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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक पास से नीकलता है । नीकल कर जहाँ अपना भवन है, वहाँ आता है | आकर वह सिंहासन पर बैठ गया । तत्पश्चात् अभयकुमार को इस प्रकार यह आध्यात्मिक विचार, चिन्तन, प्रार्थित या मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआदिव्य अर्थात् दैवी संबंधी उपाय के बिना केवल मानवीय उपाय से छोटी माता धारिणी देवी के अकाल-दोहद के मनोरथ की पूर्ति होना शक्य नहीं है । सौधर्म कल्प में रहने वाला देव मेरा पूर्व का मित्र है, जो महान् ऋद्धिधारक यावत् महान् सुख भोगने वाला है । तो मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि मैं पौषधशाला में पौषध ग्रहण करके, ब्रह्मचर्य धारण करके, मणि-सुवर्ण आदि के अलंकारों का त्याग करके, माला वर्णक और विलेपन का त्याग करके, शस्त्रमूसल आदि अर्थात् समस्त आरम्भ-समारम्भ को छोड़कर, एकाकी और अद्वितीय होलक, डाभ के संथारे पर स्थित होकर, अष्टभक्ततेला की तपस्या ग्रहण करके, पहले के मित्र देव का मन में चिन्तन करता हुआ स्थित रहूँ। ऐसा करने से वह पूर्व का मित्र मेरी छोटी माता धारिणी देवी के अकाल-मेघों सम्बन्धी दोहद को पूर्ण कर देगा।
अभयकुमार इस प्रकार विचार करता है । विचार करके जहाँ पौषधशाला है, वहाँ जाता है । जाकर पौषध-शाला का प्रमार्जन करता है । उच्चार-प्रस्रवण की भूमि का प्रतिलेखन करता है। प्रतिलेखन करके डाभ के संथारे का प्रतिलेखन करता है । डाभ के संथारे का प्रतिलेखन करके उस पर आसीन होता है। आसीन होकर अष्टाभक्त तप ग्रहण करता है । ग्रहण करके पौषधशाला में पौषधयुक्त होकर, ब्रह्मचर्य अंगीकार करके पहले के मित्र देव का मन में पुनः पुनः चिन्तन करता है।
जब अभयकुमार का अष्टमभक्त तप प्रायः पूर्ण होने आया, तब पूर्वभव के मित्र देव का आसन चलायमान हुआ । तब पूर्वभव का मित्र सौधर्मकल्पवासी देव अपने आसन को चलित हुआ देखता है और देखकर अवधिज्ञान का उपयोग लगाता है । तब पूर्वभव के मित्र देव को इस प्रकार का यह आन्तरिक विचार उत्पन्न होता है-'इस प्रकार मेरा पूर्वभव का मित्र अभयकुमार जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, दक्षिणार्ध भरत में, राजगृह में, पौषधशाला में अष्टमभक्त ग्रहण करके मन में बार-बार मेरा स्मरण कर रहा है । अत एव मुझे अभयकुमार के समीप प्रकट होना योग्य है ।' देव इस प्रकार विचार करके ईशानकोण में जाता है और वैक्रियसमुद्घात करता है, अर्थात उत्तर वैक्रिय शरीर बनाने के लिए जीव-प्रदेशों को बाहर नीकालता है। संख्यात योजनों का दंड बनाता है। वह इस प्रकार
कर्केतन रत्न वज्र रत्न वैडूर्य रत्न लोहिताक्ष रत्न मसारगल्ल रत्न हंसगर्भ रत्न पुलक रत्न सौगंधित रत्न ज्योतिरस रत्न अंक रत्न अंजन रत्न जातरूप रत्न अंजनपुलक रत्न स्फटिक रत्न और रिष्ट रत्न-इन रत्नों के यथाबादर अर्थात् असार पुद्गलों का परित्याग करता है; परित्याग करके यथासूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण करता है । उत्तर
बनाता है। फिर अभयकुमार पर अनुकंपा करता हआ, पूर्वभव में उत्पन्न हई स्नेहजनित प्रीति और गुणानुराग के कारण वह खेद करने लगा । फिर उस देव ने उत्तम रचना वाले अथवा उत्तम रत्नमय विमान से नीकलकर पृथ्वीतल पर जाने के लिए शीघ्र ही गति का प्रचार किया, उस समय चलायमान होते हुए, निर्मल स्वर्ण के प्रतर जैसे कर्णपूर और मुकूट के उत्कट आडम्बर से वह दर्शनीय लग रहा था । अनेक मणियों, सुवर्ण और रत्नों के समूह से शोभित और विचित्र रचना वाले पहने हुए कटिसूत्र से उसे हर्ष उत्पन्न हो रहा था । हिलते हुए श्रेष्ठ और मनोहर कुण्डलों के उज्ज्वल हुई मुख की दीप्ति से उसका रूप बड़ा ही सौम्य हो गया । कार्तिकी पूर्णिमा की रात्रि में, शानि और मंगल के मध्य में स्थित और उदयप्राप्त शारदनिशाकर के समान वह देव दर्शकों के नयनों को आनन्द दे रहा था । तात्पर्य यह कि शनि और मंगल ग्रह के समान चमकते हुए दोनों कुण्डलों के बीच उसका मुख शरद ऋतु के चन्द्रमा के समान शोभायमान हो रहा था । दिव्य औषधियों के प्रकाश के समान मुकुट आदि के तेज से देदीप्यमान, रूप से मनोहर, समस्त ऋतुओं की लक्ष्मी से वृद्धिंगत शोभा वाले तथा प्रकृष्ट गंध के प्रसार से मनोहर मेरुपर्वत के समान वह देव अभिराम प्रतीत होता था । उस देव ने ऐसे विचित्र वेष की विक्रिया की । असंख्य-संख्यक और असंख्य नामों वाले द्वीपों और समुद्रों के मध्य में होकर जाने लगा । अपनी विमल प्रभा से जीवलोक को तथा नगरवर राजगृह को प्रकाशित करता हुआ दिव्य रूपधारी देव अभयकुमार के पास आ पहुँचा ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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