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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक
अध्ययन-७ - रोहिणी
सूत्र - ७५
भगवन् ! यदि श्रमण यावत् निर्वाणप्राप्त भगवान महावीर ने छठे ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है तो भगवन् ! सातवें ज्ञात-अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। उस राजगृह नगर में श्रेणिक राजा था । राजगृह नगर के बाहर ईशानकोण में सुभूमिभाग उद्यान था । उस राजगृह नगर में धन्य नामक सार्थवाह निवास करता था, वह समृद्धिशाली था, वह किसीसे पराभूत होने वाला नहीं था । उस धन्य-सार्थवाह की भद्रा नामक भार्या थी । उसकी पाँचों इन्द्रियों और शरीर के अवयव परिपूर्ण थे, यावत् वह सुन्दर रूप वाली थी । उस धन्य-सार्थवाह के पुत्र और भद्रा भार्या के आत्मज चार सार्थवाह-पुत्र थे । धनपाल, धनदेव, धनगोप, धनरक्षित । उस धन्य-सार्थवाह की चार पुत्रवधूएं थीं । उज्झिका, भोगवती, रक्षिका और रोहिणी
धन्य-सार्थवाह को किसी समय मध्य रात्रि में इस प्रकार का अध्यवसाय उत्पन्न हुआ निश्चय ही मैं राजगृह नगर में राजा, ईश्वर, तलवर, माडंबिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह आदि-आदि के और अपने कुटुम्ब के भी अनेक कार्यों में, करणीयों में, कुटुम्ब सम्बन्धी कार्यों में, मंत्रणाओं में, गुप्त बातों में, रहस्यमय बातों में, निश्चय करने में, व्यवहारों में, पूछने योग्य, बारबार पूछने योग्य, मेढ़ी के समान, प्रमाणभूत, आधार, आलम्बन, चक्षु के समान पथदर्शनक, मेढ़ीभूत और सब कार्यों की प्रवृत्ति करने वाला हूँ। परन्तु न जाने मेरे कहीं दूसरी जगह चले जाने पर, किसी अनाचार के कारण अपने स्थान से च्युत हो जाने पर, मर जाने पर, भग्न हो जाने पर, रुग्ण हो जाने पर, विशीर्ण हो जाने पर, पड़ जाने पर, परदेश में जाकर रहने पर अथवा मेरे कुटुम्ब का पृथ्वी की तरह आधार, रस्सी के समान अवलम्बन और बुहारू की सलाइयों के समान प्रतिबन्ध करने वाला, कौन होगा ? अत एव मेरे लिए यह उचित होगा कि कल यावत् सूर्योदय होने पर विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम-तैयार करवा कर मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजनों आदि को तथा चारों बंधुओं के कुलगृह के समुदाय को आमंत्रित करके और उन मित्र ज्ञाति निजक स्वजन आदि तथा चारों पुत्रवधूओं के कुलगृह-वर्ग का अशन, पान, खादिम, स्वादिम से तथा धूप, पुष्प, वस्त्र, गंध, माला, अलंकार आदि से सत्कार करके, सम्मान करके, उन्हीं मित्र ज्ञाति आदि के समक्ष तथा चारों पुत्रवधुओं के कुलगहवर्ग के समक्ष पुत्रवधुओं की परीक्षा करने के लिए पाँच-पाँच शालि-अक्षत दूँ। उससे जान सकूँगा कि कौन पुत्रवधू किस प्रकार उनकी रक्षा करती है, सार-सम्भाल रखती है या बढ़ाती है ?
धन्य सार्थवाह ने इस प्रकार विचार करके दूसरे दिन मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी जनों तथा परिजनों को तथा चारों पुत्रवधूओं के कुलगृह वर्ग को आमंत्रित किया । आमंत्रित करके विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाया । उसके बाद धन्य-सार्थवाह ने स्नान किया । वह भोजन-मंडप में उत्तम सुखासन पर बैठा । फिर मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी एवं परिजनों आदि के तथा चारों पुत्रवधूओं के कुलगृह वर्ग के साथ उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम का भोजन करके, यावत् उन सबका सत्कार किया, सम्मान किया, उन्हीं मित्रों, ज्ञातिजनों आदि के तथा चारों पुत्रवधूओं के कुलगृह वर्ग के सामने पाँच चावल के दाने लिए। लेकर जेठी कुलवधू उज्झिका को बुलाया । इस प्रकार कहा-'हे पुत्री ! तुम मेरे हाथ से यह पाँच चावल के दानें लो। इन्हें लेकर अनुक्रम से इनका संरक्षण और संगोपन करती रहना । हे पुत्री ! जब मैं तुमसे यह पाँच चावल के दाने माँगू, तब तुम यही पाँच चावल के दाने मुझे वापिस लौटाना। उस प्रकार कहकर पुत्रवधू उज्झिका के हाथ में वह दाने दे दिए । देकर उसे बिदा किया।
धन्य-सार्थवाह के हाथ से पाँच शालिअक्षत ग्रहण किये । एकांत में गई । वहाँ जाकर उसे इस प्रकार का विचार, चिन्तन, प्रार्थित एवं मानसिक संकल्प उत्पन्न हुआ- निश्चय ही पिता के कोठार में शालि से भरे हुए बहुत से पल्य विद्यमान हैं । सो जब पिता मुझसे यह पाँच शालि अक्षत मांगेंगे, तब मैं किसी पल्य से दूसरे शालि-अक्षत लेकर दे दूंगी।' उसने ऐसा विचार करके उन पाँच चावल के दानों को एकान्त में डाल दिया और डाल कर अपने काम में लग गई । इसी प्रकार दूसरी पुत्रवधू भोगवती को भी बुलाकर पाँच दाने दिए, इत्यादि । विशेष यह है कि
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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