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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र - ६, 'ज्ञाताधर्मकथा '
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक
श्रेणिक राजा अपने समीप ईशानकोण में श्वेत वस्त्र से आच्छादित तथा सरसों के मांगलिक उपचार से जिनमें शान्तिकर्म किया गया है, ऐसे आठ भद्रासन रखवाता है । नाना मणियों और रत्नों से मंडित, अतिशय दर्शनीय, बहुमूल्य और श्रेष्ठनगर में बनी हुई कोमल एवं सैकड़ों प्रकार की रचना वाले चित्रों का स्थानभूत, ईहामृग, वृषभ, अश्व, नर, मगर, पक्षी, सर्प, किन्नर, रुरु जाति के मृग, अष्टापद, चमरी गाय, हाथी, वनलता और पद्म आदि के चित्रों से युक्त, श्रेष्ठ स्वर्ण के तारों से भरे हुए सुशोभित किनारों वाली जवनिका सभा के भीतरी भाग में बँधवाई। धारिणी देवी के लिए एक भद्रासन रखवाया। वह भद्रासन आस्तरक और कोमल तकियों से ढ़का था । श्वेत वस्त्र उस पर बिछा हुआ था । सुन्दर था । स्पर्श से अंगों को सुख उत्पन्न करने वाला था और अतिशय मृदु । राजा न कौटुम्बिक पुरुषों को बुलवाया और कहा- देवानुप्रियों ! अष्टांग महानिमित्त तथा विविध शास्त्रों में कुशल स्वप्नपाठकों को शीघ्र ही बुलाओ और शीघ्र ही इस आज्ञा को वापिस लौटाओ ।
तत्पश्चात् वे कौटुम्बिक पुरुष श्रेणिक राजा द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर हर्षित यावत् आनन्दित हृदय हुए। । दोनों हाथ जोड़कर दसों नखों को इकट्ठा करके मस्तक पर घूमा कर अंजलि जोड़कर 'हे देव ! ऐसा ही हो' इस प्रकार कहकर विनय के साथ आज्ञा के वचनों को स्वीकार करते हैं और स्वीकार करके श्रेणिक राजा के पास से नीकलते हैं। नीकलकर राजगृह के बीचोंबीच होकर जहाँ स्वप्नपाठकों के घर थे, वहाँ पहुँचते हैं और पहुँच कर स्वप्नपाठकों को बुलाते हैं। तत्पश्चात् वे स्वप्नपाठक श्रेणिक राजा के कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा बुलाये जाने पर हृष्टतुष्ट यावत् आनन्दितहृदय हुए उन्होंने स्नान किया, कुलदेवता का पूजन किया, यावत् कौतुक और मंगल प्रायश्चित्त किया । अल्प किन्तु बहुमूल्य आभरणों से शरीर को अलंकृत किया, मस्तक पर दूर्वा तथा सरसों मंगल निमित्त धारण किये । फिर अपने-अपने घरों से नीकले । राजगृह के बीचोंबीच होकर श्रेणिक राजा के मुख्य महल के द्वार पर आए । एक साथ मिलकर श्रेणिक राजा के मुख्य महल के द्वार के भीतर प्रवेश किया । प्रवेश करके जहाँ बाहरी उपस्थानशाला थी और जहाँ श्रेणिक राजा था, वहाँ आए । आकर श्रेणिक राजा को जय और विजय शब्दों से बधाया । श्रेणिक राजा ने चन्दनादि से उनकी अर्चना की, गुणों की प्रशंसा करके वन्दन किया, पुष्पों द्वारा पूजा की, आदरपूर्ण दृष्टि से देखकर एवं नमस्कार करके मान किया, फल-वस्त्र आदि देकर सत्कार किया और अनेक प्रकार की भक्ति कर सम्मान किया । वे स्वप्नपाठक पहले से बिछाए हुए भद्रासनों पर अलग-अलग बैठे ।
तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने जवनिका के पीछे धारिणी देवी को बिठलाया। फिर हाथों में पुष्प और फल लेकर अत्यन्त विनय के साथ स्वप्नपाठकों से इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय ! आज उस प्रकार की उस शय्या पर सोई
धारिणी देवी यावत् महास्वप्न देखकर जागी है । तो देवानुप्रियो ! इस उदार यावत् महास्वप्न का क्या कल्याणकारी फल- विशेष होगा ? तत्पश्चात् वे स्वप्नपाठक श्रेणिक राजा का यह कथन सूनकर और हृदय में धारण करके हृष्ट, तुष्ट, आनन्दितहृदय हुए। उन्होंने उस स्वप्न का सम्यक् प्रकार से अवग्रहण किया। ईहा में प्रवेश किया, प्रवेश करके परस्पर एक-दूसरे के साथ विचार-विमर्श किया। स्वप्न का आपसे अर्थ समझा, दूसरों का अभिप्राय जानकर विशेष अर्थ समझा, आपस में उस अर्थ की पूछताछ की, अर्थ का निश्चय किया और फिर तथ्य का निश्चय किया वे स्वप्नपाठक श्रेणिक राजा के सामने स्वप्नशास्त्रों का बार-बार उच्चारण करते हुए इस प्रकार बोले
हे स्वामिन् ! हमारे स्वप्नशास्त्र में बयालीस स्वप्न और तीस महास्वप्न कुल मिलाकर ७२ स्वप्न हैं। अरिहंत और चक्रवर्ती की माता, जब अरिहंत और चक्रवर्ती गर्भ में आते हैं तो तीस महास्वप्नों में चौदह महास्वप्न देखकर जागती हैं । वे इस प्रकार हैं
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सूत्र - १६
हाथी, वृषभ, सिंह, अभिषेक, पुष्पों की माला, चन्द्र, सूर्य, ध्वजा, पूर्ण कुंभ, पद्मयुक्त सरोवर, क्षीरसागर, विमान, रत्नों की राशि और अग्नि ।
सूत्र - १७
जब वासुदेव गर्भ में आते हैं तो वासुदेव की माता इन चौदह महास्वप्नों में किन्हीं भी सात महास्वप्नों को
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा )" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद”
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