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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक
अध्ययन-१०-चन्द्र
सूत्र - १४१
भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने नौवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है तो दसवें ज्ञात-अध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। उस राजगृह नगर में श्रेणिक नामक राजा था । उस के बाहर ईशानकोण में गुणशील नामक चैत्य था । उस काल
और उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी अनुक्रम से विचरते, एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाते सुखे-सुखे विहार करते हुए, गुणशील चैत्य पधारे । भगवान की वन्दना-उपासना करने के लिए परीषद् नीकली । श्रेणिक राजा भी नीकला । धर्मोपदेश सून कर परीषद् लौट गई । तत्पश्चात् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर से इस प्रकार कहा-'भगवन् ! जीव किस प्रकार वृद्धि को प्राप्त होते हैं और किस प्रकार हानि को प्राप्त करते हैं ?'
हे गौतम ! जैसे कृष्णपक्ष की प्रतिपदा का चन्द्र, पूर्णिमा के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण से हीन होता है, सौम्यता से, स्निग्धता से, कान्ति से, दीप्ति से, युक्ति से, छाया से, प्रभा से, ओजस् से, लेश्या से और मण्डल से हीन होता है, इसी प्रकार कृष्णपक्ष की द्वीतिया का चन्द्रमा, प्रतिपदा के चन्द्रमा की अपेक्षा वर्ण से हीन होता है यावत् मण्डल से भी हीन होता है । तत्पश्चात् तृतीया का चन्द्र द्वीतिया के चन्द्र की अपेक्षा भी वर्ण से हीन यावत् मंडल से भी हीन होता है । इस प्रकार यावत् अमावस्या का चन्द्र, चतुर्दशी के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण आदि से सर्वथा नष्ट होता है, यावत् मण्डल से नष्ट होता है, इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो साधु या साध्वी प्रव्रजित होकर क्षान्ति-क्षमा से हीन होता है, इसी प्रकार मुक्ति से, आर्जव से, मार्दव से, लाघव से, सत्य से, तप से, त्याग से, आकिंचन्य से और ब्रह्मचर्य से हीन होता है, वह उसके पश्चात् क्षान्ति से हीन और अधिक हीन, यावत् ब्रह्मचर्य से भी हीन अतिहीन होता जाता है । इस प्रकार इसी क्रम से हीन-हीनतर होते हुए उसके क्षमा आदि गुण, यावत् उसका ब्रह्मचर्य नष्ट हो जाता है।
जैसे शुक्लपक्ष की प्रतिपक्ष का चन्द्र अमावस्या के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण यावत् मंडल से अधिक होता है। तदनन्तर द्वीतिया का चन्द्र प्रतिपक्ष के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण यावत् मंडल से अधिकतर होता है और इसी क्रम से वृद्धिगत होता हुआ पूर्णिमा का चन्द्र चतुर्दशी के चन्द्र की अपेक्षा परिपूर्ण वर्ण यावत् परिपूर्ण मंडल वाला होता है। इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो हमारा साधु या साध्वी यावत् आचार्य-उपाध्याय के निकट दीक्षित होकर क्षमा से अधिक वृद्धि प्राप्त होता है, यावत् ब्रह्मचर्य से अधिक होता है, तत्पश्चात् वह क्षमा से यावत् ब्रह्मचर्य से और अधिक-अधिक होता जाता है । निश्चय ही इस क्रम से बढ़ते-बढ़ते यावत् वह क्षमा आदि एवं ब्रह्मचर्य से परिपूर्ण हो जाता है । इस प्रकार जीव वृद्धि को और हानि को प्राप्त होते हैं । इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने दसवे ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है । वैसा ही मैं कहता हूँ।
अध्ययन-१० का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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