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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक
[६] ज्ञाताधर्मकथा अंगसूत्र-६- हिन्दी अनुवाद
[श्रुतस्कन्ध-१]
अध्ययन-१- उत्क्षिप्त सूत्र-१-३
सर्वज्ञ भगवंतों को नमस्कार । उस काल में उस समय में चम्पा नामक नगरी थी । वर्णन उववाईसूत्र अनुसार जानना । उस चम्पा नगरी के बाहर, ईशानभाग में, पूर्णभद्र नामक चैत्य था । (वर्णन०) | चम्पा नगरी में कूणिका नामक राजा था । (वर्णन०) । सूत्र-४
उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के शिष्य आर्य सुधर्मानामक स्थविर थे । वे जातिसम्पन्न, बल से युक्त, विनयवान, ज्ञानवान, सम्यक्त्ववान, लाघववान, ओजस्वी, तेजस्वी, वचस्वी, यशस्वी, क्रोध को जीतने वाले, मान को जीतने वाले, माया को जीतने वाले, लोभ को जीतने वाले, इन्द्रियों को जीतने वाले, निद्रा को जीतने वाले, परीषहों को जीतने वाले, जीवित रहने की कामना और मृत्यु के भय से रहित, तपःप्रधान, गुणप्रधान, करण, चरण, निग्रह, निश्चय, आर्जव, मार्दव, लाघव, क्षमा, गुप्ति, मुक्ति, विद्या, मंत्र, ब्रह्मचर्य, नय, नियम, सत्य, शौच, ज्ञान, दर्शन और चारित्र में प्रधान, उदार, घोर, घोरव्रती, घोरतपस्वी, उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले, शरीर-संस्कार के त्यागी, विपुल तेजोलेश्या को अपने शरीर में ही समाविष्ट करके रखने वाले, चौदह पूर्वो के ज्ञाता, चार ज्ञानों के धनी, पाँच सौ साधुओं से परिवृत्त, अनुक्रम से चलते हुए, एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विचरण करते हए, जहाँ चम्पा नगरी थी और जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, उसी जगह आए । यथोचित अवग्रह को ग्रहण किया, ग्रहण करके संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। सूत्र-५
तत्पश्चात् चम्पा नगरी में परिषद् नीकली । कूणिक राजा भी नीकला । धर्म का उपदेश दिया । उपदेश सूनकर परिषद् जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा में लौट गई । उस काल और उस समय में आर्य सुधर्मा अनगार के ज्येष्ठ शिष्य आर्य जम्बू नामक अनगार थे, जो काश्यप गोत्रीय और सात हाथ ऊंचे शरीर वाले, यावत् आर्य सुधर्मा से न बहुत दूर, न बहुत समीप अर्थात् उचित स्थान पर, ऊपर घूटने और नीचा मस्तक रखकर ध्यानरूपी कोष्ठ में स्थित होकर संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे।
तत्पश्चात् आर्य जम्बू नामक अनगार को तत्त्व के विषय में श्रद्धा हर्ड, संयत कतहल, विशेषरूप से श्रद्धा संशय और कुतूहल हुआ । तब वह उत्थान करके उठ खड़े हुए और जहाँ आर्य सुधर्मा स्थविर थे, वहीं आए । आर्य सुधर्मा स्थविर की तीन बार दक्षिण दिशा से आरम्भ करके प्रदक्षिणा की । वाणी से स्तुति की और काया से नमस्कार किया। आर्य सुधर्मा स्थविर से न बहुत दूर न बहुत समीप - सूनने की ईच्छा करते हुए सन्मुख दोनों हाथ जोड़कर विनयपूर्वक पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले
भगवन् ! यदि श्रुतधर्म की आदि करने वाले स्वयं बोध को प्राप्त, पुरुषों में उत्तम, पुरुषों में सिंह समान, पुरुषों में श्रेष्ठ कमल समान, पुरुषों में गन्धहस्ती समान, लोक में उत्तम, लोक के नाथ, लोक का हित करने वाले, लोक में प्रदीप समान, लोक में उद्योत करने वाले, अभय देने वाले, शरणदाता श्रद्धारूप नेत्रदाता, धर्ममार्गदाता, बोधिदाता, धर्म दाता, धर्मउपदेशक, धर्मनायक, धर्मसारथी, चारों गतियों का अन्त करने वाले धर्म चक्रवर्ती कहीं भी प्रतिहत न होने वाले केवलज्ञान-दर्शन के धारक, रागादि को जीतने वाले और अन्य प्राणियों को जिताने वाले,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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