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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक उसमें क्रोध के चिह्न प्रकट हुए । उसका क्रोध बढ़ गया । उसने रौद्र रूप धारण किया और वह क्रोधाग्नि से जल उठा । अत एव वह तुम्हारे पास आया । आकर तीक्ष्ण दाँत रूपी मूसलों से तीन बार तुम्हारी पीठ बींध दी और बींध कर पूर्व वैर का बदला लिया । बदला लेकर हृष्ट-तुष्ट होकर पानी पीया । पानी पीकर जिस दिशा से प्रकट हुआ था-आया था, उस दिशा में वापिस लौट गया।
तत्पश्चात् हे मेघ ! तुम्हारे शरीर में वेदना उत्पन्न हुई । वह वेदना ऐसी थी कि तुम्हें तनिक भी चैन न थी, वह सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त थी और त्रितुला थी । वह वेदना कठोर यावत् बहुत ही प्रचण्ड थी, दुस्सह थी । उस वेदना के कारण तुम्हारा शरीर पित्त-ज्वर से व्याप्त हो गया और शरीर में दाह उत्पन्न हो गया । उस समय तुम इस बूरी हालत में रहे । तत्पश्चात् हे मेघ ! तुम उस उज्ज्वल-बेचैन बना देने वाली यावत् दुस्सह वेदना को सात दिन-रात पर्यन्त भोग कर, एक सौ बीस वर्ष की आयु भोगकर, आर्तध्यान के वशीभूत एवं दुःख से पीड़ित हुए । तुम कालमास में काल करके, इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में, दक्षिणार्ध भरत में, गंगा नामक महानदी के दक्षिण किनारे पर, विंध्याचल के समीप एक मदोन्मत्त श्रेष्ठ गंधहस्ती से, एक श्रेष्ठ हथिनी की कुंख में हाथी के बच्चे के रूप में उत्पन्न हए । तत्पश्चात् उस हथिनी ने नौ मास पूर्ण होने पर वसन्त मास में तुम्हें जन्म दिया।
हे मेघ ! तुम गर्भावास से मुक्त होकर गजकलभक भी हो गए । लाल कमल के समान लाल और सुकुमार हुए । जपाकुसुम, रक्त वर्ण पारिजात नामक वृक्ष के पुष्प, लाख के रस, सरस कुंकुम और सन्ध्याकालीन बादलों के रंग के समान रक्तवर्ण हुए । अपने यूथपति के प्रिय हुए । गणिकाओं जैसी युवती हथिनियों के उदर-प्रदेश में अपनी सूंड जालकते हुए काम-क्रीड़ा में तत्पर रहने लगे । इस प्रकार सैकड़ों हाथियों से परिवृत्त होकर तुम पर्वत के रमणीय काननों में सुखपूर्वक विचरने लगे । हे मेघ ! तुम यौवन को प्राप्त हुए । फिर यूथपति ने कालधर्म को प्राप्त होने पर, तुम स्वयं ही उस यूथ को वहन करने लगे । हे मेघ ! वनचरों ने तुम्हारा नाम मेरुप्रभ रखा । तुम चार दाँत वाले हस्तिरत्न हुए । हे मेघ ! तुम सात अंगों से भूमि का स्पर्श करने वाले, आदि पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त यावत् सुन्दर रूप वाले हुए । हे मेघ ! तुम वहाँ सात सौ हाथियों के यूथ का अधिपतित्व, स्वामित्व, नेतृत्व आदि करते हुए तथा उनका पालन करते हुए अभिरमण करने लगे।
तब एक बार कभी ग्रीष्मकाल के अवसर पर ज्येष्ठ मास में, वन के दावानल की ज्वालाओं से वन-प्रदेश जलने लगे । दिशाएं धूम से व्याप्त हो गईं । उस समय तुम बवण्डर की तरह इधर-उधर भागदौड़ करने लगे। भयभीत हुए, व्याकुल हुए और बहुत डर गए । तब बहुत से हाथियों यावत् हथिनियों आदि के साथ, उनसे परिवृत्त होकर, चारों ओर एक दिशा से दूसरी दिशा में भागे । हे मेघ ! उस समय उस वन के दावानल को देखकर तुम्हें इस
का अध्यवसाय, चिन्तन एवं मानसिक विचार उत्पन्न हुआ-'लगता है जैसे इस प्रकार की अग्नि की उत्पत्ति मैंने पहले भी कभी अनुभव की है। तत्पश्चात् हे मेघ ! विशुद्ध होती हुई लेश्याओं, शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम
और जातिस्मरण को आवृत्त करनेवाले कर्मों का क्षयोपशम होने से ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए तुम्हें संज्ञी जीवों को प्राप्त होने वाला जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ । तत्पश्चात् मेघ ! तुमने यह अर्थ-सम्यक् प्रकार से जान लिया कि – 'निश्चय ही मैं व्यतीत हुए दूसरे भव में, इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भरतक्षेत्र में, वैताढ्य पर्वत की तलहटी में सुखपूर्वक विचरता था । वहाँ इस प्रकार का महान अग्नि का संभव-प्रादुर्भाव मैंने अनुभव किया है ।' तदनन्तर हे मेघ ! तुम उस भव में उसी दिन के अन्तिम प्रहर तक अपने यूथ के साथ विचरण करते थे। हे मेघ ! उसके बाद शत्रु हाथी की मार से मृत्यु को प्राप्त होकर दूसरे भव में सात हाथ ऊंचे यावत् जातिस्मरण से युक्त, चार दाँत वाले मेरुप्रभ नामक हाथी हुए।
तत्पश्चात् हे मेघ ! तुम्हें इस प्रकार का अध्यवसाय-चिन्तन, संकल्प उत्पन्न हुआ कि-'मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि इस समय गंगा महानदी के दक्षिणी किनारे पर विंध्याचल की तलहटी में दावानल से रक्षा करने के लिए अपने यूथ के साथ बड़ा मंडल बनाऊं ।' इस प्रकार विचार करके हे मेघ ! तुमने एक बार कभी प्रथम वर्षाकाल में खूब वर्षा होने पर गंगा महानदी के समीप बहुत-से हाथियों यावत् हथिनियों से परिवृत्त होकर एक
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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