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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक सूत्र - २२
तत्पश्चात् दस के आधे अर्थात् पाँच वर्ण वाले तथा घुघरू वाले उत्तम वस्त्रों को धारण किये हुए वह देव आकाश में स्थित होकर बोला-'हे देवानुप्रिय ! मैं तुम्हारा पूर्वभव का मित्र सौधर्मकल्पवासी महान् ऋद्धि का धारक देव हूँ।' क्योंकि तुम पौषधशाला में अष्टमभक्त तप ग्रहण करके मुझे मन में रखकर स्थित हो अर्थात् मेरा स्मरण कर रहे हो, इसी कारण हे देवानुप्रिय ! मैं शीघ्र यहाँ आया हूँ । हे देवानुप्रिय ! बताओ तुम्हारा क्या इष्ट कार्य करूँ ? तुम्हे क्या दूँ? तुम्हारे किसी संबंधी को क्या दूँ? तुम्हारा मनोवांछित क्या है ? तत्पश्चात् अभयकुमार ने आकाश में स्थित पूर्वभव के मित्र उस देव को देखा । वह हृष्ट-तुष्ट हुआ । पौषध को पारा । फिर दोनों हाथ मस्तक पर जोड़कर इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिय ! मेरी छोटी माता धारिणी देवी को इस प्रकार का अकाल-दोहद उत्पन्न हआ है कि वे माताएं धन्य हैं जो अपने अकाल मेघ-दोहद को पूर्ण करती हैं यावत मैं भी अपने दोहद को पूर्ण करूँ।' इत्यादि पूर्व के समान सब कथन यहाँ समझ लेना चाहिए । 'सो हे देवानुप्रिय ! तुम मेरी छोटी माता धारिणी के इस प्रकार के दोहद को पूर्ण कर दो ।'
तत्पश्चात् वह देव अभयकुमार के ऐसा कहने पर हर्षित और संतुष्ट होकर अभयकुमार से बोला-देवानुप्रिय ! तुम निश्चिंत रहो और विश्वास रखो । मैं तुम्हारी लघु माता धारिणी देवी के दोहद की पूर्ति किए देता हूँ। ऐसा कहकर अभयकुमार के पास से नीकलता है । उत्तरपूर्व दिशा में, वैभारगिरि पर जाकर वैक्रियसमुद्घात करता है। समुद्घात करके संख्यात योजन प्रमाण वाला दंड नीकालता है, यावत् दूसरी बार भी वैक्रियसमुद्घात करता है
और गर्जना से युक्त, बिजली से युक्त और जल-बिन्दुओं से युक्त पाँच वर्ण वाले मेघों की ध्वनि से शोभित दिव्य वर्षा ऋतु की शोभा की विक्रिया करता है । जहाँ अभयकुमार था, वहाँ आकर अभयकुमार से कहता है-देवानुप्रिय मैंने तुम्हारे प्रिय के लिए-प्रसन्नता के खातिर गर्जनायुक्त, बिन्दुयुक्त और विद्युतयुक्त दिव्य वर्षा-लक्ष्मी की विक्रिया की है । अतः हे देवानप्रिय ! तुम्हारी छोटी माता धारिणी देवी अपने दोहद की पूर्ति करे।
तत्पश्चात् अभयकुमार उस सौधर्मकल्पवासी पूर्व के मित्र देव से यह बात सुन-समझ कर हर्षित एवं संतुष्ट होकर अपने भवन से बाहर नीकलता है । नीकलकर जहाँ श्रेणिक राजा बैठा था, वहाँ आता है । आकर मस्तक पर दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार कहता है-हे तात ! मेरे पूर्वभव के मित्र सौधर्मकल्पवासी देव ने शीघ्र ही गर्जनायुक्त, बिजली से युक्त और पाँच रंगों के मेघों की ध्वनि से सुशोभित दिव्य वर्षाऋतु की शोभा की विक्रिया की है । अतः मेरी लघु माता धारिणी देवी अपने अकाल-दोहद को पूर्ण करें । तत्पश्चात् श्रेणिक राजा, अभयकुमार से यह बात सुनकर और हृदय में धारण करके हर्षित व संतुष्ट हुआ । यावत् उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलवाया। बुलवाकर इस भाँति कहा-देवानुप्रिय ! शीघ्र ही राजगृह नगर में शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क और चबूतरे आदि को सींच कर, यावत् उत्तम सुगंध से सुगंधित करके गंध की बट्टी के समान करो । ऐसा करके मेरी आज्ञा वापिस सौंपो । तत्पश्चात् वे कौटुम्बिक पुरुष आज्ञा का पालन करके यावत् उस आज्ञा को वापिस सौंपते हैं, अर्थात् आज्ञानुसार कार्य हो जाने की सूचना देते हैं।
तत्पश्चात् श्रेणिक राजा दूसरी बार कौटुम्बिक पुरुषों को बुलवाता है और बुलवाकर इस प्रकार कहता है'देवानुप्रियो ! शीघ्र ही उत्तम अश्व, गज, रथ तथा योद्धाओं सहित चतुरंगी सेना को तैयार करो और सेचनक नामक गंधहस्ती को भी तैयार करो । वे कौटुम्बिक पुरुष की आज्ञा पालन करके यावत् आज्ञा वापिस सौंपते हैं । तत्पश्चात् श्रेणिक राजा जहाँ धारिणी देवी थी, वहीं आया । आकर धारिणी देवी से इस प्रकार बोला-'हे देवानुप्रिय! तुम्हारी अभिलाषा अनुसार गर्जना की ध्वनि, बिजली तथा बूंदाबांदी से युक्त दिव्य वर्षा ऋतु की सुषमा प्रादुर्भूत हुई है । अत एव तुम अपने अकाल-दोहद को सम्पन्न करो ।'
तत्पश्चात् वह धारिणी देवी श्रेणिक राजा के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुई और जहाँ स्नानगृह था, उसी और आई । आकर स्नानगृह में प्रवेश किया अन्तःपुर के अन्दर स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक, मंगल और प्रायश्चित्त किया । फिर क्या किया ? सो कहते हैं-पैरों में उत्तम नूपुर पहने, यावत् आकाश तथा स्फटिक मणि के
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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