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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक परिवृत्त होकर वैताढ्य पर्वत के पादमूल में, पर्वतों में, दरियों में, कुहरों में, कंदराओं में, उज्झरों, झरणों में, विदरों में, गड़हों में, पल्वलों में, चिल्ललों में, कटक में, कटपल्लवों में, तटों में, अटवी में, टंकों में, कूटों में, पर्वत के शिखरों पर, प्राग्भारों में, मंचों पर, काननों में, वनों में, वनखण्डों में, वनों की श्रेणियों में, नदियों में, नदीकक्षों में, यूथों में, नदियों के संगमस्थलों में, वापियों में, पुष्करणियों में, दीर्घिकाओं में, गुंजालिकाओं में, सरोवरों में, सरोवरों की पंक्तियों में, सरः-सर पंक्तियों में, वनचरों द्वारा तुम्हें विचार दी गई थी । ऐसे तुम बहुसंख्यक हाथियों आदि के साथ, नाना प्रकार के तरुपल्लवों, पानी और घास का उपयोग करते हुए निर्भय, और उद्वेगरहित होकर सुख के साथ विचरते थे-रहते थे।
तत्पश्चात् एक बार कदाचित् प्रावृट्, वर्षा, शरद हेमन्त और वसन्त, इस पाँच ऋतुओं के क्रमशः व्यतीत हो जाने पर ग्रीष्म ऋतु का समय आया । ज्येष्ठ मास में, वृक्षों की आपस की रगड़ से उत्पन्न हुईं तथा सूखे घास, पत्तों और कचरे से एवं वाय के वेग से प्रदीप्त हई अत्यन्त भयानक अग्नि से उत्पन्न वन के दावानल की ज्वालाओं से वन का मध्य भाग सुलग उठा । दिशाएं धुएं से व्याप्त हो गई। प्रचण्ड वायु-वेग से अग्नि की ज्वालाएं टूट जाने लगी और चारों ओर गिरने लगीं । पोले वृक्ष भीतर ही भीतर जलने लगे । वन-प्रदेशों के नदी-नालों का जल मृत मृगादिक के शवों से सड़ने लगा । उनका कीचड़ कीड़ों से व्याप्त हो गया । उनके किनारों का पानी सूख गया । भंगारक पक्षी दीनता पूर्वक आक्रन्दन करने लगे । उत्तम वृक्षों पर स्थित काक अत्यन्त कठोर और अनिष्ट शब्द करने लगे । उन वक्षों के अग्रभाग अग्निकणों के कारण मँगे के समान लाल दिखाई देने लगे । पक्षियों के समह प्यास से पीड़ित होकर पंख ढीले करके, जिह्वा एवं तालु को बाहर नीकाल करके तथा मुँह फाड़कर साँसे लेने लगे। ग्रीष्मकाल की उष्णता, सूर्य के ताप, अत्यन्त कठोर एवं प्रचंड वायु तथा-सूखे घास के पत्तों और कचरे से युक्त बवंडर के कारण भाग-दौड़ करने वाले, मदोन्मत्त एवं घबराए सिंह आदि श्वापदों के कारण पर्वत आकुल-व्याकुल हो उठे । ऐसा प्रतीत होने लगा मानो उन पर्वतों पर मृगतृष्णा रूप पट्टबंध बँधा हो । त्रास को प्राप्त मृग, अन्य पशु
और सरीसृप इधर-उधर तड़फने लगे । इस भयानक अवसर पर, मे मेघ ! तुम्हारे पूर्वभव के सुमेरुप्रभ नामक हाथी का मुख-विवर फट गया । जिह्वा का अग्रभाग बाहर नीकल आया । बड़े-बड़े दोनों कान भय से स्तब्ध और व्याकुलता के कारण शब्द ग्रहण करने में तत्पर हुए । बड़ी और मोटी सँड़ सिकुड़ गई । उसने पूँछ ऊंची कर ली। पीना के समान विरस अरटि के शब्द-चित्कार से वह आकाशतल को फोड़ता हुआ सा, सीत्कार करता हुआ, चहुँ
ओर सर्वत्र बेलों के समूह को छेदता हुआ, त्रस्त और बहुसंख्यक सहस्रों वृक्षों को उखाड़ता हुआ, राज्य से भ्रष्ट हुए राजा के समान, वायु से डोलते हुए जहाज के समान और बवंडर के समान इधर-उधर भ्रमण करता हुआ एवं बारबार लींड़ी त्यागता हुआ, बहुत-से हाथियों के साथ दिशाओं और विदिशाओं में इधर-उधर भागदौड़ करने लगा।
___ हे मेघ ! तुम वहाँ जीर्ण, जरा से जर्जरित देह वाले, व्याकुल, भूखे, प्यासे, दुबले, थके-माँदे, बहिरे तथा दिङ्मूढ होकर अपने यूथ से बिछुड़ गए । वन के दावानल की ज्वालाओं से पराभूत हुए । गर्मी से, प्यास से और भूख से पीड़ित होकर भय से घबरा गए, त्रस्त हुए । तुम्हारा आनन्द-रस शुष्क हो गया । इस विपत्ति से कैसे छूटकारा पाऊं, ऐसा विचार करके उद्विग्न हुए । तुम्हें पूरी तरह भय उत्पन्न हो गया । अत एव तुम इधर-उधर दौड़ने
और खूब दौड़ने लगे । इसी समय अल्प जल वाला और कीचड़ की अधिकता वाला एक बड़ा सरोवर तुम्हें दिखाई दिया । उसमें पानी पीने के लिए बिना घाट के ही तुम उत्तर गए । हे मेघ ! वहाँ तुम किनारे से तो दूर चले गए परन्तु पानी तक न पहुँच पाये और बीच ही में कीचड़ में फँस गये । हे मेघ ! 'मैं पानी पीऊं ऐसा सोचकर तुमन अपनी सूंड़ फैलाई, मगर तुम्हारी सँड़ भी पानी न पा सकी । तब हे मेघ ! तुमने पुनः 'शरीर को कीचड़ से बाहर नीकालूँ ऐसा विचार कर जोर मारा तो कीचड़ में और गाढ़े फँस गए।
तत्पश्चात् हे मेघ ! एक बार कभी तुमने एक नौजवान श्रेष्ठ हाथी को सूंड, पैर और दाँत रूपी मूसलों से प्रहार करके मारा था और अपने झुंड में से बहुत समय पूर्व नीकाल दिया था । वह हाथी पानी पीने के लिए उसी सरोवर में उतरा । उस नौजवान हाथी ने तुम्हें देखा । देखते ही उसे पूर्व वैर का स्मरण हो आया । स्मरण आते ही
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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