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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक और सन्तुष्ट हुई । उसका चित्त आनन्दित हुआ । मन प्रीतियुक्त हो गया । वह अपहृतहृदय होकर सिंहासन से उठी। पादपीठ से नीचे उतरी । उसने पादुका उतार दिए । फिर तीर्थंकर भगवान के सम्मुख सात-आठ पैर आगे बढ़ी। बायें घूटने को ऊपर रखा और दाहिने घूटने को पृथ्वी पर टेक दिया । फिर मस्तक कुछ ऊंचा किया । कड़ों और बाजूबंदों से स्तंभित भुजाओं को मिलाया । दोनों हाथ जोड़कर कहने लगी-यावत् सिद्धि को प्राप्त अरिहंत भगवंतों को नमस्कर हो । यावत् सिद्धि को प्राप्त करने की इच्छा वाले श्रमण भगवान महावीर को नमस्कार हो । यहाँ रही हुई मैं, वहाँ स्थित भगवान को वन्दना करती हूँ । वहाँ स्थित श्रमण भगवान महावीर, यहाँ रही हुई मुझको देखें । इस प्रकार कहकर वन्दना की, नमस्कार किया । पूर्व दिशा की ओर मुख करके अपने श्रेष्ठ सिंहासन पर आसीन हो गई।
तत्पश्चात् काली देवी को इस प्रकार का अध्यवसाय उत्पन्न हुआ-' श्रमण भगवान महावीर को वन्दना करके यावत् उनकी पर्युपासना करना मेरे लिए श्रेयस्कर है ।' आभियोगिक देवों को बुलाकर उन्हें कहा-'देवानुप्रियो ! श्रमण भगवान महावीर राजगृह नगर के गुणशील चैत्य में बिराजमान हैं, इत्यादि जैसे सूर्याभ देव ने अपने आभियोगिक देवों को आज्ञा दी थी, उसी प्रकार काली देवी ने भी आज्ञा दी यावत् दिव्य और श्रेष्ठ देवताओं के योग्य यान-विमान बनाकर तैयार करो, यावत् मेरी आज्ञा वापिस सौंपो ।' आभियोगिक देवों ने आज्ञानुसार कार्य करके आज्ञा लौटा दी । यहाँ विशेषता यही है कि हजार योजन विस्तार वाला विमान बनाया । शेष वर्णन सूर्याभ के समान । सूर्याभ की तरह ही भगवान के पास जाकर अपना नाम-गोत्र कहा, उसी प्रकार नाटक दिखलाया । फिर वन्दन-नमस्कार करके काली देवी वापिस चली गई। भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना की, नमस्कार किया, कहा-'भगवन् ! काली देवी की वह दिव्य ऋद्धि कहाँ चली गई ?' भगवान ने उत्तर में कुटाकारशाला का दृष्टान्त दिया।
'अहो भगवन् ! काली देवी महती ऋद्धि वाली हैं । भगवन् ! काली देवी को वह दिव्य देवर्धि पूर्वभव में क्या करने से मिली ? देवभव में कैसे प्राप्त हुई ? और किस प्रकार उसके सामने आई, अर्थात् उपभोग में आने योग्य हुई ?' यहाँ भी सूर्याभ देव के समान ही कथन समझना । भगवान ने कहा-'हे गौतम ! उस काल और उस समय में, इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, आमलकल्पा नामक नगरी थी । उस नगरी के बाहर ईशान दिशा में आम्रशालवन नामक चैत्य था । उस नगरी में जितशत्रु नामक राजा था । उस आमलकल्पा नगरी में काल नामक गाथापति रहता था । वह धनाढ्य था और किसी से पराभूत होने वाला नहीं था । काल नामक गाथापति की पत्नी का नाम कालश्री था । वह सुकुमार हाथ पैर आदि अवयवों वाली यावत् मनोहर रूप वाली थी । उस काल गाथापति की पुत्री और कालश्री भार्या की आत्मजा काली नामक बालिका थी । वह बड़ी थी और बड़ी होकर भी कुमार थी । वह जीर्णा थी और जीर्ण होते हुए कुमारी थी । उसके स्तन नीतंब प्रदेश तक लटक गए थे । वर उससे विरक्त हो गए थे, अत एव वह वर-रहित अविवाहित रह रही थी।
उस काल और उस समय में पुरुषादानीय एवं धर्म की आदि करने वाले पार्श्वनाथ अरिहंत थे । वे वर्धमान स्वामी के समान थे । विशेषता इतनी की उनका शरीर नौ हाथ ऊंचा था तथा वे सोलह हजार साधुओं और अडतालीस हजार साध्वीयों से परिवृत्त थे । यावत् वे पुरुषादानीय पार्श्व तीर्थंकर आम्रशालवन में पधारे । वन्दना करने के लिए परीषद् नीकली, यावत् वह परीषद् भगवान की उपासना करने लगी । तत्पश्चात् वह काली दारिका इस कथा का अर्थ प्राप्त करके अर्थात् भगवान के पधारने का समाचार जानकर हर्षित और संतुष्ट हृदय वाली हुई। जहाँ माता-पिता थे, वहाँ गई । दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार बोली-'हे माता-पिता ! पार्श्वनाथ अरिहंत पुरुषादानीय, धर्मतीर्थ की आदि करने वाले यावत् यहाँ विचर रहे हैं । अत एव हे माता-पिता ! आपकी आज्ञा हो तो मैं पार्श्वनाथ अरिहंत पुरुषादानीय के चरणों में वन्दना करने जाना चाहती हूँ । माता-पिता ने उत्तर दिया-'देवानुप्रिये ! तुझे जैसे सुख उपजे, वैसा कर । धर्मकार्य में विलम्ब मत कर ।'
तत्पश्चात् वह काली नामक दारिका का हृदय माता-पिता की आज्ञा पाकर हर्षित हुआ । उसने स्न
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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