SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र -६, 'ज्ञाताधर्मकथा ' अध्ययन ३ - अंड श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक सूत्र- ५५ भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाताधर्मकथा के द्वीतिय अध्ययन का यह अर्थ फरमाया है तो तीसरे अध्ययन का क्या फरमाया है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में चम्पा नामक नगरी थी । (वर्णन) उस चम्पा नगरी से बाहर ईशान कोण में सुभूमिभाग नामक एक उद्यान था । वह सभी ऋतुओं के फूलों-फलों से सम्पन्न रहता था और रमणीय था। नन्दन-वन के समान शुभ था या सुखकारक था तथा सुगंधयुक्त और शीतल छाया से व्याप्त था । उस सुभूमिभाग उद्यान के उत्तर में, एक प्रदेश में, एक मालुकाकच्छ था, उस मालुकाकच्छ में एक श्रेष्ठ मयूरी ने पुष्ट, पर्यायागत चावलों के पिंड के समान श्वेत वर्ण वाले, व्रण रहित, उपद्रव रहित तथा पोली मुट्ठी के बराबर दो मयूरी के अंडों का प्रसव किया। वह अपने पांखों की वायु से उनकी रक्षा करती, उनका संगोपन करती और संवेष्टन करती हुई रहती थी । T उस चम्पा नगरी में दो सार्थवाह - पुत्र निवास करते थे । जिनदत्त पुत्र और सागरदत्त पुत्र । दोनों साथ ही जन्मे थे, साथ ही बड़े हुए थे, साथ ही धूल में खेले थे, साथ ही विवाहित हुए थे अथवा एक साथ रहते हुए एकदूसरे को देखने वाले थे। दोनों का परस्पर अनुराग था। एक दूसरे का अनुसरण करता था, एक दूसरे की ईच्छा के अनुसार चलता था । दोनों एक दूसरे के हृदय का ईच्छित कार्य करते थे और एक-दूसरे के घरों में कृत्य करणीय करते हुए रहते थे । और | सूत्र - ५६ तत्पश्चात् वे सार्थवाहपुत्र किसी समय इकट्ठे हुए एक घर में आए और एक साथ बैठे थे, उस समय उनमें आपस में इस प्रकार वार्तालाप हुआ हे देवानुप्रिय ! जो भी हमें सुख, दुःख, प्रव्रज्या अथवा विदेश गमन प्राप्त हो, उस सबका हमें एक दूसरे के साथ ही निर्वाह करना चाहिए । इस प्रकार कहकर दोनों ने आपस में इस प्रकार की प्रतिज्ञा अंगीकार करके अपने-अपने कार्य में लग गए । सूत्र - ५७ उस चम्पा नगरी में देवदत्ता नामक गणिका निवास करती थी । वह समृद्ध थी, वह बहुत भोजन - पान वाली थी । चौंसठ कलाओं में पंडिता थीं । गणिका के चौंसठ गुणों से युक्त थीं। उनतीस प्रकार की विशेष क्रिडाएं करने वाली थी । कामक्रीड़ा के इक्कीस गुणों में कुशल थी। बत्तीस प्रकार के पुरुष के उपचार करने में कुशल थी । उसके सोते हुए नौ अंग जागृत हो चूके थे । अठारह प्रकार की देशी भाषाओं में निपुण थी । वह ऐसा सुन्दर वेष धारण करती थी, मानो शृंगाररस का स्थान हो । सुन्दर गति, उपहास, वचन, चेष्टा, विलास एवं ललिच संलाप करने में कुशल थी । योग्य उपचार करने में चतुर थी । उसके घर पर ध्वजा फहराती थी । एक हजार देने वाले को प्राप्त होती थी । राजा के द्वारा उसे छत्र, चामर और बाल व्यजन प्रदान किया गया था। वह कर्णीरथ नामक वाहन पर आरूढ़ होकर आती जाती थी, यावत् एक हजार गणिकाओं का आधिपत्य करती हुई रहती थी। वे सार्थवाहपुत्र किसी समय मध्याह्नकाल में भोजन करने के अनन्तर आचमन करके, हाथ-पैर धोकर स्वच्छ होकर, परम पवित्र होकर सुखद आसनों पर बैठे। उस समय उन दोनों में आपस में इस प्रकार की बात-चीत हुई है देवानुप्रिय ! अपने लिए यह अच्छा होगा की कल यावत् सूर्य के देदीप्यमान होने पर विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादि तथा धूप, पुष्प, गंध और वस्त्र साथ में लेकर देवदत्ता गणिका के साथ सुभूमिभाग नामक उद्यान में उद्यान की शोभा का अनुभव करते हुए विचरें । इस प्रकार कहकर दोनों ने एक दूसरे की बात स्वीकार की । दूसरे दिन सूर्योदय होने पर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार कहा + 'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करो। तैयार करके उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम को तथा धूप, पुष्प आदि को लेकर जहाँ सुभूमिभाग नामक उद्यान है और जहाँ नन्दा पुष्करिणी है, वहाँ जाओ । नन्दा पुष्करिणी के समीप स्थूणामंडप तैयार करो । जल सींचकर, मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा )" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद” Page 46
SR No.034673
Book TitleAgam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 06, & agam_gyatadharmkatha
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy