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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक राजाओं को, प्रद्युम्न आदि साढ़े तीन कोटि कुमारों को, शाम्ब आदि साठ हजार दुर्दान्तों को, वीरसेन आदि इक्कीस हजार वीर पुरुषों को, महासेन आदि छप्पन हजार बलवान वर्ग को तथा अन्य बहुत-से राजाओं, युवराजों, तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति और सार्थवाह प्रभृति को दोनों हाथ जोड़कर, दसों नख मिलाकर मस्तक पर आवर्त्तन करके, अंजलि करके और 'जय-विजय' शब्द कहकर बधाना । अभिनन्दन करके इस प्रकार कहना-'हे देवानुप्रियो ! काम्पिल्यपुर नगर में द्रुपद राजा की पुत्री, चुलनी देवी की आत्मजा और राजकुमार धृष्टद्युम्न की भगिनी श्रेष्ठ राजकुमारी द्रौपदी का स्वयंवर होने वाला है । अत एव हे देवानुप्रियो ! आप सब द्रुपद राजा पर अनुग्रह करत हुए, विलम्ब किए बिना काम्पिल्यपुर नगर में पधारना । ।
तत्पश्चात् दूत ने दोनों हाथ जोड़कर यावत् मस्तक पर अंजलि करके द्रुपद राजा का यह अर्थ विनय के साथ स्वीकार किया । अपने घर आकर कोटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा-'देवानुप्रियो ! शीघ्र ही चार घंटाओं वाला अश्वरथ जोतकर उपस्थित करो।' कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् रथ उपस्थित किया । तत्पश्चात् स्नान किये हुए
और अलंकारों से विभूषित शरीर वाले उस दूत ने चार घंटाओं वाले अश्वरथ पर आहोरण किया । आरोहण करके तैयार हए अस्त्र-शस्त्रधारी बहुत-से पुरुषों के साथ काम्पिल्यपर नगर के मध्यभाग से होकर नीकला । पंचाल देश के मध्य भाग में होकर देश की सीमा पर आया । फिर सुराष्ट्र जनपद के बीच में होकर जिधर द्वारवती नगरी थी, उधर चला । द्वारवती नगरी के मध्य में प्रवेश करके जहाँ कृष्ण वासुदेव की बाहरी सभी थी, वहाँ आया । चार घंटाओं वाले अश्वरथ को रोका । फिर मनुष्यों के समूह से परिवृत्त होकर पैदल चलता हुआ कृष्ण वासुदेव के पास पहुँचा । कृष्ण वासुदेव को, समुद्रविजय आदि दस दसारों को यावत् महासेन आदि छप्पन हजार बलवान वर्ग को दोनों हाथ जोड़कर द्रुपद राजा के कथनानुसार अभिनन्दन करके यावत् स्वयंवर में पधारने का निमंत्रण दिया।
तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव उस दूत से वह वृत्तान्त सूनकर और समझकर प्रसन्न हए, यावत् वे हर्षित एवं सन्तुष्ट हुए । उन्होंने उस दूत का सत्कार किया, सम्मान किया । पश्चात् उसे बिदा किया । तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुष को बुलाया । उससे कहा-'देवानुप्रिय ! जाओ और सुधर्मा सभा में रखी हुई सामुदानिक भेरी बजाओ ।' तब उस कौटुम्बिक पुरुष ने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि करके कृष्ण वासुदेव के इस अर्थ को अंगीकार किया । जहाँ सुधर्मा सभा में सामुदानिक भेरी थी, वहाँ आकर जोर-जोर के शब्द से उसे ताड़न किया । तत्पश्चात् उस सामुदानिक भेरी के ताड़न करने पर समुद्रविजय आदि दस दसार यावत् महासेन आदि छप्पन हजार बलवान नहा-धोकर यावत् विभूषित होकर अपने-अपने वैभव के अनुसार ऋद्धि एवं सत्कार के अनुसार कोई-कोई यावत् कोई-कोई पैदल चल कर जहाँ कृष्ण वासुदेव थे, वहाँ पहुँचे । दोनों हाथ जोड़कर सबने कृष्ण वासुदेव का जय-विजय के शब्दों से अभिनन्दन किया।
___ तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेवने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही पट्टाभिषेक किया हस्तीरत्न को तैयार करो तथा घोड़ों हाथियों यावत् यह आज्ञा सूनकर कौटुम्बिक पुरुषोंने तदनुसार कार्य करके आज्ञा वापिस सौंपी । तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव मज्जनगृह में गए । मोतियों के गुच्छों से मनोहर-यावत् अंजनगिरि के शिखर के समान गजपति पर वे नरपति आरूढ़ हुए । तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव समुद्र-विजय आदि दस दसारों के साथ यावत् अनंगसेना आदि कईं हजार गणिकाओं के साथ परिवृत्त होकर, पूरे ठाठ के साथ यावत् वाद्यों की ध्वनि के साथ द्वारवती नगरी के मध्य में होकर नीकले । सुराष्ट्र जनपद के मध्य में होकर देश की सीमा पर पहुँचे । पंचाल जनपद के मध्य में होकर जिस ओर काम्पिल्यपुर नगर था, उसी ओर जाने के लिए उद्यत हुए। सूत्र-१७०
तत्पश्चात् द्रुपद राजा ने दूसरे दूत को बुलाकर उससे कहा- देवानुप्रिय ! तुम हस्तिनापुर नगर जाओ । वहाँ तुम पुत्रों सहित पाण्डु राजा को-उनके पुत्र युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव को, सो भाइयों समेत दुर्योधन को, गांगेय, विदुर, द्रोण, जयद्रथ, शकुनि, कर्ण और अश्वत्थामा को दोनों हाथ जोड़कर यावत् मस्तक पर अंजलि करके उसी प्रकार कहना, यावत्-समय पर स्वयंवर में पधारिए । तत्पश्चात् दूत ने हस्तिनापुर जाकर प्रथम
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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