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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक तत्पश्चात् वे वासुदेव वगैरह हजारों राजा हस्तिनापुर नगर में आए । तब पाण्डु राजा उन वासुदेव आदि राजाओं का आगमन जानकर हर्षित और संतुष्ट हआ । उसने स्नान किया, बलिकर्म किया और द्रुपद राजा के समान उनके सामने जाकर सत्कार किया, यावत् उन्हें यथायोग्य आवास प्रदान किए । तब वे वासुदेव आदि हजारों राजा जहाँ अपने-अपने आवास थे, वहाँ गए और उसी प्रकार यावत् विचरने लगे । तत्पश्चात् पाण्डु राजा ने हस्तिनापुर नगर में प्रवेश किया । कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा-'हे देवानुप्रियो ! तुम विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करवाओ।' उन कौटुम्बिक पुरुषों ने उसी प्रकार किया यावत् वे भोजन तैयार करवा कर ले गए । तब उन वासुदेव आदि बहुत-से राजाओं न स्नान एवं बलिकार्य करके उस विपुल अशन, पान, खादिम
और स्वादिम का आहार किया और उसी प्रकार विचरने लगे । तत्पश्चात् पाण्डु राजा ने पाँच पाण्डवों को तथा द्रौपदी को पाट पर बिठाया । श्वेत और पीत कलशों से उनका अभिषेक किया । फिर कल्याणकर उत्सव किया। उत्सव करके उन वासुदेव आदि बहुत हजार राजाओं का विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम से तथा पुष्पों और वस्त्रों से सत्कार किया, सम्मान किया । यावत् उन्हें बिदा किया । तब वे वासुदेव वगैरह बहुत से राजा यावत् अपने-अपने राज्यों एवं नगरों को लौट गए। सूत्र-१७४
तत्पश्चात् पाँच पाण्डव द्रौपदी देवी के साथ अन्तःपुर के परिवार सहित एक-एक दिन बारी-बारी के अनुसार उदार कामभोग भोगते हुए यावत् रहने लगे । पाण्डु राजा एक बार किसी समय पाँच पाण्डवों, कुन्ती देवी
और द्रौपदी देवी के साथ तथा अन्तःपुर के अन्दर के परिवार के साथ परिवृत्त होकर श्रेष्ठ सिंहासन पर आसीन थे। इधर कच्छुल्ल नामक नारद वहाँ आ पहुँचे । वे देखने में अत्यन्त भद्र और विनीत जान पड़ते थे, परन्तु भीतर से कलहप्रिय होने के कारण उनका हृदय कलूषित था । ब्रह्मचर्यव्रत के धारक होने से वे मध्यस्थता को प्राप्त थे । आश्रित जनों को उनका दर्शन प्रिय लगता था । उनका रूप मनोहर था । उन्होंने उज्ज्वल एवं सकल पहन रखा था। काला मृगचर्म उत्तरासंग के रूप में वक्षःस्थल में धारण किया था। हाथ में दंड और कमण्डलु था । जटा रूपी मुकुट से उनका मस्तक शोभायमान था । उन्होंने यज्ञोपवित एवं रुद्राक्ष की माला के आभरण, मूंज की कटिमेखला
और वल्कल वस्त्र धारण किए थे । उनके हाथ में कच्छपी नाम की वीणा थी । उन्हें संगीत से प्रीति थी । आकाश में गमन करने की शक्ति होने से वे पृथ्वी पर बहुत कम गमन करते थे । संचरणी, आवरणी, अवतरणी, उत्पतनी, श्लेषणी, संक्रामणी, अभियोगिनी, प्रज्ञप्ति, गमनी और स्तंभिनी आदि बहुत-सी विद्याधरों सम्बन्धी विद्याओं में प्रवीण होने से उनकी कीर्ति फैली हुई थी । वे बलदेव और वासुदेव के प्रेमपात्र थे । प्रद्युम्न, प्रदीप, साँब, अनिरुद्ध, निषध, उन्मुख, सारण, गजसुकुमाल, सुमुख और दुर्मुख आदि यादवों के साढ़े तीन कोटि कुमारों के हृदय के प्रिय थे और उनके द्वारा प्रशंसनीय थे । कलह, युद्ध और कोलाहल उन्हें प्रिय था । वे भांड के समान वचन बोलने के अभिलाषी थे। अनेक समर और सम्पराय देखने के रसिया थे । चारों ओर दक्षिणा देकर भी कलह की खोज किया करते थे, कलह कराकर दूसरों के चित्त में असमाधि उत्पन्न करते थे । ऐसे वह नारद तीन लोक में बलवान् श्रेष्ठ दसारवंश के वीर पुरुषों से वार्तालाप करके, उस भगवती प्राकाम्य नामक विद्या का, जिसके प्रभाव से आकाश में गमन किया जा सकता था, स्मरण करके उड़े और आकाश को लाँघते हुए हजारों ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, पट्टन और संबाध से शोभित और भरपूर देशों से व्याप्त पृथ्वी का अवलोकन करते-करते रमणीय हस्तिनापुर में आए और बड़े वेग के साथ पाण्डु राजा के महल में ऊतरे ।
उस समय पांडु राजा ने कच्छुल्ल नारद को आता देखा । देखकर पाँच पाण्डवों तथा कुन्ती देवी सहित वे आसन से उठ खडे हए । सात-आठ पैर कच्छल्ल नारद के सामने जाकर तीन बार दक्षिण दिशा से आरम्भ करके प्रदक्षिणा की । वन्दन किया, नमस्कार किया । महान पुरुष के योग्य आसन ग्रहण करने के लिए आमंत्रण किया। तत्पश्चात् उन कच्छुल्ल नारद ने जल छिड़ककर और दर्भ बिछाकर उस पर अपना आसन बिछाया और वे उस पर बैठकर पाण्डु राजा, राज्य यावत् अन्तःपुर के कुशल-समाचार पूछे । उस समय पाण्डु राजा ने, कुन्ती देवी ने और
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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