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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक संसार-सागर से स्वयं तिरे हुए और दूसरों को तारने वाले, स्वयं कर्मबन्धन से मुक्त और दूसरों को मुक्त करने वाले, स्वयं बोध-प्राप्त और दूसरों को बोध देने वाले, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, शिव अचल-अरुज-अनन्त, अक्षय, अव्याबाध और अपुनरावृत्ति-सिद्धिगति नामक शाश्वत स्थान को प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने छठे अंग ज्ञाताधर्मकथा का क्या अर्थ कहा है ?
हे जम्बू !' इस प्रकार सम्बोधन करके आर्य सुधर्मा स्थविर ने आर्य जम्बू नामक अनगार से इस प्रकार कहा-जम्बू ! यावत् सिद्धिस्थान को प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने छठे अङ्ग के दो श्रुतस्कन्ध प्ररूपण किये हैं । वे इस प्रकार हैं-ज्ञात और धर्मकथा । जम्बूस्वामी पुनः प्रश्न करते हैं-भगवन् ! यदि यावत् सिद्धिस्थान को प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने छठे अंग के दो श्रुतस्कन्ध प्ररूपित किये हैं-ज्ञान और धर्मकथा, तो भगवन् ! ज्ञात नामक प्रथम श्रतस्कन्ध के यावत् सिद्धिस्थान को प्राप्त श्रमण भगवान ने कितने अध्ययन कहे हैं ? हे जम्बू ! यावत् ज्ञात नामक श्रुतस्कन्ध के उन्नीस अध्ययन कहे हैं । वे इस प्रकार हैंसूत्र-६-८
उत्क्षिप्तज्ञात, संघाट, अंडक, कूर्म, शैलक, रोहिणी, मल्ली, माकंदी, चन्द्र, दावद्रववृक्ष, तुम्ब, उदक, मंडूक, तेतलीपुत्र, नन्दीफल, अमरकंका, आकीर्ण, सुषमा, पुण्डरीक-यह उन्नीस ज्ञात अध्ययनों के नाम हैं। सूत्र-९
भगवन् ! यदि श्रमण यावत् सिद्धिस्थान को प्राप्त महावीर ने ज्ञात-श्रुतस्कन्ध के उन्नीस अध्ययन कहे हैं, तो भगवन् ! प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में, इसी जम्बूद्वीप में, भारतवर्ष में, दक्षिणार्ध भरत में राजगृह नामक नगर था । राजगृह के ईशान कोण में गुणशील नामक चैत्य था । उस राजगृह नगर में श्रेणिक नामक राजा था । वह महाहिमवंत पर्वत के समान था, उस श्रेणिक राजा की नन्दा नामक देवी थी। वह सुकुमार हाथों-पैरों वाली थी, सूत्र-१०
श्रेणिक राजा का पुत्र और नन्दा देवी का आत्मज अभय नामक कुमार था । वह शुभलक्षणों से युक्त तथा स्वरूप से परिपूर्ण पाँचों इन्द्रियों से युक्त शरीर वाला था । यावत् साम, दंड, भेद एवं उपप्रदान नीति में निष्णात तथा व्यापार नीति की विधि का ज्ञाता था । ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा तथा अर्थशास्त्र में कुशल था ।
ओत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी तथा पारिणामिकी, इन चार प्रकार की बुद्धियों से युक्त था । वह श्रेणिक राजा के लिए बहुत-से कार्यों में, कौटुम्बिक कार्यों में, मंत्रणा में, गृहकार्यों में, रहस्यमय मामलों में, निश्चय करने में, एक बार
और बार-बार पूछने योग्य था, वह सब के लिए मेढ़ी के समान था, पृथ्वी के समान आधार था, रस्सी के समान आलम्बन रूप था, प्रमाणभूत था, आधारभूत था, चक्षुभूत था, सब और सब स्थानों में प्रतिष्ठा प्राप्त करने वाला था। सब को विचार देने वाला था तथा राज्य की धुरा को धारण करने वाला था । वह स्वयं ही राज्य राष्ट्र कोश, कोठार बल और वाहन-पुर और अन्तःपुर की देखभाल करता था। सूत्र - ११
उस श्रेणिक राजा की धारिणी नाम देवी (रानी) थी। उसके हाथ और पैर बहुत सुकुमार थे। उसके शरीर में पाँचों इन्द्रियों अहीन, शुभ लक्षणों से सम्पन्न और प्रमाणयुक्त थी । कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, अतीव मनोहर, धैर्य का स्थान, विश्वासपात्र, सम्मत, बहुमत, अनुमत आभूषणों तथा वस्त्रों के पिटारे के समान, सावधानी से सार-सँभाल की जाती हुई वह महारानी धारिणी श्रेणिक राजा से सात विपुल भोगों का सुख भोगती हुई रहती थी। सूत्र - १२
वह धारिणी देवी किसी समय अपने उत्तम भवन में शय्या पर सो रही थी । वह भवन कैसा था ? उसके बाह्य आलन्दक या द्वार पर तथा मनोज्ञ, चिकने, सुंदर आकार वाले और ऊंचे खंभों पर अतीव उत्तम पुतलियाँ बनी हई थीं। उज्ज्वल मणियों, कनक और कर्केतन आदि रत्नों के शिखर, कपोच-पारी, गवाक्ष, अर्ध-चंद्राकार सोपान,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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