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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक चम्पक आदि यावत् सप्तपर्ण आदि के फूलों से गूंथा हुआ था । अत्यन्त गंध को फैला रहा था । अत्यन्त सुखद स्पर्श वाला था और दर्शनीय था । तत्पश्चात् उस क्रीड़ा कराने वाली यावत् सुन्दर रूप वाली धाय ने बाएं हाथ में चिल-चिलाता हुआ दर्पण लिया । उस दर्पण में जिस-जिस राजा का प्रतिबिम्ब पड़ता था, उस प्रतिबिम्ब द्वारा दिखाई देने वाले श्रेष्ठ सिंह के समान राजा को अपने दाहिने हाथ से द्रौपदी को दिखलाती थी । वह धाय स्फुट विशद विशुद्ध रिभित मेघ की गर्जना के समान गंभीर और मधुर वचन बोलती हुई, उन सब राजाओं के माता-पिता के वंश, सत्त्व, सामर्थ्य गोत्र पराक्रम कान्ति नाना प्रकार के ज्ञान माहात्म्य रूप यौवन गुण लावण्य कुल और शील को जानने वाली होने के कारण उनका बखान करने लगी।
उनमें से सर्व प्रथम वृष्णियों में प्रधान समुद्रविजय आदि दस दसारों के, जो तीनों लोको में बलवान थे, लाखों शत्रुओं का मान मर्दन करने वाले थे, भव्य जीवनों में श्रेष्ठ श्वेत कमल के समान प्रधान थे, तेज से देदीप्यमान थे, बल, वीर्य, रूप, यौवन, गुण और लावण्य का कीर्तन करने वाली उस धाय ने कीर्तन किया और फिर उग्रसेन आदि यादवों का वर्णन किया, तदनन्तर कहा-'ये यादव सौभाग्य और रूप से सुशोभित हैं और श्रेष्ठ पुरुषों में गंधहस्ती के समान हैं । इनमें से कोई तेरे हृदय को वल्लभ-प्रिय हो तो उसे वरण कर ।' तत्पश्चात् राजवरकन्या द्रौपदी अनेक सहस्त्र राजाओं के मध्य में होकर, उनका प्रतिक्रमण करती-करती, पूर्वकृत् निदान से प्रेरित होतीहोती, जहाँ पाँच पाण्डव थे, वहाँ आई । उसने उन पाँचों पाण्डवों को, पँचरंगे कुसुमदाम-फूलों की माला-श्रीदामकण्ड-से चारों तरफ से वेष्टित करके कहा- मैंने इन पाँचों पाण्डवों का वरण किया। तत्पश्चात् उन वासुदेव प्रभृति अनेक सहस्त्र राजाओं ने ऊंचे-ऊंचे शब्दों से बार-बार उद्घोषणा करते हुए कहा-'अहो ! राजवरकन्या द्रौपदी ने अच्छा वरण किया। इस प्रकार कहकर वे स्वयंवर मंडप से बाहर नीकले । अपने-अपने आवासों में चले गए।
तत्पश्चात् धृष्टद्युम्न कुमार ने पाँचों पाण्डवों को और राजवरकन्या द्रौपदी को चार घंटाओं वाले अश्वरथ पर आरूढ़ किया और काम्पिल्यपुर के मध्य में होकर यावत् अपने भवन में प्रवेश किया।
द्रुपद राजा ने पाँचों पाण्डवों को तथा राजवरकन्या द्रौपदी को पट्ट पर आसीन किया । चाँदी और सोने के कलशों से स्नान कराया । अग्निहोम करवाया । फिर पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ पाणिग्रहण कराया । तत्पश्चात् द्रुपद राजा ने राजवरकन्या द्रौपदी को इस प्रकार का प्रीतिदान किया-आठ करोड़ हिरण्य आदि यावत् आठ प्रेषणकारिणी दास-चेटियाँ । इनके अतिरिक्त अन्य भी बहुत-सा धन-कनक यावत् प्रदान किया । तत्पश्चात् द्रुपद राजा ने उन वासुदेव प्रभृति राजाओं को विपुल अशन, पान, खादिम तथा स्वादिम तथा पुष्प, वस्त्र, गंध, माला और अलंकार आदि से सत्कार करके बिदा किया । सूत्र - १७३
तत्पश्चात् पाण्डु राजा ने उन वासुदेव प्रभृति अनेक सहस्त्र राजाओं से हाथ जोड़कर यावत् इस प्रकार कहा -'देवानुप्रियो ! हस्तिनापुर नगर में पाँच पाण्डवों और द्रौपदी का कल्याणकरण महोत्सव होगा । अत एव देवानुप्रियो ! तुम सब मुझ पर अनुग्रह करके यथासमय विलम्ब किए बिना पधारना । तत्पश्चात् वे वासुदेव आदि नृपतिगण अलग-अलग यावत् हस्तिनापुर की ओर गमन करने के लिए उद्यत हुए । तत्पश्चात् पाण्डु राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार आदेश दिया-'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और हस्तिनापुर में पाँच पाण्डवों के लिए पाँच उत्तम प्रासाद बनवाओ, वे प्रासाद खूब ऊंचे हों और सात भूमी के हों इत्यादि पूर्ववत् यावत् वे अत्यन्त मनोहर हों । तब कौटुम्बिक पुरुषों ने यह आदेश अंगीकार किया, यावत् उसी प्रकार के प्रासाद बनवाए । तब पाण्डु राजा पाँचों पाण्डवों और द्रौपदी देवी के साथ अश्वसेना, गजसेना आदि से परिवृत्त होकर काम्पिल्यपुर नगर से नीकलकर जहाँ हस्तिनापुर था, वहाँ आ पहुँचा । तत्पश्चात् पाण्डु राजा ने उन वासुदेव आदि राजाओं का आगमन जानकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनसे कहा-'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और हस्तिनापुर नगर के बाहर वासुदेव आदि बहुत हजार राजाओं के लिए आवास तैयार कराओ जो अनेक सैकड़ों स्तम्भों आदि से युक्त हो इत्यादि पूर्ववत् ।' कौटुम्बिक पुरुष उसी प्रकार आज्ञा का पालन करके यावत् आज्ञा वापिस करते हैं ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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