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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक योजन परिमित बड़े घेरे वाला विशाल मंडल बनाया । उस मंडल में जो कुछ भी घास, पत्ते, काष्ठ, काँटे, लता, बेलें, ढूंठ, वृक्ष या पौधे आदि थे, उन सबको तीन बार हिला कर पैर से उखाड़ा, सूंड से पकड़ा और एक और ले जाकर डाल दिया । हे मेघ ! तत्पश्चात् तुम उसी मंडल के समीप गंगा महानदी के दक्षिणी किनारे, विंध्याचल के पादमूल में, पर्वत आदि पूर्वोक्त स्थानों में विचरण करने लगे । हे मेघ ! किसी अन्य समय मध्य वर्षाऋतु में खूब वर्षा होने पर तुम उस स्थान पर गए जहाँ मंडल था । वहाँ जाकर दूसरी बार, इसी प्रकार अन्तिम वर्षा-रात्रि में भी घोर वृष्टि होने पर जहाँ मंडल था, वहाँ जाकर तीसरी बार उस मंडल को साफ किया । वहाँ जो भी घास, पत्ते, काष्ठ, काँटे, लता, बैलें, ढूंठ, वृक्ष या पौधे ऊगे थे, उन सबको उखाड़कर सुखपूर्वक विचरण करने लगे।
हे मेघ ! तुम गजेन्द्र पर्याय में वर्त्त रहे थे कि अनुक्रम से कमलिनियों के वन का विनाश करने वाला, कुंद और लोध्र के पुष्पों की समद्धि से सम्पन्न तथा अत्यन्त हिम वाला हेमन्त ऋत व्यतीत हो गया और अभिनव ग्रीष्म काल आ पहँचा । उस समय तम वनों में विचरण कर रहे थे। वहाँ क्रीडा करते समय वन की हथिनियाँ तम्हारे ऊपर विविध प्रकार के कमलों एवं पुष्पों का प्रहार करती थीं । तुम उस ऋतु में उत्पन्न पुष्पों के ब कर्ण के आभूषणों से मंडित और मनोहर थे । मद के कारण विकसित गंडस्थलों को आर्द्र करने वाले तथा झरते हुए सुगन्धित मदजल से तुम सुगन्धमय बन गए थे । हथिनियों से घिरे थे । सब तरह से ऋतु सम्बन्धी शोभा उत्पन्न हुई थी । उस ग्रीष्मकाल में सूर्य की प्रखर किरणें पड़ रही थीं । उस ग्रीष्मऋतु ने श्रेष्ठ वृक्षों के शिखरों को शुष्क बना दिया था । वह बड़ा ही भयंकर प्रतीत होता था । शब्द करने वाले श्रृंगार नामक पक्षी भयानक शब्द कर रहे थे। पत्र, काष्ठ, तृण और कचरे को उड़ाने वाले प्रतिकूल पवन से आकाशतल और वृक्षों का समूह व्याप्त हो गया था । वह बवण्डरों के कारण भयानक दीख पड़ता था । प्यास के कारण उत्पन्न वेदनादि दोषों से ग्रस्त और इसी कारण इधर-उधर भटकते हुए श्वापदों से युक्त था । देखने में ऐसा भयानक ग्रीष्मऋतु, उत्पन्न हुए दावानल के कारण अधिक दारुण हो गया ।
वह दावानल वायु के संचार के कारण फैला हुआ और विकसित हुआ था । उसके शब्द का प्रकार अत्यधिक भयंकर था । वृक्षों से गिरने वाले मधु की धाराओं से सिञ्चित होने के कारण वह अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त हुआ था, धधकने की ध्वनि से परिव्याप्त था । वह अत्यन्त चमकती हुई चिनगारियों से युक्त और धूम व्याप्त था । सैकड़ों के प्राणों का अन्त करने वाला था । इस प्रकार तीव्रता को प्राप्त दावानल के कारण वह ग्रीष्म ऋतु अत्यन्त भयङ्कर दिखाई देती थी। हे मेघ ! तुम उस दावानल की ज्वालाओं से आच्छादित हो ईच्छानुसार गमन करने में असमर्थ हो गए । धूएं के कारण उत्पन्न हुए अन्धकार से भयभीत हो गए । अग्नि के ताप को देखने से तुम्हारे दोनों कान अरघट्ट के तुंब के समान स्तब्ध रह गए । तुम्हारी मोटी और बड़ी सँड़ सिकुड़ गई। तुम्हारे चमकते हुए नेत्र भय के कारण इधर-उधर फिरते-देखने लगे । जैसे वायु के कारण महामेघ का विस्तार हो जाता है, उसी प्रकार वेग के कारण तुम्हारा स्वरूप विस्तृत दिखाई देने लगा । पहले दावानल के भय से भीतहृदय होकर दावानल से अपनी रक्षा करने के लिए, जिस दिशा में तृण के प्रदेश और वृक्ष आदि हटाकर सफाचट प्रदेश बनाया था और जिधर वह मंडल बनाया था, उधर ही जाने का तुमने विचार किया। वहीं जाने का निश्चय किया।
हे मेघ ! किसी अन्य समय पाँच ऋतएं व्यतीत हो जाने पर ग्रीष्मकाल के अवसर पर ज्येष्ठ मास में, वक्षों की परस्पर की रगड़ से उत्पन्न दावानल के कारण यावत् अग्नि फैल गई और मृग, पशु, पक्षी तथा सरीसृप आदि भाग-दौड़ करने लगे । तब तुम बहुत-से हाथियों आदि के साथ जहाँ वह मंडल था, वहाँ जाने के लिए दौड़े । उस मंडल में अन्य बहुत से सिंह, बाघ, भेड़िया, द्वीपिका (चिते), रीछ, तरच्छ, पारासर, शरभ, शृंगाल, बिडाल, श्वान, शूकर, खरगोश, लोमड़ी, चित्र और चिल्लन आदि पशु अग्नि के भय से घबरा कर पहले ही आ घूसे थे और एक साथ बिलधर्म से रहे हुए थे अर्थात् जैसे एक बिल में बहुत से मकोड़े ठसाठस भरे रहते हैं, उसी प्रकार उस मंडल में भी पूर्वोक्त प्राणी ठसाठस भरे थे । तत्पश्चात् हे मेघ ! तुम जहाँ मंडल था, वहाँ आए और आकर उन बहुसंख्यक सिंह यावत् चिल्लन आदि के साथ एक जगह बिलधर्म में ठहर गए।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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