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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक और इस घटना के लिए बार-बार विनयपूर्वक क्षमायाचना करके अर्हन्नक को दो कुंडल-युगल भेंट किये । भेंट करके जिस दिशा से प्रकट हआ था, उसी दिशा में लौट गया।
सूत्र-८८
तत्पश्चात् अर्हन्नक ने उपसर्ग टल गया जानकर प्रतिमा पारी तदनन्तकर वे अर्हन्नक आदि यावत् नौकावणिक् दक्षिण दिशा के अनुकूल पवन के कारण जहाँ गम्भीर नामक पोतपट्टन था, वहाँ आए । आकर उस पोत
को रोका । गाडी-गाडे तैयार करके वह गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य भांड को गाडी-गाडों में भरा । जहाँ मिथिला नगरी थी, वहाँ आकर मिथिला नगरी के बाहर उत्तम उद्यान में गाड़ी-गाड़े छोड़कर मिथिला नगरी में जाने के लिए वह महान् अर्थ वाली, महामूल्य वाली, महान् जनों के योग्य, विपुल और राजा के योग्य भेंट और कुंडलों की जोड़ी ली । लेकर मिथिला नगरी में प्रवेश किया । जहाँ कुम्भ राजा था, वहाँ आए । आकर दोनों हाथ जोड़कर, मस्तक पर अंजलि करके वह महान अर्थ वाली भेंट और वह दिव्य कुंडलयुगल राजा के समीप ले गये, यावत् राजा के सामने रख दिया । तत्पश्चात् कुंभ राजा ने उन नौकावणिकों की वह बहुमूल्य भेंट यावत् अंगीकार की। अंगीकार करके विदेह की उत्तम राजकुमारी मल्ली को बुलाया । बुलाकर वह दिव्य कुंडलयुगल विदेह की श्रेष्ठ राजकुमारी मल्ली को पहनाया और उसे बिदा कर दिया । तत्पश्चात् कुंभ राजा ने उन अर्हन्नक आदि नौकावणिकों का विपुल अशन आदि से तथा वस्त्र, गन्ध, माला और अलंकार से सत्कार किया । उनका शुल्क माफ कर दिया। राजमार्ग पर उनको उत्तरा-आवास दिया और फिर उन्हें बिदा किया।
तत्पश्चात् वे अर्हन्नक आदि सांयात्रिक वणिक्, जहाँ राजमार्ग पर आवास था, वहाँ आए । आकर भाण्ड का व्यापार करने लगे। उन्होंने प्रतिभांड खरीद कर उससे गाड़ी-गाड़े भरे । जहाँ गंभीर पोतपट्टन था, वहाँ आए । आकर के पोतवहन सजाया-तैयार किया । तैयार करके उसमें सब भांड भरा । भरकर दक्षिण दिशा के अनुकूल वायु के कारण जहाँ चम्पा नगरी का पोतस्थान था, वहाँ आए । पोत को रोककर गाड़ी-गाड़े ठीक करके गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य-चार प्रकार का भांड उनमें भरा । भरकर यावत् बहुमूल्य भेंट और दिव्य कुण्डलयुगल ग्रहण किया । ग्रहण करके जहाँ अंगराज चन्द्रच्छाय था, वहाँ आए | आकर वह बहमूल्य भेंट राज रखी। तत्पश्चात् चन्द्रच्छाय अंगराज ने उस दिव्य एवं महामूल्यवान कुण्डलयुगल का स्वीकार किया । स्वीकार करके उन अर्हन्नक आदि से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रियों ! आप बहुत से ग्रामों, आकरों आदि में भ्रमण करते हो तथा बार-बार लवणसमुद्रमें जहाज द्वारा प्रवेश करते हो तो आपने पहले किसी जगह कोई भी आश्चर्य देखा है?
तब उन अर्हन्नक आदि वणिकों ने चन्द्रच्छाय नामक अङ्गदेश के राजा से इस प्रकार कहा-हे स्वामिन् ! हम अर्हन्नक आदि बहुत-से सांयात्रिक नौकावणिक इसी चम्पानगरी में निवास करते हैं । एक बार किसी समय हम गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य भांड भर कर यावत् कुम्भ राजा के पास पहुंचे और भेंट उसके सामने रखी । उस समय कुम्भ ने मल्ली नामक विदेह राजा की श्रेष्ठ कन्या को वह दिव्य कुंडलयुगल पहनाकर उसे बिदा कर दिया । तो हे स्वामिन् ! हमने कुम्भ राजा के भवन में विदेह राजा की श्रेष्ठ कन्या मल्ली आश्चर्य रूप में देखी है । मल्ली नामक विदेह राजा की श्रेष्ठ कन्या जैसी सुन्दर है, वैसी दूसरी कोई देवकन्या, असुरकन्या, नागकन्या, यक्षकन्या,
धर्वकन्या या राजकन्या नहीं है । तत्पश्चात् चन्द्रच्छाय राजा ने अर्हन्नक आदि का सत्कार-सम्मान करके बिदा किया । तदनन्तर वणिकों के कथन से चन्द्रच्छाय को अत्यन्त हर्ष हुआ । उसने दूत को बुलाकर कहा-इत्यादि कथन सब पहले के समान ही कहना । भले ही वह कन्या मेरे सारे राज्य के मूल्य की हो, तो भी स्वीकार करना । दूत हर्षित होकर मल्ली कुमारी की मंगनी के लिए चल दिया। सूत्र - ८९
उस काल और उस समय में कुणाल नामक जनपद था । उस जनपद में श्रावस्ती नामक नगरी थी। उसमें कुणाल देश का अधिपति रुक्मि नामक राजा था । रुक्मि राजा की पुत्री और धारिणी-देवी की कुंख से जन्मी सुबाहु नामक कन्या थी । उसके हाथ-पैर आदि सब अवयव सुन्दर थे । वय, रूप, यौवन में और लावण्य में उत्कृष्ट
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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