SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक 'अरिहन्त भगवंत्' यावत् सिद्धि को प्राप्त प्रभु को नमस्कार हो । फिर कहा-'यदि मैं इस उपसर्ग से मुक्त हो जाऊं तो मुझे यह कायोत्सर्ग पारना कल्पता है और यदि इस उपसर्ग से मुक्त न होऊं तो यही प्रत्याख्यान कल्पता है, इस प्रकार कहकर उसने सागारी अनशन ग्रहण कर लिया। वह पिशाचरूप वहाँ आया, जहाँ अर्हन्नक श्रमणोपासक था । आकर अर्हन्नक से कहने लगा-'अरे अप्रार्थित'-मौत की प्रार्थना करने वाले ! यावत् परिवर्जित ! तुझे शीलव्रत-अणुव्रत, गुणव्रत, विरमण-रागादि की विरति, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास से चलायमान होना, खण्डित करना, भंग करना नहीं है, परन्तु तू शीलव्रत आदि का परित्याग नहीं करता तो मैं तेरे इस पोतवहन को दो उंगलियों पर उठा लेता हूँ और सात-आठ तल की ऊंचाई तक आकाश में उछाल कर इसे जल के अन्दर डूबा देता हूँ, जिससे तू आर्तध्यान के वशीभूत होकर, असमाधि को प्राप्त होकर जीवन से रहित हो जाएगा। तब अर्हन्नक श्रमणोपासक ने उस देव को मन ही मन इस प्रकार कहा-'देवानप्रिय ! मैं अर्हन्नक नामक श्रावक हूँ और जड़-चेतन के स्वरूप का ज्ञाता हूँ। निश्चय ही मुझे कोई देव, दानव, निर्ग्रन्थ प्रवचन से चलायमान नहीं कर सकता, क्षुब्ध नहीं कर सकता और विपरीत भाव उत्पन्न नहीं कर सकता । तुम्हारी जो श्रद्धा हो सो करो।' इस प्रकार कहकर अर्हन्नक निर्भय, अपरिवर्तित मुख के रंग और नेत्रों के वर्ण वाला, दैत्य और मानसिक खेद से रहित, निश्चल, निस्पन्द, मौन और धर्म-ध्यान में लीन बना रहा। तत्पश्चात् उस दिव्य पिशाचरूप ने अर्हन्नक को धर्मध्यान में लीन देखा । उसने और अधिक कुपित होकर उस पोतवहन को दो उंगलियों से ग्रहण किया । सात-आठ मंजिल की या ताड़ के वृक्षों की ऊंचाई तक ऊपर उठाकर कहा-' अरे अर्हन्नक ! मौत की ईच्छा करने वाले ! तुझे शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान तथा पौषध आदि का त्याग करना नहीं कल्पता है यावत् फिर भी वो धर्मध्यान में ही लीन बना रहा । वह पिशाचरूप जब अर्हन्नक को निर्ग्रन्थ-प्रवचन से चलायमान, क्षुभित एवं विपरिणत करने में समर्थ नहीं हुआ, तब वह उपशान्त हो गया, यावत् मन में खेद को प्राप्त हुआ । फिर उसने उस पोतवहन को धीरे-धीरे उतार कर जल के ऊपर रखकर पिशाच के दिव्य रूप का संहरण किया-उसे समेट लिया और दिव्य देव के रूप की विक्रिया करके, अधर स्थिर होकर घुघरुओं की छम्छम् की ध्वनि से युक्त पंचवर्ण के उत्तम वस्त्र धारण करके अर्हन्नक श्रमणोपासक से कहा हे अर्हन्नक ! तुम धन्य हो । देवानुप्रिय ! तुम्हारा जन्म और तुम्हारा जीवन सफल है कि जिसको निर्ग्रन्थप्रवचन में इस प्रकार की प्रतिपत्ति लब्ध हुई है, प्राप्त हुई है और आचरण में लाने के कारण सम्यक् प्रकार से सन्मख आई है। हे देवानप्रिय ! देवों के इन्द्र और देवों के राजा शक्र ने सौधर्म कल्प में, सौधर्मावतंसक नामक विमान में और सुधर्मासभा में, बहत-से देवों के मध्य में स्थित होकर महान शब्दों से इस प्रकार कहा था-'निस्संदेह जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भरत क्षेत्र में, चम्पानगरी में अर्हन्नक नामक श्रमणोपासक जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता है । उसे निश्चय ही कोई देव या दानव निर्ग्रन्थ प्रवचन से चलायमान करने में यावत् सम्यक्त्व से च्युत करने में समर्थ नहीं है । तब हे देवानुप्रिय ! देवेन्द्र शक्र की इस बात पर मुझे श्रद्धा नहीं हुई । यह बात रुची नहीं । तब मुझे इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ कि 'मैं जाऊं और अर्हन्नक के समक्ष प्रकट होऊं । उनका परित्याग करता है अथवा नहीं? मैंने इस प्रकार का विचार किया । विचार करके अवधिज्ञान का उपयोग लगाया । उपयोग लगाकर हे देवानुप्रिय ! मैंने जाना । जानकर ईशानकोण में जाकर उत्तर वैक्रियशरीर बनाने के लिए वैक्रियसमुद्घात किया । तत्पश्चात् उत्कृष्ट यावत् शीघ्रता वाली देवगति से जहाँ लवणसमुद्र था और जहाँ देवानुप्रिय थे, वहाँ मैं आया । उपसर्ग किया । मगर देवानुप्रिय भयभीत न हए, त्रास को प्राप्त न हए । अतः देवेन्द्र देवराज ने जो कहा था, वह अर्थ सत्य सिद्ध हआ। मैंने देखा कि देवानुप्रिय को ऋद्धि-गुण रूप समृद्धि, द्युति-तेजस्विता, यश, शारीरिक वह यावत् पुरुषकार, पराक्रम लब्ध हुआ है, प्राप्त हुआ और उसका आपने भली-भाँति सेवन किया है । तो हे देवानुप्रिय ! मैं आपको खमाता हूँ । अब फिर कभी मैं ऐसा नहीं करूँगा । इस प्रकार कहकर दोनो हाथ जोड़कर देव अर्हन्नक के पाँवों में गिर गया मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 74
SR No.034673
Book TitleAgam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 06, & agam_gyatadharmkatha
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy