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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र - ६, 'ज्ञाताधर्मकथा '
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक और अलसी के फूल के समान काली और छूरे की धार के समान तीखी तलवार से तुम्हारे इन मस्तकों को चाड़फल की तरह काट कर एकान्त में डाल दूँगी, जो गंडस्थलों को और दाढ़ी-मूँछों को लाल करनेवाले हैं, मूँछों से सुशोभित हैं, अथवा जो माता-पिता आदि के द्वारा सँवार कर सुशोभित किए हुए केशों से शोभायममान हैं।'
तत्पश्चात् वे माकन्दीपुत्र रत्नद्वीप की देवी से यह अर्थ सूनकर और हृदय में धारण करके भयभीत हो उठे । उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार कहा - 'देवानुप्रिये ! जो कहेंगी, हम आपकी आज्ञा, उपपात, वचन और निर्देश में तत्पर रहेंगे । तत्पश्चात् रत्नद्वीप की देवी ने उन माकन्दी के पुत्रों को ग्रहण किया साथ लिया। लेकर जहाँ अपना उत्तम प्रासाद था, वहाँ आई । आकर अशुभ पुद्गलों को दूर किया और शुभ पुद्गलों का प्रक्षेपण किया और फिर उनके साथ विपुल कामभोगों का सेवन करने लगी। प्रतिदिन उनके लिए अमृत जैसे मधुर फल लाने लगी । तत्पश्चात् रत्नद्वीप की उस देवी को शक्रेन्द्र के वचन से सुस्थित नामक लवणसमुद्र के अधिपति देव ने कहा 'तुम्हें इक्कीस बार लवणसमुद्र का चक्कर काटना है । वह इसलिए कि वहाँ जो भी तृण, पत्ता, कचरा, अशुचि सरी-गली वस्तु या दुर्गन्धित वस्तु आदि गन्दी चीज हो, वह सब इक्कीस बार हिला-हिला कर, समुद्र से नीकालकर एक तरफ डाल देना। ऐसा कहकर उस देवी को समुद्र की सफाई के कार्य में नियुक्त किया।
तत्पश्चात् उस रत्नद्वीप की देवी ने उन माकन्दीपुत्रों से कहा हे देवानुप्रियो मैं शक्रेन्द्र के वचनादेश से, सुस्थित नामक लवणसमुद्र के अधिपति देव द्वारा यावत् नियुक्त की गई हूँ । सो हे देवानुप्रियो ! मैं जब तक लवणसमुद्र में से यावत् कचरा आदि दूर करने जाऊं, तब तक तुम इसी उत्तम प्रासाद में आनन्द के साथ रमण करते हुए रहना । यदि तुम इस बीच में ऊब जाओ, उत्सुक होओ या कोई उपद्रव हो, तुम पूर्व दिशा के वनखण्ड में चले जाना। उस पूर्व दिशा के वनखण्ड में दो ऋतुएं सदा स्वाधीन हैं- प्रावृष् ऋतु तथा वर्षाऋतु उनमें से ( उस वनखण्ड में सदैव) प्रावृष् ऋतु रूपी हाथी स्वाधीन है ।
सूत्र - ११४, ११५
कंदल - नवीन लताएं और सिलिंध्र-भूमिफोड़ा उस प्रावृष हाथी के दाँत हैं। निउर नामक वृक्ष के उत्तम पुष्प ही उसकी उत्तम सूँड़ हैं। कुटज, अर्जुन और नीप वृक्षों के पुष्प ही उसका सुगन्धित मदजल हैं। और उस वनखण्ड में वर्षाऋतु रूपी पर्वत भी सदा स्वाधीन विद्यमान रहता है, क्योंकि वह इन्द्रगोप रूपी पद्मराग आदि मणियों से विचित्र वर्ण वाला रहता है, और उसमें मेंढ़कों के समूह के शब्द रूपी झरने की ध्वनि होती रहती है। वहाँ मयूरों के समूह सदैव शिखरों पर विचरते हैं।
सूत्र - ११६-१२०
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हे देवानुप्रियो ! उस पूर्व दिशा के उद्यान में तुम बहुत-सी बावड़ियों में, यावत् बहुत-से सरोवरों की श्रेणियों में, बहुत-से लतामण्डपों में, वल्लियों के मंडपों में यावत् बहुत-से पुष्पमंडपों में सुखे-सुखे रमण करते हुए समय व्यतीत करना । अगर तुम वहाँ भी ऊब जाओ, उत्सुक हो जाओ या कोई उपद्रव हो जाए भय हो जाए, तो तुम उत्तर दिशा के वनखण्ड में चले जाना । वहाँ भी दो ऋतुएं सदा स्वाधीन हैं । वे यह हैं - शरद और हेमन्त । उनमें से शरद इस प्रकार है- शरद ऋतु रूपी गोपति वृषभ सदा स्वाधीन है। सन और सप्तच्छद वृक्षों के पुष्प उसका ककुद है, नीलोत्पल, पद्म और नलिन उसके सींग है, सारस और चक्रवाक पक्षियों का कूजन ही उसकी घोष है । हेमन्त ऋतु रूपी चन्द्रमा उस वन में सदा स्वाधीन है । श्वेत कुन्द के फूल उसकी धवल ज्योत्सना है । प्रफुल्लित लोन वाला वनप्रदेश उसका मंडलतल है और तुषार के जलबिन्दु की धाराएं उसकी स्थूल किरणें हैं।
हे देवानुप्रियो ! तुम उत्तर दिशा के उस वनखण्ड में यावत् क्रीड़ा करना । यदि तुम उत्तर दिशा के वनखण्ड में भी उद्विग्न हो जाओ, यावत् मुझसे मिलने के लिए उत्सुक हो जाओ, तो तुम पश्चिम दिशा के वनखण्ड में चले जाना । उस वनखण्ड में भी दो ऋतुएं सदा स्वाधीन हैं। वे यह हैं- वसन्त और ग्रीष्म । उसमें वसन्त रूपी ऋतुराजा सदा विद्यमान रहता है। वसन्त राजा के आम्र के पुष्पों का हार है, किंशुक कर्णिकार और अशोक के पुष्पों का मुकुट है तथा ऊंचे-ऊंचे तिलक और बकुल वृक्षों के फूलों का छत्र है । और उसमें
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा )" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद"
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