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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक नीचे उतरकर अंधकार का विनाश करने लगा । बाल-सूर्य रूपी कुंकुम से मानो जीवलोक व्याप्त हो गया । नेत्रों के विषय का प्रसार होने से विकसित होने वाला लोक स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा । कमलों के वन को विकसित करने वाला तथा सहस्र किरणों वाला दिवाकर तेज से जाज्वल्यमान हो गया।
शय्या से उठकर राजा श्रेणिक जहाँ व्यायामशाला थी, वहीं आता है | आकर-व्यायामशाला में प्रवेश करता है । प्रवेश करके अनेक प्रकार के व्यायाम, योग्य, व्यामर्दन, कुश्ती तथा करण रूप कसरत से श्रेणिक राजा ने श्रम किया, और खूब श्रम किया । तत्पश्चात् शतपाक तथा रसस्त्रपाक आदि श्रेष्ठ सुगंधित तेल आदि अभ्यंगनों से, जो प्रीति उत्पन्न करने वाला अर्थात् रुधिर आदि धातुओं को सम करने वाले, जठराग्नि को दीप्त करने वाले, दर्पणीय अर्थात् शरीर का बल बढ़ाने वाले, मदनीय, मांसवर्धक तथा समस्त इन्द्रियों को एवं शरीर को आह्लादित करने वाले थे, राजा श्रेणिक ने अभ्यंगन कराया । फिर मालिश किये शरीर के चर्म को, परिपूर्ण हाथ-पैर वाले तथा कोमल तल वाले, छेक दक्ष, बलशाली कुशल, मेधावी, निपुण, निपुण शिल्पी परिश्रम को जीतने वाले, अभ्यंगन मर्दन उद्वर्त्तन करने के गुणों से पूर्ण पुरुषों द्वारा अस्थियों को सुखकारी, मांस को सुखकारी, त्वचा को सुखकारी तथा रोमों को सुखकारी-इस प्रकार चार तरह की बाधना से श्रेणिक के शरीर का मर्दन किया गया । इस मालिश और मर्दन से राजा का परिश्रम दूर हो गया-थकावट मिट गई । वह व्यायामशाला से बाहर नीकला । श्रेणिक राजा जहाँ मज्जन-गृह था वहाँ आता है । मज्जनगृह में प्रवेश करता है । चारों ओर जालियों से मनोहर, चित्र-विचित्र मणियों और रत्नों के फर्श वाले तथा रमणीय स्नानमंडप के भीतर विविध प्रकार के मणियों और रत्नों की रचना से चित्र-विचित्र स्नान करने के पीठ-बाजौठ पर सुखपूर्वक बैठा।
उसने पवित्र स्थान से लाए हुए शुभ जल से, पुष्पमिश्रित जल से, सुगंध मिश्रित जल से और शुद्ध जल से बार-बार कल्याणकारी-आनन्दप्रद और उत्तम विधि से स्नान किया । उस कल्याणकारी और उत्तम स्थान के अंत में रक्षा पोटली आदि सैकड़ों कौतुक किये गए । तत्पश्चात् पक्षी के पंख के समान अत्यन्त कोमल, सुगंधित और काषाय रंग से रंगे हुए वस्त्र से शरीर को पोंछा । कोरा, बहुमूल्य और श्रेष्ठ वस्त्र धारण किया । सरस और सुगंधित गोशीर्ष चन्दन से शरीर पर विलेपन किया । शुचि पुष्पों की माला पहनी । केसर आदि का लेपन किया । मणियों के
और स्वर्ण के अलंकार धारण किए । अठारह लड़ों के हार, नौ लड़ों के अर्धहार, तीन लड़ों के छोटे हार तथा लम्बे लटकते हुए कटिसूत्र से शरीर की शोभा बढ़ाई । कंठ में कंठा पहना । उंगलियों में अंगुठियाँ धारण की । सुन्दर अंग पर अन्यान्य सुन्दर आक्षरण धारण किए । अनेक मणियों के बने कटक और त्रुटिक नामक आभूषणों से
तंभित से प्रतीत होने लगे। अतिशय रूप के कारण राजा अत्यन्त सशोभित हो उठा । कंडलों के कारण उसका मुखमंडल उद्दीप्त हो गया । मुकुट से मस्तक प्रकाशित होने लगा । वक्षःस्थल हार से आच्छादित होने के कारण अतिशय प्रीति उत्पन्न करने लगा । लम्बे लटकते हुए दुपट्टे से उसने सुन्दर उत्तरासंग किया । मुद्रिकाओं से उसकी उंगलियाँ पीली दीखने लगीं । नाना भाँति की मणियों, सुवर्ण और रत्नों से निर्मल, महामूल्यवान्, निपुण कलाकालों द्वारा निर्मित, चमचमते हुए, सुरचित, भली-भाँति मिली हुई सन्धियों वाले, विशिष्ट प्रकार के मनोहर, सुन्दर आकार वाले और प्रशस्त वीर-वलय धारण किये । अधिक क्या कहा जाए ? मुकूट आदि आभूषणों से अलंकृत और वस्त्रों से विभूषित राजा श्रेणिक कल्पवृक्ष के समान दिखाई देने लगा। कोरंट वृक्ष के पुष्पों की माला वाला छत्र उसके मस्तक पर धारण किया गया । आजू-बाजू चार चामरों से उसका शरीर बींजा जाने लगा । राजा पर दृष्टि पड़ते ही लोग 'जय-जय' का घोष करने लगे । अनेक गणनायक, दंडनायक, राजा, ईश्वर, तलवर, मंत्री, महामंत्री, ज्योतिषी, द्वारपाल, अमात्य, चेट, पीठमर्द, नागरिक लोग, व्यापारी, सेठ, सेनापति, सार्थवाह, दूत और सन्धिपाल-इन सब से घिरा हुआ ग्रहों के समूह में देदीप्यमान तथा नक्षत्रों और ताराओं के बीच चन्द्रमा के समान प्रियदर्शन राजा श्रेणिक मज्जनगृह से इस प्रकार नीकला जैसे उज्ज्वल महामेघों में से चन्द्रमा नीकला हो । बाह्या उपस्थानशाला थी, वहीं आया और पूर्व दिशा की ओर मुख करके श्रेष्ठ सिंहासन पर आसीन हुआ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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