SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक अध्ययन-१९ - पुण्डरीक सूत्र - २१३ जम्बूस्वामी प्रश्न करते हैं-'भगवन् ! यदि यावत् सिद्धिप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने अठारहवे ज्ञातअध्ययन का यह अर्थ कहा है तो उन्नीसवे ज्ञात-अध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ कहा है ? श्री सुधर्मास्वामी ने जम्बूस्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा-जम्बू ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप में, पूर्व विदेह क्षेत्र में, सीता नामक महानदी के उत्तर किनारे नीलवन्त वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, उत्तर तरफ के सीतामुख वनखण्ड के पश्चिम में और एकशैल नामक वक्षार पर्वत से पूर्व दिशा में पुष्कलावती नामक विजय कहा गया है । उस पुष्कलावती विजय में पुण्डरीकिणी नामक राजधानी है । वह नौ योजन चौड़ी और बारह योजन लम्बी यावत् साक्षात् देवलोक के समान, मनोहर, दर्शनीय, सुन्दर रूप वाली और दर्शकों को आनन्द प्रदान करने वाली है। उस पुण्डरीकिणी नगरी में ईशानकोण में नलिनीवन नामक उद्यान था। (वर्णन) (समझ लेना) । उस पुण्डरीकिणी राजधानी में महापद्म राजा था । पद्मावती उसकी-पटरानी थी । महापद्म राजा के पुत्र और पद्मावती देवी के आत्मज दो कुमार थे-पुंडरीक और कंडरीक । उनके हाथ-पैर बहुत कोमल थे । उनमें पुंडरीक युवराज था । उस काल और उस समय में स्थविर मुनि का आगमन हआ अर्थात धर्मघोष स्थविर पाँच सौ अनगारों के साथ परिवृत्त होकर, अनुक्रम से चलते हुए, यावत् नलिनीवन नामक उद्यान में ठहरे । महापद्म राजा स्थविर मुनि को वन्दना करने नीकला । धर्मोपदेश सूनकर उसने पुंडरीक को राज्य पर स्थापित करके दीक्षा अंगीकार कर ली । अब पुंडरीक राजा हो गया और कंडरीक युवराज हो गया । महापद्म अनगार ने चौदह पूर्वो का अध्ययन किया । स्थविर मुनि बाहर जाकर जनपदों में विहार करने लगे । मुनि महापद्म ने बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्याय पालकर सिद्धि प्राप्त की। सूत्र - २१४ तत्पश्चात् एक बार किसी समय पुनः स्थविर पुंडरीकिणी राजधानी के नलिनीवन उद्यान में पधारे । पुंडरीक राजा उन्हें वन्दना करने के लिए नीकला । कंडरीक भी महाजनों के मुख से स्थविर के आने की बात सुनकर महाबल कुमार की तरह गया । यावत् स्थविर की उपासना करने लगा । स्थविर मुनिराज ने धर्म का उपदेश दिया। धर्मोपदेश सूनकर पुंडरीक श्रमणोपासक हो गया और अपने घर लौट आया। तत्पश्चात् कंडरीक युवराज खड़ा हुआ । उसने कहा-'भगवन् ! आपने जो कहा है-वैसा ही है-सत्य है । मैं पुंडरीक राजा से अनुमति ले लूँ, तत्पश्चात् यावत् दीक्षा ग्रहण करूँगा ।' तब स्थविर ने कहा-'देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख उपजे, वैसा करो । तत्पश्चात् कंडरीक ने यावत् स्थविर मुनि को वन्दन किया। उनके पास से नीकलकर चार घंटों वाले घोड़ों के रथ पर आरूढ़ हुआ, यावत् राजभवन में आकर ऊतरा । पुंडरीक राजा के पास गया; वहाँ जाकर हाथ जोड़कर यावत् पुंडरीक से कहा- देवानुप्रिय ! मैंने स्थविर मुनि से धर्म सुना है और वह धर्म मुझे रुचा है। अत एव हे देवानप्रिय ! मैं यावत प्रव्रज्या अंगीकार करनेकी ईच्छा रखता हूँ। तब पुंडरीक राजा ने कंडरीक युवराज से इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय! तुम इस जय मुंडित होकर यावत् दीक्षा ग्रहण मत करो। मैं तुम्हें महान्-महान् राज्याभिषेक से अभिषिक्त करना चाहता हूँ।' तब कंडरीक ने पुंडरीक राजा के इस अर्थ का आदर नहीं किया-स्वीकार नहीं किया; वह यावत् मौन रहा । तब पुंडरीक राजा ने दूसरी बार और तीसरी बार भी कण्डरीक से इस प्रकार कहा; यावत् कण्डरीक फिर भी मौन ही रहा । तत्पश्चात् जब पुण्डरीक राजा, कण्डरीक कुमार को बहुत कहकर और समझा-बुझाकर और विज्ञप्ति करके रोकने में समर्थ न हुआ, तब ईच्छा न होने पर भी उसने यह बात मान ली, यावत् उसे निष्क्रमण-अभिषेक से अभिषिक्त किया, यहाँ तक कि स्थविर मुनि को शिष्य-भिक्षा प्रदान की । तब कंडरीक प्रव्रजित हो गया, अनगार हो गया, यावत् ग्यारह अंगों का वेत्ता हो गया । तत्पश्चात् स्थविर भगवान अन्यथा कदाचित् पुण्डरीकिणी नगरी के नलिनीवन उद्यान से बाहर नीकले । नीकलकर बाहर जनपद-विहार करने लगे। सूत्र-२१५ तत्पश्चात् कंडरीक अनगार के शरीर में अन्त-प्रान्त अर्थात् रूखे-सूखे आहार के कारण शैलक मुनि के मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 149
SR No.034673
Book TitleAgam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 06, & agam_gyatadharmkatha
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy