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________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक किया, बलिकर्म किया, कौतुक, मंगल और प्रायश्चित्त किया तथा साफ, सभा के योग्य, मांगलिक और श्रेष्ठ वस्त्र धारण किए । अल्प किन्तु बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को विभूषित किया । फिर दासियों के समूह से परिवृत्त होकर अपने गृह से नीकली । नीकलकर जहाँ बाहर की उपस्थानशाला थी, वहाँ आकर धर्मकार्य में प्रयुक्त होने वाले श्रेष्ठ यान पर आरूढ़ हुई । तत्पश्चात् काली नामक दारिका धार्मिक श्रेष्ठ यान पर आरूढ़ होकर द्रौपदी के समान भगवान को वन्दना करके उपासना करने लगी । उस समय पुरुषादानीय तीर्थंकर पार्श्व ने काली नामक दारिका को और उपस्थित विशाल जनसमूह को धर्म का उपदेश दिया । तत्पश्चात् उस काली दारिका ने पुरुषादानीय अरिहंत पार्श्वनाथ के पास से धर्म सूनकर और उसे हृदयंगम करके, हर्षितहृदय होकर यावत् पुरुषादानीय अरिहंत पार्श्वनाथ को तीन बार वन्दना की, नमस्कार किया । भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करती हूँ । यावत् आप जैसा कहते हैं, वह वैसा ही है । केवल हे देवानुप्रिय ! मैं अपने माता-पिता से पूछ लेती हूँ, उसके बाद मैं आप देवानुप्रिय के निकट प्रव्रज्या ग्रहण करूँगी ।' भगवान ने कहा-'देवानुप्रिये ! जैसे तुम्हें सुख उपजे, करो। तत्पश्चात पुरुषादानीय अरिहंत पार्श्व के द्वारा इस प्रकार कहने पर वह काली नामक दारिका हर्षित एवं संतुष्ट हृदय वाली हुई । उसने पार्श्व अरिहंत को वन्दन और नमस्कार किया । करके वह उसी धार्मिक श्रेष्ठ यान पर आरूढ़ हुई। आरूढ़ होकर पुरुषादानीय अरिहंत पार्श्व के पास से, आम्रशालवन नामक चैत्य से बाहर नीकली और आमलकल्पा नगरी की ओर चली । बाहर की उपस्थानशाला पहुँची । धार्मिक एवं श्रेष्ठ यान को ठहराया और फिर उससे नीचे ऊतरी । फिर अपने माता-पिता के पास जाकर और दोनों हाथ जोड़कर यावत् बोली- हे माता-पिता ! मैंने पार्श्वनाथ तीर्थंकर से धर्म सूना है और उस धर्म की मैंने ईच्छा की है, पुनः पुनः ईच्छा की है । वह धर्म मुझे रुचा है । इस कारण हे मात-तात ! मैं संसार के भय से उद्विग्न हो गई हूँ, जन्म-मरण से भयभीत हो गई हूँ। आपकी आज्ञा पाकर पार्श्व अरिहंत के समीप मुंडित होकर, गृहत्याग कर अनगारिता की प्रव्रज्या धारण करना चाह माता-पिता ने कहा-'जैसे सुख उपजे, करो । धर्मकार्य में विलम्ब न करो। तत्पश्चात् काल नामक गाथापति ने विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन तैयार करवाया । तैयार करवाकर मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकों, स्वजनों, सम्बन्धीयों और परिजनों को आमंत्रित किया । स्नान किया। फिर यावत् विपुल पुष्प, वस्त्र, गंध, माल्य और अलंकार से उनका सत्कार-सम्मान करके उन्हीं ज्ञाति, मित्र, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों के सामने काली नामक दारिका को श्वेत एवं पीत अर्थात चाँदी और सोने के कलशों से स्नान करवाया । उसे सर्व अलंकारों से विभूषित किया । पुरुषसहस्त्रवाहिनी शिबिका पर आरूढ़ करके मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों के साथ परिवृत्त होकर सम्पूर्ण ऋद्धि के साथ, यावत वाद्यों की ध्वनि के साथ, आमलकल्पा नगरी के बीचों-बीच होकर नीकले । आम्रशालवन की ओर चले । चलकर छत्र आदि तीर्थंकर भगवान के अतिशय देखे । अतिशयों पर दृष्टि पडते ही शिबिका रोक दी गई। फिर माता-पिता काली नामक दारिका को शिबिका से नीचे ऊतारकर और फिर उसे आगे करके जिस ओर पुरुषादानीय तीर्थंकर पार्श्व थे, उसी ओर गए । जाकर भगवान को वन्दना की, नमस्कार किया । पश्चात् इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय ! काली नामक दारिका हमारी पुत्री है । हमें यह इष्ट है और प्रिय है, यावत् इसका दर्शन भी दुर्लभ है । देवानुप्रिय ! यह संसार-भ्रमण के भय से उद्विग्न होकर आप देवानुप्रिय के निकट मुण्डित होकर यावत् प्रव्रजित होने की ईच्छा करती है । अत एव हम यह शिष्यनीभिक्षा देवानुप्रिय को अर्पित करते हैं । देवानुप्रिय ! शिष्यनीभिक्षा स्वीकार करें। तब भगवान बोले- देवानुप्रिय ! जैसे सुख उपजे, करो । धर्मकार्य में विलम्ब न करो ।' तत्पश्चात् काली कुमारी ने पार्श्व अरिहंत को वन्दना की, नमस्कार किया । वह ईशान दिशा के भाग में गई। वहाँ जाकर उसने स्वयं ही आभूषण, माला और अलंकार उतारे और स्वयं ही लोच किया । फिर जहाँ पुरुषादानीय अरहंत पार्श्व थे वहाँ आई । आकर पार्श्व अरिहंत को तीन बार वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार बोली-'भगवन् ! यह लोक आदीप्त है इत्यादि देवानन्दा के समान जानना । यावत् मैं चाहती हूँ कि आप स्वयं ही मुझे दीक्षा प्रदान ता ह। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 155
SR No.034673
Book TitleAgam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 06, & agam_gyatadharmkatha
File Size4 MB
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