________________
आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक की धाराओं से आहत कदम्बवृक्ष के सुगंधित पुष्प के समान उसका शरीर पुलकित हो उठा-उसने स्वप्न का अवग्रहण किया । विशेष अर्थ के विचार रूप ईहा में प्रवेश किया । अपने स्वाभाविक मतिपूर्वक बुद्धिविज्ञान से उस स्वप्न के फल का निश्चय किया । निश्चय करके धारिणी देवी से हृदय में आह्लाद उत्पन्न करने वाली मृदु, मधुर, रिभित, गंभीर और सश्रीक वाणी से बार-बार प्रशंसा करते हुए कहा।
'देवानुप्रिय ! तुमने उदार-प्रधान स्वप्न देखा है, देवानुप्रिये ! तुमने कल्याणकारी स्वप्न देखा है ! तुमने शिवउपद्रव-विनाशक, धन्य-मंगलमय-सुखकाकीर और सश्रीक-स्वप्न देखा है । देवा ! आरोग्य, तुष्टि, दीर्घायु, कल्याण और मंगल करने वाला स्वप्न तुमने देखा है । देवानुप्रिये ! इस स्वप्न को देखने से तुम्हें अर्थ का लाभ होगा, तुम्हें पुत्र का लाभ होगा, तुम्हें राज्य का लाभ होगा, भोग का तथा सुख का लाभ होगा । निश्चय ही ! तुम पूर नव मास और साढ़े सात रात्रि-दिन व्यतीत होने पर हमारे कुल की ध्वजा के समान, कुल के लिए दीपक के समान, कुल में पर्वत के समान, किसी से पराबत न होने वाला, कल का भुषण, कल का तिलक, कल की कीर्ति बढाने के आजीविका बढ़ानेवाला, कुल को आनन्द प्रदान करानार, कुल का यश बढ़ानेवाला, कुल का आधार, कुलमें वृक्ष के समान आश्रयणीय और कुल की वृद्धि करने वाला तथा सुकोमल हाथ-पैर वाला पुत्र (यावत्) प्रसव करोगी।'
वह बालक बाल्यावस्था को पार करके कला आदि के ज्ञान में परिपक्व होकर, यौवन को प्राप्त होकर शूर-वीर और पराक्रमी होगा । वह विस्तीर्ण और विपुल सेना तथा वाहनों का स्वामी होगा । राज्य का अधिपति राजा होगा । तुमने आरोग्यकारी, तुष्टिकारी, दीर्घायुकारी और कल्याणकारी स्वप्न देखा है। इस प्रकार कहकर राजा उसकी प्रशंसा करता है। सूत्र - १४
तत्पश्चात् वह धारिणी देवी श्रेणिक राजा के इस प्रकार कहने पर हर्षित एवं सन्तुष्ट हुई । उसका हृदय आनन्दित हो गया । वह दोनों हाथ जोडकर आवर्त करके और मस्तक पर अंजलि करके इस प्रका प्रिय ! आपने जो कहा है सो ऐसा ही है । आपका कथन सत्य है । संशय रहित है । देवानुप्रिय ! मुझे इष्ट है, अत्यन्त इष्ट है, और इष्ट तथा अत्यन्त इष्ट है। आपने मुझसे जो कहा है सौ यह अर्थ सत्य है। इस प्रकार कहकर धारिणी देवी स्वप्न को भलीभाँति अंगीकार करती है । राजा श्रेणिक की आज्ञा पाकर नाना प्रकार के मणि, सुवर्ण
और रत्नों की रचना से विचित्र भद्रासन से उठती है। जिस जगह अपनी शय्या थी, वहीं आती है । शय्या पर बैठती है, बैठकर इस प्रकार सोचती है- 'मेरा यह स्वरूप से उत्तम और फल से प्रधान तथा मंगलमय स्वप्न, अन्य अशुभ स्वप्नों से नष्ट न हो जाए' ऐसा सोचकर धारिणी देवी, देव और गुरुजन संबंधी प्रशस्त धार्मिक कथाओं द्वारा अपने शुभ स्वप्न की रक्षा के लिए जागरण करती हई विचरने लगी। सूत्र - १५
तत्पश्चात श्रेणिक राजा ने प्रभात काल के समय कौटम्बिक पुरुषों को बुलाया और इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! आज बाहर की उपस्थानशाला को शीघ्र ही विशेष रूप से परम रमणीय, गंधोदक से सिंचित, साफसूथरी, लीपी हुई, पाँच वर्गों के सरस सुगंधित एवं बिखरे हुए फूलों के समूह रूप उपचार से युक्त, कालागुरु, कुंदुरुक्क, तुरुष्क था धूप के जलाने से महकती हुई, गंध से व्याप्त होने के कारण मनोहर, श्रेष्ठ सुगंध के चूर्ण से सुगंधित तथा सुगंध की गुटिका के समान करो और कराओ । मेरी आज्ञा वापिस सौंपो । तत्पश्चात् वे कौटुम्बिक पुरुष श्रेणिक राजा द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर हर्षित हुए। उन्होंने आज्ञानुसार कार्य करके आज्ञा वापिस सौंपी। तत्पश्चात् स्वप्न वाली रात्रि के बाद दूसरे दिन रात्रि प्रकाशमान प्रभात रूप हई । प्रफुल्लित कमलों के पत्ते विकसित हुए, काले मृग के नेत्र निद्रारहित होने से विसस्वर हुए । फिर वह प्रभात पाण्डुर-श्वेत वर्ण वाला हुआ । लाल अशोक की कान्ति, पलाश के पुष्प, तोते की चोंच, चिरमी के अर्धभाग, दुपहरी के पुष्प, कबूतर के पैर और नेत्र, कोकिला के नेत्र, जासोद के फूल, जाज्वल्यमान अग्नि, स्वर्णकलश तथा हिंगूल के समूह की लालीमा से भी अधिक लालीमा से जिसकी श्री सुशोभित हो रही है, ऐसा सूर्य क्रमशः उदित हुआ । सूर्य की किरणों का समूह
तत्ववाद
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 8