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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक अर्हन्नक आदि यावत् नौका-वणिकों के परिजन यावत् वचनों से अभिनन्दन करते हुए और उनकी प्रशंसा करते हुए इस प्रकार बोले-'हे आर्य ! हे तात ! हे भ्रात ! हे मामा ! हे भागिनेय ! आप इस भगवान समुद्र द्वारा पुनः पुनः रक्षण किये जाते हुए चिरंजीवी हों । आपका मंगल हो । हम आपको अर्थ का लाभ करके, इष्ट कार्य सम्पन्न करके, निर्दोष-बिना किसी विघ्न के और ज्यों का त्यों घर पर आया शीघ्र देखें ।' इस प्रकार कहकर सोम, स्नेहमय, दीर्घ, पिपासावाली-सतृष्ण और अश्रुप्लावित दृष्टि से देखते-देखते वे लोग मुहूर्त्तमात्र अर्थात् थोड़ी देर तक वहीं खड़े रहे।
तत्पश्चात् नौका में पुष्पबलि समाप्त होने पर, सरस रक्तचंदन का पाँचों उंगलियों का थापा लगाने पर, धूप खेई जाने पर, समुद्र की वायु की पूजा हो जाने पर, बलयवाहा यथास्थान संभाल कर रख लेने पर, श्वेत पताकाएं ऊपर फहरा देने पर, वाद्यों की मधुर ध्वनि होने पर, विजयकारक सब शकुन होने पर, यात्रा के लिए राजा का आदेशपत्र प्राप्त हो जाने पर, महान् और उत्कृष्ट सिंहनाद यावत् ध्वनि से, अत्यन्त क्षुब्ध हुए महासमुद्र की गर्जना के समान पृथ्वी को शब्दमय करते हुए एक तरफ से नौका पर चढ़े । तत्पश्चात् बन्दीजन ने इस प्रकार वचन कहा'हे व्यापारियों ! तुम सब को अर्थ की सिद्धि हो, तुम्हें कल्याण प्राप्त हुए हैं, तुम्हारे समस्त पाप नष्ट हुए हैं । इस समय पुष्य नक्षत्र चन्द्रमा से युक्त है और विजय नामक मुहर्त है, अतः यह देश और काल यात्रा के लिए उत्तम है। तत्पश्चात् बन्दीजन के द्वारा इस प्रकार वाक्य कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुए कुक्षिधार-नौका की बगल में रहकर बल्ले चलाने वाले, कर्णधार गर्भज-नौका के मध्य में रहकर छोटे-मोटे कार्य करने वाले और वे सांयात्रिक नौकावणिक अपने-अपने कार्य में लग गए । फिर भांडों से परिपूर्ण मध्यभाग वाली और मंगल से परिपूर्ण अग्रभाग वाली उस नौका को बन्धनों से मुक्त किया।
तत्पश्चात् वह नौका बन्धनों से मुक्त हुई एवं पवन के बल से प्रेरित हुई । उस पर सफेद कपड़े का पाल चढ़ा हुआ था, अत एव ऐसी जान पड़ती थी जैसे पंख फैलाए कोई गरुड़-युवती हो ! वह गंगा के जल के तीव्र प्रवाह के वेग से क्षुब्ध होती-होती, हजारों मोटी तरंगों और छोटी तरंगों के समूह को उल्लंघन करती हुई कुछ अहोरात्रों में लवणसमुद्र में कईं सौ योजन दूर तक चली गई । तत्पश्चात् कईं सौ योजन लवण-समुद्र में पहुँचे हुए उन अर्हन्नक आदि सांयात्रिक नौका-वणिकों को बहुत से सैकड़ों उत्पात प्रादुर्भूत होने लगे । वे उत्पात इस प्रकार थे।
अकाल में गर्जना होने लगी, अकाल में बिजली चमकने लगी, अकाल में मेघों की गंभीर गड़गड़ाहट होने लगी । बार-बार आकाश में देवता (मेघ) नृत्य करने लगे। इसके अतिरिक्त एक ताड़ जैसे पिशाच का रूप दिखाई दिया । वह पिशाच ताड़ के समान लम्बी जाँघों वाला था और उसकी बाहुएं आकाश तक पहुँची हुई थीं । वह कज्जल, काले चहे और भैंसे के समान काला था । उसका वर्ण जलभरे मेघ के समान था । होठ लम्बे थे और दाँतों के अग्रभाग मुख से बाहर नीकले थे । दो जीभे मुँह से बाहर नीकाल रखी थीं । गाल मुँह में धंसे हुए थे । नाक छोटी और चपटी थी । भृकुटि डरावनी और अत्यन्त वक्र थी । नेत्रों का वर्ण जुगनू के समान चमकता हुआ लाला था । देखने वाले को घोर त्रास पहुँचाने वाला था । उसकी छाती चौड़ी थी, कुक्षि विशाल और लम्बी थी । हँसते और चलते समय उसके अवयव ढीले दिखाई देते थे । वह नाच रहा था, आकाश को मानो फोड़ रहा था, सामने आ रहा था, गर्जना कर रहा था, बहुत-बहुत ठहाके मार रहा था । ऐसे काले कमल, भैंस के सींग, नील, अलसी के फूल समान काली तथा छूरे की धार की तरह तीक्ष्ण तलवार लेकर आते हुए पिशाच को उन वर्णिकोंने देखा।
अर्हन्नक को छोड़कर शेष नौकावणिक तालपिशाच के रूप को नौका की ओर आता देखकर डर गये, अत्यन्त भयभीत हुए, एक दूसरे के शरीर से चिपट गए और बहुत से इन्द्रों की, स्कन्दों की तथा रुद्र, शिव, वैश्रमण और नागदेवों की, भूतों की, यक्षों की, दुर्गा की तथा कोट्टक्रिया देवी की बहुत-बहुत सैकड़ों मनौतियाँ मनाने लगे। अर्हन्नक श्रमणोपासक ने उस दिव्य पिशाचरूप को आता देखा । उसे देखकर वह तनिक भी भयभीत नहीं हुआ, त्रास को प्राप्त नहीं हुआ, चलायमान नहीं हुआ, संभ्रान्त नहीं हुआ, व्याकुल नहीं हुआ, उद्विग्न नहीं हुआ । उसके मुख का राग और नेत्रों का वर्ण नहीं बदला | मन में दीनता या खिन्नता उत्पन्न नहीं हुई | पोतवहन के एक भाग में जाकर वस्त्र के छोर से भूमि का प्रमार्जन करके उस स्थान पर बैठ गया और दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार बोला
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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