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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/सूत्रांक
अध्ययन-९ - माकन्दी सूत्र - ११०
भगवन् ! यदि श्रमण यावत् निर्वाण को प्राप्त भगवान महावीर ने नौवें ज्ञातअध्ययन का क्या अर्थ प्ररूपण किया है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में चम्पा नगरी थी । कोणिक राजा था । चम्पानगरी के बाहर ईशान-दिक्कोण में पूर्णभद्र चैत्य था । चम्पानगरी में माकन्दी सार्थवाह निवास करता था । वह समृद्धिशाली था । भद्रा उसकी भार्या थी । उसे दो सार्थवाहपुत्र थे । जिनपालित और जितरक्षित । वे दोनों माकन्दीपत्र में एक बार किसी समय इस प्रकार कथासमुल्लाप हुआ
'हम लोगों ने पोतवहन से लवणसमुद्र को ग्यारह बार अवगाहन किया है । सभी बार हम लोगों ने अर्थ की प्राप्ति की, करने योग्य कार्य सम्पन्न किए और फिर शीघ्र बिना विघ्न के अपने घर आए । हे देवानुप्रिय ! बारहवीं बार भी पोतवहन से लवण समुद्र में अवगाहन करना हमारे लिए अच्छा रहेगा । इस प्रकार परस्पर विचार करके अपने मातापिता के पास आकर वे बोले-'हे माता-पिता ! आपकी अनुमति प्राप्त करके हम बारहवीं बार लवणसमुद्र की यात्रा करना चाहते हैं । हम लोग ग्यारह बार पहले यात्रा कर चुके हैं और सकुशल सफलता प्राप्त करके लौटे हैं ।' तब माता-पिता ने उन माकन्दीपुत्रों से कहा-'हे पुत्रो ! यह तुम्हारे बाप-दादा से प्राप्त संपत्ति यावत् बँटवारा करने के लिए पर्याप्त है । अत एव पुत्रों ! मनुष्य सम्बन्धी विपुल ऋद्धि सत्कार के समुदाय वाले भोगों को भोगो । विघ्न-बाधाओं से युक्त और जिसमें कोई आलम्बन नहीं ऐसे लवण समुद्र में उतरने से क्या लाभ है ? हे पुत्रो! बारहवीं यात्रा सोपसर्ग भी होती है । अत एव तुम दोनों बारहवीं बार लवणसमुद्र में प्रवेश मत करो, जिससे तुम्हारे शरीर को व्यापत्ति न हो ।'
तत्पश्चात् माकन्दीपुत्रों ने माता-पिता से दूसरी बार और तीसरी बार भी यहीं बात की । तब माता-पिता जब उन माकन्दीपुत्रों को सामान्य कथन और विशेष कथन के द्वारा समझाने में समर्थ न हुए, तब ईच्छा न होने पर भी उन्होंने अनुमति दे दी । वे माता-पिता की अनुमति पाये हुए माकन्दीपुत्र गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य-चार प्रकार का माल जहाज में भरकर अर्हन्नक की भाँति लवणसमुद्र में अनेक सैकड़ों योजन तक गए। सूत्र - १११
तत्पश्चात् उन माकन्दीपुत्रों के अनेक सैकड़ों योजन तक अवगाहन कर जाने पर सैकड़ों उत्पात उत्पन्न हुए। वे उत्पात इस प्रकार थे-अकाल में गर्जना बिजली चमकना स्तनित शब्द होने लगे । प्रतिकूल तेज हवा चलने लगी । तत्पश्चात् वह नौका प्रतिकूल तूफानी वायु से बार-बार काँपने लगी, बार-बार एक जगह से दूसरी जगह चलायमान होने लगी, बार-बार संक्षुब्ध होने लगी-नीचे डूबने लगी, जल के तीक्ष्ण वेग से बार-बार टकराने लगी, हाथ से भूतल पर पछाड़ी हुई गेंद के समान जगह-जगह नीची-ऊंची होने लगी। विद्याधर-कन्या जैसे पृथ्वीतल के ऊपर उछलती है, उसी प्रकार उछलने लगी और विद्याभ्रष्ट विद्याधरकन्या जैसे आकाशतल से नीचे गिरती है, उसी प्रकार वह नौका भी नीचे गिरने लगी । जैसे महान गरुड़ के वेग से त्रास पाई नाग की उत्तम कन्या भय की मारी भागती है, उसी प्रकार वह इधर-उधर दौड़ने लगी। जैसे अपने स्थानसे बिछड़ी हुई बछेरी बहुत लोगोंके कोलाहलसे त्रस्त होकर इधर-उधर भागती है, उसी प्रकार वह भी इधर-उधर दौड़ने लगी । माता-पिता द्वारा जिसका अपराध जान लिया गया है, ऐसी सज्जन पुरुष के कुल की कन्या के समान नीचे नमने लगी । तरंगों के सैकड़ों प्रहारों से ताड़ित होकर वह थरथराने लगी । जैसे बिना आलंबन की वस्ती आकाश से नीचे गिरती है, उसी प्रकार वह नौका भी नीचे गिरने लगी । जिसका पति मर गया हो ऐसी नव-विवाहिता वधू जैसे आँसू बहाती है, उसी प्रकार पानी से भीगी ग्रंथियों में से झरने वाली जलधारा के कारण वह नौका भी अश्रुपात-सा करती प्रतीत होने लगी।
परचक्री राजा के द्वारा अवरुद्ध हुई और इस कारण घोर महाभय से पीड़ित किसी उत्तम महानगरी के समान वह नौका विलाप करती हुई-सी प्रतीत होने लगी । कपट से किये प्रयोग से युक्त, योग साधने वाली परिव्राजिका जैसे ध्यान करती है, उसी प्रकार वह भी कभी-कभी स्थिर हो जाने के कारण ध्यान करती-सी जान
मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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