________________
आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक झाड़-बुहार कर, लीप कर यावत् बनाओ । यह सब करके हमारी बाट-राह देखना ।' यह सूनकर कौटुम्बिक पुरुष आदेशानुसार कार्य करके यावत् उनकी बाट देखने लगे । तत्पश्चात् सार्थवाहपुत्रों ने दूसरी बार कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर कहा-'शीघ्र ही एक समान खुर और पूंछ वाले, एक से चित्रित तीखे सींगों के अग्रभाग वाले, चाँदी की घंटियों वाले, स्वर्णजटित सूत की डोर की नाथ से बंधे हुए तथा नीलकमल की कलंगी से युक्त श्रेष्ठ जवान बैल जिसमें जुते हों, नाना प्रकार की मणियों की, रत्नों की और स्वर्ण की घंटियों के समूह से युक्त तथा श्रेष्ठ लक्षणों वाला रथ ले आओ ।' वे कौटुम्बिक पुरुष आदेशानुसार रथ उपस्थित करते हैं । तत्पश्चात् उन सार्थवाहपुत्रों ने स्नान किया, यावत् वे रथ पर आरूढ़ हुए । देवदत्ता गणिका के घर आए । वाहन से नीचे ऊतरे और देवदत्ता गणिका के घर में प्रविष्ट हुए।
उस समय देवदत्ता गणिका ने सार्थवाहपुत्रं को आता देखा । वह हृष्ट-तुष्ट होकर आसन से उठी और सातआठ कदम सामने गई । उसने सार्थवाहपुत्रों से कहा-देवानप्रिय ! आज्ञा दीजिए, आपके यहाँ आने का क्या प्रयोजन है ? तत्पश्चात सार्थवाहपुत्रों ने देवदत्ता गणिका से कहा-'देवानप्रिय ! हम तुम्हारे साथ सुभूमि
मिभाग नामक उद्यान की श्री का अनुभव करते हुए विचरना चाहते हैं ।' गणिका देवदत्ता ने उस सार्थवाहपुत्रों का यह कथन स्वीकार किया । स्नान किया, मंगलकृत्य किया यावत् लक्ष्मी के समान श्रेष्ठ वेष धारण किया । जहाँ सार्थवाह-पुत्र थे वहाँ आ गई । वे सार्थवाहपुत्र देवदत्ता गणिका के साथ यान पर आरूढ़ हुए और जहाँ सुभूमिभाग उद्यान था
और जहाँ नन्दा पुष्करिणी थी, वहाँ पहुँचे । यान से नीचे उतरे । नंदा पुष्करिणी में अवगाहन किया । जल-मज्जन किया, जल-क्रीड़ा की, स्नान किया और फिर देवदत्ता के साथ बाहर नीकले । जहाँ स्थूणामंडप था वहाँ आए । स्थूणामंडप में प्रवेश किया । सब अलंकारों से विभूषित हए, आश्वस्त हुए, विश्वस्त हुए श्रेष्ठ आसन पर बैठे । देवदत्ता गणिका के साथ उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तथा धूप, पुष्प, गंध और वस्त्र का उपभोग करते हुए, विशेषरूप से आस्वादन करते हुए, विभाग करते हुए एवं भोग भोगते हुए विचरने लगे। भोजन के पश्चात् देवदत्ता के साथ मनुष्य सम्बन्धी विपुल कामभोग भोगते हुए विचरने लगे। सूत्र-५८
तत्पश्चात् वे सार्थवाहपुत्र दिन के पीछले प्रहर में देवदत्ता गणिका के साथ स्थूणामंडप से बाहर नीकलकर हाथ में हाथ जालकर, सुभूमिभाग में बने हुए आलिनामक वृक्षों के गृहों में, कदली-गृहों में, लतागृहों में, आसन गृहों में, प्रेक्षणगृहों में, मंडन करने के गृहों में, मोहन गृहों में, साल वृक्षों के गृहों में, जाली वाले गृहों में तथा पुष्पगृहों में उद्यान की शोभा का अनुभव करते हुए घूमने लगे। सूत्र - ५९
तत्पश्चात् वे सार्थवाहदारक जहाँ मालुकाकच्छ था, वहाँ जाने के लिए प्रवृत्त हुए । तब उस वनमयूरी ने सार्थवाहपुत्रों को आता देखा । वह डर गई और घबरा गई । वह जोर-जोर से आवाज करके केकारव करती हुई मालकाकच्छ से बाहर नीकली । एक वक्ष की जाली पर स्थित होकर उन सार्थवाहपत्रों को तथा मालकाकच्छ को अपलक दृष्टि से देखने लगी । तब उन सार्थवाहपुत्रों ने आपस में एक-दूसरे को बुलाया और इस प्रकार कहा'देवानुप्रिय ! यह वनमयूरी हमें आता देखकर भयभीत हुई, स्तब्ध रह गई, त्रास को प्राप्त हुई, उद्विग्न हुई, भाग गई
और जोर-जोर की आवाज करके यावत् हम लोगों को तथा मालुकाकच्छ को पुनः पुनः देख रही है, अत एव इसका कोई कारण होना चाहिए । वे मालुका-कच्छ के भीतर घूसे । उन्होंने वहाँ दो पुष्ट और अनुक्रम से वृद्धि प्राप्त मयूरी-अंडे यावत् देखे, एक दूसरे को आवाज देकर इस प्रकार कहा
हे देवानुप्रिय ! वनमयूरी के इन अंडों को अपनी उत्तम जाति की मुर्गी के अंडों में डलवा देना, अपने लिए अच्छा रहेगा । ऐसा करने से अपनी जातिवंत मुर्गियाँ इन अंडों का और अपने अंडों का अपने पंखों की हवा से रक्षण करती और संभालती रहेगी तो हमारे दो क्रीडा करने के मयूरी-बालक हो जाएंगे । इस प्रकार कहकर उन्होंने एक दूसरे की बात स्वीकार की । अपने-अपने दासपुत्रों को बुलाया । इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! तुम जाओ ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 47