा ते पाँच पाण्डवों से कहा-'पुत्रो ! तुमने कृष्ण वासुदेव का अप्रिय करके बूरा काम किया। तदनन्तर पाण्डु राजा ने कुन्ती देवी को बुलाकर कहा-'देवानुप्रिये ! तुम द्वारका जाओ और कृष्ण वासुदेव से निवेदन करो कि-'हे देवानुप्रिय ! तुमने पाँचों पाण्डवों को देशनिर्वासन की आज्ञा दी है, किन्तु हे देवानुप्रिय ! तुम तो समग्र दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र के अधिपति हो । अत एव हे देवानुप्रिय ! आदेश दो की पाँच पाण्डव किस देश में या दिशा अथवा विदिशा में जाएं ? तब कुन्ती देवी, पाण्डु राजा के इस प्रकार कहने पर थी के स्कंध पर आरूढ़ होकर पहले कहे अनुसार द्वारका पहुँची । अग्र उद्यान में ठहरी । कृष्ण वासुदेव को सूचना करवाई । कृष्ण स्वागत के लिए आए । उन्हें महल में ले गए । यावत् पूछा-'हे पितृभगिनी ! आज्ञा कीजिए, आपके आने का क्या प्रयोवन है ?' तब कुन्ती देवी ने कृष्ण वासुदेव से कहा-'हे पुत्र ! तुमने पाँचों पाण्डवों को देश-नीकाले का आदेश दिया है और तुम समग्र दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र के स्वामी हो, तो बतलाओ वे किस देश में, किस दिशा या विदिशा में जाएं ?' तब कृष्ण वासुदेव ने कुन्ती देवी से कहा- पितृभगिनी ! उत्तम पुरुष अपूतिवचन होते हैं-उनके वचन मिथ्या नहीं होते । देवानुप्रिये ! पाँचों पाण्डव दक्षिण दिशा के वेलातट जाएं, वहाँ पाण्डु-मथुरा नामक नई नगरी बसाएं और मेरे अदृष्ट सेवक होकर रहें । इस प्रकार कहकर उन्होंने कुन्ती देवी का सत्कार-सम्मान किया, यावत् उन्हें बिदा दी। तत्पश्चात् कुन्ती देवी ने द्वारवती नगरी से आकर पाण्डु राज को यह अर्थ (वृत्तान्त) निवेदन किया । तब पाण्डु राजा ने पाँचों पाण्डवों को बुलाकर कहा-'पुत्रो ! तुम दक्षिणी वेलातट जाओ । वहाँ पाण्डुमथुरा नगरी बसा कर रहो ।' तब पाँचों पाण्डवों ने पाण्डु राजा की यह बात स्वीकार करके बल और वाहनों के साथ घोड़े और हाथी साथ लेकर हस्तिनापुर से बाहर नीकले । दक्षिणी वेलातट पर पहुँचे । पाण्डुमथुरा नगरी की स्थापना की। नगरी की स्थापना करके वे वहाँ विपुल भोगों के समूह से युक्त हो गए-सुखपूर्वक निवास करने लगे। सूत्र - १८० तत्पश्चात् एक बार किसी समय द्रौपदी देवी गर्भवती हुई । फिर द्रौपदी देवी ने नौ मास यावत् सम्पूर्ण होने पर सुन्दर रूप वाले और सुकुमार तथा हाथी के तालु के समान कोमल बालक को जन्म दिया । बारह दिन व्यतीत मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 137 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक होने पर बालक के माता-पिता को ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि-क्योंकि हमारा यह बालक पाँच पाण्डवों का पुत्र है और द्रौपदी देवी का आत्मज है, अतः इस बालक का नाम 'पाण्डुसेन' होना चाहिए । तत्पश्चात् उस बालक के मात-पिता ने उसका पाण्डुसेन' नाम रखा । उस काल और उस समय में धर्मघोष स्थविर पधारे । धर्मश्रवण करने और उन्हें वन्दना के लिए परीषद् नीकली । पाण्डव भी नीकले । धर्म श्रवण करके उन्होंने स्थविर से कहा-'देवानुप्रिय ! हमें संसार से विरक्ति हुई है, अत एव हम दीक्षित होना चाहते हैं; केवल द्रौपदी देवी से अनुमति ले लें और पाण्डुसेन कुमार को राज्य पर स्थापित कर दें । तत्पश्चात् देवानुप्रिय के निकट मुण्डित होकर यावत् प्रव्रज्या ग्रहण करेंगे । तब स्थविर धर्मघोष ने कहा- देवानुप्रियो ! जैसे तुम्हें सुख उपजे, वैसा करो ।' तत्पश्चात् पाँचों पाण्डव अपने भवन में आए । उन्होंने द्रौपदी देवी को बुलाया और उससे कहा-देवानुप्रिये ! हमने स्थविर मुनि से धर्म श्रवण किया है, यावत हम प्रव्रज्या ग्रहण कर रहे हैं । देवानप्रिये ! तुम्हें क्या करना है ? तब द्रौपदी देवी ने पाँचों पाण्डवों से कहा-'देवानुप्रियो ! यदि आप संसार के भय से उद्विग्न होते हो तो मेरा दूसरा कौन अवलम्बन यावत् मैं भी संसार के भय से उद्विग्न होकर देवानुप्रियों के साथ दीक्षा अंगीकार करूँगी। तत्पश्चात पाँचों पाण्डवों ने पाण्डसेन का राज्याभिषेक किया । यावत पाण्डसेन राजा हो गया, यावत राज्य का पालन करने लगा। तब किसी समय पाँचों पाण्डवों ने और द्रौपदी ने पाण्डुसेन राजा से दीक्षा की अनुमति माँगी । तब पाण्डुसेन राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनसे कहा-'देवानुप्रियो ! शीघ्र ही दीक्षा-महोत्सव की तैयारी करो और हजार पुरुषों द्वारा वहन करने योग्य शिबिकाएं तैयार करो । शेष वृत्तान्त पूर्ववत्, यावत् वे शिबिकाओं पर आरूढ़ होकर चले और स्थविर मुनि के स्थान के पास पहुँच कर शिबिकाओं से नीचे ऊतरे । स्थविर मुनि के निकट पहुँचे । वहाँ जाकर स्थविर से निवेदन किया-भगवन् ! यह संसार जल रहा है आदि, यावत् पाँचों पाण्डव श्रमण बन गए । चौदह पूर्वो का अध्ययन किया । बहुत वर्षों तक बेला, तेला, चोला, पंचोला तथा अर्धमास-खमण, मासखमण आदि तपस्या द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। सूत्र-१८१ द्रौपदी देवी भी शिबिका से ऊतरी, यावत् दीक्षित हुई । वह सुव्रता आर्या को शिष्या के रूप में सौंप दी गई। उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया । बहुत वर्षों तक वह षष्ठभक्त, अष्टभक्त, दशमभक्त और द्वादशभक्त आदि तप करती हई विचरने लगी। सूत्र - १८२ तत्पश्चात् किसी समय स्थविर भगवंत पाण्डुमथुरा नगरी के सहस्राम्रवन नामक उद्यान से नीकले । नीकल बाहर जनपदों में विचरण करने लगे। उस काल और उस समय में अरिहंत अरिष्टनेमि जहाँ सुराष्ट्र जनपद था, वहाँ पधारे । सुराष्ट्र जनपद में संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। उस समय बहत जन परस्पर इस प्रकार कहने लगे-'हे देवानुप्रियो ! तीर्थंकर अरिष्टनेमि सुराष्ट्र जनपद में यावत विचर रहे हैं। तब युधिष्ठिर प्रभति पाँचों अनगारों ने बहत जनों से यह वृत्तान्त सुनकर एक दूसरे को बुलाया और कहा-'देवानुप्रियो ! अरिहंत अरिष्टनेमि अनुक्रम से विचरते हए यावत सुराष्ट्र जनपद में पधारे हैं, अत एव स्थविर भगवंत से पूछ तीर्थंकर अरिष्टनेमि को वन्दना करने के लिए जाना हमारे लिए श्रेयस्कर है।' परस्पर की यह बात स्वीकार करके वे जहाँ स्थविर भगवंत थे, वहाँ गए | जाकर स्थविर भगवंत को वन्दन-नमस्कार किया । उनसे कहा-'भगवन् ! आपकी आज्ञा पाकर हम अरिहंत अरिष्टनेमि को वन्दना करने हेतु जाने की ईच्छा करते हैं।' स्थविर ने अनुज्ञा दी'देवानुप्रियो ! जैसे सुख हो, वैसा करो।' तत्पश्चात् उन युधिष्ठिर आदि पाँचों अनगारों ने स्थविर भगवान से अनुज्ञा पाकर उन्हें वन्दना-नमस्कार किया । वे स्थविर के पास से नीकले । निरन्तर मासखमण करते हुए, एक ग्राम से दूसरे ग्राम आते हुए, यावत् जहाँ हस्तिकल्प नगर था, वहाँ पहुँचे । पहुँचकर हस्तिकल्प नगर के बाहर सहस्राम्रवन नामक उद्यान में ठहरे । तत्पश्चात् युधिष्ठिर के सिवाय शेष चार अनगारों ने मासखमण के पारणक के दिन पहले प्रहर में स्वाध्याय किया, दूसरे प्रहर मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 138 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक में ध्यान किया । शेष गौतमस्वामी के समान वर्णन जानना । विशेष यह कि उन्होंने युधिष्ठिर अनगार से पूछा-भिक्षा की अनुमति माँगी । फिर वे भिक्षा के लिए जब अटन कर रहे थे, तब उन्होंने बहुत जनों से सूना-'देवानुप्रियो ! तीर्थंकर अरिष्टनेमि गिरनार पर्वत के शिखर पर, एक मास का निर्जल उपवास करके, पाँच सौ छत्तीस साधुओं के साथ काल-धर्म को प्राप्त हो गए हैं, यावत् सिद्ध, मुक्त, अन्तकृत् होकर समस्त दुःखों से रहित हो गए हैं ।' तब युधिष्ठिर के सिवाय वे चारों अनगार बहुत जनों के पास से यह अर्थ सूनकर हस्तिकल्प नगर से बाहर नीकले । जहाँ सहस्राम्रवन था और जहाँ युधिष्ठिर अनगार थे वहाँ पहुँचे । आहार-पानी की प्रत्युपेक्षणा की, प्रत्युप्रेक्षणा करके गमनागमन का प्रतिक्रमण किया । फिर एषणा-अनेषणा की आलोचना की । आलोचना करके आहार-पानी दिखलाया । दिखला कर युधिष्ठिर अनगार से कहा-'हे देवानुप्रिय ! यावत् कालधर्म को प्राप्त हुए हैं। अतः हे देवानुप्रिय ! हमारे लिए यही श्रेयस्कर है कि भगवान के निर्वाण का वृत्तान्त सूनने से पहले ग्रहण किये हुए आहारपानी को परठ कर धीरे-धीरे शत्रंजय पर्वत पर आरूढ हो तथा संलेखना करके झोषणा का सेवन करके और मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए विचरे-रहे, इस प्रकार कहकर सबने परस्पर के इस अर्थ को अंगीकार किया। वह पहले ग्रहण किया आहार-पानी एक जगह परठ दिया । शत्रुजय पर्वत गए । शत्रुजय पर्वत पर आरूढ़ हुए। आरूढ़ होकर यावत् मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए विचरने लगे । तत्पश्चात् उन युधिष्ठिर आदि पाँचों अनगारों ने सामायिक से लेकर चौदह पूर्वो का अभ्यास करके बहत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय का पालन करके, दो मास की संलेखना से आत्मा को झोषण करके, जिस प्रयोजन के लिए नग्नता, मुण्डता आदि अंगीकार की जाती है, उस प्रयोजन को सिद्ध किया । उन्हें अनन्त यावत् श्रेष्ठ केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त हुआ । यावत् वे सिद्ध हो गए। सूत्र-१८३ दीक्षा अंगीकार करने के पश्चात द्रौपदी आर्या ने सव्रता आर्या के पास सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया | बहत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय का पालन किया । अन्त में एक मास की संलेखना करके, आलोचना और प्रतिक्रमण करके तथा कालमास में काल करके ब्रह्मलोक नामक स्वर्ग में जन्म लिया । ब्रह्मलोक नामक पाँचवे देवलोक में कितनेक देवों की दस सागरोपम की स्थिति है। उनमें द्रौपदी देव की भी दस सागरोपम की स्थिति है । गौतमस्वामी ने श्रमण भगवान महावीर से प्रश्न किया-'भगवन् ! वह द्रुपद देव वहाँ से च्यवकर कहाँ जन्म लेगा ?' तब भगवान ने उत्तर दिया-'ब्रह्मलोक स्वर्ग से वहाँ की आयु, स्थिति एवं भव का क्षय होने पर महाविदेह वर्ष में उत्पन्न होकर यावत् कर्मों का अन्त करेगा । इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने सोलहवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादित किया है। ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-१६ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 139 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक अध्ययन-१७ - अश्वज्ञान सूत्र - १८४ 'भगवन् ! यदि यावत् निर्वाण को प्राप्त जिनेन्द्रदेव श्रमण भगवान महावीर ने सोलहवें ज्ञात अध्ययन का यह पूर्वोक्त० अर्थ कहा है तो सत्रहवें ज्ञात-अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ?' उस काल और उस समय में हस्तिशीर्ष नामक नगर था । (वर्णन) उस नगर में कनककेत नामक राजा था। (वर्णन) (समझ लेना) उस हस्तिशीर्ष नगर में बहत-से सांयात्रिक नौकावणिक रहते थे। वे धनाढ्य थे, यावत बहत लोगों से भी पराभव न पाने वाले थे । एक बार किसी समय वे सांयात्रिक नौकावणिक् आपस में मिले । उन्होंने अर्हन्नक की भाँति समुद्रयात्रा पर जाने का विचार किया, वे लवणसमुद्र में कईं सैकड़ों योजनों तक अवगाहन भी कर गए। उस समय उन वणिकों को माकन्दीपुत्रों के समान सैकड़ों उत्पात हुए, यावत् समुद्री तूफान भी आरम्भ हो गया । उस समय वह नौका उस तूफानी वायु से बार-बार काँपने लगी, चलायमान होने लगी, क्षुब्ध होने लगी और उसी जगह चक्कर खाने लगी। उस समय नौका के निर्यामक की बुद्धि मारी गई, श्रुति भी नष्ट हो गई और संज्ञा भी गायब हो गई । वह दिशाविमूढ़ हो गया । उसे यह भी ज्ञान न रहा कि पोतवाहन कौन-से प्रदेश में हैं या कौनसी दिशा अथवा विदिशा में चल रहा है ? उसके मन के संकल्प भंग हो गए । यावत् वह चिन्ता में लीन हो गया। उस समय बहुत-से कुक्षिधार, कर्णधार, गब्भिल्लक तथा सांयात्रिक नौकावणिक् निर्यामक के पास आए । आकर उससे बोले- देवानुप्रिय ! नष्ट मन के संकल्प वाले होकर एवं मुख हथेली पर रखकर चिन्ता क्यों कर रहे हो ? तब उस निर्यामक ने उन बहुत-से कुक्षिधारकों, यावत् नौकावणिकों से कहा-'देवानुप्रियो ! मेरी मति मारी गई है, यावत् पोतवाहन किस देश, दिशा या विदिशा में जा रहा है, यह भी मुझे नहीं जान पड़ता । अत एव मैं भग्नमनोरथ होकर चिन्ता कर रहा हूँ ।' तब वे कर्णधार उस निर्यामक से यह बात सुनकर और समझकर भयभीत हुए, त्रस्त हुए, उद्विग्न हुए, घबरा गए । उन्होंने स्नान किया, बलिकर्म किया और हाथ जोड़कर बहुत-से इन्द्र, स्कंद आदि देवों को 'मल्लि-अध्ययन अनुसार मस्तक पर अंजलि करके मनौती मनाने लगे। थोड़ी देर बाद वह निर्यामक लब्धमति, लब्धश्रुति, लब्धसंज्ञ और अदिङ्मूढ हो गया । शास्त्रज्ञान जाग गया, होश आ गया और दिशा का ज्ञान भी हो गया । तब उस निर्यामक ने उन बहुसंख्यक कुक्षिधारों यावत् नौकावणिकों से कहा-'देवानुप्रियो ! मुझे बुद्धि प्राप्त हो गई है, यावत् मेरी दिशा-मूढ़ता नष्ट हो गई है । देवानुप्रियो ! हम लोग कालिक-द्वीप के समीप आ पहुँचे हैं । वह कालिक-द्वीप दिखाई दे रहा है ।' उस समय वे कुक्षिधार, कर्णधार, गब्भिल्लक तथा सांयात्रिक नौकावणिक उस निर्यामक की यह बात सुनकर और समझकर हृष्ट-तुष्ट हुए । फिर दक्षिण दिशा के अनकल वाय की सहायता से वहाँ पहँचे जहाँ कालिक-द्वीप था । वहाँ पहँच कर लंगर डाला। छोटी नौकओं द्वारा कालिक-द्वीप में ऊतरे । उस कालिकद्वीप में उन्होंने बहुत-सी चाँदी की, सोने की, रत्नों की, हीरे की खाने और बहुत से अश्व देखे । वे अश्व कैसे थे? वे उत्तम जाति के थे । उनका वर्णन जातिमान् अश्वों के वर्णन के समान समझना । वे अश्व नीले वर्ण वाली रेणु के समान वर्ण वाले और श्रोणिसूत्रक वर्ण वाले थे । उन अश्वों ने उन वणिकों को देखा । उनकी गंध सूंघकर वे अश्व भयभीत हुए, त्रास को प्राप्त हुए, उद्विग्न हुए, उनके मन में उद्वेग उत्पन्न हुआ, अत एव वे कईं योजन दूर भाग गए । वहाँ उन्हें बहुत-से गोचर प्राप्त हुए । खूब घास और पानी मिलने से वे निर्भय एवं निरुद्वेग होकर सुखपूर्वक वहाँ विचरने लगे। तब उन सांयात्रिक नौकावणिकों ने आपस में इस प्रकार कहा-'देवानुप्रियो ! हमें अश्वों से क्या प्रयोजन है? यहाँ यह बहुत-सी चाँदी की, सोने की, रत्नों की और हीरों की खाने हैं। अत एव हम लोगों को चाँदी-सोने से, रत्नों से और हीरों से जहाज भर लेना ही श्रेयस्कर है। इस प्रकार उन्होंने एक दूसरे की बात अंगीकार करके उन्होंने हिरण्य से-स्वर्ण से, रत्नों से, हीरों से, घास से, अन्न से, काष्ठों से और मीठे पानी से अपना जहाज भर लिया । भरकर दक्षिण दिशा की अनुकूल वायु से जहाँ गंभीर पोतवहनपट्टन था, वहाँ आए । आकर जहाज का लंगर डाला। गाड़ी-गाड़े तैयार किए। लाए हए उस हिरण्य-स्वर्ण, यावत् हीरों का छोटी नौकाओं द्वारा संचार किया। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 140 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक फिर गाड़ी-गाड़े जोते । हस्तिशीर्ष नगर पहुँचे । हस्तिशीर्षनगर बाहर अग्र उद्यान में सार्थ को ठहराया । गाड़ी-गाड़े खोले। फिर बहुमूल्य उपहार लेकर हस्तिशीर्षनगरमें प्रवेश किया । कनककेतुराजा के पास आए । उपहार राजा समक्ष उपस्थित किया । राजा कनककेतुने उन सांयात्रिक नौकावणिकों के उस बहुमूल्य उपहार स्वीकार किया। सूत्र - १८५ फिर राजा ने उन सांयात्रिक नौकावणिकों से कहा-'देवानुप्रिय ! तुम लोग ग्रामों में यावत् आकरों में घूमते हो और बार-बार पोतवहन द्वारा लवणसमुद्र में अवगाहन करते हो, तुमने कहीं कोई आश्चर्यजनक-अद्भुतअनोखी वस्तु देखी है ?' तब सांयात्रिक नौकावणिकों ने राजा कनककेतु से कहा-'देवानुप्रिय ! हम लोग इसी हस्तिशीर्ष नगर के निवासी हैं; इत्यादि पूर्ववत् यावत् हम कालिकद्वीप के समीप गए । उस द्वीप में बहुत-सी चाँदी की खानें यावत् बहुत-से अश्व हैं । वे अश्व कैसे हैं? नील वर्ण वाली रेणु के समान और श्रोत्रिसूत्रक के समान श्याम वर्ण वाले हैं । यावत् वे अश्व हमारी गंध के कईं योजन दूर चले गए । अत एव हे स्वामिन् ! हमने कालिकद्वीप में उन अश्वों को आश्चर्यभूत देखा है।' कनककेतु राजा ने उन सांयात्रिकों से यह अर्थ सूनकर उन्हें कहा-'देवानुप्रियो! तुम मेरे कौटुम्बिक पुरुषों के साथ जाओ और कालिकद्वीप से उन अश्वों को यहाँ ले आओ ।' तब सांयात्रिक वणिकों ने कनककेतु राजा से-'स्वामिन् ! बहुत अच्छा' ऐसा कहकर उन्होंने राजा का वचन आज्ञा के रूप में विनयपूर्वक स्वीकार किया । तत्पश्चात् कनककेतु राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा-'देवानुप्रियो ! तुम सांयात्रिक वणिकों के साथ जाओ और कालिकद्वीप से मेरे लिए अश्व ले आओ।' उन्होंने भी राजा का आदेश अंगीकार किया । तत्पश्चात् कौटुम्बिक पुरुषों ने गाड़ी-गाड़े सजाए । सजाकर उनमें बहुत-सी वीणाएं, वल्लकी, भ्रामरी, कच्छरी, भंभा, षट्भ्रमरी आदि विविध प्रकार की वीणाओं तथा विचित्र वीणाओं से और श्रोत्रेन्द्रिय के योग्य अन्य बहत-सी वस्तओं से गाडी-गाडे भर लिए । श्रोत्रेन्द्रिय के योग्य वस्तएं भरकर बहत-से कष्ण वर्ण वाले, शक्ल वर्ण वाले, काष्ठकर्म, चित्रकर्म, पुस्तकर्म, लेप्यकर्म तथा वेढ़िम, पूरिम तथा संघातिम एवं अन्य चक्षु-इन्द्रिय के योग्य द्रव्य गाड़ी -गाड़ों में भरे । यह भरकर बहुत-से कोष्ठपुट केतकीपुट, पत्रपुट, चोय-त्वक्पुट, तगरपुट, एलापुट, ह्रीवेर पुट, उशीर पुट, चम्पकपुट, मरुक पुट, दमनकपुट, जाती पुट, यूथिकापुट, मल्लिकापुट, वासंतीपुट, कपूरपुट, पाटलपुट तथा अन्य बहुत-से घ्राणेन्द्रिय को प्रिय लगने वाले पदार्थों से गाडी-गाडे भरे । तदनन्तर बहुत-से खांड़, गुड़, शक्कर, मत्स्यंडिका, पुष्पोत्तर तथा पद्मोत्तर जाति की शर्करा आदि अन्य अनेक जिह्वा-इन्द्रिय के योग्य द्रव्य गाडी-गाडों में भरे । उसके बाद बहत-से कोयतक-कंबल-प्रावरण-जीन, मलयविशेष प्रकार का आसन मढ़े, शिलापट्टक, यावत् हंसगर्भ तथा अन्य स्पर्शेन्द्रिय के योग्य द्रव्य गाड़ी-गाड़ों में भरे । उक्त सब द्रव्य भरकर उन्होंने गाड़ी-गाड़े जोते । जोतकर जहाँ गंभीर पोतपट्टन था, वहाँ पहुँचे । गाड़ी-गाड़े खोले । पोतवहन तैयार करके उन उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध के द्रव्य तथा काष्ठ, तृण, जल, चावल, आटा, गोरस तथा अन्य बहुत-से पोतवहन के योग्य पदार्थ पोतवहन में भरे । वे उपर्युक्त सब सामान पोतवहनमें भरकर दक्षिणदिशा के अनुकूल पवन से जहाँ कालिकद्वीप था, वहाँ आए । आकर लंगर डाला । उन उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध के पदार्थों को छोटी-छोटी नौकाओं द्वारा कालिक द्वीप में उतारा। वे घोड़े जहाँ-जहाँ बैठते थे, सोते थे और लोटते थे, वहाँ-वहाँ वे कौटुम्बिक पुरुष वह वीणा, विचित्र वीणा आदि श्रोत्रेन्द्रिय को प्रिय वाद्य बजाते रहने लगे तथा इनके पास चारों ओर जा दिए-वे निश्चल, निस्पन्द और मूक होकर स्थित हो गए । जहाँ-जहाँ वे अश्व बैठते थे, यावत लोटते थे, वह कौटुम्बिक पुरुषों ने बहुतेरे कृष्ण वर्ण वाले यावत् शुक्ल वर्ण वाले काष्ठकर्म यावत् संघातिम तथा अन्य ब चक्षु-इन्द्रिय के योग्य पदार्थ रख दिए तथा उन अश्वों के पास चारों ओर जाल बिछा दिया और वे निश्चल और मूक होकर छिपे रहे । जहाँ-जहाँ वे अश्व बैठते थे, सोते थे, खड़े होते थे अथवा लोटते थे वहाँ-वहाँ उन कौटुम्बिक पुरुषों ने बहुत से कोष्ठपुट तथा दूसरे घ्राणेन्द्रिय के प्रिय पदार्थों के पूंज और नीकर कर दिए । उनके पास चारों ओर जाल मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 141 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक बिछाकर वे मूक होकर छिप गए। जहाँ-जहाँ वे अश्व बैठते थे, सोते थे, खड़े होते थे अथवा लेटते थे, वहाँ-वहाँ कौटुम्बिक पुरुषों ने गुड़ के यावत् अन्य बहुत-से जिह्वेन्द्रिय के योग्य पदार्थों के पूंज और नीकर कर दिये । उन जगहों पर गड़हे खोद कर गुड़ का पानी, खांड का पानी, पोर का पानी तथा दूसरा बहुत तरह का पानी उन गड़हों में भर दिया । भरकर उनके पास चारों ओर जाल स्थापित करके मूक होकर छिप रहे । जहाँ-जहाँ वे घोड़े बैठते थे, यावत् लेटते थे, वहाँ-वहाँ कोयवक यावत् शिलापट्टक तथा अन्य स्पर्शनेन्द्रिय के योग्य आस्तरण-प्रत्यास्तरण । रखकर उनके पास चारों ओर जाल बिछाकर एवं मूक होकर छिप गए। तत्पश्चात् वे अश्व वहाँ आए, जहाँ यह उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध रखी थीं। वहाँ आकर उनमें से कोई-कोई अश्न 'ये शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध अपर्व हैं, ऐसा विचार कर उन उत्कष्ट शब्द, और गंध में मूर्च्छित, गृद्ध, आसक्त न होकर उन उत्कृष्ट शब्द यावत् गंध से गोचर प्राप्त करके तथा प्रचुर घास-पानी पीकर निर्भय हुए, उद्वेग रहित हुए और सुखे-सुखे विचरने लगे। इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो साधु या साध्वी शब्द, स्पर्श, रस, रूप, और गंध में आसक्त नहीं होता, वह इस लोक में बहुत साधुओं, साध्वीयों, श्रावकों और श्राविकाओं का पूजनीय होता है और इस चातुर्गतिक संसारकान्तार को पार कर जाता है। सूत्र - १८६ उन घोड़ों में से कितनेक घोड़े जहाँ वे उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध थे, वहाँ पहुँचे । वे उन उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध में मूर्च्छित हुए, अति आसक्त हो गए और उनका सेवन करने में प्रवृत्त हो गए । उस उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध का सेवन करने वाले वे अश्व कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा बहुत से कूट पाशों से गले में यावत् पैरों में बाँधे गए । उन कौटुम्बिक पुरुषों ने उन अश्वों को पकड़ लिया । वे नौकाओं द्वारा पोतवहन में ले आए । लाकर पोतवहन को तृण, काष्ठ आदि आवश्यक पदार्थों से भर लिया । वे सांयात्रिक नौकावणिक दक्षिण दिशा के अनुकूल पवन द्वारा जहाँ गम्भीर पोतपट्टन था, वहाँ आए । पोतवहन का लंगर डाला । उन घोड़ों को उतारा । हस्तिशीर्ष नगर था और जहाँ कनककेतु राजा था, वहाँ पहँचे । दोनों हाथ जोड़कर राजा का अभिनन्दन करके वे अश्व उपस्थित किए । राजा कनककेतु ने उन सांयात्रिक वणिकों का शुल्क माफ कर दिया । उनका सत्कार-सम्मान किया और उन्हें बिदा किया। तत्पश्चात् कनककेतु राजा ने कालिक-द्वीप भेजे हुए कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर उनका भी सत्कार-सम्मान किया और फिर उन्हें बिदा कर दिया । तत्पश्चात् कनककेतु राजा ने अश्वमर्दकों को बुलाया और उनसे कहा-'देवानुप्रियो ! तुम मेरे अश्वों को विनीत करो ।' तब अश्वमर्दकों ने बहुत अच्छा' कहकर राजा का आदेश स्वीकार किया । उन्होंने उन अश्वों को मुख बाँधकर, कान बाँधकर, नाक बाँधकर, झौंरा बाँधकर, खुर बाँधकर, कटक बाँधकर, चौकड़ी चढ़ाकर, तोबरा चढ़ाकर, पटतानक लगा कर, खस्सी करके, वेलाप्रहार करके, बेंतों का प्रहार करके विनीत किया । विनीत करके वे राजा कनककेतु के पास ले आए। तत्पश्चात् कनककेतु ने उन अश्वमर्दकों का सत्कार किया, सम्मान किया । उन्हें बिदा किया । उसके बाद वे अश्व-मुखबंधन से यावत् चमड़े के चाबुकों के प्रहार से बहुत शारीरिक और मानसिक दुःखों को प्राप्त हुए । इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी दीक्षित होकर प्रिय शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध में गद्ध होता है, मुग्ध होता है और आसक्त होता है, वह इसी लोक में बहुत से श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों तथा श्राविकाओं की अवहेलना का पात्र होता है, चातुर्गतिक संसारअटवी में पुनः पुनः भ्रमण करता है। सूत्र - १८७-१९६ श्रुतिसुखद स्वरघोलना के प्रकारवाले, मधुर वीणा, तलताल, बाँसूरी के श्रेष्ठ और मनोहर वाद्यों के शब्दों में अनुरक्त होने और श्रोत्रेन्द्रिय के वशवर्ती बने हुए प्राणी आनन्द मानते हैं । किन्तु श्रोत्रेन्द्रिय की दुर्दान्तता का इतना मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 142 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक दोष होता है, जैसे पारधि के पिंजरे में रहे हुए शब्द को सहन न करता हुआ तीतुर पक्षी वध और बंधन पाता है। चक्षु इन्द्रिय के वशीभूत और रूपों में अनुरक्त होने वाले पुरुष; स्त्रियों के स्तन, जघन, वदन, हाथ, पैर, नेत्रों में तथा गर्विष्ठ बनी हुई स्त्रियों की विलासयुक्त गति में रमण करते हैं परन्तु चक्षुइन्द्रिय की दुर्दान्तता से इतना दोष है कि बुद्धिहीन पतंगा जलती हुई आग में जा पड़ता है, उसी प्रकार मनुष्य भी वध-बंधन के दुःख पाते हैं। सुगंध में अनुरक्त हुए और घ्राणेन्द्रिय के वश में पड़े हुए प्राणी श्रेष्ठ अगर, श्रेष्ठ धूप, विविध ऋतुओं में वृद्धि को प्राप्त माल्य तथा अनुलेपन विधि में रमण करते हैं । परन्तु घ्राणेन्द्रिय की दुर्दान्तता से इतना दोष होता है कि औषधि की गंध से सर्प अपने बिल से बाहर नीकल आता है। (और पकडा जाता है।। रस में आसक्त और जिह्वा इन्द्रिय के वशवर्ती हुए प्राणी कड़वे, तीखे, कसैले, खट्टे एवं रस वाले बहुत खाद्य, पेय, लेहा पदार्थों में आनन्द मानते हैं । किन्त जिह्वा इन्द्रिय का दमन न करने से इतना दोष उत कि गल में लग्न होकर जल से बाहर खींचा हुआ मत्स्य स्थल में फेंका जाकर तड़पता है। स्पर्शेन्द्रिय के वशीभूत हए प्राणी स्पर्शेन्द्रिय की अधीनता से पीडित होकर विभिन्न ऋतुओं में सेवन करने से सुख उत्पन्न करने वाले तथा विभव सहित, हितकारक तथा मन को सुख देने वाले माला, स्त्री आदि पदार्थों में रमण करते हैं । किन्तु स्पर्शनेन्द्रिय का दमन न करने से इतना दोष होता है कि लोहे का तीखा अंकुश हाथी के मस्तक को पीड़ा पहुँचाता है। सूत्र - १९७-२०१ कल, रिभित एवं मधुर तंत्री, तलताल तथा बाँसुरी के श्रेष्ठ और मनोहर वाद्यों के शब्दों में जो आसक्त नहीं होते, वे वशार्त्तमरण नहीं मरते। स्त्रियों के स्तन, जघन, मुख, हाथ, पैर, नयन तथा गर्वयुक्त विलास वाली गति आदि समस्त रूपों में जो आसक्त नहीं होते, वे वशार्त्तमरण नहीं मरते । उत्तम अगर, श्रेष्ठ धूप, विविध ऋतुओं में वृद्धि को प्राप्त होने वाले पुष्पों की मालाओं तथा श्रीखण्ड आदि के लेपन की गन्ध में जो आसक्त नहीं होते, उन्हें वशार्त्तमरण नहीं मरना पड़ता। तिक्त, कटुक, कसैले, खट्टे और मीठे खाद्य, पेय और लेह्य पदार्थों के आस्वादन में जो गृद्ध नहीं होते, वे वशार्त्तमरण नहीं मरते । हेमन्त आदि विभिन्न ऋतुओं में सेवन करने से सुख देने वाले, वैभव सहित, हितकर और मन को आनन्द देने वाले स्पर्शों में जो गद्ध नहीं होते, वे वशार्त्तमरण नहीं मरते । सूत्र - २०२-२०६ साधु को भद्र श्रोत्र के विषय शब्द प्राप्त होने पर कभी तुष्ट नहीं होना चाहिए और पापक शब्द सूनने पर रुष्ट नहीं होना चाहिए। शुभ या अशुभ रूप चक्षु के विषय होने पर-साधु को कभी न तुष्ट होना चाहिए और न रुष्ट होना चाहिए। घ्राण-इन्द्रिय को प्राप्त हए शुभ अथवा अशुभ गंध में साधु को कभी तुष्ट अथवा रुष्ट नहीं होना चाहिए। जिह्वा-इन्द्रिय के विषय को प्राप्त शुभ याअशुभ रसों में साधु को कभी तुष्ट अथवा रुष्ट नहीं होना चाहिए । स्पर्शनेन्द्रिय के विषय बने हुए प्राप्त शुभ या अशुभ स्पर्शों में साधु को कभी तुष्ट या रुष्ट नहीं होना चाहिए सूत्र - २०७ जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने सत्रहवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है । वही मैं तुझसे कहता हूँ। अध्ययन-१७ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 143 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक अध्ययन-१८-सुसुमा सूत्र - २०८ 'भगवन् ! श्रमण भगवान महावीर ने अठारहवे अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ?' हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था, (वर्णन) । वहाँ धन्य नामक सार्थवाह निवास करता था । भद्रा नामकी उसकी पत्नी थी । उस धन्य सार्थवाह के पुत्र, भद्रा के आत्मज पाँच सार्थवाहदारक थे । धन, धनपाल, धनदेव, धनगोप और धनरक्षित | धन्य सार्थवाह की पुत्री, भद्रा की आत्मजा और पाँचों पुत्रों के पश्चात् जन्मी हुई सुंसुमा नामक बालिका थी । उसके हाथ-पैर आदि अंगोपांग सुकुमार थे । उस धन्य सार्थवाह का चिलात नामक दास चेटक था उसकी पाँचों इन्द्रियाँ पूरी थीं और शरीर भी परिपूर्ण एवं मांस से अपचित था । वह बच्चों को खेलाने में कुशल भी था। अत एव दासचेटक सुंसुमा बालिका का बालग्राहक नियत किया गया । वह सुंसुमा बालिका को कमर में लेता और बहुत-से लड़कों, लड़कियों, बच्चों, बच्चियों, कुमारों और कुमारिकाओं के साथ खेलता रहता था । उस समय वह चिलात दास-चेटक उन बहुत-से लड़कों, लड़कियों, बच्चों, बच्चियों, कुमारों और कुमारियों में से किन्ही की कौड़ियाँ हरण कर लेता- | इसी प्रकार वर्तक, आडोलिया, दड़ा, कपड़ा और साडोल्लक हर लेता था। किन्हींकिन्हीं के आभरण, माला और अलंकार हरण कर लेता था। किन्हीं पर आक्रोश करता, हँसी उड़ाता, ठग लेता, भर्त्सना करता, तर्जना करता और किसी को मारता-पीटता था। तब वे बहुत-से लड़के, लड़कियाँ, बच्चे, बच्चियाँ, कुमार और कुमारिकाएं रोते हुए, चिल्लाते हुए, शोक करते हुए, आँसू बहाते हुए, विलाप करते हुए जाकर अपने-अपने माता-पिताओं से चिलात की करतूत कहते थे। उस समय बहत-से लडकों, लड़कियों, बच्चे, बच्चियों, कुमारों कुमारिकाओं के माता-पिता धन्य सार्थवाह के पास आते । आकर धन्य सार्थवाह को खेदजनक वचनों से, रुंवासे होकर उलाहने-देते थे और धन्य सार्थवाह को यह कहते थे । धन्य सार्थवाहने चिलात दास-चेटक को इस बात के लिए बार-बार मना किया, मगर चिलात दास-चेटक रुका नहीं, माना नहीं । धन्य सार्थवाह के रोकने पर भी चिलात दास-चेटक उन बहुत-से लड़कों, लड़कियों, बच्चों, बच्चियों, कुमार कुमारिकाओं में से किन्हीं की कौड़ियाँ हरण करता रहा और किन्हीं को यावत् मारता-पीटता रहा । तब वे बहुत लड़के-लड़कियाँ, बच्चे-बच्चियाँ, कुमार और कुमारिकाएं रोते-चिल्लाते गए, यावत् मातापिताओं से उन्होंने यह बात कह सूनाई । तब वे माता-पिता एकदम क्रुद्ध हुए, रुष्ट, कुपित, प्रचण्ड हुए, क्रोध से जल उठे और धन्य सार्थवाह के पास पहुँचे । पहुँचकर बहुत खेदयुक्त वचनों से उन्होंने यह बात उससे कही । तब धन्य सार्थवाह बहुत-से लड़कों, लड़कियों, बच्चों, बच्चियों, कुमारों और कुमारिकाओं के माता-पिताओं से यह बात सूनकर एकदम कुपित हुआ । उसने ऊंचे-नीचे आक्रोश-वचनों से चिलात दास-चेट पर आक्रोश किया, उसका तिरस्कार किया, भर्त्सना की, धमकी दी, तर्जना की और ऊंची-नीची ताड़नाओं से ताड़ना की और फिर उसे अपने घर से बाहर नीकाल दिया। सूत्र-२०९ धन्य सार्थवाह द्वारा अपने घर से नीकाला हुआ यह चिलात दासचेटक राजगृह नगर में शृंगाटकों यावत् पथों में अर्थात् गली-कूचों में, देवालयों में, सभाओं में, प्याउओं में, जुआरियों में, अड्डो में, वेश्याओं के घरों में तथा मद्यपानगृहों में मजे से भटकने लगा । उस समय उस दास-चेटक चिलात को कोई हाथ पड़ककर रोकने वाला तथा वचन से रोकने वाला न रहा, अत एव वह निरंकुश बुद्धि वाला, स्वेच्छाचारी, मदिरापान में आसक्त, चोरी करने में आसक्त, मांसभक्षण में आसक्त, जुआ में आसक्त, वेश्यासक्त तथा पर-स्त्रियों में भी लम्पट हो गया । उस समय राजगृह नगर से न अधिक दूर और न अधिक समीप प्रदेश में, आग्नेयकोण में सिंहगुफा नामक एक चोरपल्ली थी। वह पल्ली विषम गिरिनितंब के प्रान्त भाग में बसी हुई थी । बाँस की झाड़ियों के प्राकार से घिरी हुई थी । अलगअलग टेकरियों के प्रपात रूपी परिखा से यक्त थी । उसमें जाने-आने के लिए एक ही दरवाजा था, परन्तु भाग मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 144 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक जाने के लिए छोटे-छोटे अनेक द्वार थे। जानकर लोग ही उसमें से नीकल सकते और उसमें प्रवेश कर सकते थे। उसके भीतर ही पानी था । उस पल्ली से बाहर आस-पास में पानी मिलना अत्यन्त दुर्लभ था । चुराये हुए माल को छीनने के लिए आई हुई सेना भी उस का कुछ नहीं बिगाड़ सकती थी । ऐसी थी वह चोरपल्ली। उस सिंहगुफा पल्ली में विजय नामक चोर सेनापति रहता था । वह अधार्मिक यावत् वह अधर्म की ध्वजा थी । बहुत नगरों में उसका यश फैला हुआ था । वह शूर था, दृढ़ प्रहार करने वाला, साहसी और शब्दवेधी था। वह उस सिंहगुफा में पाँच सौ चोरों का अधिपतित्व करता हुआ रहता था । वह चोरों का सेनापति विजय तस्कर दूसरे बहुतेरे चोरों के लिए, जारों राजा के अपकारियों, ऋणियों, गठकटों, सेंध लगाने वालों, खात खोदने वालों, बाल-घातकों, विश्वासघातियों, जुआरियों तथा खण्डरक्षकों के लिए और मनुष्यों के हाथ-पैर आदि अवयवों को छेदन-भेदन करने वाले अन्य लोगों के लिए कडंग के समान शरणभत था । वह चोर सेनापति राजगह नगर के अग्निकोण में स्थित जनपदप्रदेश को, ग्राम के घात द्वारा, नगरघात द्वारा, गायों का हरण करके, लोगों को कैद करके, पथिकों को मारकूट कर तथा सेंध लगा कर पुनः पुनः उत्पीड़ित करता हुआ तथा विध्वस्त करता हआ, लोगों को स्थानहीन एवं धनहीन बना रहा था। तत्पश्चात् वह चिलात दास-पेट राजगृह नगर में बहत-से अर्थाभिशंकी, चौराभिशंकी, दाराभिशंकी, धनिकों और जुआरियों द्वारा पराभव पाया हुआ-तिरस्कृत होकर राजगृह नगर से बाहर नीकला । जहाँ सिंहगुफा नामक चोरपल्ली थी, वहाँ पहुँचा । चोरसेनापति विजय के पास उसकी शरण में जाकर रहने लगा । तत्पश्चात् वह दासचेट चिलात विजय नामक चोरसेनापति के यहाँ प्रधान खड्गधारी या हो गया । अत एव जब भी वह विजय चोरसेनापति ग्राम का घात करने के लिए पथिकों को मारने-कूटने के लिए जाता था, उस समय दास-चेट चिलात बहुत-सी कूविय सेना को हत एवं मथित करके रोकता था-भगा देता था और फिर उस धन आदि को लेकर अपना कार्य करके सिंहगुफा चोरपल्ली में सकुशल वापिस आ जाता था । उस विजय चोरसेनापति ने चिलात तस्कर को बहुत-सी चौरविद्याएं, चोरमंत्र, चोरमायाएं और चोर-निकृतियाँ सिखला दी। विजय चोर किसी समय मृत्यु को प्राप्त हुआ-तब उन पाँच सौ चोरों ने बड़े ठाठ और सत्कार के समूह के साथ वजय चोरसेनापति का नीहरण किया-फिर बहत-से लौकिक मृतककृत्य किए । कुछ समय बीत जाने पर वे शोकरहित हो गए । उन पाँच सौ चोरों ने एक दूसरे को बुलाया । तब उन्होंने आपस में कहा-'देवानुप्रियो ! हमारा सेनापति विजय कालधर्म से संयुक्त हो गया है और विजय चोरसेनापति ने इस चिलात तस्कर को बहुत-सी चोरविद्याएं आदि सिखलाई हैं । अत एव देवानुप्रियो ! हमारे लिए यही श्रेयस्कर होगा कि चिलात तस्कर का सिंहगुफा चोरपल्ली के चोरसेनापति के रूप में अभिषेक किया जाए । इस प्रकार एक दूसरे की बात स्वीकार की। चिलात तस्कर को सिंहगुफा चोरपल्ली के चोरसेनापति के रूप में अभिषिक्त किया । तब वह चिलात चोरसेनापति हो गया तथा विजय के समान ही अधार्मिक, क्रूरकर्मा एवं पापाचारी होकर रहने लगा । वह चिलात चोरसेनापति चोरों का नायक यावत् कुडंग के समान चोरोंजारों आदि का आश्रयभूत हो गया । वह उस चोरपल्ली में पाँच सौ चोरों का अधिपति हो गया, इत्यादि । यावत् वह राजगृह नगर के दक्षिण-पूर्व के जनपद निवासी जनों को स्थानहीन और धनहीन बनाने लगा। सूत्र - २१० तत्पश्चात् चिलात चोरसेनापति ने एक बार किसी समय विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवा कर पाँच सौ चोरों को आमंत्रित किया । फिर स्नान तथा बलिकर्म करके भोजन-मंडप में उन पाँच सौ चोरों के साथ विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम का तथा सूरा प्रसन्ना नामक मदिराओं का आस्वादन, विस्वादन, वितरण एवं परिभोग करने लगा । भोजन कर चूकने के पश्चात् पाँच सौ चोरों का विपुल धूप, पुष्प, गंध, माला और अलंकार से सत्कार किया, सम्मान किया । उनसे इस प्रकार कहा-'देवानुप्रियो ! राजगृह नगर में धन्य नामक धनाढ्य सार्थवाह है । उसकी पुत्री, भद्रा की आत्मजा और पाँच पुत्रों के पश्चात् जन्मी हुई सुसुमा नाम की लड़की मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 145 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक है। वह परिपूर्ण इन्द्रियों वाली यावत् सुन्दर रूप वाली है । तो देवानुप्रियो ! हम लोग चलें और धन्य सार्थवाह का घर लूंटे । उस लूट में मिलने वाला विपुल धन, कनक, यावत् शिला, मूंगा वगैरह तुम्हारा होगा, सुंसुमा लड़की मेरी होगी।' तब उन पाँच सौ चोरों ने चोरसेनापति चिलात की बात अंगीकार की। तत्पश्चात् चिलात चोरसेनापति उन पाँच सौ चोरों के साथ आर्द्र चर्म पर बैठा । फिर दिन के अंतिम प्रहर में पाँच सौ चोरों के साथ कवच धारण करके तैयार हुआ । उसने आयुध और प्रहरण ग्रहण किए । कोमल गोमुखितफलक धारण किए । तलवारें म्यानों से बाहर नीकाल लीं । कन्धों पर तर्कश धारण किए । धनुष जीवायुक्त कर लिए । बाण बाहर नीकाल लिए । बर्छियाँ और भाले उछालने लगे । जंघाओं पर बाँधी हुई घंटिकाएं लटका दीं। शीघ्र बाजे बजने लगे । बड़े-बड़े उत्कृष्ट सिंहनाद और बोलों की कल-कल ध्वनि से ऐसा प्रतीत होने लगा जैसे महासमुद्र का खलखल शब्द हो रहा हो । इस प्रकार शोर करते हुए वे सिंहगुफा नामक चोरपल्ली से बाहर नीकले। राजगृह नगर आकर राजगृह नगर से कुछ दूर एक सघन वन में घूस गए । वहाँ घूसकर शेष रहे दिन को समाप्त करने लगे-तत्पश्चात् चोरसेनापति चिलात आधी रात के समय, जब सब जगह शान्ति और सूनसान हो गया था, पाँच सौ चोरों के साथ, रीछ आदि के बालों से सहित होने के कारण कोमल गोमुखित, छाती से बाँध कर यावत् जाँघों पर घूघरे लटका कर राजगृह नगर के पूर्व दिशा के दरवाजे पर पहुँचा । उसने जल की मशक ली । उसमें से जल को एक अंजलि लेकर आचमन किया, स्वच्छ हुआ, पवित्र हआ, फिर ताला खोलने की विद्या का आवाहन करके राजगृह नगर के किवाड़ों पर पानी छिड़का । किवाड़ उघाड़ लिए । तत्पश्चात् राजगृह के भीतर प्रवेश करके ऊंचे-ऊंचे शब्दों से आघोषणा करते-करते इस प्रकार बोला देवानुप्रियो ! मैं चिलात नामक चोरसेनापति, पाँच सौ चौरों के साथ, सिंहगुफा नामक चोर-पल्ली से, धन्य सार्थवाह का घर लूटने के लिए यहाँ आया हूँ । जो नवीन माता का दूध पीना चाहता हो, वह नीकलकर मेरे सामने आवे ।' इस प्रकार कहकर वह धन्य सार्थवाह के घर आया । आकर उसने धन्य सार्थवाह का घर उघाड़ा। धन्य सार्थवाह ने देखा कि पाँच सै चोरों के साथ चिलात चोरसेनापति के द्वारा घर लूटा जा रहा है । यह देखकर वह भयभीत हो गया, घबरा गया और अपने पाँचों पुत्रों के साथ एकान्त में चला गया-छिप गया । तत्पश्चात् चोर सेनापति चिलात ने धन्य सार्थवाह को लूटा । बहुत सारा धन, कनक यावत् स्वापतेय तथा सुंसुमा दारिका को लेकर वह राजगृह से बाहर नीकलकर जिधर सिंहगुफा थी, उसी ओर जाने के लिए उद्यत हुआ। । सूत्र-२११ चोरों के चले जाने के पश्चात् धन्य सार्थवाह अपने घर आया । आकर उसने जाना कि मेरा बहुत-सा धन कनक और सुंसुमा लड़की का अपहरण कर लिया गया है । यह जानकर वह बहुमूल्य भेंट लेकर के रक्षकों के पास गया और उनसे कहा- देवानुप्रियो ! चिलात नामक चोरसेनापति सिंहगुफा नामक चोरपल्ली से यहाँ आकर, पाँच सौ चोरों के साथ, मेरा घर लूटकर और बहुत-सा धन, कनक तथा सुंसुमा लड़की को लेकर चला गया है । अत एव हम, हे देवानुप्रियो ! सुंसुमा लड़की को वापिस लाने के लिए जाना चाहते हैं । देवानुप्रियो ! जो धन, कनक वापिस मिले वह सब तुम्हारा होगा और सुंसमा दारिका मेरी रहेगी । तब नगर के रक्षकों ने धन्य सार्थवाह की यह बात स्वीकार की । वे कवच धारण करके सन्नद्ध हुए । उन्होंने आयुध और प्रहरण लिए । फिर जोर-जोर के उत्कृष्ट द्र की खलभलाहट जैसा शब्द करते हए राजगह से बाहर नीकले । नीकलकर जहाँ चिलात चोर था, वहाँ पहँचे, पहँचकर चिलात चोरसेनापति के साथ युद्ध करने लगे। तब नगररक्षकों ने चोरसेनापति चिलात को हत, मथित करके यावत् पराजित कर दिया । उस समय वे पाँच सौ चोर नगररक्षकों द्वारा हत, मथित होकर और पराजित होकर उस विपुल धन और कनक आदि को छोड़कर और फेंक कर चारों ओर भाग खड़े हए । तत्पश्चात् नगररक्षकों ने वह विपुल धन, कनक आदि ग्रहण कर लिया । ग्रहण करके वे जिस ओर राजगह नगर था, उसी ओर चल पड़े । नगररक्षकों द्वारा चोरसैन्य को हत एवं मथित हुआ देखकर तथा उसके श्रेष्ठ वीर मारे गए, ध्वजा-पताका नष्ट हो गई, प्राण संकट में पड़ गए हैं, सैनिक मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 146 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक इधर उधर भाग छूटे हैं, यह देखकर चिलात भयभीत और उद्विग्न हो गया । वह सुंसुमा को लेकर एक महान् अग्रामिक तथा लम्बे मार्ग वाली अटवी में घुस गया । उस समय धन्य सार्थवाह सुंसुमा दारिका को अटवी के सम्मुख से ले जाती देखकर, पाँचों पुत्रों के साथ छठा आप स्वयं कवच पहनकर, चिलात के पैरों के मार्ग पर चला। वह उसके पीछे-पीछे चलता हुआ, गर्जना करता हुआ, चुनौती देता हुआ, पुकारता हुआ, तर्जना करता हुआ और उसे त्रस्त करता हुआ उसके पीछे-पीछे चलने लगा। चिलात ने देखा की धन्य सार्थवाह पाँच पुत्रों के साथ आप स्वयं छठा सन्नद्ध होकर मेरा पीछा कर रहा है। यह देखकर निस्तेज, निर्बल, पराक्रमहीन एवं वीर्यहीन हो गया । जब वह सुंसुमा दारिका का निर्वाह करने में समर्थ न हो सका, तब श्रान्त हो गया-ग्लानि को प्राप्त हुआ और अत्यन्त श्रान्त हो गया । अत एव उसने नील कमल के समान तलवार हाथ में ली और सुंसुमा का सिर काट लिया । कटे सिर को लेकर वह उस अग्रामिक या दुर्गम अटवी में घूस गया । चिलात उस अग्रामिक अटवी में प्यास से पीड़ित होकर दिशा भूल गया । वह चोरपल्ली तक नहीं पहँच सका और बीच में ही मर गया । इसी प्रकार हे आयुष्मन श्रमणों ! जो साधु या साध्वी प्रव्रजित होकर वमन बहता यावत् विनाशशील इस औदारिक शरीर के वर्ण के लिए यावत् आहार करते हैं, वे इसी लोक में बहुत-से श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों और श्राविकाओं की अवहेलना का पात्र बनते हैं और दीर्घ संसार में पर्यटन करते हैं, जैसे चिलात चोर अन्त में दुःखी हआ। धन्य सार्थवाह पाँच पुत्रों के साथ आप छठा स्वयं चिलात के पीछे दौड़ता-दौड़ता प्यास से और भूख से श्रान्त हो गया, ग्लान हो गया और बहुत थक गया । वह चोरसेनापति चिलात को अपने हाथ से पकड़ने में समर्थन हो सका । तब वह वहाँ से लौट पड़ा, जहाँ सुसुमा दारिका को चिलात ने जीवन से रहित कर दिया था । उसने देखा कि बालिका सुंसुमा चिलात के द्वारा मार डाली गई है । यह देखकर कुल्हाड़े से काटे हुए चम्पक वृक्ष के समान या बंधनमुक्त इन्द्रयष्टि के समान धड़ाम से वह पृथ्वी पर गिर पड़ा । पाँच पुत्रों सहित छठा आप धन्य सार्थवाह आश्वस्त हुआ तो आक्रंदन करने लगा, विलाप करने लगा और जोर-जोर के शब्दों से कुह-कुह करता रोने लगा । वह बहुत देर तक आंसू बहाता रहा । पाँच पुत्रों सहित छठे स्वयं धन्य सार्थवाह ने चिलात चोर के पीछे चारों ओर दोड़ने के कारण प्यास और भूख से पीड़ित होकर, उस अग्रामिक अटवी में सब तरफ जल की मार्गणा-गवेषणा की। वह श्रान्त हो गया, ग्लान हो गया, बहुत थक गया और खिन्न हो गया । उस अग्रामिक अटवी में जल की खोज करने पर भी वह कहीं जल न पा सका। तत्पश्चात् कहीं भी जल न पाकर धन्य सार्थवाह, जहाँ सुसुमा जीवन से रहीत की गई थी, उस जगह आया। उसने ज्येष्ठ पुत्र को बुलाकर कहा-'हे पुत्र ! सुंसुमा दारिका के लिए चिलात तस्कर के पीछे-पीछे चारों ओर दौड़ते हुए प्यास और भूख से पीड़ित होकर हमने इस अग्रामिक अटवी में जल की तलाश की, मगर जल न पा सके । जल के बिना हम लोग राजगृह नहीं पहुँच सकते । अत एव हे देवानुप्रिय ! तुम मुझे जीवन से रहित कर दो और सब भाई मेरे मांस और रुधिर का आहार करो । आहार करके उस आहार से स्वस्थ होकर फिर इस अग्रामिक अटवी को पार कर जाना, राजगृह नगर पा लेना, मित्रों, ज्ञातिजनों, निजजनों, स्वजनों, सम्बन्धीयों और परिजनों से मिलना तथा अर्थ, धर्म और पुण्य के भागी होना । धन्य सार्थवाह के इस प्रकार कहने पर ज्येष्ठ पुत्र ने धन्य सार्थवाह से कहा-'तात ! आप हमारे पिता हो, गुरु हो, जनक हो, देवता-स्वरूप हो, स्थापक हो, प्रतिष्ठापक हो, कष्ट से रक्षा करने वाले हो, दुर्व्यसनों से बचाने वाले हो, अतः हे तात ! हम आपको जीवन से रहित कैसे करें ? कैसे आपके मांस और रुधिर का आहार करें ? हे तात ! आप मुझे जीवन-हीन कर दो और मेरे मांस तथा रुधिर का आहार करो और इस अग्रामिक अटवी को पार करो ।' इत्यादि पूर्ववत् यहाँ तक की अर्थ, धर्म और पुण्य के भागी बनो । तत्पश्चात् दूसरे पुत्र ने धन्य सार्थवाह से कहा-'हे तात ! हम गुरु और देव के समान ज्येष्ठ बन्धु को जीवन से रहित नहीं करेंगे । हे तात ! आप मुझको जीवन से रहित कीजिए, यावत् आप सब पुण्य के भागी बनीए।' तीसरे, चौथे और पाँचवे पुत्र ने भी इसी प्रकार कहा। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 147 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह ने पाँचों पुत्रों के हृदय की ईच्छा जानकर पाँचों पुत्रों से इस प्रकार कहा-'पुत्रों ! हम किसी को भी जीवन से रहित न करें । यह सुंसुमा का शरीर निष्प्राण, निश्चेष्ट और जीवन द्वारा त्यक्त है, अत एव हे पुत्रों ! सुंसुमा दारिका के मांस और रुधिर का आहार करना हमारे लिए उचित होगा । हम लोग उस आहार से स्वस्थ होकर राजगृह को पा लेंगे । धन्य सार्थवाह के इस प्रकार कहने पर उन पाँच पुत्रों ने यह बात स्वीकार की। तब धन्य सार्थवाह ने पाँचों पुत्रों के साथ अरणि की। फिर शर बनाया । दोनों तैयार करके शर से अरणि का मंथन किया । अग्नि उत्पन्न की । अग्नि धौंकी, उसमें लकड़ियाँ डालीं, अग्नि प्रज्वलित करके सुंसुमा दारिका का मांस पका कर उस मांस का और रुधिर का आहार किया । उस आहार से स्वस्थ होकर वे रागजृह नगरी तक पहुँचे | अपने मित्रों एवं ज्ञातिजनों, स्वजनों, परिजनों आदि से मिले और विपुल धन, कनक, रत्न आदि के तथा धर्म, अर्थ एवं पुण्य के भागी हुए । तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह ने सुसुमा दारिका के बहुत-से लौकिक मृतक-कृत्य किए, तदनन्तर कुछ काल बीत जाने पर वह शोकरहित हो गया। सूत्र-२१२ उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर राजगृह के गुणशील चैत्य में पधारे । उस समय धन्य सार्थवाह वन्दना करने के लिए भगवान के निकट पहुँचा । धर्मोपदेश सूनकर दीक्षित हो गया । क्रमशः ग्यारह अंगों का वेत्ता मुनि हो गया । अन्तिम समय आने पर एक मास की संलेखना करके सौधर्म देवलोक में उत्पन्न हुआ। वहाँ से च्यवन करके महाविदेह क्षेत्र में संयम धारण करके सिद्धि प्राप्त करेगा । हे जम्बू ! जैसे उस धन्य सार्थवाह ने वर्ण के लिए, रूप के लिए, बल के लिए अथवा विषय के लिए सुंसुमा दारिका के मांस और रुधिर का आहार नहीं किया था, केवल राजगृह नगर को पाने के लिए ही आहार किया था । इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो साधु या साध्वी वमन को झराने वाले, पित्त को, शुक्र को और शोणित को झराने वाले यावत् अवश्य ही त्यागने योग्य इस औदारिक शरीर के वर्ण के लिए, बल के लिए अथवा विषय के लिए आहार नहीं करते हैं, केवल सिद्धिगति को प्राप्त करने के लिए आहार करते हैं, वे इसी भव में बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहत श्राविकाओं के अर्चनीय होते हैं एवं संसार-कान्तार को पार करते हैं । जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने अठारहवे ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है । जैसा मैनें सूना वैसा ही तुम्हें कहा है । अध्ययन-१८ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 148 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक अध्ययन-१९ - पुण्डरीक सूत्र - २१३ जम्बूस्वामी प्रश्न करते हैं-'भगवन् ! यदि यावत् सिद्धिप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने अठारहवे ज्ञातअध्ययन का यह अर्थ कहा है तो उन्नीसवे ज्ञात-अध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ कहा है ? श्री सुधर्मास्वामी ने जम्बूस्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा-जम्बू ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप में, पूर्व विदेह क्षेत्र में, सीता नामक महानदी के उत्तर किनारे नीलवन्त वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, उत्तर तरफ के सीतामुख वनखण्ड के पश्चिम में और एकशैल नामक वक्षार पर्वत से पूर्व दिशा में पुष्कलावती नामक विजय कहा गया है । उस पुष्कलावती विजय में पुण्डरीकिणी नामक राजधानी है । वह नौ योजन चौड़ी और बारह योजन लम्बी यावत् साक्षात् देवलोक के समान, मनोहर, दर्शनीय, सुन्दर रूप वाली और दर्शकों को आनन्द प्रदान करने वाली है। उस पुण्डरीकिणी नगरी में ईशानकोण में नलिनीवन नामक उद्यान था। (वर्णन) (समझ लेना) । उस पुण्डरीकिणी राजधानी में महापद्म राजा था । पद्मावती उसकी-पटरानी थी । महापद्म राजा के पुत्र और पद्मावती देवी के आत्मज दो कुमार थे-पुंडरीक और कंडरीक । उनके हाथ-पैर बहुत कोमल थे । उनमें पुंडरीक युवराज था । उस काल और उस समय में स्थविर मुनि का आगमन हआ अर्थात धर्मघोष स्थविर पाँच सौ अनगारों के साथ परिवृत्त होकर, अनुक्रम से चलते हुए, यावत् नलिनीवन नामक उद्यान में ठहरे । महापद्म राजा स्थविर मुनि को वन्दना करने नीकला । धर्मोपदेश सूनकर उसने पुंडरीक को राज्य पर स्थापित करके दीक्षा अंगीकार कर ली । अब पुंडरीक राजा हो गया और कंडरीक युवराज हो गया । महापद्म अनगार ने चौदह पूर्वो का अध्ययन किया । स्थविर मुनि बाहर जाकर जनपदों में विहार करने लगे । मुनि महापद्म ने बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्याय पालकर सिद्धि प्राप्त की। सूत्र - २१४ तत्पश्चात् एक बार किसी समय पुनः स्थविर पुंडरीकिणी राजधानी के नलिनीवन उद्यान में पधारे । पुंडरीक राजा उन्हें वन्दना करने के लिए नीकला । कंडरीक भी महाजनों के मुख से स्थविर के आने की बात सुनकर महाबल कुमार की तरह गया । यावत् स्थविर की उपासना करने लगा । स्थविर मुनिराज ने धर्म का उपदेश दिया। धर्मोपदेश सूनकर पुंडरीक श्रमणोपासक हो गया और अपने घर लौट आया। तत्पश्चात् कंडरीक युवराज खड़ा हुआ । उसने कहा-'भगवन् ! आपने जो कहा है-वैसा ही है-सत्य है । मैं पुंडरीक राजा से अनुमति ले लूँ, तत्पश्चात् यावत् दीक्षा ग्रहण करूँगा ।' तब स्थविर ने कहा-'देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख उपजे, वैसा करो । तत्पश्चात् कंडरीक ने यावत् स्थविर मुनि को वन्दन किया। उनके पास से नीकलकर चार घंटों वाले घोड़ों के रथ पर आरूढ़ हुआ, यावत् राजभवन में आकर ऊतरा । पुंडरीक राजा के पास गया; वहाँ जाकर हाथ जोड़कर यावत् पुंडरीक से कहा- देवानुप्रिय ! मैंने स्थविर मुनि से धर्म सुना है और वह धर्म मुझे रुचा है। अत एव हे देवानप्रिय ! मैं यावत प्रव्रज्या अंगीकार करनेकी ईच्छा रखता हूँ। तब पुंडरीक राजा ने कंडरीक युवराज से इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय! तुम इस जय मुंडित होकर यावत् दीक्षा ग्रहण मत करो। मैं तुम्हें महान्-महान् राज्याभिषेक से अभिषिक्त करना चाहता हूँ।' तब कंडरीक ने पुंडरीक राजा के इस अर्थ का आदर नहीं किया-स्वीकार नहीं किया; वह यावत् मौन रहा । तब पुंडरीक राजा ने दूसरी बार और तीसरी बार भी कण्डरीक से इस प्रकार कहा; यावत् कण्डरीक फिर भी मौन ही रहा । तत्पश्चात् जब पुण्डरीक राजा, कण्डरीक कुमार को बहुत कहकर और समझा-बुझाकर और विज्ञप्ति करके रोकने में समर्थ न हुआ, तब ईच्छा न होने पर भी उसने यह बात मान ली, यावत् उसे निष्क्रमण-अभिषेक से अभिषिक्त किया, यहाँ तक कि स्थविर मुनि को शिष्य-भिक्षा प्रदान की । तब कंडरीक प्रव्रजित हो गया, अनगार हो गया, यावत् ग्यारह अंगों का वेत्ता हो गया । तत्पश्चात् स्थविर भगवान अन्यथा कदाचित् पुण्डरीकिणी नगरी के नलिनीवन उद्यान से बाहर नीकले । नीकलकर बाहर जनपद-विहार करने लगे। सूत्र-२१५ तत्पश्चात् कंडरीक अनगार के शरीर में अन्त-प्रान्त अर्थात् रूखे-सूखे आहार के कारण शैलक मुनि के मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 149 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक समान यावत् दाह-ज्वर उत्पन्न हो गया । वे रुग्ण होकर रहने लगे । तत्पश्चात् एक बार किसी समय स्थविर भगवंत पुण्डरीकिणी नगरी में पधारे और नलिनीवन उद्यान में ठहरे । तब पुंडरीक राजमहल से नीकला और उसने धर्मदेशना श्रवण की । तत्पश्चात् धर्म सूनकर पुंडरीक राजा कंडरीक अनगार के पास गया । वहाँ जाकर कंडरीक मुनि की वन्दना की, नमस्कार किया । उसने कंडरीक मुनि का शरीर सब प्रकार की बाधा से युक्त और रोग से आक्रान्त देखा । यह देखकर राजा स्थविर भगवंत के पास गया । स्थविर भगवंत को वन्दन-नमस्कार किया । इस प्रकार निवेदन किया-'भगवन् ! मैं कंडरीक अनगार की यथाप्रवृत्त औषध और भेषज से चिकित्सा कराता हूँ अतः भगवन् ! आप मेरी यानशाला में पधारिए । तब स्थविर भगवान ने पुंडरीक राजा का यह विवेचन स्वीकार करके यावत् यानशाला में रहने की आज्ञा लेकर विचरने लगे-जैसे मंडुक राजा ने शैलक ऋषि की चिकित्सा करवाई, उसी प्रकार राजा पंडरीक ने कंडरीक की करवाई। चिकित्सा होने पर कंडरीक अनगार बलवान शरीरवाले हो गए तत्पश्चात् स्थविर भगवान ने पुण्डरीक राजा से पूछा तदनन्तर वे बाहर जाकर जनपद-विहार विहरने लगे। उस समय कण्डरीक अनगार उस रोग आतंक से मुक्त हो जाने पर भी उस मनोज्ञ अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार में मूर्च्छित, गद्ध, आसक्त और तल्लीन हो गए । अत एव वे पुण्डरीक राजा से पूछकर बाहर जनपदों में उग्र विहार करने में समर्थ न हो सके । शिथिलाचारी होकर वहीं रहने लगे । पुण्डरीक राजा ने इस कथा का अर्थ जाना तब वह स्नान करके और विभूषित होकर तथा अन्तःपुर के परिवार से परिवृत्त होकर जहाँ कंडरीक अनगार थे वहाँ आया । उसने कंडरीक को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की। फिर वन्दना की, नमस्कार किया । इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! आप धन्य हैं, कृतार्थ हैं, कृतपुण्य हैं, और सुलक्षण वाले हैं । देवानुप्रिय ! आपको मनुष्य के जन्म और जीवन का फल सुन्दर मिला है, जो आप राज्य को और अन्तःपुर को त्यागकर और दुत्कार कर प्रव्रजित हुए हैं । और मैं अधन्य हूँ, पुण्यहीन हूँ, यावत् राज्य में, अन्तःपुर में और मानवीय कामभोगों में मूर्छित यावत् तल्लीन हो रहा हूँ, यावत् दीक्षित होने के लिए समर्थ नहीं हो पा रहा हूँ । अत एव आप धन्य हैं, यावत् आपको जन्म और जीवन का सुन्दर फल प्राप्त हुआ है। तत्पश्चात् कण्डरीक अनगार ने पुण्डरीक राजा की इस बात का आदर नहीं किया । यावत् वह मौन बने रहे। तब पुण्डरीक ने दूसरी बार और तीसरी बार भी यही कहा । तत्पश्चात् ईच्छा न होने पर भी विवशता के कारण, लज्जा से और बड़े भाई के गौरव के कारण पुण्डरीक राजा से पूछा-पूछकर वह स्थविर के साथ बाहर जनपदों में विचरने लगे। उस समय स्थविर के साथ-साथ कुछ समय तक उन्होंने उग्र-उग्र विहार किया। उसके बाद वह श्रमणत्व से थक गए, श्रमणत्व से ऊब गए और श्रमणत्व से निर्भर्त्सना को प्राप्त हए । साधता के गणों से रहित हो गए । अत एव धीरे-धीरे स्थविर के पास से खिसक गए। जहाँ पुण्डरीकिणी नगरी थी और जहाँ पुण्डरीक राजा का भवन था, उसी तरफ आए । आकर अशोकवाटिका में, श्रेष्ठ अशोकवृक्ष के नीचे, पृथ्वीशिलापट्टक पर बैठ गए। बैठकर भग्नमनोरथ एवं चिन्तामग्न हो रहे । तत्पश्चात् पुण्डरीक राजा की धाय-माता जहाँ अशोकवाटिका थी, वहाँ गई । वहाँ जाकर उसने कण्डरीक अनगार को अशोकवृक्ष के नीचे, पृथ्वीशिलापट्टक पर भग्नमनोरथ यावत् चिन्तामग्न देखा । यह देखकर वह पुण्डरीक राजा के पास गई और उनसे कहने लगी-देवानुप्रिय ! तुम्हारा प्रिय भाई कण्डरीक अनगार अशोकवाटिका में, उत्तम अशोकवृक्ष के नीचे, पृथ्वीशिलापट्टक पर भग्नमनोरथ होकर यावत् चिन्ता में डूबा बैठा है। तब पुण्डरीक राजा, धाय-माता की यह बात सुनते और समझते ही संभ्रान्त हो उठा । उठकर अन्तःपुर के परिवार के साथ अशोकवाटिका में गया । जाकर यावत् कण्डरीक को तीन बार इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय ! तुम धन्य हो कि यावत् दीक्षित हो । मैं अधन्य हूँ कि यावत् दीक्षित होने के लिए समर्थ नहीं हो पाता । अत एव देवानुप्रिय ! तुम धन्य हो यावत् तुमनी मानवीय जन्म और जीवन का सुन्दर फल पाया है। पुंडरीक राजा के द्वारा इस प्रकार कहने पर कण्डरीक चूपचाप रहा । दूसरी बार और तीसरी बार कहने पर भी यावत् मौन ही बना रहा । तब पुण्डरीक राजा ने कंडरीक से पूछा-'भगवन् ! क्या भोगों से प्रयोजन है ?' तब कंडरीक ने कहा-'हाँ, है । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 150 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र - ६, 'ज्ञाताधर्मकथा ' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक तत्पश्चात् पुण्डरीक राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा- देवानुप्रियो ! शीघ्र ही कंडरीक के महान अर्थव्यय वाले एवं महान पुरुषों के योग्य राज्याभिषेक की तैयारी करो यावत् कंडरीक राज्याभिषेक से अभिषिक्त किया गया । वह मुनिपर्याय त्यागकर राजसिंहासन पर आसीन हो गया । सूत्र - २१६ तत्पश्चात् पुण्डरीक ने स्वयं पंचमुष्टिक लोच किया और स्वयं ही चातुर्याम धर्म अंगीकार किया। कंडरीक के आचारभाण्ड ग्रहण किए और इस प्रकार का अभिग्रह ग्रहण किया। स्थविर भगवान को वन्दन - नमस्कार करने और उनके पास से चातुर्याम धर्म अंगीकार करने के पश्चात् ही मुझे आहार करना कल्पता है। इस प्रकार का अभिग्रह धारण करके पुण्डरीक पुण्डरीकिणी नगरी से बाहर नीकला । अनुक्रम से चलता हुआ, एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाता हुआ, जिस ओर स्थविर भगवान थे, उसी ओर गमन करने को उद्यत हुआ । सूत्र - २१७ प्रणीत आहार करने वाले कण्डरीक राजा को अति जागरण करने से और मात्रा से अधिक भोजन करने के कारण वह आहार अच्छी तरह परिणत नहीं हुआ, पच नहीं सका । उस आहार का पाचन न होने पर, मध्यरात्रि के समय कण्डरीक राजा के शरीर में उज्ज्वल, विपुल, कर्कश, अन्यन्त गाढ़ी, प्रचंड और दुःखद वेदना उत्पन्न हो गई । उसका शरीर पित्तज्वर से व्याप्त हो गया । अत एव उसे दाह होने लगा । कण्डरीक ऐसी रोगमय स्थिति में रहने लगा। कंडरीक राजा राज्य में राष्ट्र में और अन्तःपुर में यावत् अतीव आसक्त बना हुआ, आर्त्तध्यान के वशीभूत हुआ, ईच्छा के बिना ही पराधीन होकर, काल करके नीचे सातवीं पृथ्वी में सर्वोत्कृष्ट स्थिति वाले नरक में नारक रूप से उत्पन्न हुआ । इस प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! यावत् जो साधु-साध्वी दीक्षित होकर पुनः कामभोगों की ईच्छा करता है, वह यावत् कंडरीक राजा की भाँति संसार में पुनः पुनः पर्यटन करता है। । सूत्र - २१८ पुंडरिकीणी नगरी से रवाना होने के पश्चात् पुंडरीक अनगार वहाँ पहुँचे जहाँ स्थविर भगवान थे । उन्होंने स्थविर भगवान को वन्दना की, नमस्कार किया । स्थविर के निकट दूसरी बार चातुर्याम धर्म अंगीकार किया । फिर षष्ठभक्त के पारणक में, प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया, (दूसरे प्रहर में ध्यान किया), तीसरे प्रहर में यावत् भिक्षा के लिए अटन करते हुए ठंडा और रूखा भोजन-पान ग्रहण किया। ग्रहण करके यह मेरे लिए पर्याप्त है, ऐसा सोच कर लौट आए । स्थविर भगवान के पास आए । भोजन-पानी दिखलाया । स्थविर भगवान की आज्ञा होने पर मूर्च्छाहीन होकर तथा गृद्धि, आसक्ति एवं तल्लीनता से रहित होकर, जैसे सर्प बिल में सीधा चला जाता है, उसी प्रकार उस प्रासुक तथा एषणीय अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार को उन्होंने शरीर रूपी कोठे में डाल दिया । पुंडरीक अनगार उस कालातिक्रान्त रसहीन; खराब रस वाले तथा ठंडे और रूखे भोजन पानी का आहार करके मध्य रात्रि के समय धर्मजागरण कर रहे थे। तब वह आहार उन्हें सम्यक् रूप से परिणत न हुआ । उस समय पुंडरीक अनगार के शरीर में उज्ज्वल, विपुल, कर्कश, प्रचण्ड एवं दुःखरूप, दुस्सह वेदना उत्पन्न हो गई । शरीर पित्तज्वर से व्याप्त हो गया और शरीर में दाह होने लगा । तत्पश्चात् पुंडरीक अनगार निस्तेज, निर्बल, वीर्यहीन और पुरुषकार - पराक्रमहीन हो गए । उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर यावत् इस प्रकार कहा यावत् सिद्धिप्राप्त अरिहंतों को नमस्कार हो मेरे धर्माचार्य और धर्मोपदेशक स्थविर भगवान को नमस्कार हो । स्थविर के निकट पहले भी मैंने समस्त प्राणातिपात का प्रत्याख्यान किया, यावत् मिथ्यादर्शन शल्य का त्याग किया था' इत्यादि कहकर यावत् शरीर का भी त्याग करके आलोचना प्रतिक्रमण करके, कालमास में काल करके सर्वार्थसिद्ध नामक अनुत्तर विमान में देवपर्याय में उत्पन्न हुए। वहाँ से अनन्तर च्यवन करके, सीधे महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्धि प्राप्त करेंगे। यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेंगे । इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो हमारा साधु या साध्वी दीक्षित होकर मनुष्य-सम्बन्धी कामभोगों में आसक्त नहीं होता, अनुरक्त नहीं होता, यावत् प्रतिघात को प्राप्त नहीं होता, वह इसी भव व बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( ज्ञाताधर्मकथा ) " आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद” Page 151 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय, वन्दनीय, पूजनीय, सत्करणीय, सम्माननीय, कल्याणरूप, मंगलकारक, देव और चैत्य समान उपासना करने योग्य होता है । इसके अतिरिक्त वह परलोक में भी राजदण्ड, राजनिग्रह, तर्जना और ताड़ना को प्राप्त नहीं होता, यावत् चतुर्गति रूप संसार-कान्तार को पार कर जाता है, जैसे पुंडरीक अनगार। जम्बू ! धर्म की आदि करने वाले, तीर्थ की स्थापना करने वाले, यावत् सिद्धि नामक स्थान को प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञात-अध्ययन के उन्नीसवे अध्ययन का यह अर्थ कहा है। इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त जिनेश्वर देव ने इस छठे अंग के प्रथम श्रुतस्कंध का यह अर्थ कहा है। सूत्र - २१९ इस प्रथम श्रुतस्कंध के उन्नीस अध्ययन हैं, एक-एक अध्ययन एक-एक दिन में पढ़ने से उन्नीस दिनों में यह अध्ययन पूर्ण होता है। अध्ययन-१९ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण श्रुतस्कन्ध-१ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 152 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक [श्रुतस्कन्ध-२] वर्ग-१ सूत्र - २२० उस काल और उस समय में राजगृह नगर था । (वर्णन) उस राजगह के बाहर ईशान कोण में गुणशील नामक चैत्य था । (वर्णन समझ लेना) उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के अन्तेवासी आर्य सुधर्मा नामक स्थविर उच्चजाति से सम्पन्न, कुल से सम्पन्न यावत् चौदह पूर्यों के वेत्ता और चार ज्ञानों से युक्त थे । वे पाँच सौ अनगारों से परिवृत्त होकर अनुक्रम से चलते हुए, ग्रामानुग्राम विचरते हुए और सुखे-सुखे विहार करते हुए जहाँ राजगृह नगर था और जहाँ गुणशील चैत्य था, वहाँ पधारे । यावत् संयम और तप के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे । सुधर्मास्वामी को वन्दना करने के लिए परीषद् नीकली । सुधर्मास्वामी ने धर्म का उपदेश दिया । तत्पश्चात् परीषद् वापिस चली गई। उस काल और उस समय में आर्य सुधर्मा अनगार के अन्तेवासी आर्य जम्बू अनगार यावत् सुधर्मास्वामी की उपासना करते हुए बोले-भगवन् ! यदि यावत् सिद्धि को प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने छठे अंग के 'ज्ञातश्रुत' नामक प्रथम श्रुतस्कंध का यह अर्थ कहा है, तो भगवन् ! धर्मकथा नामक द्वीतिय श्रुतस्कंध का सिद्धपद को प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! यावत् सिद्धिप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथा नामक द्वीतिय श्रुतस्कंध के दस वर्ग कहे हैं । वे इस प्रकार हैं-चमरेन्द्र की अग्रमहिषियों का प्रथम वर्ग । वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि की अग्रमहिषियों का दूसरा वर्ग । असुरेन्द्र को छोड़कर शेष नौ दक्षिण पति इन्द्रों की अग्रमहिषियों का तीसरा वर्ग । असुरेन्द्र के सिवाय नौ उत्तर दिशा के भवनपति इन्द्रों की अग्रमहिषियों का चौथा वर्ग । दक्षिण दिशा के वाणव्यन्तर देवों के इन्द्रों की अग्र-महिषियों का पाँचवा वर्ग। उत्तर दिशा के वाणव्यन्तर देवों के इन्द्रों की अग्रमहिषियों का छठा वर्ग । चन्द्र की अग्र-महिषियों का सातवा वर्ग । सूर्य की अग्रमहिषियों का आठवा वर्ग । शक्र इन्द्र की अग्रमहिषियों का नौवा वर्ग और ईशानेन्द्र की अग्रमहिषियों का दसवा वर्ग। भगवन् ! श्रमण भगवान यावत् सिद्धिप्राप्त ने यदि धर्मकथा श्रुतस्कंध के दस वर्ग कहे हैं, तो भगवन् ! प्रथम वर्ग का श्रमण यावत् सिद्धिप्राप्त भगवान ने क्या अर्थ कहा है ? जम्बू ! श्रमण यावत् सिद्धिप्राप्त भगवान ने प्रथम वर्ग के पाँच अध्ययन कहे हैं । काली, राजी, रजनी, विद्युत और मेघा । अध्ययन-१-काली भगवन् ! श्रमण यावत् सिद्धिप्राप्त महावीर भगवान ने यदि प्रथम वर्ग के पाँच अध्ययन कहे हैं तो हे भगवन् ! प्रथम अध्ययन का श्रमण यावत् सिद्धिप्राप्त भगवान ने क्या अर्थ कहा है ? जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नगर था, गुणशील चैत्य था, श्रेणिक राजा था और चेलना रानी थी । उस समय स्वामी का पदार्पण हआ । वन्दना करने के लिए परीषद नीकली, यावत परीषद भगवान की पर्युपासना करने लगी। उस काल और उस समय में, काली नामक देवी चमरचंचा राजधानी में, कालावतंसक भवन में, काल नामक सिंहासन पर आसीन थीं । चार हजार सामानिक देवियों, चार महत्तरिका देवियों, परिवार सहित तीनों परिषदों, सात अनीकों, सात अनीकाधिपतियों, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों तथा अन्यान्य कालावतंसक भवन के निवासी असुरकुमार देवों और देवियों से परिवृत्त होकर जोर से बजने वाले वादिंत्र नृत्य गीत आदि से मनोरंजन करती हई विचर रही थी। वह काली देवी इस केवल-कल्प जम्बूद्वीप को अपने विपुल अवधिज्ञान से उपयोग लगाती हुई देख रही थी। उसने जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में, राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में, यथाप्रतिरूप-साधु के लिए उचित स्थान की याचना करके. संयम और तप द्वारा आत्मा को भावित करते हए श्रमण भगवान महावीर को देखा । वह हर्षित मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 153 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक और सन्तुष्ट हुई । उसका चित्त आनन्दित हुआ । मन प्रीतियुक्त हो गया । वह अपहृतहृदय होकर सिंहासन से उठी। पादपीठ से नीचे उतरी । उसने पादुका उतार दिए । फिर तीर्थंकर भगवान के सम्मुख सात-आठ पैर आगे बढ़ी। बायें घूटने को ऊपर रखा और दाहिने घूटने को पृथ्वी पर टेक दिया । फिर मस्तक कुछ ऊंचा किया । कड़ों और बाजूबंदों से स्तंभित भुजाओं को मिलाया । दोनों हाथ जोड़कर कहने लगी-यावत् सिद्धि को प्राप्त अरिहंत भगवंतों को नमस्कर हो । यावत् सिद्धि को प्राप्त करने की इच्छा वाले श्रमण भगवान महावीर को नमस्कार हो । यहाँ रही हुई मैं, वहाँ स्थित भगवान को वन्दना करती हूँ । वहाँ स्थित श्रमण भगवान महावीर, यहाँ रही हुई मुझको देखें । इस प्रकार कहकर वन्दना की, नमस्कार किया । पूर्व दिशा की ओर मुख करके अपने श्रेष्ठ सिंहासन पर आसीन हो गई। तत्पश्चात् काली देवी को इस प्रकार का अध्यवसाय उत्पन्न हुआ-' श्रमण भगवान महावीर को वन्दना करके यावत् उनकी पर्युपासना करना मेरे लिए श्रेयस्कर है ।' आभियोगिक देवों को बुलाकर उन्हें कहा-'देवानुप्रियो ! श्रमण भगवान महावीर राजगृह नगर के गुणशील चैत्य में बिराजमान हैं, इत्यादि जैसे सूर्याभ देव ने अपने आभियोगिक देवों को आज्ञा दी थी, उसी प्रकार काली देवी ने भी आज्ञा दी यावत् दिव्य और श्रेष्ठ देवताओं के योग्य यान-विमान बनाकर तैयार करो, यावत् मेरी आज्ञा वापिस सौंपो ।' आभियोगिक देवों ने आज्ञानुसार कार्य करके आज्ञा लौटा दी । यहाँ विशेषता यही है कि हजार योजन विस्तार वाला विमान बनाया । शेष वर्णन सूर्याभ के समान । सूर्याभ की तरह ही भगवान के पास जाकर अपना नाम-गोत्र कहा, उसी प्रकार नाटक दिखलाया । फिर वन्दन-नमस्कार करके काली देवी वापिस चली गई। भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना की, नमस्कार किया, कहा-'भगवन् ! काली देवी की वह दिव्य ऋद्धि कहाँ चली गई ?' भगवान ने उत्तर में कुटाकारशाला का दृष्टान्त दिया। 'अहो भगवन् ! काली देवी महती ऋद्धि वाली हैं । भगवन् ! काली देवी को वह दिव्य देवर्धि पूर्वभव में क्या करने से मिली ? देवभव में कैसे प्राप्त हुई ? और किस प्रकार उसके सामने आई, अर्थात् उपभोग में आने योग्य हुई ?' यहाँ भी सूर्याभ देव के समान ही कथन समझना । भगवान ने कहा-'हे गौतम ! उस काल और उस समय में, इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, आमलकल्पा नामक नगरी थी । उस नगरी के बाहर ईशान दिशा में आम्रशालवन नामक चैत्य था । उस नगरी में जितशत्रु नामक राजा था । उस आमलकल्पा नगरी में काल नामक गाथापति रहता था । वह धनाढ्य था और किसी से पराभूत होने वाला नहीं था । काल नामक गाथापति की पत्नी का नाम कालश्री था । वह सुकुमार हाथ पैर आदि अवयवों वाली यावत् मनोहर रूप वाली थी । उस काल गाथापति की पुत्री और कालश्री भार्या की आत्मजा काली नामक बालिका थी । वह बड़ी थी और बड़ी होकर भी कुमार थी । वह जीर्णा थी और जीर्ण होते हुए कुमारी थी । उसके स्तन नीतंब प्रदेश तक लटक गए थे । वर उससे विरक्त हो गए थे, अत एव वह वर-रहित अविवाहित रह रही थी। उस काल और उस समय में पुरुषादानीय एवं धर्म की आदि करने वाले पार्श्वनाथ अरिहंत थे । वे वर्धमान स्वामी के समान थे । विशेषता इतनी की उनका शरीर नौ हाथ ऊंचा था तथा वे सोलह हजार साधुओं और अडतालीस हजार साध्वीयों से परिवृत्त थे । यावत् वे पुरुषादानीय पार्श्व तीर्थंकर आम्रशालवन में पधारे । वन्दना करने के लिए परीषद् नीकली, यावत् वह परीषद् भगवान की उपासना करने लगी । तत्पश्चात् वह काली दारिका इस कथा का अर्थ प्राप्त करके अर्थात् भगवान के पधारने का समाचार जानकर हर्षित और संतुष्ट हृदय वाली हुई। जहाँ माता-पिता थे, वहाँ गई । दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार बोली-'हे माता-पिता ! पार्श्वनाथ अरिहंत पुरुषादानीय, धर्मतीर्थ की आदि करने वाले यावत् यहाँ विचर रहे हैं । अत एव हे माता-पिता ! आपकी आज्ञा हो तो मैं पार्श्वनाथ अरिहंत पुरुषादानीय के चरणों में वन्दना करने जाना चाहती हूँ । माता-पिता ने उत्तर दिया-'देवानुप्रिये ! तुझे जैसे सुख उपजे, वैसा कर । धर्मकार्य में विलम्ब मत कर ।' तत्पश्चात् वह काली नामक दारिका का हृदय माता-पिता की आज्ञा पाकर हर्षित हुआ । उसने स्न मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 154 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक किया, बलिकर्म किया, कौतुक, मंगल और प्रायश्चित्त किया तथा साफ, सभा के योग्य, मांगलिक और श्रेष्ठ वस्त्र धारण किए । अल्प किन्तु बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को विभूषित किया । फिर दासियों के समूह से परिवृत्त होकर अपने गृह से नीकली । नीकलकर जहाँ बाहर की उपस्थानशाला थी, वहाँ आकर धर्मकार्य में प्रयुक्त होने वाले श्रेष्ठ यान पर आरूढ़ हुई । तत्पश्चात् काली नामक दारिका धार्मिक श्रेष्ठ यान पर आरूढ़ होकर द्रौपदी के समान भगवान को वन्दना करके उपासना करने लगी । उस समय पुरुषादानीय तीर्थंकर पार्श्व ने काली नामक दारिका को और उपस्थित विशाल जनसमूह को धर्म का उपदेश दिया । तत्पश्चात् उस काली दारिका ने पुरुषादानीय अरिहंत पार्श्वनाथ के पास से धर्म सूनकर और उसे हृदयंगम करके, हर्षितहृदय होकर यावत् पुरुषादानीय अरिहंत पार्श्वनाथ को तीन बार वन्दना की, नमस्कार किया । भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करती हूँ । यावत् आप जैसा कहते हैं, वह वैसा ही है । केवल हे देवानुप्रिय ! मैं अपने माता-पिता से पूछ लेती हूँ, उसके बाद मैं आप देवानुप्रिय के निकट प्रव्रज्या ग्रहण करूँगी ।' भगवान ने कहा-'देवानुप्रिये ! जैसे तुम्हें सुख उपजे, करो। तत्पश्चात पुरुषादानीय अरिहंत पार्श्व के द्वारा इस प्रकार कहने पर वह काली नामक दारिका हर्षित एवं संतुष्ट हृदय वाली हुई । उसने पार्श्व अरिहंत को वन्दन और नमस्कार किया । करके वह उसी धार्मिक श्रेष्ठ यान पर आरूढ़ हुई। आरूढ़ होकर पुरुषादानीय अरिहंत पार्श्व के पास से, आम्रशालवन नामक चैत्य से बाहर नीकली और आमलकल्पा नगरी की ओर चली । बाहर की उपस्थानशाला पहुँची । धार्मिक एवं श्रेष्ठ यान को ठहराया और फिर उससे नीचे ऊतरी । फिर अपने माता-पिता के पास जाकर और दोनों हाथ जोड़कर यावत् बोली- हे माता-पिता ! मैंने पार्श्वनाथ तीर्थंकर से धर्म सूना है और उस धर्म की मैंने ईच्छा की है, पुनः पुनः ईच्छा की है । वह धर्म मुझे रुचा है । इस कारण हे मात-तात ! मैं संसार के भय से उद्विग्न हो गई हूँ, जन्म-मरण से भयभीत हो गई हूँ। आपकी आज्ञा पाकर पार्श्व अरिहंत के समीप मुंडित होकर, गृहत्याग कर अनगारिता की प्रव्रज्या धारण करना चाह माता-पिता ने कहा-'जैसे सुख उपजे, करो । धर्मकार्य में विलम्ब न करो। तत्पश्चात् काल नामक गाथापति ने विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन तैयार करवाया । तैयार करवाकर मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकों, स्वजनों, सम्बन्धीयों और परिजनों को आमंत्रित किया । स्नान किया। फिर यावत् विपुल पुष्प, वस्त्र, गंध, माल्य और अलंकार से उनका सत्कार-सम्मान करके उन्हीं ज्ञाति, मित्र, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों के सामने काली नामक दारिका को श्वेत एवं पीत अर्थात चाँदी और सोने के कलशों से स्नान करवाया । उसे सर्व अलंकारों से विभूषित किया । पुरुषसहस्त्रवाहिनी शिबिका पर आरूढ़ करके मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों के साथ परिवृत्त होकर सम्पूर्ण ऋद्धि के साथ, यावत वाद्यों की ध्वनि के साथ, आमलकल्पा नगरी के बीचों-बीच होकर नीकले । आम्रशालवन की ओर चले । चलकर छत्र आदि तीर्थंकर भगवान के अतिशय देखे । अतिशयों पर दृष्टि पडते ही शिबिका रोक दी गई। फिर माता-पिता काली नामक दारिका को शिबिका से नीचे ऊतारकर और फिर उसे आगे करके जिस ओर पुरुषादानीय तीर्थंकर पार्श्व थे, उसी ओर गए । जाकर भगवान को वन्दना की, नमस्कार किया । पश्चात् इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय ! काली नामक दारिका हमारी पुत्री है । हमें यह इष्ट है और प्रिय है, यावत् इसका दर्शन भी दुर्लभ है । देवानुप्रिय ! यह संसार-भ्रमण के भय से उद्विग्न होकर आप देवानुप्रिय के निकट मुण्डित होकर यावत् प्रव्रजित होने की ईच्छा करती है । अत एव हम यह शिष्यनीभिक्षा देवानुप्रिय को अर्पित करते हैं । देवानुप्रिय ! शिष्यनीभिक्षा स्वीकार करें। तब भगवान बोले- देवानुप्रिय ! जैसे सुख उपजे, करो । धर्मकार्य में विलम्ब न करो ।' तत्पश्चात् काली कुमारी ने पार्श्व अरिहंत को वन्दना की, नमस्कार किया । वह ईशान दिशा के भाग में गई। वहाँ जाकर उसने स्वयं ही आभूषण, माला और अलंकार उतारे और स्वयं ही लोच किया । फिर जहाँ पुरुषादानीय अरहंत पार्श्व थे वहाँ आई । आकर पार्श्व अरिहंत को तीन बार वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार बोली-'भगवन् ! यह लोक आदीप्त है इत्यादि देवानन्दा के समान जानना । यावत् मैं चाहती हूँ कि आप स्वयं ही मुझे दीक्षा प्रदान ता ह। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 155 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक करें । तत्पश्चात् पुरुषादानीय अरिहंत पार्श्व ने स्वयमेव काली कुमारी को, पुष्पचूला आर्या को शिष्यनी के रूप में प्रदान किया । तब पुष्पचूला आर्या ने काली कुमारी को स्वयं ही दीक्षित किया । यावत् वह काली प्रव्रज्या अंगीकार करके विचरने लगी । तत्पश्चात् वह काली आर्या ईर्यासमिति से युक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी आर्या हो गई। तदनन्तर उस काली आर्या ने पुष्पचूला आर्या के निकट सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया तथा बहुत-से चतुर्थभक्त-उपवास, आदि तपश्चरण करती हुई विचरने लगी। तत्पश्चात् किसी समय, एक बार काली आर्या शरीरबाकुशिका हो गई । अत एव वह बार-बार हाथ धोने लगी, पैर धोने लगी, सिर धोने लगी, मुख धोने लगी, स्तनों के अन्तर धोने लगी, काँखों के अन्तर-प्रदेश धोने लगी और गुह्यस्थान धोने लगी । जहाँ-जहाँ वह कायोत्सर्ग, शय्या या स्वाध्याय करती थी, उस स्थान पर पहले जल छिड़क कर बाद में बैठती अथवा सोती थी। तब पुष्पचूला आर्या ने उस काली आर्या से कहा- देवानुप्रिये ! श्रमणी निर्ग्रन्थियों को शरीरबकुशा होना नहीं कल्पता और तुम देवानप्रिये ! शरीरबकशा हो गई हो । बार-बार हाथ धोती हो, यावत् पानी छिड़ककर बैठती और सोती हो । अत एव देवानुप्रिये ! तुम इस पापस्थान की आलोचना करो, यावत् प्रायश्चित्त-अंगीकार करो ।' तब काली आर्या ने पुष्पचूला आर्या की यह बात स्वीकार नहीं की । यावत् वह चूप बनी रही। वे पुष्पचूला आदि आर्याएं, काली आर्या की बार-बार अवहेलना करने लगी, निन्दा करने लगी, चिढने लगी, गर्दा करने लगी, अवज्ञा करने लगी और बार-बार इस अर्थ को रोकने लगी। निर्ग्रन्थी श्रमणियों द्वारा बारबार अवहेलना की गई यावत् रोकी गई उस काली आर्यिका के मन में इस प्रकार का अध्यवसाय उत्पन्न हुआ-'जब मैं गृहवास में थी, तब मैं स्वाधीन थी, किन्तु जब से मैंने मुण्डित होकर गृहत्याग कर अनगारिता की दीक्षा अंगीकार की है, तब से मैं पराधीन हो गई हूँ। अत एव कल रजनी के प्रभातयुक्त होने पर यावत् सूर्य के देदीप्यमान होने पर अलग उपाश्रय ग्रहण करके रहना ही मेरे लिए श्रेयस्कर होगा । दूसरे दिन सूर्य के प्रकाशमान होने पर उसने पृथक् उपाश्रय ग्रहण कर लिया । वहाँ कोई रोकने वाला नहीं रहा, हटकने वाला नहीं रहा, अत एव वह स्वच्छन्दमति हो गई और बार-बार हाथ-पैर आदि धोने लगी, यावत् जल छिड़क-छिड़क कर बैठने और सोने लगी। तत्पश्चात् वह काली आर्या पासत्था पासत्थविहारिणी, अवसन्ना, अवसन्नविहारिणी, कुशीला, कुशीलविहारिणी, यथाच्छंदा, यथाछंदविहारिणी, संसक्ता तथा संसक्तविहारिणी होकर, बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय अर्द्धमास की संलेखना द्वारा आत्मा को क्षीण करके तीस बार के भोजन को अनशन से छेदकर, उस पापकर्म की आलोचना-प्रतिक्रमण किए बिना ही, कालमास में काल करके चमरचंचा राजधानी में, कालावतंसक नामक विमान में, उपपात सभा में, देवशय्या में, देवदूष्य वस्त्र से अंतरित होकर अंगुल के असंख्यातवे भाग की अवगाहना द्वारा, काली देवी के रूप में उत्पन्न हुई । तत्पश्चात् काली देवी तत्काल सूर्याभ देव की तरह यावत् भाषापर्याप्ति और मनः पर्याप्ति आदि पाँच प्रकार की पर्याप्तियों से युक्त हो गई । वह काली देवी चार हजार सामानिक देवों तथा अन्य बहुतेरे कालावतंसक नामक भवन में निवास करने वाले असुरकुमार देवों और देवियों का अधिपतित्व करती हुई यावत् रहने लगी । इस प्रकार हे गौतम ! काली देवी ने वह दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति और दिव्य देवानुभाव प्राप्त किया है यावत् उपभोग में आने योग्य बनाया है। गौतम स्वामी ने प्रश्न किया-'भगवन् ! काली देवी की कितने काल की स्थिति कही गई है ?' भगवान् हे गौतम ! अढ़ाई पल्योपम की स्थिति कही है । गौतम-'भगवन् ! काली देवी उस देवलोक से अनन्तर च्यवन करके कहाँ उत्पन्न होंगी?' भगवान्-'गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर यावत् सिद्धि प्राप्त करेगी यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेगी।' हे जम्बू ! यावत् सिद्धि को प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ कहा है । वही मैंने तुमसे कहा है। ----0-----0-----0-----0-----0-----0----- मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 156 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक वर्ग-१ - अध्ययन-२'राजी' सूत्र - २२१ भगवन् ! यदि यावत् सिद्धि को प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथा के प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ कहा है तो यावत् सिद्धिप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने दूसरे अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ?' हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नगर था तथा गुणशील नामक चैत्य था । स्वामी पधारे । वन्दन करने के लिए परीषद् नीकली यावत् भगवान की उपासना करने लगी । उस काल और उस समय में राजी नामक देवी चमरचंचा राजधानी से काली देवी के समान भगवान की सेवा में आई और नाट्यविधि दिखला कर चली गई । उस समय 'हे भगवन् !' इस प्रकार कहकर गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार करके राजी देवी के पूर्वभव की पृच्छा की। हे गौतम ! उस काल और उस समय में आमलकल्पा नगरी थी । आम्रशालवन नामक उद्यान था । जितशत्रु राजा था । राजी नामक गाथापति था । उसकी पत्नी का नाम राजश्री था । राजी उसकी पुत्री थी। किसी समय पार्श्व तीर्थंकर पधारे । काली की भाँति राजी दारिका भी भगवान को वन्दना करने के लिए नीकली । वह भी काली की तरह दीक्षित होकर शरीरबकुश हो गई । शेष समस्त वृत्तान्त काली के समान ही समझना, यावत् वह महाविदेह क्षेत्र में सिद्धि प्राप्त करेगी । इस प्रकार हे जम्बू ! द्वीतिय अध्ययन का निक्षेप जानना । वर्ग-१ - अध्ययन-३ 'रजनी' सूत्र - २२२ तीसरे अध्ययन का उत्क्षेप इस प्रकार है-'भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथा के प्रथम वर्ग के द्वीतिय अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ कहा है तो, भगवन् ! श्रमण भगवान महावीर ने तीसरे अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? जम्बू ! राजगृह नगर था, गुणशील चैत्य था इत्यादि राजी के समान रजनी के विषय में भी नाट्यविधि दिखलाने आदि कहना चाहिए । विशेषता यह है-आमलकल्पा नगरी में रजनी नामक गाथापति था । उसकी पत्नी का नाम रजनीश्री था। उसकी पुत्री का भी नाम रजनी था । शेष पूर्ववत्, यावत् वह महाविदेह क्षेत्र से मुक्ति प्राप्त करेगी। वर्ग-१ - अध्ययन-४ 'विद्युत्' सूत्र - २२३ इसी प्रकार विद्युत देवी का कथानक समझना चाहिए । विशेष यह कि आमलकल्पा नगरी थी । उसमें विद्युत नामक गाथापति निवास करता था । उसकी पत्नी विद्युत्श्री थी । विद्युत् नामक उसकी पुत्री थी। शेष पूर्ववत् । वर्ग-१ - अध्ययन-५ 'मेघा' सूत्र - २२४ मेघा देवी का कथानक भी ऐसा ही जान लेना । विशेषता यह है-आमलकल्पा नगरी थी। मेघ गाथापति था । मेघश्री भार्या थी । पुत्री मेघा थी । शेष पूर्ववत् । वर्ग-१ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 157 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक वर्ग-२ सूत्र - २२५ भगवन् ! यावत् मुक्तिप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने प्रथम वर्ग का यह अर्थ कहा है तो दूसरे वर्ग का क्या अर्थ कहा है ? जम्बू ! श्रमण यावत् मुक्तिप्राप्त भगवान महावीर ने दूसरे वर्ग के पाँच अध्ययन कहे हैं । शुंभा, निशुंभा, रंभा, निरंभा और मदना । भगवन् ! यदि श्रमण यावत् सिद्धिप्राप्त भगवान महावीर ने धर्मकथा के द्वीतिय वर्ग के पाँच अध्ययन प्रज्ञप्त किए हैं तो द्वीतिय वर्ग के प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है ? जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नगर था, गुणशील चैत्य था । भगवान का पदार्पण हुआ । परीषद् नीकली और भगवान की उपासना करने लगी । उस काल और उस समय में शुंभा नामक देवी बलिचंचा राजधानी में, शुंभावतंसक भवन में शुभ नामक सिंहासन पर आसीन थी, इत्यादि काली देवी के अध्ययन के अनुसार समग्र वृत्तान्त कहना चाहिए । वह नाट्यविधि प्रदर्शित करके वापिस लौट गई । गौतम स्वामी ने पूर्वभव की पृच्छा की। श्रावस्ती नगरी थी । कोष्ठक चैत्य था । जितशत्रु राजा था। शुभ गाथापति था । शुभश्री पत्नी थी। शुभा पुत्री थी। शेष सर्व वृत्तान्त काली देवी के समान । विशेषता यह है-शुंभा देवी की साढ़े तीन पल्योपम की स्थिति है । उसका निक्षेप कह लेना चाहिए। शेष चार अध्ययन पूर्वोक्त प्रकार के ही हैं । इसमें नगरी श्रावस्ती और उन-उन देवियों के समान उनके माता-पिता के नाम समझ लेने चाहिए। वर्ग-२ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण ----------------------------------- वर्ग-३ सूत्र - २२६ तीसरे वर्ग का उपोद्घात समझ लेना । हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर यावत् मुक्तिप्राप्त ने तीसरे वर्ग के चौपन अध्याय कहे हैं । प्रथम अध्ययन यावत् चौपनवाँ अध्ययन । भगवन् ! यदि यावत् सिद्धिप्राप्त भगवान महावीर ने धर्मकथा के तीसरे वर्ग के चौपन अध्ययन कहे हैं तो भगवन् ! प्रथम अध्ययन का श्रमण यावत् सिद्धिप्राप्त भगवान ने क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नगर था । गुणशील चैत्य था । भगवान पधारे | परीषद् नीकली और भगवान की उपासना करने लगी । उस काल और उस समय इला देवी धारणी नामक राजधानी में इलावतंसक भवन में, इला नामक सिंहासन पर आसीन थी। काली देवी के समान यावत् नाट्यविधि दिखलाकर लौट गई। पूर्वभव पूछा । वाराणसी नगरी थी । उसमें काममहावन चैत्य था । इल गाथापति था । इलश्री पत्नी थी। इला पुत्री थी । शेष वृत्तान्त काली देवी के समान । विशेष यह कि इला आर्या शरीर त्याग कर धरणेन्द्र की अग्रमहिषी के रूप में उत्पन्न हुई । उसकी आयु अर्द्धपल्योपम से कुछ अधिक है । शेष वृत्तान्त पूर्ववत् । इसी क्रम से सतेरा, सौदामिनी, इन्द्रा, घना और विद्युता, इन पाँच देवियों के पाँच अध्ययन समझ लेने चाहिए । ये सब धरणेन्द्र की अग्रमहिषियाँ हैं । इसी प्रकार छह अध्ययन, बिना किसी विशेषता के वेणुदेव के भी कह लेने चाहिए । इसी प्रकार शेष पटरानियों के भी यह ही छह-छह अध्ययन कह लेने चाहिए । इस प्रकार दक्षिण दिशा के इन्द्रों के चौपन अध्ययन होते हैं । वे सब वाराणसी नगरी के महाकामवन नामक चैत्य में कहने चाहिए । यहाँ तीसरे वर्ग का निक्षेप भी कह लेना चाहिए। वर्ग-३ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 158 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक वर्ग-४ सूत्र-२२७ प्रारम्भ में चौथे वर्ग का उपोद्घात कह लेना चाहिए, जम्बू ! यावत् सिद्धिप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथा के चौथे वर्ग के चौपन अध्ययन कहे हैं । प्रथम अध्ययन यावत् चौपनवा अध्ययन । यहाँ प्रथम अध्ययन का उपोद्घात कह लेना । हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नगर में भगवान पधारे । नगर में परीषद् नीकली यावत् भगवान की पर्युपासना करने लगी। उस काल और उस समय में रूपा देवी, रूपानन्दा राजधानी में, रूपकावतंसक भवन में, रूपक नामक सिंहासन पर आसीन थी । इत्यादि वृत्तान्त काली देवी के समान समझना, विशेषता इतनी है-पूर्वभव में चम्पा नगरी थी, पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ रूपक नामक गाथापति था । रूपकश्री उसकी भार्या थी । रूपा उसकी पुत्री थी। शेष पूर्ववत् । विशेषता यह कि रूपा भूतानन्द नामक इन्द्र की अग्रमहिषी के रूप में जन्मी । उसकी स्थिति कुछ कम एक पल्योपम की है । चौथे वर्ग के प्रथम अध्ययन का निक्षेप समझ लेना। इसी प्रकार सुरूपा भी, रूपांशा भी, रूपवती भी, रूपकान्ता भी और रूपप्रभा के विषय में भी समझ लेना चाहिए, इसी प्रकार उत्तर दिशा के इन्द्रों यावत् महाघोष की छह-छह पटरानियों के छह-छह अध्ययन कह लेना चाहिए, सब मिलकर चौपन अध्ययन हो जाते हैं । यहाँ चौथे वर्ग का निक्षेप-पूर्ववत् कह लेना। वर्ग-४ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण .---0-----0-----0-----0-----0-----0---- वर्ग-५ सूत्र-२२८-२३२ पंचम वर्ग का उपोद्घात पूर्ववत् कहना चाहिए । जम्बू ! पाँचवे वर्ग में बत्तीस अध्ययन हैं । यथा-कमला, कमलप्रभा, उत्पला, सुदर्शना, रूपवती, बहुरूपा, सुरूपा, सुभगा । पूर्णा, बहुपुत्रिका, उत्तमा, भारिका, पद्मा, वसुमती, कनका, कनकप्रभा । अवतंसा, केतुमती, वज्रसेना, रतिप्रिया, रोहिणी, नवमिका, ह्री, पुष्पवती । भुजगा, भुजगवती, महाकच्छा, अपराजिता, सुघोषा, विमला, सुस्वरा, सरस्वती । सूत्र - २३३ अध्ययन-१ का उपोद्घात कहना चाहिए, जम्बू! उस काल उस समय राजगृहनगर था । भगवान महावीर वहाँ पधारे । यावत् परीषद् नीकलकर भगवान की पर्युपासना करने लगी । उस काल और उस समय कमला देवी कमला नामक राजधानी में, कमलावतंसक भवन में, कमल नामक सिंहासन पर आसीन थी। शेष काली देवी अनुसार ही जानना । विशेषता यह-पूर्वभव में कमला देवी नागपुर नगर में थी । सहस्राम्रवन चैत्य था । कमल गाथापति था । कमलश्री उसकी पत्नी थी । कमला पुत्री थी । कमला अरहंत पार्श्व के निकट दीक्षित हो गई। शेष पूर्ववत् यावत् वह काल नामक पिशाचेन्द्र की अग्रमहिषी के रूपमें जन्मी। उसकी आयु वहाँ अर्ध-पल्योपम की है। इसी प्रकार शेष एकतीस अध्ययन दक्षिण दिशा के वाणव्यन्तर देवों के कह लेने चाहिए । कमलप्रभा आदि ३१ कन्याओं ने पूर्वभव में नागपुर में जन्म लिया था । वहाँ सहस्राम्रवन उद्यान था । सब-के माता-पिता के नाम कन्याओं के नाम के समान ही हैं। देवीभव में स्थिति सबको आधे-आधे पल्योपम की कहनी चाहिए । वर्ग-५ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 159 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक वर्ग-६ सूत्र-२३४ छठा वर्ग भी पाँचवे वर्ग के समान है। विशेषता यह कि सब कुमारियाँ महाकाल इन्द्र आदि उत्तर दिशा के आठ इन्द्रों की बत्तीस अग्रमहिषियाँ हुई । पूर्वभव में सब साकेतनगर में उत्पन्न हुई । उत्तरकुरु उद्यान था । इन कुमारियों के नाम के समान ही उनके माता-पिता के नाम थे । शेष सब पूर्ववत् । वर्ग-६ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण ----0-----0-----0-----0-----0-----0---- वर्ग-७ सूत्र - २३५ सातवें वर्ग का उत्क्षेप कहना चाहिए-हे जम्बू ! भगवान महावीर ने सप्तम वर्ग के चार अध्ययन प्रज्ञप्त किए हैं । सूर्यप्रभा, आतपा, अर्चिमाली और प्रभंकरा । प्रथम अध्ययन का उपोद्घात कहना चाहिए । जम्बू ! उस काल और उस समय राजगृह में भगवान पधारे यावत् परीषद् उनकी उपासना करने लगी। उस काल और उस समय सूर्य प्रभादेवी सूर्य विमान में सूर्यप्रभ सिंहासन पर आसीन थी। शेष कालीदेवी के समान । विशेष इतना कि-पूर्वभव में अक्खुरी नगरी में सूर्याभ गाथापति की सूर्यश्री भार्या थी । सूर्यप्रभा पुत्री थी। अन्त में मरण के पश्चात् वह सूर्य नामक ज्योतिष्क-इन्द्र की अग्रमहिषी हुई । उसकी स्थिति वहाँ पाँच सौ वर्ष अधिक आधे पल्योपम की है। शेष कालीदेवी के समान । इसी प्रकार शेष सब-तीनों देवियों का वृत्तान्त जानना । वे भी अक्खुरी नगरी में उत्पन्न हुई थी। वर्ग-७ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण ----0-----0-----0-----0-----0-----0----- वर्ग सूत्र - २३६ ___ आठवें वर्ग का उपोद्घात कह लेना चाहिए, जम्बू ! श्रमण भगवान ने आठवे वर्ग के चार अध्ययन प्ररूपित किए हैं । चन्द्रप्रभा, दोसिणाभा, अर्चिमाली, प्रभंकरा । प्रथम अध्ययन का उपोद्घात पूर्ववत् कह लेना चाहिए । जम्बू ! उस काल और उस समय में भगवान राजगृह नगर में पधारे यावत् परीषद् उनकी पर्युपास्ति उस काल और उस समय में चन्द्रप्रभा देवी, चन्द्रप्रभ विमान में, चन्द्रप्रभ सिंहासन पर आसीन थी । शेष काली देवी के समान । विशेषता यह-पूर्वभव में मथुरा नगरी की निवासिनी थी । चन्द्रावतंसक उद्यान था । चन्द्रप्रभ गाथापति था । चन्द्रश्री उसकी पत्नी थी । चन्द्रप्रभा पुत्री थी । वह चन्द्र नामक ज्योतिष्क इन्द्र की अग्रमहिषी हई । उसकी आयु पचास हजार वर्ष अधिक अर्ध पल्योपम की है। शेष सब वर्णन काली देवी के समान । इसी तरह शेष तिन देवी भी मथुरा में उत्पन्न हुई यावत् माता-पिता के नाम भी पुत्री के समान जानना। वर्ग-८ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 160 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/सूत्रांक वग सूत्र - २३७ __ नौंवे वर्ग का उपोद्घात । हे जम्बू ! यावत् नौवे वर्ग के आठ अध्ययन कहे हैं, पद्मा, शिवा, सती, अंबूज, रोहिणी, नवमिका, अचला और अप्सरा । प्रथम अध्ययन का उत्क्षेप कह लेना चाहिए । जम्बू ! उस काल और उस समय स्वामी-भगवान महावीर राजगृह में पधारे । यावत् जनसमूह उनकी पर्युपासना करने लगा । उस काल और उस समय पद्मावती देवी सौधर्म कल्प में, पद्मावतंसक विमान में, सुधर्मा सभा में, पद्म नामक सिंहासन पर आसीन थी। शेष काली समान जानना। काली देवी के गम के अनुसार आठों अध्ययन इसी प्रकार समझ लेने चाहिए । विशेषता इस प्रकार हैपूर्वभव में दो जनी श्रावस्ती में, दो जनी हस्तिनापुर में, दो जनी काम्पिल्यपुर में और दो जनी साकेतनगर में उत्पन्न हुई थीं । सबके पिता का नाम पद्म और माता का नाम विजया था । सभी पार्श्व अरहंत के निकट दीक्षित हुई थी। सभी शक्रेन्द्र की अग्रमहिषियाँ हुई । उनकी स्थिति सात पल्योपम की है । सभी यावत् महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर यावत् समस्त दुःखों का अन्त करेंगी-मुक्ति प्राप्त करेंगी। वर्ग-९ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण ----0-----0-----0-----0-----0-----0----- वर्ग-१० सूत्र - २३८, २३९ दसवें वर्ग का उपोद्घात । जम्बू ! यावत् दसवें वर्ग के आठ अध्ययन प्ररूपित किए हैं । कृष्णा, कृष्णराजि, रामा, रामरक्षिता, वसु, वसुगुप्ता, वसुमित्र और वसुन्धरा । ये आठ ईशानेन्द्र की आठ अग्रमहिषियाँ हैं । सूत्र - २४० प्रथम अध्ययन का उपोद्घात कहना चाहिए । जम्बू ! उस काल और उस समय में स्वामी राजगृह नगर में पधारे, यावत् परिषद् ने उपासना की । उस काल और उस समय कृष्णा देवी ईशान कल्प में कृष्णावतंसक विमान में सुधर्मा सभा में, कृष्ण सिंहासन पर आसीन थी । शेष काली देवी के समान | आठों अध्ययन काली-अध्ययन सदृश हैं । विशेष यह कि पूर्वभव में इन आठ में से दो जनी बनारस नगरी में, दो जनी राजगृह में, दो जनी श्रावस्ती में और दो जनी कौशाम्बी में उत्पन्न हुई थी। सबके पिताका नाम राम और माता का नाम धर्मा था । सभी पार्श्व तीर्थंकर के निकट दीक्षित हुई थी । वे पुष्पचूला नामक आर्या की शिष्या हुई । वर्तमान भव में ईशानेन्द्र की अग्रमहिषियाँ हैं । सबकी आयु नौ पल्योपम की कही गई है। सब महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होंगी और सब दुःखों का अन्त करेंगी। यहाँ दसवें वर्ग का निक्षेप-कहना चाहिए। सूत्र-२४१ हे जम्बू ! धर्म की आदि करने वाले, तीर्थ के संस्थापक, स्वयं बोध प्राप्त करने वाले, पुरुषोत्तम यावत् सिद्धि को प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथा नामक द्वीतिय श्रुतस्कन्ध का यह अर्थ कहा है । धर्मकथा नामक द्वीतिय श्रुतस्कन्ध दस वर्गों में समाप्त । श्रुतस्कन्ध-२ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण ६ ज्ञाताधर्मकथा का मुनि दीपरत्नसागर कृत् अंगसूत्र-६ पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 161 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र 6, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक नमो नमो निम्मलदसणस्स પૂજ્યપાદ્ શ્રી આનંદ-ક્ષમા-લલિત-સુશીલ-સુધર્મસાગર ગુરૂભ્યો નમ: W ज्ञाताधर्मकथा आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद [अनुवादक एवं संपादक आगम दीवाकर मुनि दीपरत्नसागरजी [ M.Com. M.Ed. Ph.D. श्रुत महर्षि वज साट:- (1) (2) deepratnasagar.in भेल मेस:- jainmunideepratnasagar@gmail.com भोला09825967397 मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 162