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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक दूत के समान श्रीकृष्ण को कहा था । तब जैसा कृष्ण वासुदेव ने किया, वैसा ही पाण्डु राजा ने किया । विशेषता यह है कि हस्तिनापुर में भेरी नहीं थी । यावत् काम्पिल्यपुर नगर की ओर गमन करने को उद्यत हुए । इसी क्रम से तीसरे दूत को चम्पा नगरी भेजा और उससे कहा-तुम वहाँ जाकर अंगराज कृष्ण को, सेल्लक राजा को और नंदीराज को दोनों हाथ जोड़कर यावत् कहना कि स्वयंवर में पधारिए ।
चौथा दूत शुक्तिमती नगरी भेजा और उसे आदेश दिया-तुम दमघोष के पुत्र और पाँच सौ भाइयों से परिवृत्त शिशुपाल राजा को हाथ जोड़कर उसी प्रकार कहना, यावत् स्वयंवर में पधारिए । पाँचवा दूत हस्तिशीर्ष
कहा-तुम दमदंत राजा को हाथ जोड़कर उसी प्रकार कहना यावत् स्वयंवर में पधारिए । छठा दूत मथुरा नगरी भेजा । उससे कहा-तुम धर नामक राजा को हाथ जोड़कर यावत् कहना-स्वयंवर में पधारिए।
सातवाँ दूत राजगृह नगर भेजा । उससे कहा-तुम जरासिन्धु के पुत्र सहदेव राजा को हाथ जोड़कर उसी प्रकार कहना यावत् स्वयंवर में पधारिए । आठवाँ दूत कौण्डिन्य नगर भेजा । उससे कहा-तुम भीष्मक के पुत्र रुक्मी राजा को हाथ जोड़कर उसी प्रकार कहना, यावत् स्वयंवर में पधारिए ।नौवाँ दूत विराटनगर भेजा । उससे कहा-तुम सौ भाइयों सहित कीचक राजा को हाथ जोडकर उसी प्रकार कहना, यावत् स्वयंवर में पधारो । दसवाँ दूत शेष ग्राम, आकर, नगर आदि में भेजा । उससे कहा-तुम वहाँ के अनेक सहस्त्र राजाओं को उसी प्रकार कहना, यावत् स्वयंवर में पधारिए । तत्पश्चात् वह दूत उसी प्रकार नीकला और जहाँ ग्राम, आकर, नगर आदि थे वहाँ जाकर सब राजाओं को उसी प्रकार कहा-यावत् स्वयंवर में पधारिए । तत्पश्चात् अनेक हजार राजाओं ने उस दूत से यह अर्थ-संदेश सूनकर और समझकर हृष्ट-तुष्ट होकर उस दूत का सत्कार-सम्मान करके उसे बिदा किया।
तत्पश्चात् आमंत्रित किये हुए वासुदेव आदि बहुसंख्यक हजारों राजाओंमें से प्रत्येक ने स्नान किया । वे कवच धारण करके तैयार हुए, सजाए हुए श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर आरूढ़ हुए । फिर घोड़ों, हाथियों, रथों और बड़ेबड़े भटों के समूह के समूह रूप चतुरंगिणीसेना साथ अपने-अपने नगरों से नीकले । पंचाल जनपद की ओर गमन करने के लिए उद्यत हुए । उस पर द्रुपद राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर उनसे कहा-'देवानुप्रियो! तुम जाओ
और काम्पिल्यपुर नगर के बाहर गंगा नदी से न अधिक दूर और न अधिक समीप में, एक विशाल स्वयंवर-मंडप बनाओ, जो अनेक सैकड़ों स्तम्भों से बना हो और जिसमें लीला करती हुई पुतलियाँ बनी हों । जो प्रसन्नताजनक, सुन्दर, दर्शनीय एवं अतीव रमणीय हो ।' उन कौटुम्बिक पुरुषों ने मंडप तैयार करके आज्ञा वापिस सौंपी।
तत्पश्चात द्रपदराजाने फिर कौटम्बिक पुरुषों को बुलाया । बलाकर कहा-'देवानप्रियो! शीघ्र ही वासदेव वगैरह बहुसंख्यक सहस्त्रों राजाओं के लिए आवास तैयार करो।' उन्होंने आवास तैयार करके आज्ञा वापिस लौटाई तत्पश्चात् द्रुपदराजा वासुदेव प्रभृति बहुत से राजाओं का आगमन जानकर, प्रत्येक राजा का स्वागत करने के लिए हाथी के स्कंध पर आरूढ़ होकर यावत् सुभटों के परिवार से परिवृत्त होकर अर्घ्य और पाद्य लेकर, सम्पूर्ण ऋद्धिके साथ काम्पिल्यपुर से बाहर नीकला। जिधर वासुदेव आदि बहुसंख्यक हजारों राजा थे, उधर गया। उन वासुदेव प्रभृति का अर्घ्य-पाद्य से सत्कार-सम्मान किया । उन वासुदेव आदि को अलग-अलग आवास प्रदान किए।
तत्पश्चात् वे वासुदेव प्रभृति नृपति अपने-अपने आवासों में पहुँचे । हाथियों के स्कंध से नीचे ऊतरे । सबने अपने-अपने पड़ाव डाले और आवासों में प्रविष्ट हुए । अपने-अपने आवासों में आसनों पर बैठे और शय्याओं पर सोए । बहत-से गंधर्वो से गान कराने लगे और नट नाटक करने लगे । तत्पश्चात द्रपद राजा ने काम्पिल्यपुर नगर में प्रवेश किया । विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करवाया । फिर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा- 'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और वह विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम, सुरा, मद्य, मांस, सीधु और प्रसन्ना तथा प्रचुर पुष्प, वस्त्र, गंध, मालाएं एवं अलंकार वासुदेव आदि हजारों राजाओं के आवासों में ले जाओ।' यह सूनकर वे, सब वस्तुएं ले गए । तब वासुदेव आदि राजा उस विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम यावत् प्रसन्ना का पुनः पुनः आस्वादन करते हुए विचरने लगे। भोजन करने के पश्चात् आचमन करके यावत् सुखद आसनों पर आसीन होकर बहुत-से गंधर्वो से संगीत कराते हुए विचरने लगे।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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