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________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक उसने वह दाने छीले और छीलकर निगल गई । निगलकर अपने काम में लग गई । इसी प्रकार तीसरी रक्षिका के सम्बन्ध में जानना । विशेषता यह है कि उसने वह दाने लिए । लेने पर उसे यह विचार उत्पन्न हुआ कि मेरे पिता ने मित्र ज्ञाति आदि के तथा चारों बहुओं के कुलगृह वर्ग के सामने मुझे बुलाकर यह कहा है कि-'पुत्री ! तुम मेरे हाथ से यह पाँच दाने लो, यावत् जब मैं माँगू तो लौटा देना । तो इसमें कोई कारण होना चाहिए। विचार करके वे चावल के पाँच दाने शुद्ध वस्त्र में बाँधे । बाँधकर रत्नों की डिबियाँ में रख लिए, रखकर सिरहाने के नीचे स्थापित किए और प्रातः मध्याह्न तथा सायंकाल-इन तीनों संध्याओं के समय उनकी सार-सम्भाल करती हुई रहने लगी। तत्पश्चात् धन्य-सार्थवाह ने उन्हीं मित्रों आदि के समक्ष चौथी पुत्रवधू रोहिणी को बुलाया । बुलाकर उसे भी वैसा ही कहकर पाँच दाने दिए । यावत् उसने सोचा-'इस प्रकार पाँच दाने देने में कोई कारण होना चाहिए । अत एव मेरे लिए उचित है कि इन पाँच चावल के दानों का संरक्षण करूँ, संगोपन करूँ और इनकी वद्धि करूँ। उसने ऐसा विचार किया। विचार करके अपने कलगह के पुरुषों को बुलाया और बलाकर इस प्रकार कहा-'देवानप्रियो ! तुम इन पाँच शालि-अक्षतों को ग्रहण करो । ग्रहण करके पहली वर्षाऋतु में अर्थात वर्षा के आरम्भ में जब खूब वर्षा हो, तब एक छोटी-सी क्यारी को अच्छी तरह साफ करना । साफ करके ये पाँच दाने बो देना । बोकर दो-तीन बार उत्क्षेप-निक्षेप करना अर्थात् एक जगह से उखाड़ कर दूसरी जगह रोपना । फिर क्यारी के चारों ओर बाड़ लगाना । इनकी रक्षा और संगोपना करते हुए अनुक्रम से इन्हें बढ़ाना । उन कौटम्बिक पुरुषों ने रोहिणी के आदेश को स्वीकार किया। उन चावल के पाँच दानों को ग्रहण किया। अनुक्रम से उनका संरक्षण, संगोपन करते हुए रहने लगे। उन कौटुम्बिक पुरुषों ने वर्षाऋतु के प्रारम्भ में महावृष्टि पड़ने पर छोटी-सी क्यारी साफ की । पाँच चावल के दाने बोये । बोकर दूसरी और तीसरी बार उनका उत्क्षेपनिक्षेप किया, बाड़ लगाई। फिर अनुक्रम से संरक्षण, संगोपन और संवर्धन करते हुए विचरने लगे । संरक्षित, संगोपित और संवर्धित किये जाते हुए वे शालि-अक्षत अनुक्रम से शालि हो गए । वे श्याम कान्ति वाले यावत् निकुरंबभूत-होकर प्रसन्नता प्रदान करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हो गए । उन शालि पौधों में पत्ते आ गए, वे वर्तित-हो गए, छाल वाले हो गए, गर्भित हो गए, प्रसूत हुए, सुगन्ध वाले हुए, बद्धफल हुए, पक गए, तैयार हो गए, शल्यकित हुए, पत्रकित हुए और हरितपर्वकाण्ड हो गए। इस प्रकार वे शालि उत्पन्न हुए। तत्पश्चात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने वह शालि पत्र वाले यावत् शलाका वाले तथा विरल पत्र वाले जान कर तीखे और पजाये हए हँसियों से काटे, काटकर उनका हथेलियों से मर्दन किया । साफ किया । निर्मल, शचि-पवित्र, अखंड और अस्फटिक-बिना टटे-फटे और सुप से झटक-झटक कर साफ किये हए हो वे मगध देश में प्रसिद्ध एक प्रस्थक प्रमाण हो गए । तत्पश्चात कौटम्बिक पुरुषों ने उन प्रस्थ-प्रमाण शालिअक्षतों को नवीन घड़े में भरा । भरकर उसके मुख पर मिट्टी का लेप कर दिया । लेप करके उसे लांछित-मुद्रित किया-उस पर सील लगा दी । फिर उसे कोठार के एक भाग में रख दिया । रखकर उसका संरक्षण और संगोपन करने लगे। तत्पश्चात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने दूसरी वर्षाऋतु में वर्षाकाल के प्रारम्भ में महावृष्टि पड़ने पर एक छोटी क्यारी को साफ किया । वे शालि बो दिए । दूसरी बार और तीसरी बार उनका उत्क्षेप-निक्षेप किया । यावत् लुनाई की । यावत पैरों के तलुओं से उनका मर्दन किया, साफ किया । अब शालि के बहत-से कुडव हो गए, यावत उन्हें कोठार के एक भाग में रख दिया । कोठार में रखकर उनका संरक्षण और संगोपन करते हुए विचरने लगे । तत्पश्चात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने तीसरी बार वर्षाऋतु में महावृष्टि होने पर बहुत-सी क्यारियाँ अच्छी तरह साफ की । यावत् उन्हें बोकर काट लिया । यावत् अब वे बहुत-से कुम्भ प्रमाण शालि हो गए । तत्पश्चात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने वह शालि कोठार में रखे, यावत् उनकी रक्षा करने लगे । चौथी वर्षाऋतु में इसी प्रकार करने से सैकड़ों कुम्भ प्रमाण शालि हो गए। तत्पश्चात् जब पाँचवा वर्ष चल रहा था, तब धन्य सार्थवाह को मध्य रात्रि के समय इस प्रकार का विचार यावत् उत्पन्न हुआ-मैंने इससे पहले के-अतीत पाँचवे वर्ष में चारों पुत्रवधूओं को परीक्षा करने के निमित्त, पाँच मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 64
SR No.034673
Book TitleAgam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 06, & agam_gyatadharmkatha
File Size4 MB
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