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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक सूत्र-१३८
तत्पश्चात् वह रत्नद्वीप की देवी जिनपालित के पास आई । आकर बहुत-से अनुकूल, प्रतिकूल, कठोर, मधुर, शृंगार वाले और करुणाजनक उपसर्गों द्वारा जब उसे चलायमान करने, क्षुब्ध करने एवं मन को पलटने में असमर्थ रही, तब वह मन से थक गई, शरीर से थक गई, पूरी तरह ग्लानि को प्राप्त हुई और अतिशय खिन्न हो गई। तब वह जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा में लौट गई । वह शैलक यक्ष, जिनपालित के साथ लवणसमुद्र के बीचों बीच होकर चलता रहा । चम्पा नगरी के बाहर श्रेष्ठ उद्यान में जिनपालित को अपनी पीठ से नीचे उतारा । इस प्रकार कहा- 'हे देवानुप्रिय ! देखो, यह चम्पा नगरी दिखाई देती है ।' यह कहकर उसने जिनपालित से छुट्टी लेकर वापिस लौट गया। सूत्र-१३९
तदनन्तर जिनपालित ने चम्पा में प्रवेश किया और जहाँ अपना घर तथा माता-पिता थे वहाँ पहुँचा । उसने रोते-रोते और विलाप करते-करते जिनरक्षित की मृत्यु का समाचार सूनाया । तत्पश्चात् जिनपालित ने और उसके माता-पिता ने मित्र, ज्ञाति, स्वजन यावत् परिवार के साथ रोते-रोते बहुत-से लौकिक मृतककृत्य करके वे कुछ समय बाद शोक रहित हुए । तत्पश्चात् एक बार किसी समय सुखासन पर बैठे जिनपालित से उसके माता-पिता ने इस प्रकार प्रश्न किया-'हे पुत्र ! जिनरक्षित किस प्रकार कालधर्म को प्राप्त हुआ ?' तब जिनपालित ने माता-पिता से अपना लवणसमुद्र में प्रवेश करना, तूफानी हवा का उठना, पोतवहन का नष्ट होना, रत्नद्वीप में जाना, देवी के घर जाना, वहाँ के भोगों का वैभव, रत्नद्वीप की देवी के वधस्थान, शूली पर चढ़े पुरुष, शैलक वृक्ष की पीठ पर आरूढ़ होना, रत्नद्वीप की देवी द्वारा उपसर्ग, जिनरक्षित का मरण, लवणसमुद्र पार करना, चम्पा में आना और शैलक यक्ष द्वारा छुट्टी लेना, आदि सर्व वृत्तान्त ज्यों का त्यों, सच्चा और असंदिग्ध कह सूनाया । तब जिनपालित यावत् शोकरहित होकर यावत् विपुल कामभोग भोगता हुआ रहने लगा। सूत्र-१४०
उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर, जहाँ चम्पा नगरी थी और जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ पधारे । भगवान को वन्दना करने के लिए परीषद् नीकली । कूणिक राजा भी नीकला । जिनपालित ने धर्मोपदेश श्रवण करके दीक्षा अंगीकार की । क्रमशः ग्यारह अंगों का ज्ञाता होकर, अन्त में एक मास का अनशन करके यावत् सौधर्म कल्प में देव के रूप में उत्पन्न हुआ । वहाँ दो सागरोपम की उसकी स्थिति कही गई है । वहाँ से च्यवन करके यावत् महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्धि प्राप्त करेगा । इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! आचार्य-उपाध्याय के समीप दीक्षित होकर जो साधु या साध्वी मनुष्य-सम्बन्धी कामभोगों की पुनः अभिलाषा नहीं करता, वह जिनपालित की भाँति यावत् संसार-समुद्र को पार करेगा । इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने नौवें ज्ञातअध्ययन का यह अर्थ प्ररूपण किया है । जैसा मैंने सूना है, उसी प्रकार तुमसे कहता हूँ
अध्ययन-९ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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