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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक पड़ती थी । किसी बड़े जंगल में से चलकर नीकली हई और थकी हुई बड़ी उम्र वाली माता जैसे हांफती है, उसी प्रकार वह नौका भी निःश्वास-सा छोड़ने लगी, तपश्चरण के फलस्वरूप प्राप्त स्वर्ग के भोग क्षीण होने पर जैसे श्रेष्ठ देवी अपने च्यवन के समय शोक करती है, उसी प्रकार वह नौका भी शोक-सा करने लगी, उसके काष्ठ और मुखभाग चूर-चूर हो गये । मेढ़ी भंग भंग हो गई और माल सहसा मुड़ गई । वह नौका पर्वत के शिखर पर चढ़ जाने के कारण ऐसी मालूम होने लगी मानो शूली पर चढ़ गई हो । उसे जल का स्पर्श वक्र होने लगा । एक दूसरे के साथ जुड़े पटियों में तड़-तड़ शब्द होने लगा, लोहे की कीलें नीकल गईं । उसके पटियों के साथ बँधी रस्सियाँ गीली होकर टूट गई वह कच्चे सिकोरे जैसी हो गई । अभागे मनुष्य के मनोरथ के समान वह अत्यन्त चिन्तनीय नौका पर आरूढ़ कर्णधार, मल्लाह, वणिक और कर्मचारी हाय-हाय करके विलाप करने लगे । वह नाना प्रकार के रत्नों और मालों से भरी हई थी । इस विपदा के समय सैकडों मनुष्य रुदन करने लगे। अश्रपात, आक्रन्दन और शोक करने लगे, विलाप करने लगे, उसी समय जल के भीतर विद्यमान एक बड़े पर्वत के शिखर के नौका का मस्तूल और तोरण भग्न हो गया और ध्वजदंड मुड़ गया । नौका के वलय जैसे सैकड़ों टुकड़े हो गए । वह नौका कड़ाक' का शब्द करके उसी जगह नष्ट हो गई, अर्थात् डूब गई। तत्पश्चात् उस नौका के भग्न होकर डूब जाने पर बहुत-से लोग बहुत-से रत्नों, भांडों और माल के साथ जल में डूब गए । सूत्र - ११२
परन्तु दोनों माकन्दीपुत्र चतुर, दक्ष, अर्थ को प्राप्त, कुशल, बुद्धिमान्, निपुण, शिल्प को प्राप्त, बहुत-से पोतवहन के युद्ध जैसे खतरनाक कार्यों में कृतार्थ, विजयी, मूढ़ता-रहित और फूर्तीले थे । अत एव उन्होंने एक बड़ा -सा पटा का टुकड़ा पा लिया । जिस प्रदेश में वह पोतवहन नष्ट हुआ था, उसी प्रदेश में-उसके पास ही, एक रत्न-द्वीप नामक बड़ा द्वीप था । वह अनेक योजन लम्बा-चौड़ा और अनेक योजन के घेरे वाला था । उसके प्रदेश अनेक प्रकार के वृक्षों के वनों से मंडित थे । वह द्वीप सुन्दर सुषमा वाला, प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला, दर्शनीय, मनोहर और प्रतिरूप था अर्थात् दर्शकों को नए-नए रूप में दिखाई देता था । उसी द्वीप के एकदम मध्यभाग में एक उत्तम प्रासाद था । उसकी ऊंचाई प्रकट थी, वह बहुत ऊंचा था । वह भी सश्रीक, प्रसन्नताप्रदायी, दर्शनीय, मनोहर रूप वाला और प्रतिरूप था । उस उत्तम प्रासाद में रत्नद्वीपदेवता नाम की एक देवी रहती थी । वह पापिनी, चंडा-अति पापिनी, भयंकर, तुच्छ स्वभाव वाली और साहसिक थी । उस उत्तम प्रासाद की चारों दिशाओं में चार वनखण्ड थे। वे श्याम वर्ण वाले और श्याम कान्ति वाले थे।
तत्पश्चात् वे दोनों माकन्दीपुत्र पटिया के सहारे तिरते-तिरते रत्नद्वीप के समीप आ पहुँचे । उन माकन्दीपुत्रों को छाह मिली । उन्होंने घड़ी भर विश्राम किया । पटिया के टुकड़े को छोड़ दिया । रत्नद्वीप में ऊतरे । उतरकर फलों की मार्गणा की । ग्रहण करके फल खाए । फिर उनके तेल से दोनों ने आपस में मालिस की । बावड़ी में प्रवेश किया । स्नान किया । बाहर नीकले । एक पृथ्वीशिला रूपी पाट पर बैठकर शान्त हुए, विश्राम लिया और श्रेष्ठ सुखासन पर आसन हुए । वहाँ बैठे-बैठे चम्पा नगरी, माता-पिता से आज्ञा लेना, लवणसमुद्र में ऊतरना, तूफानी वायु का उत्पन्न होना, नौका का भग्न होकर डूब जाना, पटिया का टुकड़ा मिल जाना और अन्त में रत्नद्वीप में आना, इन सब बातों पर बार-बार विचार करते हुए भग्नमनः संकल्प होकर हथेली पर मुख रखकर आर्त्तध्यान में-चिन्ता में डूब गए। सूत्र-११३
तत्पश्चात् उस रत्नद्वीप की देवी ने उस माकन्दीपुत्रों को अवधिज्ञान से देखा । उसने हाथ में ढाल और तलवार ली । सात-आठ ताड़ जितनी ऊंचाई पर आकाश में उड़ी । उत्कृष्ट यावत् देवगति से चलती-चलती जहाँ माकन्दीपुत्र थे, वहाँ आई । आकर एकदम कुपित हुई और माकन्दीपुत्रों को तीखे, कठोर और निष्ठुर वचनों से कहने लगी- अरे माकन्दी के पुत्रों ! अप्रार्थित की ईच्छा करने वालों ! यदि तुम मेरे साथ विपुल कामभोग भोगते हुए रहोगे तो तुम्हारा जीवन है, और यदि तुम नहीं रहोगे तो इस नील कमल, भैंस के सींग, नील द्रव्य की गुटिका
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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