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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक सकता हुआ, विवश होकर, मुहूर्त्तमात्र-वहाँ रहा । फिर वह सागरपुत्र सुकुमालिका दारिका को सुखपूर्वक गाढ़ी नींद में सोई जानकर उसके पास से उठा और जहाँ अपनी शय्या थी, वहाँ आकर अपनी शय्या पर सो गया । तदनन्तर सुकुमालिका पुत्री एक मुहूर्त में जाग उठी । वह पतिव्रता थी और पति में अनुराग वाली थी, अत एव पति को अपने पार्श्व-पास में न देखती हुई शय्या से उठकर वहाँ गई जहाँ उसके पति की शय्या थी । वहाँ पहुँचकर वह सागर के पास सो गई।
तत्पश्चात् सागरदारक ने दूसरी बार भी सुकुमालिका के पूर्वोक्त प्रकार के अंगस्पर्श का अनुभव किया । यावत् वह बिना ईच्छा के विवश होकर थोड़ी देर तक वहाँ रहा । फिर सागरदारक सुकुमालिका को सुखपूर्वक सोई जानकर शय्या से उठा । अपने वासगृह उघाड़ कर वह मरण से अथवा मारने वाले पुरुष से छुटकारा पाए काक पक्षी की तरह शीघ्रता के साथ जिस दिशा से आया था उसी दिशा में लौट गया। सूत्र-१६४
सुकुमालिका दारिका थोड़ी देर में जागी । वह पतिव्रता एवं पति में अनुरक्त थी, अतः पति को अपने पास न देखती हई शय्या से उठी । उसने सागरदारक की सब तरफ मार्गणा करते-करते शयनागार का द्वार खुला देखा तो कहा-'सागर तो चल दिया!' उसके मन का संकल्प मारा गया, अत एव वह हथेली पर मुख रखकर आर्त्तध्यानचिन्ता करने लगी । तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही ने कल प्रभात होने पर दासचेटी को बुलाया और उससे कहा'देवानुप्रिय ! तू जा और वर-वधू के लिए मुख-शोधनिका ले जा ।' तत्पश्चात् उस दासचेटी ने भद्रा सार्थवाही के इस प्रकार कहने पर इस अर्थ को अंगीकार किया । उसने मुखशोधनिका ग्रहण करके जहाँ वासगृह था, वहाँ पहुँची। सुकुमालिका दारिका को चिन्ता करती देखकर पूछा-देवानुप्रिय ! तुम भग्नमनोरथ होकर चिन्ता क्यों कर रही हो ?
दासी का प्रश्न सूनकर सुकुमालिका दारिका ने दासचेटी से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिये ! सागरदारक मुझे सुख से सोया जानकर मेरे पास से उठा और वासगृह का द्वार उघाड़ कर यावत् वापिस चला गया । तदनन्तर मैं थोड़ी देर बाद उठी यावत् द्वार उघाड़ा देखा तो मैंने सोचा-'सागर चला गया। इसी कारण भग्नमनोरथ होकर मैं चिन्ता कर रही हूँ।' दासचेटी सुकुमालिका दारिका के इस अर्थ को सूनकर वहाँ गई जहाँ सागरदत्त था । वहाँ जाकर उसने सागरदत्त सार्थवाह से यह वृत्तान्त निवेदन किया । दासचेटी से यह वृत्तान्त सून-समझ कर सागरदत्त कुपित होकर जहाँ जिनदत्त सार्थवाह का घर था, वहाँ पहुँचा । उसने जिनदत्त सार्थवाह से इस प्रकार कहा'देवानुप्रिय ! क्या यह योग्य है ? उचित है ? यह कुल के अनुरूप और कुल के सदृश है कि सागरदारक सुकुमालिका दारिका को, जिसका कोई दोष नहीं देखा गया और जो पतिव्रता है, छोड़कर यहाँ आ गया है ?' यह कहकर बहुत-सी खेदयुक्त क्रियाएं करके तथा रुदन की चेष्टाएं करके उसने उलहना दिया।
तब जिनदत्त, सागरदत्त के इस अर्थ को सूनकर जहाँ सागरदारक था, वहाँ आकर सागरदारक से बोला'हे पुत्र ! तुमने बूरा किया जो सागरदत्त के घर से यहाँ एकदम चले आए । अत एव हे पुत्र ! जो हुआ सो हुआ, अब तुम सागरदत्त के घर चले जाओ। तब सागरपुत्रने जिनदत्त से कहा-'हे तात ! मुझे पर्वत से गिरना स्वीकार है, वृक्ष से गिरना स्वीकार है, मरुप्रदेश में पड़ना स्वीकार है, जल में डूब जाना, आग में प्रवेश करना, विष-भक्षण करना, अपने शरीर को स्मशान में या जंगल में छोड़ देना कि जिससे जानवर या प्रेत खा जाएं, गृध्र-पृष्ठ मरण, इसी प्रकार दीक्षा ले लेना या परदेश में चला जाना स्वीकार है, परन्तु मैं निश्चय ही सागरदत्त के घर नहीं जाऊंगा।'
उस समय सागरदत्त सार्थवाह ने दीवार के पीछे से सागरपुत्र के इस अर्थ को सून लिया । वह ऐसा लज्जित हुआ की धरती फट जाए तो मैं उसमें समा जाऊं । वह जिनदत्त के घर से बाहर नीकल आया । अपने घर आया । सुकुमालिका पुत्री को बुलाया और उसे अपनी गोद में बिठलाया । फिर उसे इस प्रकार कहा-'हे पुत्री ! सागरदारक ने तुझे त्याग दिया तो क्या हो गया ? अब तुझे मैं ऐसे पुरुष को दूँगा, जिसे तु इष्ट, कान्त, प्रिय और मनोज्ञ होगी ।' इस प्रकार कहकर सुकुमालिका पुत्री को इष्ट वाणी द्वारा आश्वासन देकर उसे बिदा किया । तत्पश्चात् सागरदत्त सार्थवाह किसी समय ऊपर भवन की छत पर सुखपूर्वक बैठा हुआ बार-बार राजमार्ग को देख
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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