________________
आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक समान प्रभा वाले वस्त्रों को धारण किया । वस्त्र धारण करके सेचनक नामक गंधहस्ती पर आरूढ़ होकर, अमृतमंथन से उत्पन्न हुए फेन के समूह के समान श्वेत चामर के बालों रूपी बीजने से बिंजाती हुई रवाना हुई । तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक, मंगल, प्रायश्चित्त किया, अल्प किन्तु बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को सुशोभित किया । सुसज्जित होकर, श्रेष्ठ गंधहस्ती के स्कंध पर आरूढ़ होकर, कोरंट वृक्ष के फूलों की माला वाले छत्र को मस्तक पर धारण करके, चार चामरों से बिंजाते हुए धारिणी देवी का अनुगमन किया।
__श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर बैठे हुए श्रेणिक राजा धारिणी देवी के पीछे-पीछे चले । धारिणी-देवी अश्व, हाथी, रथ और योद्धाओं की चतुरंगी सेना से परिवृत्त थी । उसके चारों और महान् सुभटों का समूह घिरा हुआ था । इस प्रकार सम्पूर्ण समृद्धि के साथ, सम्पूर्ण द्युति के साथ, यावत् दुंदुभि के निर्घोष के साथ राजगृह नगर के शृंगाटक, त्रिक, चतष्क, चत्वर आदिमें होकर यावत चतर्मख राजमार्गमें होकर नीकली । नागरिक लोगों ने पनः पनः उसका अभिनन्दन किया । तत्पश्चात वह जहाँ वैभारगिरि पर्वत था, उसी ओर आई । आकर वैभारगिरि के कटक-तटमें और तलहटीमें, दम्पतियों के क्रीड़ास्थान आरामोंमें, पुष्प-फल से सम्पन्न उद्यानोंमें, सामान्य वृक्षों से युक्त काननोंमें, नगर से दूरवर्ती वनों में, एक जाति के वृक्षों के समूह वाले वनखण्डों में, वृक्षों में, वृन्ताकि आदि के गुच्छाओं में, बाँस की झाड़ी आदि गुल्मोंमें, आम्र आदि की लताओं, नागरवेल आदि की वल्लियों में, गुफाओंमें, दरी, चुण्डीमें, ह्रदों-तालाबोंमें, अल्प जलवाले कच्छोंमें, नदियोंमें, नदियों के संगमोंमें, अन्य जलाशयोंमें, अर्थात् इन सबके आसपास खड़ी होती हुई, वहाँ के दृश्यों को देखती हुई, स्नान करती हुई, पुष्पादिक को सूंघती हुई, फळ आदि का भक्षण करती हुई और दूसरों को बाँटती हुई, वैभारगिरि के समीप की भूमिमें अपना दोहद पूर्ण करती चारों ओर परिभ्रमण करने लगी । इस प्रकार धारिणी देवीने दोहद को दूर किया, दोहद को पूर्ण किया और दोहद को सम्पन्न किया । तत्पश्चात् धारिणी देवी सेचनक गंधहस्ती पर आरूढ़ हुई । श्रेणिक राजा श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर बैठकर उसके पीछे-पीछे चलने लगे । अश्व हस्ती आदि से घिरी हुई वह जहाँ राजगृह नगर है, वहाँ आती है । राजगृह नगर के बीचोंबीच होकर जहाँ अपना भवन है, वहाँ आयी। आकर मनुष्य सम्बन्धी विपुलभोग भोगती हुई विचरती है। सूत्र - २३
तत्पश्चात् अभयकुमार जहाँ पौषधशाला है, वहीं आता है । आकर पूर्व मित्र देव का सत्कार-सम्मान करके उसे बिदा करता है । तत्पश्चात् अभयकुमार द्वारा बिदा दिया हुआ देवगर्जना से युक्त पंचरंगी मेघोंसे सुशोभित दिव्य वर्षा-लक्ष्मी का प्रतिसंहरण करता है, प्रतिसंहरण करके जिस दिशा से प्रकट हआ था उसी दिशा में चला गया। सूत्र - २४
तत्पश्चात् धारिणी देवी ने अपने उस अकाल दोहद के पूर्ण होने पर दोहद को सम्मानित किया । वह उस गर्भ की अनकम्पा के लिए, गर्भ को बाधा न पहुँचे इस प्रकार यतना-सावधानी से खडी होती. यतन यतना से शयन करती। आहार करती तो ऐसा आहार करती जो अधिक तीखा न हो, अधिक कट
हो, अधिक खट्रा न हो और अधिक मीठा भी न हो । देश और काल के अनुसार जो उस गर्भ के लिए हीतकारक हो, मित हो, पथ्य हो । वह अति चिन्ता न करती, अति शोक न करती, अति दैन्य न करती, अति मोह न करती, अति भय न करती और अति त्रास न करती । अर्थात् चिन्ता, शोक, दैन्य, मोह, भय और त्रास से रहित होकर सब ऋतुओंमें सुखप्रद भोजन, वस्त्र, गंध, माला, अलंकार आदि से सुखपूर्वक उस गर्भ को वहन करने लगी सूत्र - २५
___ तत्पश्चात् धारिणी देवी ने नौ मास परिपूर्ण होने पर और साढ़े सात रात्रि-दिवस बीत जाने पर, अर्धरात्रि के समय, अत्यन्त कोमल हाथ-पैर वाले यावत् परिपूर्ण इन्द्रियों से युक्त शरीर वाले, लक्षणों और व्यंजनों से सम्पन्न, मान-उन्मान-प्रमाण से युक्त एवं सर्वांगसुन्दर शिशु का प्रसव किया । तत्पश्चात् दासियों ने देखा कि धारिणी देवी ने नौ मास पूर्ण हो जाने पर यावत् पुत्र को जन्म दिया है । देखकर हर्ष के कारण शीघ्र, मन से त्वरा वाली, काय से चपल एवं वेग वाली वे दासियाँ श्रेणिक राजा के पास आती हैं । आकर श्रेणिक राजा को जय-विजय शब्द कहकर
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 17