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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र - ६, 'ज्ञाताधर्मकथा '
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक निर्यूहक करकाली तथा चन्द्रमालिका आदि धर के विभागों की सुन्दर रचना से युक्त था। स्वच्छ गेरु से उसमें उत्तम रंग किया हुआ था । बाहर से उसमें सफेदी की गई थी, कोमल पाणाण से घिसाई की गई थी, अत एव वह चिकना था। उसके भीतरी भाग में उत्तम और शुचि चित्रों का आलेखन किया गया था। उसका फर्श तरह-तरह की पंचरंगी मणियों और रत्नों से जड़ा हुआ था। उसका ऊपरी भाग पद्म के से आकार की लताओं से, पुष्पप्रधान बेलों से तथा उत्तम पुष्पजाति- मालती आदि से चित्रित था । उसके द्वार-भागों में चन्दन चर्चित, मांगलिक, घट सुन्दर ढंग से स्थापित किए हुए थे। वे सरस कमलों से सुशोभित थे, प्रतरक-स्वर्णमय आभूषणों से एवं मणियों तथा मोचियों की लम्बी लटकने वाली मालाओं से उसके द्वार सुशोभित हो रहे थे। उसमें सुगंधित और श्रेष्ठ पुष्पों से कोमल और रूएंदार शय्या का उपचार किया गया था। वह मन एवं हृदय को आनन्दित करने वाला था । कपूर, लौंग, मलयज, चन्दन, कृष्ण अगर, उत्तम कुन्दुरुक्क, तुरुष्क और अनेक सुगंधित द्रव्यों से बने हुए धूप के जलने से उत्पन्न हुए मघमघाती गंध से रमणीय था । उसे उत्तम चूर्णों की गंध भी विद्यमान थी । सुगंध की अधिकता के कारण वह गंध द्रव्य की वट्टी जैसा प्रतीत होता था। मणियों की किरणों के प्रकाश से वहाँ अंधकार गायब हो गया था। अधिक क्या कहा जाए ? वह अपनी चमक-दमक तथा गुणों से उत्तम देवविमान को भी पराजित करता था ।
इस प्रकार के उत्तम भवन में एक शय्या बिछी थी। उस पर शरीर प्रमाण उपधान बिछा था । एक में दोनों ओर सिरहाने और पाँयते की जगह तकिए लगे थे। वह दोनों तरफ ऊंची और मध्य में भुकी हुई थी गंभीर थी। जैसे गंगा के किनारे की बालू में पाँव रखने से पाँव धँस जाता है, उसी प्रकार उसमें धँस जाता था । कसीदा काढ़े हुए श्रीमदुकूल का चद्दर बिछा हुआ था। वह आस्तरक, मलक, नवत, कुशक्त, लिम्ब और सिंहकेसर नामक आस्तरणों से आच्छादित था जब उसका सेवन नहीं किया जाता था तब उस पर सुन्दर बना हुआ राजस्राण पड़ा रहता था उस पर मसहरी लगी हुई थी, वह अति रमणीय था। उसका स्पर्श आजिनक रूई, बूर नामक वनस्पति और मक्खन के समान नरम था । ऐसी सुन्दर शय्या पर मध्यरात्रि के समय धारिणी रानी, जब न गहरी नींद में थी और न जाग ही रही थी, बल्कि बार-बार हल्की-सी नींद ले रही थी, ऊंध रही थी, जब उसने एक महान, सात हाथ ऊंचा, रजतकूट चाँदी के शिखर के सदृश श्वेत, सौम्य, सौम्याकृति, लीला करते हुए, जंभाई लेते हुए हाथी को आकाशतल से अपने मुख में प्रवेश करते देखा । देखकर वह जाग गई ।
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तत्पश्चात् वह धारिणी देवी इस प्रकार के इस स्वरूप वाले, उदार प्रधान, कल्याणकारी, शिव, धन्य, मांगलिक-एवं सुशोभित महास्वप्न को देखकर जागी । उसे हर्ष और संतोष हुआ । चित्त में आनन्द हुआ । मन में प्रीति उत्पन्न हुई । परम प्रसन्नता हुई । हर्ष के वशीभूत होकर उसका हृदय विकसित हो गया । मेघ की धाराओं आघात पाए कदम्ब के फूल के समान उसे रोमांच हो आया उसमे स्वप्न का विचार किया। शय्या से उठी और पादपीठ से नीचे ऊतरी मानसिक त्वरा से शारीरिक चपलता से रहित, स्खलना से तथा विलम्ब - रहित राजहंस जैसी गति से जहाँ श्रेणिक राजा था, वहीं आई। श्रेणिक राजा को इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज, मणाम, उदार, कल्याण, शिव, धन्य, मंगलकारी, सश्रीक हृदय को प्रिय लगने वाली, आह्लाद उत्पन्न करने वाली, परिमित अक्षरों वाली, मधुर स्वरों से मीठी, रिभित-स्वरों की धोलना वाली, शब्द और अर्थ की गंभीरता वाली और गुण रूपी लक्ष्मी से युक्त वाणी बार-बार बोलकर श्रेणिक राजा को जगाती है। जगाकर श्रेणिक राजा की अनुमति पाकर विविध प्रकार के मणि, सुवर्ण और रत्नों की रचना से चित्र-विचित्र भद्रासन पर बैठती है। आश्वस्त होकर, विश्वस्त होकर, सुखद और श्रेष्ठ आसन पर बैठी हुई वह दोनों करतलों से ग्रहण की हुई और मस्तक के चारों ओर घूमती हुई अंजीर को मस्तक पर धारण करके श्रेणिक राजा से इस प्रकार कहती है- देवानुप्रिय ! आज मैं उस पूर्ववर्णित शरीर प्रमाण तकिया वाली शय्या पर सो रही थी, तब यावत् अपने मुख में प्रवेश करते हुए हाथी को स्वप्न में देखकर जागी हूँ। हे देवानुप्रिय ! इस उदार यावत् स्वप्न का क्या फल- विशेष होगा ?
सूत्र - १३
तत्पश्चात् श्रेणिक राजा धारिणी देवी से इस अर्थ को सूनकर तथा हृदय में धारण करके हर्षित हुआ, मेघ
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा )" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद"
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